विवाहादि शुभ मुहूर्त : महत्व, साधन एवं दोष परिहार

विवाहादि शुभ मुहूर्त : महत्व, साधन एवं दोष परिहार  

महेश चंद्र भट्ट
व्यूस : 14008 | जून 2011

विवाहादि शुभ मुहूर्त : महत्व, साधन एवं दोष परिहार पं. एम. सी. भट्ट विभिन्न मुहूर्तो का उल्लेख मुहूर्त ग्रंथों में विभिन्न शुभ योगों सहित उपलब्ध है। तथापि कुछ जानकारियां अवश्य ही महत्वपूर्ण होती हैं जिनका ध्यान रखा जाना चाहिए। विवाह मेलापक और मुहूर्त साधन जैसे कठिन कार्य में अत्यधिक सावधानी और सजगता की आवश्यकता रहती है। छोटी सी असावधानी अनेक प्रकार के दोषों का सृजन करती है। विद्वान लेखक ने यहां पर उन सभी दोषों का विस्तार से उल्लेख करने के साथ-साथ उनके परिहार की विधि भी विस्तारपूर्वक बताई है। भारतीय ज्योतिष में किसी कार्य विशेष को प्रारंभ एवं संपादित करने हेतु एक निर्दिष्ट शुभ समय होता है, जिसे मुहूर्त कहते हैं।

शुभ मुहूर्त में कार्य प्रारंभ करने से कार्य निर्विघ्न तथा यथाशीघ्र सफल होता है। मुहूर्त शास्त्रो में पंचांग (तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण) गणना के आधार पर शुभ और अशुभ मुहूर्तों का निर्धारण किया जाता है। प्रत्येक कार्य के अनुसार मुहूर्त का प्रारूप भी भिन्न होता है। भारतीय संस्कृति के मुखय प्रतीक षोडश संस्कारों के मुहूर्तों का वर्णन भी मुहूर्त्त शास्त्र में पृथक रूप से किया गया है। साथ ही नींव मुहूर्त, गृह प्रवेश, यात्रा आरंभ तथा जलाशय निर्माण प्रारंभ के मुहूर्त का वर्णन भी मुहूर्त ग्रंथों में उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त तिथि, वार, नक्षत्र आदि के संयोग से भी कतिपय मुहूर्त बनते हैं, जिनमें संस्कार एवं विशिष्ट कार्यों के अतिरिक्त अन्य कार्य किये जा सकते हैं। ऐसे मुहूर्त 'शुभ योग' कहलाते हैं।

मुहूर्त शास्त्र में मुखय रूप से 'शुभ योग' निम्नलिखित हैं :- सिद्धि योग, अमृतसिद्धि योग, सर्वार्थसिद्धि योग, रविपुष्य योग, गुरुपुष्य योग, पुष्कर योग, द्वि-त्रिपुष्कर योग, राज योग, रवि योग तथा कुमार योग। मुहूर्त संबंधी कुछ जानकारियां :

1. अमावस्या तिथि में मांगलिक कार्यों को प्रारंभ नहीं करना चाहिये।

2. रिक्ता तिथियों (चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी) में आजीविका संबंधी किसी भी कार्य को प्रारंभ नहीं करना चाहिये।

3. नंदा तिथियों (प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी) में किसी भी योजना को पारित अथवा क्रियान्वित नहीं करें।

4. रविवार, मंगलवार, एवं शनिवार को मेल-मिलाप एवं संधि के कार्य न करें।

5. कोई भी ग्रह जिस दिन अपनी राशि परिवर्तित करें, उस तिथि और नक्षत्र में किसी भी कार्य की रूपरेखा नहीं बनायें और न ही कोई कार्य प्रारंभ करें।

6. जिस दिन नक्षत्र एवं तिथि का योग 13 आये, उस दिन पारिवारिक अथवा सामाजिक उत्सव अथवा कार्य का आयोजन नहीं करें।

7. जब भी कोई ग्रह उदय या अस्त हो, तो उससे तीन दिन पूर्व और बाद तक भी अपने किसी विशेष कार्य की शुरूआत नहीं करें।

8. अपनी जन्म राशि का और जन्म नक्षत्र का स्वामी जब अस्त हो, वक्री हो अथवा शत्रु ग्रहों के मध्य हो, उस समय में भी निजी जीवन से जुड़े और आय संबंधी क्षेत्रों का विस्तार अथवा योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं करें। बुध ग्रह को अस्त -दोष कम लगता है।

9. तिथि, नक्षत्र एवं लग्न की समाप्ति हो रही हो, उस समय जीवन, मृत्यु और आय से जुड़े किसी कार्य को अंजाम नहीं देना चाहिये।

10. क्षय तिथि को भी त्यागना चाहिये।

11. समीपवर्ती ग्रहण जिस नक्षत्र में हुआ हो, उस नक्षत्र को अगले ग्रहणपर्यन्त शुभ कार्यों से दूर रखा जाता है।

12. जन्म राशि से चौथी, आठवीं, और बारहवीं राशि पर जब चंद्रमा हो, उस समय प्रारंभ किये गये कार्य नष्ट हो जाते हैं।

13. शुभ कार्यों के प्रारंभ में भद्राकाल से बचना चाहिये।

14. चंद्रमा जब कुंभ अथवा मीन राशि में हो, उस समय घर में अग्नि संबंधी वस्तुएं जैसे ईंधन, गैस सिलेंडर, पेट्रोल, अस्त्र-शस्त्र, नये बर्तन, बिजली का सामान अथवा मशीनरी नहीं लानी चाहिये।

15. विवाह के लिये मंगलवार को कन्या का और सोमवार को वर का वरण नहीं करना चाहिये।

16. जन्मवार एवं जन्म नक्षत्र में नये कपड़े पहनना अच्छा होता है।

17. पुष्य नक्षत्र केवल विवाह को छोड़कर अन्य सभी कार्यों में शुभ होता है।

18. देवशयन अवधि में बालक को स्कूल में दाखिला नहीं दिलाना चाहिये।

19. चर (गतिशील, यात्रा संबंधी) कार्यों हेतु चर लग्न (मेष, कर्क, तुला मकर), स्थिर कार्यों (विवाह एवं भवन निर्माण) के लिये स्थिर लग्न (वृषभ, सिंह, वृश्चिक, कुंभ) तथा द्विस्वभाव राशियों का पूर्वार्ध स्थिर कार्यों के लिये प्रयोग किया जा सकता है।

20. घर के किसी बुजुर्ग का श्राद्ध दिवस हो अथवा मृत्यु तिथि हो, उस दिन भी किसी नये कार्य की शुरूआत नहीं करनी चाहिये।

21. साक्षात्कार लेने और देने अथवा परीक्षा फार्म भरने में नंदा और जया तिथियां शुभ मानी जाती है।

22. सूर्य जब बुध और गुरु की राशियों में हो, तो उस समय नये भवन में प्रवेश नहीं करना चाहिये।

23. मंगलवार को धन उधार नहीं लेना चाहिये और बुधवार को देना नहीं चाहिये।

24. मंगलवार को ऋण चुकाना और बुधवार को धन संग्रह करना शुभ होता है।

25. सोमवार और शनिवार को पूर्व दिशा में, गुरुवार को दक्षिण दिशा में, रविवार और शुक्रवार को पश्चिम दिशा में, मंगलवार और बुधवार को उत्तर दिशा में व्यावसायिक अथवा पारिवारिक कार्य हेतु यात्रा नहीं करनी चाहिये। किसी भी व्यक्ति के जीवन स्तर को उठाने के लिये मुहूर्त एक सशक्त माध्यम है। जिन व्यक्तियों की जन्मपत्रिकायें नहीं होती, उनका भविष्य देखने के लिये शुभ मुहूर्त वरदान सिद्ध होते हैं। मुहूर्त की कुंडली के आधार पर दंपत्ति के भावी जीवन का घटनाक्रम बताया जा सकता है। विवाह, मुंडन, गृहारंभादि शुभ कार्यों में मास, तिथि, नक्षत्र, योगादि की शुद्धि के साथ विवाह लग्न की शुद्धि को विशेष महत्व एवं प्रधानता दी गई है।

तिथि को शरीर, चंद्रमा को मन, योग - नक्षत्र आदि को शरीर के अंग तथा लग्न को आत्मा माना गया है। यथा : तिथिः शरीरं मन इन्दुवीर्य विलग्नमात्माऽवयवास्तु- भाद्याः लग्न बल के बिना जो कुछ भी शुभ कार्य किया जाता है, उसका फल वैसे ही व्यर्थ हो जाता है, जैसे ग्रीष्मकाल में बिना जल के नदी। लग्नवीर्य बिना यत्र यत्कर्म क्रियते बुधैः। तत्फलं विलयं याति ग्रीष्मे कुसरिता यथा॥ सभी शुभ कार्यों में लग्न शुद्धि का विशेष महत्त्व है। विवाह लग्न का निश्चय करना हो, तो त्रिविक्रम संहितानुसार, लग्न स्थान में चंद्र तथा सूर्य, शनि, मंगल, राहु, केतु आदि क्रूर ग्रह न हों, लग्न से छठे स्थान में शुक्र, व चंद्र व लग्नेश न हो तथा आठवें स्थान में चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व लग्नेश नहीं होने चाहिये तथा सप्तम स्थान में कोई भी ग्रह नहीं होना चाहिये। सातवें चंद्र और गुरु समफल करते हैं। अर्थात् चंद्र, गुरु का दानादि करने से शांति हो जाती है।

त्याज्या लग्नेऽब्दयो मंदः षष्ठे शुक्रेन्दुलग्नपाः। रन्ध्रे चन्द्रादय पंच, सर्वेऽब्जगुरु समौ॥ परिहार स्वरूप 12वें शनि, तीसरे शुक्र, चतुर्थ में राहु, दशम भाव में मंगल का दोष यथोचित दानादि करने से शांति हो जाती है। विवाह में ग्राह्य शुभ लग्न : मुहूर्त्त ग्रंथों के अनुसार विवाह लग्न काल में 3, 6, 8, 11 वें सूर्य तथा इन्हीं स्थानों (3, 6, 11) में राहु, केतु और शनि भी शुभ हैं। 3, 6 व 11 सिद्धि योग, अमृतसिद्धि योग, सर्वार्थसिद्धि योग, रविपुष्य योग, गुरुपुष्य योग, पुष्कर योग, द्वि-त्रिपुष्कर योग, राज योग, रवि योग तथा कुमार योग जैसे शुभ योगों में संस्कार एवं विशिष्ट कार्यों के अतिरिक्त अन्य सभी कार्य किये जा सकते हैं। पुष्य नक्षत्र केवल विवाह को छोड़कर अन्य सभी कार्यों में शुभ होता है।

जन्म राशि से चौथी, आठवीं और बारहवीं राशि में जब चंद्रमा हो उस समय प्रारंभ किये गये कार्य नष्ट हो जाते हैं। मन, योग - नक्षत्र आदि को शरीर के अंग तथा लग्न को आत्मा माना गया है। यथा : तिथिः शरीरं मन इन्दुवीर्य विलग्नमात्माऽवयवास्तु- भाद्याः लग्न बल के बिना जो कुछ भी शुभ कार्य किया जाता है, उसका फल वैसे ही व्यर्थ हो जाता है, जैसे ग्रीष्मकाल में बिना जल के नदी। लग्नवीर्य बिना यत्र यत्कर्म क्रियते बुधैः। तत्फलं विलयं याति ग्रीष्मे कुसरिता यथा॥ सभी शुभ कार्यों में लग्न शुद्धि का विशेष महत्त्व है। विवाह लग्न का निश्चय करना हो, तो त्रिविक्रम संहितानुसार, लग्न स्थान में चंद्र तथा सूर्य, शनि, मंगल, राहु, केतु आदि क्रूर ग्रह न हों, लग्न से छठे स्थान में शुक्र, व चंद्र व लग्नेश न हो तथा आठवें स्थान में चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व लग्नेश नहीं होने चाहिये तथा सप्तम स्थान में कोई भी ग्रह नहीं होना चाहिये।

सातवें चंद्र और गुरु समफल करते हैं। अर्थात् चंद्र, गुरु का दानादि करने से शांति हो जाती है। त्याज्या लग्नेऽब्दयो मंदः षष्ठे शुक्रेन्दुलग्नपाः। रन्ध्रे चन्द्रादय पंच, सर्वेऽब्जगुरु समौ॥ परिहार स्वरूप 12वें शनि, तीसरे शुक्र, चतुर्थ में राहु, दशम भाव में मंगल का दोष यथोचित दानादि करने से शांति हो जाती है। विवाह में ग्राह्य शुभ लग्न : मुहूर्त्त ग्रंथों के अनुसार विवाह लग्न काल में 3, 6, 8, 11 वें सूर्य तथा इन्हीं स्थानों (3, 6, 11) में राहु, केतु और शनि भी शुभ हैं। 3, 6 व 11 वें मंगल 2, 3, 11 वें चंद्रमा, 3, 6, 7 शुभ और 8वें भाव को छोड़ अन्य भावों में स्थित शुक्र शुभ होता है। ग्यारहवें भाव में सूर्य तथा केंद्र त्रिकोण में गुरु लग्नगत अनेक दोषों का परिहार करते हैं। लग्ने वर्गोत्तमे वेन्दौ द्यूनाथे लाभगेऽथवा।

केंद्र कोणे गुरौ दोषा नश्यन्ति सकलाऽपि॥ जन्म राशि से अष्टमस्थ लग्न : वर कन्या की जन्म राशि या लग्न से चतुर्थ, अष्टम तथा बारहवीं राशिस्थ लग्न अशुभ कहे गये हैं। यथोक्तम् : सुखघ्नं तुर्ममुद्वाहे द्वादश वित्तनाश कृत। जन्म भात् जन्म लग्नाच्च मृत्युदलग्नमष्टमम्॥ परंतु परिहार स्वरूप जन्म राशि या लग्न राशि का स्वामी तथा विवाह लग्न का स्वामी ग्रह समान हो, अथवा मित्र क्षेत्री हो, अथवा अष्टमस्थ लग्न राशि का स्वामी केंद्र स्थित हो अथवा गुर्वादि शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो अष्टम लग्न का दोष दूर होता है। कर्त्तरी दोष : लग्न में पापी ग्रह मार्गी होकर 12 वें भाव में तथा क्रूर अथवा पापी ग्रह वक्री होकर दूसरे भाव में हो, तो पापकर्त्रि दोष होता है।

यह योग दारिद्रय, शोक व मृत्यु तुल्य कष्टकारी होता है। परिहार : पापकर्तरि दोषकारक ग्रह नीच, शत्रु क्षेत्री, अथवा अस्तगत हो, तो इस दोष का परिहार हो जाता है। इसके अतिरिक्त गुरु, शुक्र, बुध इनमें से कोई शुभ ग्रह केंद्र, त्रिकोण में अथवा 2रें या 12 वें भावस्थ गुरु हो तो भी कर्तरि दोष निवारण हो जाता है। अष्टम भौम का परिहार : मंगल अस्तंगत, नीच राशि का (कर्क) या शत्रु राशि (मिथुन एवं कन्या) का होकर अष्टम स्थान में हो, तो दोषकारक नहीं, परंतु लग्नेश होकर अष्टगत नहीं होना चाहिए। अस्तगते नीचगे भौमे शत्रुक्षेत्रगतेऽपि वा। कुजाष्टमोद्र्भवो दोषो न किंचिदापि विद्यते॥ छठे, बारहवें चंद्र का परिहार, नीच राशि, शत्रु राशि या नीच राशिगत चंद्रमा 6 या 12वें स्थानस्थ होना दोषपूर्ण नहीं माना गया। जैसे - वृश्चिक, मिथुन, कन्या राशि 3, 6 नीचराशिगते चन्द्रे नीचांशगतेऽपि वा, चन्द्रे षष्ठारि रिष्फस्थे दोषो नास्ति न सशंयः। परंतु लग्नेश होकर चंद्र छठे, आठवें नहीं होना चाहिये।

लग्नस्थ चंद्र का परिहार- ''कर्किगोस्थः पूर्णो विधुस्तनौ'' व्रतबन्धोक्त अनुसार वृष, कर्क एवं पूर्ण चंद्रमा या शुभग्रह से दृष्ट हो तो लग्न में दोषकारक नहीं होता। षष्ठाष्टमस्थ शुक्रापवाद : नीच एवं शत्रु राशिगत शुक्र छठे, आठवें हो तो दोषकारक नहीं, परंतु लग्नेश होकर इन भावों में न हो। जैसे नीच राशिगते शुक्रे शत्रु क्षेत्रगतेऽपि वा। भृगु षटकोतिथतो दोषो नास्ति तत्र न संशयः॥ सप्तम भावस्थ चंद्र गुरु - सप्तम भाव में यद्यपि सभी ग्रह वर्जित कहे हैं परंतु चंद्र गुरु का परिहार है। ''चंद्र चान्द्री शुक्रजीवा यामित्रे शुभकारकाः।' 'मुहूर्त्तगणपति' अनुसार विवाहादि शुभ कार्य के लग्न में, केंद्र, त्रिकोण में गुरु, शुक्र एवं बुध एवं ग्यारहवें भाव में चंद्र या सूर्य अथवा सप्तमेश हो, तो अनेक दोषों का नाश हो जाता है।

वेध दोष परिहार : पंचशलाका चक्रानुसार विवाह नक्षत्र का क्रूर ग्रह द्वारा वेध हो जाने पर विवाहित नक्षत्र सर्वथा त्याज्य माना जाता है। परंतु गुरु, बुध आदि सौम्य ग्रहों का चरण वेध (पहले व चौथे चरण के मध्य तथा दूसरे व तीसरे चरण के मध्य) ही अशुभ माना है। युतिदोष परिहार : पाप एवं क्रूर ग्रह की युति त्याज्य मानी जाती है। परंतु यदि चंद्रमा उच्चस्थ, स्वक्षेत्री या मित्रक्षेत्री (वृष, कर्क, मिथुन, सिंह एवं कन्या) राशि का हो तो युतिदोष अविचारणीय होता है। यथा : स्वक्षेत्रगः स्वोच्चगो व मित्रक्षेत्रगतो विधुः। युति दोषाय न भवेत् दम्पत्योः श्रेयसेतदा॥

दग्धा तिथि परिहार : विवाह लग्न समय केंद्र त्रिकोणगत गुरु हो एवं एकादश (11वां) भाव शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट हो, तो दग्धातिथि का दोष नहीं रहता। कश्यपर्वि अनुसार : लग्न से केंद्र, त्रिकोण में गुरु, शुक्र या बुधादि सौम्य ग्रह हो, तो समस्त दोषों का ऐसे परिहार हो जाता है, जैसे भगवान विष्णु के स्मरण मात्र से पापों का नाश हो जाता है। काव्यो गुरु वर्ग सौम्यो वा यदा केन्द्र त्रिकोणगाः। नाशयन्ति अखिलान् दोषान् पापानि व हरिस्मृतिः॥



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