स्वामी विवेकानंद, आदिशंकराचार्य

स्वामी विवेकानंद, आदिशंकराचार्य  

महेश चंद्र भट्ट
व्यूस : 13250 | फ़रवरी 2011

भगवद् दृष्टा युगपुरुष स्वामी विवेकानंद, आदिशंकराचार्य पं. महेश चंद्र भट्ट आध्यात्मिक और धार्मिक मूल्यों का अधोपतन तथा चारित्रिक और नैतिक सिद्धांतों का अवमूल्यन जब-जब होता है तब-तब महान दृष्टा, संत, समाजसुधारक, अध्यात्म के उद्बोधक संत पुरुष इस धरा पर आविर्भूत होते हैं और धर्म का अभ्युदय करते हैं। ऐसे ही दो भारतीय संतों का जीवन वृत्त और उनके वृहत्तर कार्य क्षेत्र का चित्रण इस लेख में किया गया है। जनमानस की जीवन-पद्धति को शक्तिशाली बनाने, उसका पुनरुद्धार करने, आध्यात्मिक मूल्यों की पुर्नस्थापना करने और सनातन धर्म के सिद्धांतों के निरंतर और सतत शाश्वत प्रचार करने के निमित्त युगपुरुष अपने मस्तिष्क और अपनी शक्ति को न्यौछावर करते रहे हैं। उनमें विवेकानंद और आदिशंकराचार्य के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को धनु लग्न एवं वृश्चिक नवांश में कलकत्ता के एक कायस्थ परिवार में हुआ। माता-पिता ने इनका नाम नरेद्रनाथ दत्त रखा। उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट में अधिवक्ता थे। वे सामान्यतः सामाजिक एवं धर्म से संबंधित मुकदमों को लड़ा करते थे। वहीं मां भुवनेश्वरी देवी धार्मिक एवं भगवान में अत्यधिक विश्वास करने वाली महिला थी। भगवान शिव इनके इष्ट थे। बालक नरेंद्रनाथ दत्त पर अपने माता एवं पिता दोनों का ही प्रभाव पड़ा था।

उन्होंने जहां धर्म एवं ध्यान के बारे में अपनी माता से जाना, वहीं सामाजिक एवं धार्मिक समस्याओं को अपने पिता के माध्यम से समझा। वे बचपन से ही पढ़ने-लिखने में बहुत होशियार थे। उन्हें दर्शन, इतिहास, सामाजिक विज्ञान तथा साहित्य में छात्रवृत्ति प्राप्त हुई। उनकी बचपन से ही उपनिषद्, भगवद् गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों में रुचि थी। साथ ही उन्हें संगीत की भी अच्छी शिक्षा-दीक्षा प्राप्त हुई। शिक्षा प्राप्त करने के साथ ही वे अपने शरीर का भी पूरा ध्यान रखते थे। नित्य व्यायाम एवं खेलकूद के जरिये अपने शरीर को वलिष्ठ रखना भी उनका एक शौक था। स्वामी विवेकानंद ने धर्म को सामाजिक संगठन और सहयोग की मूल शक्ति माना। उनके अनुसार प्रत्येक आत्मा ही अव्यक्त ब्रह्म हैं। बाह्य एवं अंतः प्रकृति दोनों का नियमन कर इस अंतर्निहित ब्रह्म स्वरूप को अभिव्यक्त करना ही जीवन का ध्येय है। विद्याध्ययन के दौरान ही नरेंद्रनाथ ने पाश्चात्य दर्शन, इतिहास एवं यूरोपियन राष्ट्रों के बारे में जाना। उनका बौद्धिक स्तर बहुत उन्नत हो चुका था। वे हरबर्ट स्पेंसर, जॉन स्टुअर्ट मिल, जॉर्ज डब्ल्यू.एफ., हीगल, आर्थर स्कोपेनहावर, डेविड ह््यूम इत्यादि विचारकों से बहुत प्रभावित थे। इन्हीं दिनों नरेंद्र का संपर्क ब्रह्म समाज से हुआ। उन्हें जिस ज्ञान प्राप्ति की प्यास थी, शायद उसे तृप्त करना ब्रह्म समाज के सामर्थ्य की बात नहीं थी।

नवंबर 1881 में उनका रामकृष्ण परमहंस से मिलना हुआ। रामकृष्ण परमहंस नरेंद्र को देखते ही यह समझ गये कि यह बालक कोई साधारण व्यक्ति नहीं है, रामकृष्ण परमहंस उनकी जिज्ञासा से भली-भांति परिचित थे और धैर्य के साथ उनके प्रश्नों के उत्तर दिया करते थे। नरेंद्र ने रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु स्वीकार कर लिया । सन् 1885 में नरेंद्र को रामकृष्ण परमहंस ने निर्विकल्प समाधि का अनुभव करवाया, मां काली से साक्षात् करवाया तथा नरेंद्र अवतार समाधि में लीन हो गये। उन्होंने 31 मई 1893 को शिकागो में आयोजित धर्म सम्मेलन में सारगर्भित व्याखयान दिये और अमेरिका में वेदांत समितियां स्थापित की। अमेरिका के पश्चात् 1895 में इंग्लैंड में उन्होंने अपने व्याखयानों से सभी को भारतीय धर्म और दर्शन का ज्ञान करवाया। स्वामी विवेकानंद के विचारों को तात्कालिक सभी पाश्चात्य विद्वानों ने सराहा। स्वामी विवेकानंद के दर्शन के तीन प्रमुख स्रोत हैं। प्रथम उनके द्वारा आगम और निगम का अध्ययन, द्वितीय अपने आध्यात्मिक गुरु रामकृष्ण परमहंस का संपर्क और तृतीय अपने जीवन का अनुभव। इन तीनों ही माध्यमों से स्वामी विवेकानंद के दर्शन एवं उनके द्वारा दी जाने वाली शिक्षाओं का पता चलता है। उनकी रचनाओं का शुद्ध दार्शनिक अंश ज्ञानयोग, पांतजलि सूत्रों पर भाष्य एवं वेदांत दर्शन पर भारत तथा पश्चिमी देशों में दिये गये उनके भाषण हैं। स्वामी विवेकानंद ने पहली बार वेदांत दर्शन को व्यावहारिक रूप देने का अथक प्रयास किया। वे इतने परम ज्ञानी थे कि उन्होंने संपूर्ण पाश्चात्य दर्शन का भी अध्ययन किया। उसमें भी उनकी गहरी पैठ थी। पश्चिमी देशों की औद्योगिक क्रांति से भी वे भली भांति परिचित थे।

वे हर संस्कृति को बड़े ही आदर की दृष्टि से देखते थे। वास्तव में विवेकानंद के चिंतन में सार्वदेशिकता व्याप्त थी। वेदांत के आधार पर वे एक ऐसा दर्शन विकसित करना चाहते थे, जो समस्त संघर्षों को दूर करके मानव जाति को बहुमुखी संपूर्णता के उस स्तर तक पहुंचा सके, जो उसे प्राप्त होना चाहिए। धर्म के संबंध में विवेकानंद के विचार बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक दृष्टि से निर्धारित हुए थे। धर्म उनकी दृष्टि से एक प्रबल शक्ति थी। स्वामी विवेकानंद ने धर्म को सामाजिक संगठन और सहयोग की मूल शक्ति माना। उनके अनुसार प्रत्येक आत्मा ही अव्यक्त ब्रह्म हैं। बाह्य एवं अंतः प्रकृति दोनों का नियमन कर इस अंतर्निहित ब्रह्म स्वरूप को अभिव्यक्त करना ही जीवन का ध्येय है। उनका कहना था कि कर्म, भक्ति, अथवा ज्ञान योग में से किसी के द्वारा अथवा एक से अधिक संसाधनों से या फिर सबके सम्मिलित प्रयास के द्वारा यह ध्येय प्राप्त कर लो और मुक्त हो जाओ। यही धर्म का सर्वस्व है। मत-मतांतरविधि और अनुष्ठान ये सब गौण है। स्वामी विवेकानंद ने धर्म को विज्ञान बताया है। जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञान भौतिक जगत के नियमों का अनुसंधान करता है, उसी प्रकार धर्म नैतिक और तत्वमीमांसीय जगत् के सत्यों से संबंधित है और मनुष्य के आंतरिक स्वभाव के भव्य नियमों की खोज करता है। समस्त ज्ञान ही धर्म है और समस्त ज्ञान ही विज्ञान है। विवेकानंद उन विचारकों में थे जो यह मानते थे कि सामाजिक प्रकृति के साधन के रूप में धर्म की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। धर्म के संबंध में भारत में फैले हुए भ्रम को दूर करने का उनका पूरा प्रयास था। वे हिंदू धर्म के सबसे बड़े प्रशंसक थे और यही बात उन्होंने विश्व धर्म सम्मेलन शिकागो में भी कही थी।

स्वामी विवेकानंद के दर्शन के तीन प्रमुख स्रोत हैं। प्रथम उनके द्वारा आगम और निगम का अध्ययन, द्वितीय अपने आध्यात्मिक गुरु रामकृष्ण परमहंस का संपर्क और तृतीय अपने जीवन का अनुभव। आदिशंकराचार्य आदिशंकराचार्य ईसा की सातवीं शताब्दी में अवतरित हुए। शिवगुरु नामक ब्राह्मण की पत्नी विशिष्टा देवी ने एक पुत्र को जन्म दिया था, जिसे शंकर कहा गया। मान्यता है कि बालक शंकर के रूप में भगवान सदाशिव ने ही अवतार लिया था। जब प्रचलित धर्म गं्रथों में भटकाव आने लगा, तो इससे सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था चरमरा गई। कितने ही छोटे-मोटे संप्रदाय मत-मतांतर उठ खड़ें हुए। ऐसे में एक ऐसे व्यक्तित्व की आवश्यकता थी, जो धर्म के आधार पर चल रहे भेदभाव को समाप्त करे। बालक शंकर ने इस उद्देश्य के लिए अपना जीवन लगा दिया। इसके लिए उन्होंने अपनी माता का परित्याग करने में भी संकोच नहीं किया। वे ऐसे सद्गुरु की तलाश में निकल पड़े, जो शास्त्र का ज्ञाता हो और जिनकी अद्वैत ब्रह्मतत्व में अनन्य निष्ठा भी हो। महान तपस्वी गोविंदपाद ने शंकर की जीवन धारा को बदल दिया। उनकी आज्ञा से ही वह 'ब्रह्मसूत्र' पर भाष्य लिखने काशी गये। एक दिन काशी में एक स्त्री अपने पति के शव को रास्ते में रखकर अंतिम संस्कार के लिए लोगों से सहायता मांग रही थी। आचार्य शंकर ने उस महिला से शव को एक ओर खिसका लेने का आग्रह किया। महिला का जबाव था, 'पुत्रः! इसे अपने आप एक ओर खिसक जाने के लिए कह दो।' शंकर ने कहा, इसमें हिलने-डुलने की शक्ति कहां! स्त्री ने पूछा, 'जब यह आदि अंतहीन प्रकृति शक्ति के बिना हिल-डुल सकती है, तो यह शव क्यों नहीं हिल-डुल सकता?' शंकर असमंजस में पड़ गये।

वे कुछ सोच पाते कि वहां से शव और स्त्री दोनों ही अदृश्य हो गये। वे समझ गये कि मां अन्नपूर्णा उन्हें यह समझाने आयी थी कि निर्गुण-निराकार से व्यवहार नहीं चलता, व्यवहार के लिए तो सगुण-साकार तत्व जरूरी है। इस घटना ने उन्हें 'व्यवहार' अर्थात् संसार के बारे में विचार करने को विवश कर दिया। शंकर ने व्यावहारिक और पारमार्थिक सत्य को समझाया। उन्होंने कहा कि व्यावहारिक वह है जो दिखाई दे रहा है, जबकि पारमार्थिक वह है, जो वास्तव में सही है। जैसे हम अक्सर कहते हैं कि सूर्योदय या सूर्यास्त को देखना व्यावहारिक है, जबकि यह जानना कि सूर्य उदय या अस्त नहीं होता, पारमार्थिक है। शंकर ने कहा कि इसी तरह ब्रह्म पारमार्थिक है, लेकिन उनके अन्य स्वरूप जो हमें दिखाई दे रहे हैं, वह व्यावहारिक है। उनका कहना था कि ब्रह्म के अलावा कुछ भी नहीं, सब उसके रूप हैं। निष्काम कर्म और निष्काम उपासना से अंतःकरण शुद्ध होता है। फल-स्वरूप वह योग्यता आती है, जिसमें अद्वैत तत्व टिक पाता है। यह समस्त सृष्टि परमात्मा का ही रूप है। लेकिन पारमार्थिक सत्य और व्यावहारिक सत्य में अक्सर संतुलन बिगड़ जाता है। इससे ईर्ष्या, द्वेष, ऊंच-नीच आदि का भाव बना रहता है। कहते हैं कि एक बार मार्ग में नशे में चूर एक व्यक्ति के स्पर्श से शंकर बचना चाहते थे। वह मार्ग के एक ओर खड़े हो गये। इस पर वह व्यक्ति बोला, ''कौन किसका स्पर्श करेगा, जब एक तत्व के अलावा दूसरा कुछ है ही नहीं।

आत्मा का न तो कोई स्पर्श कर सकता है और न ही आत्मा किसी का स्पर्श करती है।'' अद्वैत तत्व का प्रचार-प्रसार करने निकले आचार्य इससे लज्जित हो गये। सामने देखा तो भगवान विश्वनाथ साक्षात् खड़े थे। इसके बाद शंकर ने गुरु आज्ञा से प्रस्थानत्रयी ब्रह्मसूत्र, एकादशोपनिषद् और श्रीमद्भगवद्गीता पर भाष्य लिखकर श्रुतिसम्मत अद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन किया। अपने समय के सभी मतवादों के आचार्यों से शंकर ने शास्त्रार्थ किया तथा उन्हें यह समझाया कि जीवन का लक्ष्य सांसारिक बंधनों से मुक्ति है। उन्होंने खंडित मंदिरों का जीर्णोद्धार कर उनमें मूर्तियों की स्थापना की। उनकी रची स्तुति संकेत देती है कि वे विभिन्न रूपों में तत्व का ही दर्शन किया करते थे। जब आचार्य को यह ज्ञात हुआ कि मां विशिष्टा देवी अंतिम सांसें गिन रही है, तो वे तत्काल वहां पहुंचे। उनके समक्ष इष्ट श्रीविष्णु का स्मरण किया। आचार्य शंकर ने केवल 32 वर्ष की अल्पायु में कई ऐसे कार्य किये जिसकी बदौलत उन्हें जगद्गुरु कहा गया है। श्रृंगेरी मठ में 'बहुजन हिताय' देवी सरस्वती की प्रतिष्ठा की। वर्णाश्रम धर्म की पुनः स्थापना की। मोक्ष धर्म के प्रचारार्थ सन्यासियों का संगठन किया। धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए श्री आदिशंकराचार्य ने चारों धामों में क्रमशः शारदा मठ, गोवर्धन मठ, ज्योतिर्मठ और श्रृंगेरी मठ की स्थापना की। वेदों के संरक्षण और प्रचार-प्रसार का दायित्व योग्य शिष्यों को सौंपा। वैदिक धर्म की स्थापना और अद्वैत तत्व का सभी में दर्शन कराने के लिए अपने सर्वस्व का समर्पण करने वाला महान पुरुष भारत को जगद्गुरु के रूप में पुनः प्रतिष्ठित कर केदारनाथ में अपने मूल स्वरूप सदाशिव में सशरीर समा गया। आदिशंकर ने व्यावहारिक और पारमार्थिक सत्य को समझाया। उन्होंने कहा कि व्यावहारिक वह है जो दिखाई दे रहा है, जबकि पारमार्थिक वह है, जो वास्तव में सही है। उनका कहना था कि ब्रह्म के अलावा कुछ भी नहीं, सब उसके रूप हैं। निष्काम कर्म और निष्काम उपासना से अंतःकरण शुद्ध होता है।



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