विभिन्न उपासकों एवं भक्तों की ईश्वर प्राप्ति की रोचक कथाएं

विभिन्न उपासकों एवं भक्तों की ईश्वर प्राप्ति की रोचक कथाएं  

रश्मि चैधरी
व्यूस : 8930 | फ़रवरी 2011

विभिन्न उपासकों एवं भक्तों की ईश्वर प्राप्ति की रोचक कथाएं रश्मि चौधरी प्रस्तुत लेख में पुराणों के आधार पर कुछ रोचक ऐतिहासिक कथाओं का उल्लेख किया गया है। इसके द्वारा पाठकगणों को यह जानकारी मिलेगी कि किस प्रकार राजा विक्रमादित्य एवं उनके वंशजों को ईश्वर प्राप्ति हुई और कैसे वे भगवद्कृपा के भागी बन सके। राजा विक्रमादित्य की कथा : प्राचीन काल के अग्निवंशीय राजाओं में राजा शंख का उल्लेख मिलता है। उसने वीरमती नामक एक देवांगना से गंधर्व सेन नामक पुत्र को प्राप्त किया। पुत्र के जन्म समय आकाश से पुष्पवृष्टि हुई तथा शीतल मंद सुगंध वायु बहने लगी। उसी समय शिष्यों सहित 'शिवदृष्टि' नामक एक ब्राह्मण तपस्या के लिये वन में गये और शिव की आराधना से वे शिवस्वरूप हो गये। तीन हजार वर्ष पूर्ण होने पर जब कलियुग का आगमन हुआ, तब शकों के विनाश और आर्य धर्म की वृद्धि के लिये वे शिवदृष्टि ही कैलाश पर्वत से भगवान शंकर की आज्ञा पाकर पृथ्वी पर 'विक्रमादित्य' नाम से प्रसिद्ध हुये। वे बचपन से महान, बुद्धिमान तथा माता-पिता को आनंद देने वाले थे। बुद्धि विशारद विक्रमादित्य पांच वर्ष की बाल्यावस्था में ही तप करने वन को चले गये।

बारह वर्षों तक तप करने के उपरांत उन्हें ईश्वर प्राप्ति हुई और वे ऐश्वर्य संपन्न हो गये। उन्होंने 'अम्बावती' नामक दिव्य नगरी में आकर बत्तीस मूर्तियों से समन्वित, भगवान शिव द्वारा अभिरक्षित, रमणीय और दिव्य सिंहासन को सुशोभित किया। भगवती पार्वती द्वारा प्रेषित एक वैताल उनकी रक्षा में सदैव तत्पर रहता था। उस वीर राजा विक्रमादित्य ने महाकालेश्वर में जाकर देवाधिदेव महादेव की पूजा- अर्चना की और अनेक व्यूहों से परिपूर्ण धर्म सभा का निर्माण किया। उसने अनेक लताओं से पूर्ण, पुष्पान्वित स्थान पर अपने दिव्य सिंहासन को स्थापित किया तथा वेद-वेदांग पारंगत मुखय ब्राह्मणों को बुलाकर विधिवत् उनकी पूजा कर उनसे अनेक धर्म-गाथाएं सुनीं। उसी समय 'बेताल' नामक देवता ब्राह्मण का रूप धारण कर 'आपकी जय हो' ऐसा कहते हुए वहां आया और राजा का अभिवादन कर आसन पर बैठ गया। कालांतर में इसी रूद्र स्वरूप बैताल द्वारा ऐतिहासिक रोचक आखयान विक्रमादित्य को सुनाये गये। विक्रम बेताल की इन्हीं कथाओं को ''बैताल पंचविशति'' के नाम से संग्रहीत भी किया गया।

तीन हजार वर्ष पूर्ण होने पर जब कलियुग का आगमन हुआ, तब शकों के विनाश और आर्य धर्म की वृद्धि के लिये वे शिवदृष्टि ही कैलाश पर्वत से भगवान शंकर की आज्ञा पाकर पृथ्वी पर 'विक्रमादित्य' नाम से प्रसिद्ध हुये।

राजा शालिवाहन तथा ईसा मसीह की कथा - राजा विक्रमादित्य के स्वर्गलोक चले जाने के पश्चात् बहुत से राजा हुये। उस समय भारतवर्ष में अठारह राज्य थे। लगभग एक सौ वर्ष व्यतीत हो जाने पर शक आदि विदेशी राजा अनेक लोगों के साथ सिंधु नदी को पार कर आर्य देश में आये। उन्होंने आर्यों को जीतकर उनका धन लूट लिया और वापस अपने देश को लौट गये। इसी समय विक्रमादित्य का पौत्र राजा 'शालिवाहन' सिंहासन पर आसीन हुआ। उसने शक, चीन आदि देशों की सेना पर विजय प्राप्त की, उसने सिंधु प्रदेश को आर्यों का उत्तम स्थान निर्धारित किया और मलेच्छों के लिये सिंधु के उस पार का प्रदेश नियत किया। एक समय की बात है, वह शकाधीश शालिवाहन हिम शिखर पर गया। उसने हूण देश के मध्य स्थित पर्वत पर एक दिव्य सुंदर पुरुष को देखा। उसका शरीर गोरा था और उसने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उस व्यक्ति को देखकर शकराज ने प्रसन्नता से पूछा, ''आप कौन हैं?'' उसने कहा - 'मैं ईशपुत्र हूं। राजा ने पूछा- आपका कौन सा धर्म है? ईशपुत्र ने कहा - महाराज, सत्य का विनाश हो जाने पर मर्यादा रहित म्लेच्छ प्रदेश में मै मसीह बनकर आया और दस्युओं के मध्य ईशा मसी नामक की एक कन्या उत्पन्न हुई, उसी को दस्युओं से प्राप्त कर मैंने मसीहत्व प्राप्त किया। मैंने म्लेच्छों में जिस धर्म की स्थापना की, उसे सुनिये। सबसे पहले मानस और दैहिक मल को निकालकर शरीर को पूर्णतया निर्मल कर लेना चाहिये। फिर इष्ट देवता का जप करना चाहिये, सत्य वाणी बोलनी चाहिये, न्याय से चलना चाहिये और मन को एकाग्रकर सूर्यमंडल में स्थित परमात्मा की पूजा करनी चाहिए क्योंकि ईश्वर और सूर्य में समानता है। परमात्मा भी अचल है और सूर्य भी अचल है। सूर्य अनित्य भूतों के सार का चारो ओर से आकर्षण करते हैं। हे भूपाल। ऐसे कृत्य से मेरे हृदय में नित्य विशुद्ध कल्याणकारी ईश मूर्ति प्राप्त हुई है। इसलिये मेरा नाम 'ईशा मसीह' प्रतिष्ठित हुआ। यह सुनकर राजा शालिवाहन ने उस म्लेच्छ पूज्य को प्रणाम किया और उनकी कृपा से अपने राज्य में आकर अश्वमेध यज्ञ किया और साठ वर्ष तक राज्य करके अंत में स्वर्गलोक चला गया। राजा भोज की कथा : शालिवाहन के वंश में दस राजा हुये। उन्होंने पांच सौ वर्षों तक शासन किया। तदन्तर भूमंडल पर धन-मर्यादा लुप्त होने लगी। शालिवाहन के वंश में अंतिम दसवें राजा 'भोजराजा' हुये। उन्होंने देश की मर्यादा क्षीण होते देख दिग्विजय के लिये प्रस्थान किया। उन्होंने सिंधु नदी को पारकर गांधार, म्लेच्छ और काश्मीर के राजाओं को परास्त किया तथा उनका कोष छीनकर उन्हें दंडित भी किया। उसी समय राजा भोज ने मरूस्थल में विद्यमान महादेव जी का दर्शन किया। महादेव जी को पंचगव्य मिश्रित गंगाजल से स्नान कराकर चंदन आदि से भक्ति पूर्वक उनका पूजन किया। भोजराज ने कहा -'हे मरूस्थल में निवास करने वाले तथा म्लेच्छों से गुप्त शुद्ध सच्चिदानंद स्वरूप वाले गिरिजापते। आप त्रिपुरासुर के विनाशक तथा नानाविध माया शक्ति के प्रवर्तक हैं। मैं आपकी शरण में आया हूं।

आप मुझे अपना दास समझें। मैं आपको नमस्कार करता हूं।'' इस स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने राजा से कहा- हे भोजराज ! तुम्हें महाकालेश्वर तीर्थ में जाना चाहिये, इस दारूण प्रदेश में आर्य-धर्म है ही नहीं। मेरी कृपा से तुम विशुद्ध हो अतः तुम्हें इस आर्य प्रदेश में नहीं आना चाहिये। भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर राजा भोज अपनी सेना के साथ वापस अपने देश को चला गया। राजा भोज ने ही शिव की कृपा प्राप्त करके द्विजवर्ग के लिये संस्कृत वाणी का प्रचार किया और शूद्रों के लिये प्राकृत भाषा चलाई। इन्होंने पचास वर्षों तक राज्य करके अंत में स्वर्ग लोक प्राप्त किया। कलिकाल की कथा : भोजराज के स्वर्गारोहण के पश्चात् उसके वंश में सात राजा हुये, किंतु वे सभी अल्पायु थे, जो तीन सौ वर्ष के भीतर ही मर गये। तदंतर अग्निवंश का विस्तार हुआ और गांवों और जनपदों में बहुत से बलवान राजा हुये। उनके राज्य में प्रजा अग्नि होत्र करने वाली, गौ, ब्राह्मण का हित चाहने वाली तथा द्वापर के समान धर्म कार्य करने में निपुण थी। सर्वत्र द्वापर युग ही मालूम पड़ता था। द्वापर के समान ऐसा धर्माचरण देखकर 'कलि' ने भयभीत होकर म्लेच्छों के साथ नीलाचल पर्वत पर जाकर हरि की शरण ली। वहां उसने बारह वषा तक प्रयत्न पूर्वक कठोर तपश्चर्या की। इस ध्यान योगात्मक तपश्चर्या से उसे भगवान श्री कृष्ण का दर्शन हुआ। कलि ने स्तुति करते हुये श्रीकृष्ण से कहा- 'हे भगवान् ! आप मेरा साष्टांग दंडवत प्रणाम स्वीकार करें। हे कृपानिधे ! मैं आपकी शरण में आया हूं। आप सभी पापों का विनाश करते हैं। सभी कालों का निर्माण करने वाले आप ही हैं। सतयुग में आप गौर वर्ण के थे। त्रेता में रक्तवर्ण तथा द्वापर में पीतवर्ण के थे। मेरे समय (कलियुग) में आप कृष्ण स्वरूप हैं। मेरे पुत्रों ने म्लेच्छ होने पर भी आर्य धर्म स्वीकार किया है। मेरे राज्य में प्रत्येक घर में द्यूत, मद्य, स्त्री हास्य, स्वर्ण आदि होना चाहिये, परंतु अग्निपथ में पैदा हुये क्षत्रियों ने उनका विनाश कर दिया है। हे जनार्दन। मैं आपके चरण-कमलों की शरण में आया हूं, मेरी रक्षा कीजिये।''

श्रीकृष्ण मुस्कराकर कहने लगे- कलिराज, मैं तुम्हारी रक्षा के लिये अंशरूप में महावती में अवतीर्ण होऊंगा, वह मेरा अंश भूमि में आकर महाबली अग्निवंशीय राजाओं का विनाश करेगा और म्लेच्छ वंशीय राजाओं की प्रतिष्ठा करेगा। यह कहकर भगवान अदृश्य हो गये और राधा के साथ श्रीकृष्ण का साक्षात् दर्शन पाकर कलिराज भी अत्यंत प्रसन्न हो गया। कदाचित् कलिराज की इसी प्रार्थना के कारण कलियुग में सर्वत्र मोह-माया, लोभ-लिप्सा एवं पाप कर्मों का इतना अधिक विस्तार हो चुका है, जिसका समूल विनाश करने के लिए शायद फिर किसी उपासक की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर प्रभु को पुनः पृथ्वी पर अवतीर्ण होना पड़ेगा।



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