वास्तु शिक्षा

वास्तु शिक्षा  

प्रमोद कुमार सिन्हा
व्यूस : 7282 | फ़रवरी 2011

प्र0- दिशा का ग्रहों से क्या संबंध है ?

उ0- वास्तु विज्ञान में आठ दिशाओं अर्थात उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम तथा चार कोणीय दिशाओं उतर-पूर्व (ईशान), दक्षिण-पूर्व (आग्नेय), दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), और उत्तर-पश्चिम (वायव्य) के आधार पर पूरे वास्तु की गणना की जाती है। प्रत्येक दिशा पर अलग-अलग देवताओं एवं ग्रहों का प्रभाव रहता है। जिस प्रकार ग्रहों के अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव मानव-जीवन पर पडते हैं, उसी प्रकार ग्रह अपने शुभ और अशुभ प्रभाव से वास्तु की दिशाओं को प्रभावित कर उस मकान में रहने वालो के तत्संबंधी प्रभाव में कमी या वृद्धि करते हैं।

पूर्व दिशा-पूर्व दिशा का स्वामी इन्द्र एवं प्रतिनिधि ग्रह सूर्य है। सृष्टि के सृजन में सूर्य का विशेष महत्व है। इनसे ही समस्त सृष्टि में प्राणियों एवं वनस्पतियों की उत्पत्ति, पोषण एवं प्रलय होते हैं। जिस घर का मुखय द्वार पूर्व की ओर हो, तथा पूर्व की ओर बड़ी-बड़ी खिडकियां एवं झरोखे हों तो उसमें वास करने वाले को अच्छे स्वास्थ्य, पराक्रम, तेजस्विता, सुख-समृद्धि, बुद्धि, विवेक, धन-धान्य, भाग्य एवं गौरवपूर्ण जीवन की प्राप्ति होती है।

अतः भवन-निर्माण में पूर्व दिशा का स्थान खुला एवं इस स्थान को नीचा रखना चाहिए। घर के पूर्वी भाग में कूड़ा-कचरा, पत्थर और मिट्टी का ढेर हो तो संतान की हानि, विकलांग संतान का जन्म एवं पिता के सुख में कमी होती है। यश् और प्रतिष्ठा में भी कमी आती है।

इसके अतिरिक्त पूर्व की दिशा में दोष रहने पर धन का अपव्यय, ऋण, मानसिक अशांति, नेत्र विकार, लकवा, रक्तचाप, सिर दर्द या सिर से संबंधित रोग, हड्डी के टूटने, दांत, जीभ, मुंह एवं हृदय से संबंधित बीमारियां देखने को मिलती है। पश्चिम दिशा-पश्चिम दिशा का स्वामी वरूण, आयुध पाश एवं प्रतिनिधि ग्रह शनि है। शनि काल हैं।

शनि अवधि है। शनि दुर्भाग्य एवं सौभाग्य दोनों का प्रतिनिधित्व करता है। पश्चिम दिशा सफलता, प्रसिद्धि, संपन्नता तथा उज्जवल भविष्य प्रदान करती है। यदि घर का प्रवेश द्वार पूर्व में हो, वह पूर्ण स्वच्छ और साफ हो तथा पश्चिम में मिट्टी, चट्टान आदि हो तो गृह स्वामी की आमदनी ठीक रहती है। पश्चिम दिशा में दोष रहने पर मन चंचल रहता है।

मानसिक तनाव बना रहता हैं और किसी भी कार्य में पूर्ण रूप से सफलता नही मिलती। भवन में घर या वर्षा का जल पश्चिम दिशा से जाता हो तो पुरूष लंबी बीमारियों के शिकार होते हैं। घर की पश्चिम दिशा में दरारें रहने पर गृह स्वामी के गुप्तांग में बीमारी तथा आमदनी अव्यवस्थित रहने की संभावना बनती है। पश्चिम दिशा में अग्नि का स्थान हो तो गर्मी, पित्त और मस्से की शिकायतें आमतौर पर देखने को मिलती हैं।

इस दिशा में दोष रहने पर नपुंसकता, पैरो में तकलीफ, कुष्ठ रोग, रीढ़ की हड्डी में कष्ट, गठिया, स्नायु एवं वात् संबंधी रोगों के होने की संभावना रहती है। उत्तर दिशा-उत्तर दिशा का स्वामी कुबेर, आयुध गदा एवं प्रतिनिधि ग्रह बुध हैं। बुध को उत्तर दिशा का स्वामी माना गया है। बुध जिस ग्रह के साथ होता है, उसी के अनुसार अपना फल देता है।

अर्थात् शुभ ग्रहों के साथ हो तो शुभ और अशुभ ग्रहों के साथ रहने पर अशुभ फल देता है। उत्तर दिशा बुद्धि, ज्ञान, चिंतन, मनन, विद्या एंव धन के लिए शुभ होती है। यह दिशा मातृ भाव का द्योतक हैं। इस दिशा में खाली जगह छोडने से ननिहाल पक्ष से लाभ मिलता है। कवित्व शक्ति तथा विभिन्न प्रकार के आविष्कारों की क्षमता का विकास होता है। नौकर-चाकर, मित्र, घर एवं विभिन्न प्रकार के सुख की प्राप्ति होती है।

उत्तर दिशा दोषपूर्ण रहने पर मातृ सुख, नौकर-चाकर के सुख, भौतिक-सुख आदि की कमी रहती है। साथ ही हर्निया, हृदय एंव सीने के रोग, चर्म रोग, गॉल ब्लैडर, पागलपन, हैजे, फेफडे़ एवं रक्त से संबंधित बीमारियों की संभावना रहती है। दक्षिण दिशा-दक्षिण दिशा का स्वामी यम, आयुध दंड एवं प्रतिनिधि ग्रह मंगल है। मंगल सांसारिक कार्यक्रम को संचालित करने वाली विशिष्ट जीवन दायिनी शक्ति है।

यह सभी प्राणियों को जीवन शक्ति, उत्साह, पराक्रम और स्फूर्ति प्रदान करता है। फलस्वरूप दक्षिण दिशा सफलता यश, पद, प्रतिष्ठा एवं धैर्य की द्योतक है। यह दिशा पिता के सुख का भी कारक है। दक्षिण दिशा से सीने के बाएं भाग, गुर्दे, बाएं फेफडे़ एवं मेरूदंड का विचार किया जाता है। इस दिशा को जितना भारी एवं ऊँचा रखेंगे उतना ही लाभदायी सिद्ध होगा। घर के दक्षिण में कुॅआ, दरार, कचरा, कूडादान एंव पुराना कबाड हो तो हृदय रोग, जोडों का दर्द, खून की कमी, पीलिया आदि की बीमारियां होती है।

दक्षिण में कुंआ या गड्ढे में जल की व्यवस्था रहने पर अचानक दुर्घटना की संभावना बनती है। दक्षिण द्वार नै त्याभिमुख रहने पर दीर्घ व्याधियां एवं अचानक मृत्यु होती है। इस दिशा के दोषपूर्ण होने पर स्त्रियों में गर्भपात, मासिक धर्म में अनियमितता, रक्त विकार, उच्च रक्तचाप, बवासीर, दुर्घटना, फोडे़-फुन्सी, अस्थि- मज्जा, अल्सर आदि से संबंधित बीमारियों की संभावना बनती है।

साथ ही नौकरी व्यवसाय में नुकसान, समाज में अपयश, पितृ सुख में अवरोध तथा सरकारी कार्यो में असफलता आदि की संभावना रहती है। ईशान दिशा-ईशान दिशा का स्वामी रूद्र, आयुध त्रिशूल एवं प्रतिनिधि ग्रह बृहस्पति हैं। बृहस्पति को सर्वाधिक शुभ ग्रह कहा गया हैं। आध्यात्मिक विकास के लिए प्रयत्नशील जिज्ञासुओं के लिए बृहस्पति अति शुभ होता है। इसका प्रभाव सर्वदा सात्विक होता है। ईशान दिशा अत्यधिक पवित्र होने के कारण इसकी सुरक्षा अनिवार्य है। यह दिशा बुद्धि, ज्ञान, विवेक, धैर्य और साहस का सूचक है।

इस दिशा को साफ-सुथरा, खुला, नीचा एवं कम से कम निर्माण कार्य करना चाहिए। फलस्वरूप आध्यात्मिक, मानसिक एवं आर्थिक संपन्नता देखने को मिलती है। साथ ही वास करने वाले लोग अच्छी वाणी बोलने वाले होते हैं। इस दिशा में शौचालय, सेप्टिक टैंक एवं कूडे-करकट रखने पर सात्विकता में कमी, वंश वृद्धि में अवरोध, नेत्र, कान, गर्दन एवं वाणी में कष्ट होता है।

साथ ही वसा जन्य रोग, लीवर, मधुमेह, तिल्ली आदि से संबंधित बीमारियां होने की संभावना रहती है। उत्तर-पूर्व में रसोई घर रहने पर खांसी, अम्लता, मंदाग्नि, बदहजमी, पेट में गड़बड़ी और आंतो के रोग होते है। वायव्य दिशा-वायव्य दिशा का स्वामी वायु एवं आयुध अंकुश है। इस दिशा का प्रतिनिधि ग्रह चन्द्र है।

चन्द्र में शुभ और अशुभ तथा सक्रिय और निष्क्रिय दोनो प्रकार की क्षमता होती है। चन्द्र शुभ होने पर जातक को सुकीर्ति और यश मिलता है। उसका समुचित मानसिक विकास होता है तथा परिवारिक जीवन सुखमय होता है।वायव्य दिशा मित्रता एवं शत्रुता को बतलाता है। इस दिशा का संबंध अतिथियों एवं संबंधियों से हैं। यह दिशा मानसिक एवं विद्वत्ता का परिचायक है।

साथ ही कालपुरूष की शरीर में नाभि, आंत, पित्ताशय, शुक्राणु, गर्भाशय, पेट का ऊपरी भाग, दांया पैर एवं घुटने का प्रतिनिधित्व करता है। किसी भी घर में वायव्य दिशा, ईशान के अपेक्षा नीची हो तो शत्रुओं की संखया में वृद्धि होती है तथा स्त्रियां रोग ग्रस्त एवं घर भय ग्रस्त रहता है।

वायव्य के दोषपूर्ण होने पर फेफड़े, हृदय, छाती, थूक, सर्दी, जुकाम, निमोनिया, अपेंडिसाइटिस, डायरिया, स्त्रियों में मासिक धर्म की अनियमितता एंव अन्य स्त्री रोगों की संभावना रहती है। आग्नेय दिशा-आग्नेय दिशा का स्वामी गणेश, आयुध शक्ति एवं प्रतिनिधि ग्रह शुक्र है। शुक्र समरसता तथा परस्पर मैत्री संबंधो का ग्रह माना जाता है। शुक्र से प्रभावी जातक आकर्षक, कृपालु, मिलनसार तथा स्नेही होते हैं।

आग्नेय दिशा का संबंध स्वास्थ्य से हैं। यह दिशा परमात्मा की सृष्टि को आगे बढाती है अर्थात प्रजनन क्रिया एवं काम जीवन पर इस दिशा का अधिकार है। यह दिशा बायीं भुजा, घुटने बायें नेत्र, निंद्रा एवं उचित शयन-सुख को भी दर्शाती है।

इस दिशा में किसी तरह का दोष रहने पर दाम्पत्य-सुख, मौज-मस्ती एवं शयन सुख में कमी बनी रहती है। साथ ही नपुंसकता, मधुमेह, जननेद्रियों, मूत्राशय, तिल्ली, बहरापन, गूंगापन और छाती आदि से संबंधित बीमारियों की संभावना बनी रहती है। नैर्ऋत्य दिशा-र्नैत्य दिशा का स्वामी राहु एवं देवता नैति नामक राक्षस है। राहु एक शक्तिशाली छाया ग्रह है। प्रत्यक्ष रूप में राहु ग्रह के अनिष्टकारी फल दूर नही किये जा सकते।

केवल ज्ञान तथा बुद्धि पूर्वक इससे सहयोग करके इसके दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है। र्नैत्य दिशा सभी प्रकार की विषमताओं एवं संघर्षो से जुझने की क्षमता प्रदान करती है। साथ ही स्थायी, सही निर्णय एवं किसी भी निर्णय को मजबूती से दिलवाने में मदद करता है। यह दिशा आयु, अकस्मात् दुर्धटना, आत्महत्या, बाहरी जननेन्द्रियों, बायां पैर, कुल्हा, किडनी, पैरो की बीमारियों, स्नायु रोग आदि का प्रतिनिधित्व करता है।

इसके अतिरिक्त इस दिशा में निवास करने वाले लोगो में त्वचा रोग, छूत के रोग, पैरो की बीमारियां, हाइडो्रसिल एवं स्नायु से संबंधित बीमारियों की संभावना होती है। घर के र्नैत्य क्षेत्र में खाली जगह, गड्ढा, भूतल, जल की व्यवस्था एवं कॉटेदार वृक्ष हो तो गृहस्वामी बीमार होता है तथा उसकी आयु क्षीण होती है। शत्रु पीडा पहुचाते हैं तथा संपन्नता दूर रहती है।

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