विवाह मेलापक में प्रमुख दोष

विवाह मेलापक में प्रमुख दोष  

आर. के. शर्मा
व्यूस : 11563 | जून 2011

विवाह मेलापक में प्रमुख दोष गोधूलि एवं अभिजित मुहूर्त की मान्यता के कारण पं. आर. के. शर्मा शुभ मुहूर्त निकालने में अन्य तत्वों के साथ-साथ लग्न का सर्वोपरि महत्व होता है। विवाह संबंधी लग्न में किन ग्रह योगों के क्या संभावित परिणाम होंते हैं तथा विवाह में क्या-क्या वर्जित और विहित है तथा अनेक दोषों के क्या कठिन परिणाम हो सकते हैं उसके बारे में जानकारी तो दी ही गयी है इस लेख में, अभिजित और गोधूलि लग्न की विशेषताओं का महत्व भी सविस्तार बताया गया है। हिंदु धर्म-संस्कृति के चार आश्रमों में गृहस्थाश्रम ही श्रेष्ठ हैं। उसमें भी जब सुशीला धर्मपत्नी प्राप्त हो तभी सुख प्राप्त होता है। स्त्री को सुशीलता की प्राप्ति तभी होती है, जब विवाह कालिक लग्नादि शुभ हो।

विवाह लग्न : यदि प्रश्न लग्न में पाप ग्रह हो या लग्न से सप्तम भाव में मंगल हो (ज्योतिषी को चाहिये कि प्रश्न के समय लग्न और ग्रह स्पष्ट करके देखें) तो जिसके लिए प्रश्न किया गया है, उस कन्या और वर को 8 वर्ष के भीतर ही घातक, अरिष्ट बतावें। यदि लग्न में चंद्र और उससे सप्तम में मंगल हो तो भी घातक अरिष्ट समझें। यदि लग्न से पंचम भाव में पाप ग्रह हो और वह नीच राशि में पाप ग्रह से देखा जाता हो तो वह कन्या कुलटा स्वभाव वाली अथवा मृतवत्सा होती है। यदि प्रश्न लग्न से 3-5-7-11 और 10वें भाव में चंद्र हो तथा उस पर गुरु की दृष्टि हो तो उस कन्या को शीध्र ही पति की प्राप्ति होगी। यदि प्रश्न लग्न में तुला, वृष या कर्क राशि हो तथा वह शुक्र और चंद्र से युक्त हो तो वरके लिए कन्या (पत्नी) लाभ होता है अथवा सम राशि लग्न हो, उसमें सम राशि का ही द्रेष्काण हो और सम राशि का नवमांश तथा उस पर चंद्र और शुक्र की दृष्टि हो तो वर को पत्नी की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार यदि प्रश्न लग्न में पुरुष राशि और पुरुष राशि का नवमांश हो तथा उस पर पुरुष ग्रह (रवि, मंगल और गुरु) की दृष्टि हो तो उन कन्याओं को पति की प्राप्ति होती है।

यदि प्रश्न के समय कृष्ण पक्ष हो और चंद्र सम राशि में होकर लग्न से छठे या आठवें भाव में पाप ग्रह से देखा जाता हो तो (निकट भविष्य में) विवाह संबंध नहीं हो पाता है। कन्या-वर की वर्ष शुद्धि : कन्या के जन्म समय से सम वर्षों में और वर के जन्म समय से विषम वर्षों में होने वाला विवाह उन दोनों के प्रेम और प्रसन्नता को बढ़ाने वाला होता है, और इसके विपरीत घातक। विवाह विहित मास : माघ, फाल्गुन, वैशाख और ज्येष्ठ ये चार मास विवाह के लिए श्रेष्ठ तथा कार्तिक और मार्गशीर्ष (अगहन) ये दो मास मध्यम हैं अन्य मास निन्दित हैं। सूर्य आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक में हो, गुरु तथा शुक्र अस्त हों, बाल, बृद्ध हो, गुरु सिंह राशि या उसके नवमांश में हो- उस समय विवाहादि शुभ कार्य नहीं करने चाहिए। विवाह में वर्ज्य : भूकम्पादि उत्पात तथा सर्वग्रास सूर्य या चंद्र ग्रहण हो तो उसके बाद सात दिन तक का समय शुभ नहीं है। यदि खंड ग्रहण हो तो उसके बाद तीन दिन अशुभ होते हैं तथा किसी ग्रहण के पूर्व के तीन दिन भी शुभ नहीं माने जाते हैं।

मास के अंतिम दिन, रिक्ता, अष्टमी, व्यतीपात और वैधृति योग, संपूर्ण तथा परिघ योग का पूर्वार्ध - ये विवाह में वर्जित हैं। विहित नक्षत्र : रेवती, रोहिणी, तीनों उत्तरा, अनुराधा, स्वाति, मृगशिरा, हस्त, मघा और मूल- ये ग्यारह नक्षत्र वेधरहित हों तो इन्हीं में स्त्री का विवाह शुभ कहा गया है। विवाह में वर को सूर्य का और कन्या को बृहस्पति का बल अवश्य प्राप्त होना चाहिये। इनके अनिष्ट होने पर इनकी यत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिए। विवाह में शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट होने पर सब राशि प्रशस्त हैं। चंद्र, सूर्य, बुध, बृहस्पति तथा शुक्र आदि ग्रह जिस राशि के इष्ट हों, वह लग्न शुभप्रद होता है। यदि चार ग्रह भी बली हों तो भी उन्हें शुभ प्रद समझना चाहिए। विवाह के इक्कीस दोष :

1.पंचांग शुद्धि का न होना,

2. उस दिन सूर्य की संक्रांति होना

3. पाप ग्रह का षडवर्ग में रहना।

4. लग्न से छठे भाव में शुक्र की स्थिति।

5. अष्टम में मंगल

6. गण्डांत होना

7. कर्तरी योग,

8. बारहवें, छठे और आठवें चंद्र का होना तथा चंद्र के किसी अन्य ग्रह का होना

, 9. वर-कन्या की जन्मराशि से अष्टम राशि लग्न हो या चंद्र राशि हो,

10. विष घटी,

11. दुर्मुहर्त,

12. वार दोष

13. खार्जूर

14. नक्षत्रैक चरण,

15. ग्रहण और उत्पात के नक्षत्र,

16. पाप ग्रह से विद्ध नक्षत्र

17. पाप से युक्त नक्षत्र

18. पाप ग्रह का नवमांश

19. महापात

20. उदयास्त की शुद्धि न होना तथा

21. वैधृति -विवाह में ये 21 दोष कहे गये हैं। गण्डान्तदोष : पूर्णा (5-10-15) तिथियों के अंत और नंदा (1-6-11) तिथियों की आदि की संधि में दो घड़ी 'तिथिगण्डांत' दोष कहलाता है। कर्क लग्न के अंत और सिंह लग्न के आदि की संधि में, बृश्चिक और धनु की संधि में तथा मीन और मेष लग्न की संधि में आधा घड़ी 'लग्न गण्डांत' कहलाता है। यह भी घातक होता है।

आश्लेषा के अंत का चतुर्थ चरण और मघा का प्रथम चरण तथा ज्येष्ठा की अंत की 16 घड़ी और मूल का प्रथम चरण एवं रेवती नक्षत्र के अंत की ग्यारह घड़ी और अश्विनी का प्रथम चरण इस प्रकार इन दो-दो नक्षत्रों की संधि का काल 'नक्षत्रगण्डांत' कहलाता है। ये तीनों प्रकार के गण्डांत महाक्रूर होते हैं। कर्त्तरी-दोष : लग्न से बारहवें में मार्गी और द्वितीय में वक्री दोनों पाप ग्रह हों तो लग्न में आगे-पीछे दोनों ओर से जाने के कारण यह 'कर्त्तरीदोष' कहलाता है। इसमें विवाह होने से यह 'कर्तरी दोष' वर-वधू दोनों का अनिष्ट करता है। लग्न-दोष : यदि लग्न से छठे, आठवें तथा बारहवें में चंद्र हो तो यह 'लग्न-दोष' कहलाता है। ऐसा लग्न शुभ ग्रहों तथा अन्य संपूर्ण गुणों से युक्त होने पर भी दोष युक्त होता है।

वह लग्न, बृहस्पति, और शुक्र से युक्त हो तथा चंद्र उच्च, नीच, मित्र या शत्रु राशि में (कहीं भी) हो तो यह दोष वर-वधू के लिए घातक है। सग्रह दोष : चंद्र यदि किसी ग्रह से युक्त हो तो 'सग्रह' नामक दोष होता है, यह दोष भी त्याज्य है। चंद्र के साथ सूर्य हो तो दरिद्रता, मंगल से युक्त हो तो घात अथवा रोग, बुध से युक्त हो तो पति-पत्नी में शत्रुता, शनि से युक्त हो तो प्रवज्या (गृह त्याग), राहू से युक्त हो तो सर्वस्वहानि और केतु से युक्त हो तो कष्ट और दरिद्रता होती है। पाप ग्रहों की निंदा और शुभग्रहों की प्रशंसा : सग्रह दोष में चंद्र यदि पाप ग्रहों से युक्त हो तो वर-वधू दोनों के लिए घातक होता है। यदि वह शुभ ग्रहों से युक्त हो तो उस स्थिति में यदि उच्च या मित्र की राशि में चंद्र हो तो लग्न दोष युक्त रहने पर भी वर-वधू के लिए कल्याणकारी होता है। परंतु चंद्र स्वोच्च में या स्वराशि में या मित्र की राशि में रहने पर भी यदि पाप ग्रह से युक्त हो तो वर-वधू दोनों के लिए घातक होता है।

अष्टम राशि लग्न दोष : वर या वधु के जन्म लग्न से अथवा उनकी जन्मराशि से अष्टम राशि विवाह- लग्न में पड़े तो यह दोष भी दोनों के लिए घातक होता है। वह राशि या वह लग्न शुभ ग्रह से युक्त हो तो भी उस लग्न को, उस नवमांश से युक्त लग्न को अथवा उसके स्वामी को यत्नपूर्वक त्याग देना चाहिये। द्वादश राशि दोष : वर- वधू के जन्म लग्न या जन्म राशि से द्वादश राशि यदि विवाह लग्न में पड़े तो दोनों के धन की हानि होती है। अतः उस लग्न, उसके नवमांश की ओर उसके स्वामी को भी त्याग देना चाहिये। जन्म लग्न और जन्म राशि की प्रशंसा : जन्म राशि और जन्म लग्न का उदय विवाह में शुभ होता है तथा दोनों के उपचय (3-6-10-11) स्थान यदि विवाह लग्न में हो तो अत्यंत शुभप्रद होते हैं। विहित नवमांश : वृष, तुला, मिथुन, कन्या और धनु का उत्तरार्द्ध तथा इन राशियों में नवमांश विवाह लग्न में शुभप्रद हैं। किसी भी लग्न में अंतिम नवमांश यदि वर्गोत्तम हो तभी उसे शुभप्रद समझना चाहिये। अन्यथा विवाह लग्न का अंतिम नवमांश (26 अंश 40 कला के बाद) अशुभ होता है।

यहां अन्य नवमांश नहीं ग्रहण करने चाहिये, क्योंकि ये कुनवांश कहलाते हैं। लग्न में कुनवांश हो तो अन्य सब गुणों से युक्त होने पर भी वह त्याज्य हैं। जिस दिन महापात (सूर्य-चंद्र का क्रांति समय) हो, वह दिन भी त्याग देना चाहिये। लता दोष : सूर्य आदि (पूर्ण चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु) ग्रह क्रमशः अपने आश्रित नक्षत्र से आगे और पीछे 12-22-3-7-6-5-8 तथा 9 वें से दैनिक नक्षत्र को लातों से दूषित करते हैं, इसलिए इसका नाम 'लत्ता दोष' है। (इनमें सूर्य अपने से आगे और पूर्ण चंद्र पीछे, फिर मंगल आगे और बुध पीछे के नक्षत्रों को दूषित करते हैं। ऐसा ही क्रम आगे भी समझना चाहिये। पात दोष : सूर्य जिस नक्षत्र में हो उससे आश्लेषा, मघा, रेवती, चित्रा, अनुराधा और श्रवण तक की जितनी संखया हो, उतनी ही संखया यदि अश्विनी से दिन नक्षत्र तक गिनने से हो तो वह नक्षत्र पात दोष से दूषित समझा जाता है।

अभिजित एवं गोधूलि लग्न : सूर्योदय काल में जो लग्न रहता है, उससे चतुर्थ लग्न का नाम अभिजित है और सातवां गोधूलि लग्न कहलाता है। ये दोनों लग्न विवाह में पुत्र-पौत्र की वृद्धि करने वाले होते हैं। पूर्व तथा कलिंग (जगन्नाथ पुरी से कृष्णा नदी तक का भूभाग) देशवासियों के लिए गोधूलि लग्न प्रधान है और अभिजित लग्न तो पूरे भारत के लिए मुखय कहा गया है, क्योंकि वह सब दोषों का नाश करने वाला है। अन्य प्रमुख दोष : पुत्र का विवाह करने के बाद 6 मास में पुत्री का विवाह नहीं करना चाहिए। एक पुत्र या पुत्री का विवाह करने के बाद दूसरे पुत्र का उपनयन (जनेऊ) भी नहीं करना चाहिए। सहोदर कन्याओं का विवाह यदि 6 मास के भीतर हो तो निश्चित ही तीन वर्ष के भीतर उनमें से एक विधवा हो जाती है। अपने पुत्र के साथ जिसकी पुत्री का विवाह हो, फिर उसके पुत्र के साथ अपनी पुत्री का विवाह करना 'प्रत्युद्व दोष' कहलाता है। किसी एक ही वर को अपनी दो कन्याएं नहीं देनी चाहिए। दो सहोदर वरों को दो सहोदरा कन्याएं नहीं देनी चाहिए। दो सहोदरों का एक ही दिन (एक साथ) विवाह या मुंडन नहीं करना चाहिए।



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