संक्रांति व्रत

संक्रांति व्रत  

ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’
व्यूस : 9954 | जून 2011

संक्रान्ति व्रत पं. ब्रजकिशोर शर्मा ब्रजवासी भारतीय संस्कृति में प्रतिदिन कोई न कोई व्रत-पर्व होता ही है, परंतु संक्रांति व्रत का अपना एक विद्गोष महत्व है। वर्ष में मेष, वृष के क्रम से आने वाली प्रत्येक संक्रांति में कल्याण चाहने वाले स्त्री-पुरुषों को निश्चय ही संक्रांति व्रत का पालन करना चाहिए। संक्रांति का अभिप्राय भगवान् सूर्य नारायण के एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश के समय से है। उस प्रवेश-समय को संक्रांति कहा जाता है तथा जिस राशि में भगवान् सूर्य देव का प्रवेश होता है उसे उसी राशि वाली संक्रांति का नाम दिया जाता है, जैसे ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि से मिथुन राशि में प्रवेश कर रहे हैं तो यह संक्रांति मिथुन संक्रांति के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार प्रत्येक संक्रांति का नामोल्लेख है।

इस संक्रमण समय पर पूजा, पाठ, दानादि का विशेष महत्व शास्त्रों में वर्णित है। दानादि के लिए पुण्यकाल भी नीचे दी गयी सारिणी के अनुसार निश्चित है। विशेष : उपरोक्त कथन कमलाकर भट्ट संग्रहीत श्लोंको का भाव है। विशेष में बताया गया है कि उपरोक्त के अलावा यदि संक्रांति (सायंकाल) सूर्यास्त के जितने समय पहले हो उतना ही पहले (पूर्व) घड़ी तक पुण्यकाल होता है। जिस संक्रांति का पुण्यकाल पहले (पूर्व) हो वह यदि सूर्योदय के समय हो तो उतनी घड़ी पुण्यकाल बाद में होता है। रात्रिकाल में संक्रांति जनित पुण्य का निषेध कहा है। यदि आधी रात के पूर्व संक्रांति हो तो पहले रोज के दो प्रहर (दो याम) में पुण्यकाल होता है। यदि आधी रात्रि के मध्य में (पर) संक्रांति हो तो बाद वाले दिन के पहले दो प्रहर में पुण्य काल होता है। इसी प्रकार कर्क संक्रांति तथा मीन संक्रांति में जानना चाहिए। यह हेमाद्रि और अपरार्क ने कहा है। यदि मीन संक्रांति प्रदोष समय में या आधी रात के समय हो तो दूसरे दिन में पुण्यकाल होता है। यदि कर्क संक्रांति प्रातः काल में या आधी रात में हो तो पूर्व दिन में पुण्यकाल होता है- यह माधवाचार्य का मत है।

परंतु सभी विद्वानों ने संक्रांति के पूर्व और बाद में सोलह-सोलह घड़ी पुण्यकाल सामान्य रीति से बताया है। संक्रांति व्रत में प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर चौकी पर नवीन वस्त्र बिछाकर अक्षतों से अष्टदल कमल बनाकर उसमें भगवान् भुवन भास्कर की मूर्ति स्थापित करके गणेश-गौर्यादि देवताओं का पूजन करके सूर्य नारायण भगवान् का षोडशोपचार पूजन,स्वस्तिवाचन, संकल्पादि कृत्यों के साथ पुण्याह्वाचन करना चाहिए। स्वयं न कर सकें तो विद्वान् ब्राह्मणों के सानिध्य में संपन्न करें। ऐसा करने से संपूर्ण पातकों का नाश हो जाता है। सुख-संपत्ति, आरोग्य, बल, तेज, ज्ञानादि की प्राप्ति होती है। मान-सम्मान, प्रतिष्ठा, कीर्ति में वृद्धि होती है। शत्रुओं का मान-मर्दन होता है। वाणी की प्रखरता व आयुष्य लाभ होता है। यदि किसी माह की संक्रांति शुक्ल पक्ष की सप्तमी और रविवार को हो तो उसे 'महाजया संक्रांति' कहते हैं।

उस दिन उपवास, जप, तप, देवपूजा, पितृ-तर्पण तथा ब्राह्मणों को भोजन कराने से अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है। व्रती को स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है। प्रत्येक संक्रांति में व्रती जागरण करने पर स्वर्ग को जाता है। जब संक्रांति अमावस्या तिथि में हो तो शिव और सूर्य का पूजन करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। उत्तरायण संबंधी मकर संक्रांति में प्रातःकाल स्नान करके भगवान् श्री केशव की अर्चना करनी चाहिए। उद्यापन में बत्तीस पल स्वर्ण का दान देकर वह संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। दक्षिणायन और उत्तरायण में तथा मेष और तुला संक्रांति में जो प्राणी तीन रात उपवास तथा स्नानकर श्री सूर्य का पूजन करता है, उसके संपूर्ण मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। वृद्ध वशिष्ठ ने कहा है कि अयन की संक्रांतियों में उपवास तथा स्नान करने मात्र से व्रती प्राणी संपूर्ण पापों से छुटकारा पा लेता है।

सूर्य की संक्रांति में श्राद्ध करना प्रशस्त है। वृष, सिंह, वृश्चिक और कुंभ संक्रांति को विष्णुपद, कन्या, मीन, धनु और मिथुन संक्रांति को 'षडशीत्यायन', तुला और मेष की संक्रांति को 'विषुव' तथा मकर संक्रांति को 'उत्तरायण' एवं कर्क संक्रांति को 'दक्षिणायन' कहा जाता है। संक्रांति व्रत में व्रती पुरुष को आदित्य हृदय स्तोत्र, सूर्याष्टकम्, सूर्य प्रातः स्मरण स्तोत्रम्, सूर्य मंगल स्तोत्रम्, सूर्य जन्मादि कथा एवं सूर्य मंत्र आदि का पाठ व जप अवश्य करना चाहिए। संक्रांति के स्वामी के मंत्रों का जप व पूजा भी संक्रांति अनुसार अभीष्ट फल को देने वाली है।

संक्रांति में की गयी सूर्य पूजा से अनिष्ट, अस्त, वक्री, पापी व नीच सूर्य का दोष भी शांत हो जाता है। संक्रांति व्रत में भगवान् विष्णु व उनके अवतारों का चिंतन-मनन- श्रवण-दर्शन भी अभीष्ट फल प्रदाता है। संक्रांति व्रत का नियमानुसार बारह वर्षों तक पालन करने वाला व्यक्ति निश्चय ही विलक्षण प्रतिभा व इहलौकिक सुखों का लाभ प्राप्त करता हुआ पारलौकिक सुखों का भी लाभ प्राप्त करता है। प्रतिवर्ष व प्रतिमास की संक्रांति पर उद्यापन कराने वाला व्रती व्रत का संपूर्ण फल उसी प्रकार प्राप्त कर लेता है जिस प्रकार किसान ऋतु अनुसार फसल का लाभ प्राप्त करता रहता है। संक्रांति व्रत प्रत्येक वर्ण, जाति के स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध सभी के लिए लाभकारी है अतः अवश्य ही करना चाहिए। सूर्य स्तुति व सूर्य आरती तथा क्षमायाचनादि कार्यों को पूर्ण कर आनंद से परिपूर्ण हो संयमित विचारों के साथ भगवत् स्तवन में ही दिन व जागरण के साथ रात्रि को व्यतीत करें।



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