भागवत कथा

भागवत कथा  

ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’
व्यूस : 5204 | जून 2014

श्री शौनकजी ने सूतजी से पूछा- धार्मिक शिरोमणि महाराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से प्राप्त राजसिंहासन पर बैठकर अपने भाइयों के साथ क्या किया? सूतजी कहते हैं- धर्मराज को राजसिंहासन की कोई इच्छा ही नहीं थी, क्योंकि श्रीकृष्ण के उपदेशों व भीष्मपितामह के अद्वितीय ज्ञान श्रवण से उनका अंतःकरण निर्मल हो गया था और संपूर्ण भ्रांति मिट गयी। भगवान् श्रीकृष्ण अपनी बहन सुभद्रा की प्रसन्नता हेतु कई महीनों हस्तिनापुर में ही रहे। आज चक्रवर्ती सम्राट युधिष्ठिर से अनुमति प्राप्त कर द्वारिका जाने को भगवान् श्रीकृष्ण रथ में सवार हुए, सभी के प्रेमाश्रु निकल पड़े, पलकें स्थिर हो गयीं, वाणी मौन हो गयी और उन एक-एक क्षण का स्मरण करने लगे जिन क्षणों को गोविंद के साथ जिया था।

श्रीकृष्ण का विरह किसी को सहन नहीं हो रहा था। हो भी कैसे? यहां तो साक्षात् परब्रह्म का सत्संग मिला है। जिसे एक बार सत्संग मिल जाता है और दुःसंग छूट जाता है, दुःसंग में क्या दुख है और सत्संग में क्या सुख है, इसका उसे अनुभव हो जाता है। प्रभु श्यामसुंदर के चरणारविन्दों का रस बड़ा ही अलौकिक है। पुष्पों की वर्षा, बाजों को बजना तथा ब्राह्मणों के मंगल गान व आशीर्वाद के साथ भगवान् श्रीकृष्ण द्वारिका के लिए मंद मुस्कान व प्रेमपूर्ण चितवन से सभी का अभिनंदन करते हुए विदा हो गए। भागवत कथा (गतांक से आगे) पं. ब्रजकिशोर ब्रजवासी आनतनि स उपव्रज्य स्वृद्धांजनपदान् स्वकान्। दध्मौदरवरं तेषां विषादं शमयन्निव ।।

(01/11/01) श्री कृष्ण ने अपने समृद्ध आनर्त देश में पहुंचकर वहां के निवासियों की विरह-वेदना को शांत करते हुए अपना श्रेष्ठ पांचजन्य नामक शंख बजाया। प्रजाजन अपने स्वामी श्री कृष्ण के दर्शन की लालसा से बाहर आकर विभिन्न प्रकार की भेंटों से राजोचित स्वागत -सत्कार करने लगी। भगवान् श्री कृष्ण ने भी चांडाल पर्यन्त सभी का हृदय से अभिनंदन किया, इस रहस्य को कोई नहीं जान पाया। माधव द्वारिका में प्रवेश कर रहे हैं, उनपर सुमन वृष्टि हो रही है। सूतजी कहते हैं- प्रविष्टस्तु गृहं पित्रोः परिष्वक्तः स्वमातृभिः। ववन्दे शिरसा सप्त देवकी प्रमुखा मुदा।।

(01/11/28) भगवान सर्वप्रथम अपने माता-पिता के महल में गए। वहां उन्होंने देवकी आदि सातों माताओं के चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। मानो जगत को, मानव जाति को संदेश दे रहे हैं, माता-पिता का स्थान सर्वोच्च स्थान है उन्हें नित्य प्रणाम करना चाहिए। आजकल के लड़के थोड़ा बहुत पढ़ जाते हैं तो माता-पिता की उपेक्षा करने लगते हैं। यह पाश्चात्य सभ्यता का दुष्प्रभाव है। पाश्चात्य संस्कृति पत्नी प्रधान है, प्रेयसी प्रधान है, भोग प्रधान है। हमारे देश की संस्कृति भोग प्रधान, काम-प्रधान नहीं है, धर्म प्रधान है। इसीलिए यहां मातृदेवो भव पितृदेवोभव की भावना है। माता-पिता ने श्रीकृष्ण को हृदय से लगा लिया। पत्नियों को व सभी को मिलन के प्रेम से आनंदित कर दिया। क्यों न करें जगत् नियन्ता हैं, ईश्वर हैं तथा सबकी आत्मा हैं। द्वारिका में भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति सभी का भाव यही था कि एकांत में वह हमारे साथ ही रमण कर रहे हैं। पत्नियां तो सुंदर, मधुरहास युक्त व मादक लज्जा से युक्त थीं। चितवन तो ऐसी कि कामदेव ने अपना धनुष-बाण ही त्याग दिया। परंतु श्रीकृष्ण के मन में कमनीय कामिनियां क्षोभ पैदा न कर सकीं।



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