भारत में प्रचलित त्यौहारों,
अनुष्ठानों व धार्मिक
क्रियाकलापों का विवेचन करें तो
यह स्पष्ट हो जाता है कि ये न
केवल अध्यात्म की दृष्टि से उपयोगी
हैं वरन् व्यावहारिक दृष्टि से भी
महत्वपूर्ण हैं। शिवरात्रि व्रत इसका
अपवाद नहीं है। यहां शिवरात्रि व्रत
को इस कसौटी पर रखने का प्रयास
किया गया है।
शिवरात्रि व्रत में उपवास व रात्रि
जागरण का विशेष महत्व माना गया
है। उपवास का अर्थ है आहार न
ग्रहण करना। आहार क्या है? शास्त्रों
में आहार को व्यापक अर्थ में लिया
गया है। जो कुछ संचित किया
जाता है, आहार है। इस प्रकार मन,
बुद्धि अथवा इन्द्रियों के द्वारा जो
कुछ हम ग्रहण करते हैं आहार है।
अतः इस आहार को ग्रहण न करना
ही उपवास है, उपवास व्यक्ति की
आन्तरिक एवं बाहरी शुद्धि करता है।
यह आत्मिक शुद्धि प्रदान करता है।
आत्मचक्षुओं को प्रकाशोन्मुख करता
है। उपवास व्यक्ति में आत्मशक्ति
का संचार करता है, मन व शरीर
को कान्तियुक्त बनाता है। उपवास
के चिकित्सकीय महत्व से तो हम
भलीभांति परिचित ही हैं। प्राकृतिक
चिकित्सा पद्धति व आयुर्वेद का यह
महत्वपूर्ण आधार है।
उपवास ‘उप’ व ‘वास’ दो शब्दों
से मिलकर बना है। उप शब्द का
अर्थ है निकट तथा वास का अर्थ
है निवास। इस प्रकार उपवास का
अर्थ है शिव के निकट वास करना।
आहार के त्याग व भक्ति से शिव के
समीप निवास संभव होता है।
शिवरात्रि का दूसरा महत्वपूर्ण अनुष्ठान
रात्रिकालीन भक्ति व जागरण
है। भक्ति का अर्थ है प्रेम, श्रद्धा
व समर्पण भाव से प्रभु की वंदना।
भक्ति से शिव को प्राप्त किया जा
सकता है। भक्ति में श्रद्धा व समर्पण
भाव होने से व्यक्ति अपने आपको
अहंकार के बंधन में घिरा हुआ पाता
है। अहंकार अज्ञानता का वह पर्दा
है जो व्यक्ति को परम लक्ष्य मोक्ष
या मुक्ति से दूर करता है, अहंकार
व्यक्ति को विनाश की ओर उन्मुख
करता है तथा मोक्ष या मुक्ति से दूर
करता है। भक्ति व ज्ञान एक-दूसरे
से भिन्न या एक दूसरे के विरुद्ध नहीं
हैं। ज्ञान प्राप्ति की आवश्यक शर्त
भक्ति है और भक्ति से ज्ञान प्राप्ति
स्वतः हो जाती है, इस तरह ज्ञान
प्राप्ति बिना भक्ति के संभव नहीं है।
भक्ति का समय रात्रि में होना भी
विशेष महत्व रखता है। दिन में
हमारा मन व इन्द्रियां परमात्मा से
दूर भोग-विलास की ओर उन्मुख
होती हैं, मोह के चक्रव्यूह में फंस
जाती हैं। व्यक्ति सांसारिक बंधनों
में जकड़ जाता है। रात्रि बंधनों से
मुक्त रहने का सर्वोत्तम समय है।
यही कारण है कि दिन को नित्य
सृष्टि का तथा रात्रि को नित्य प्रलय
का प्रतीक माना गया है। रात्रि में
हमारा मन व इंद्रियां भोग-विलास
को छोड़कर आत्मा की ओर, अनेक
को छोड़कर एक की ओर, शिव की
ओर उन्मुख होती है।
शिवरात्रि के पूजन में नाम स्मरण,
भस्म लेपन, रुद्राक्ष, बिल्व पत्र
तथा जलाभिषेक का विशेष महत्व
माना है, इनसे शिव प्रसन्न होते हैं,
व्यक्ति मृत्यु के बाद शिवलोक को
प्राप्त होता है। नाम स्मरण शिव को
प्रसन्न करके अभीष्ट की प्राप्ति का
सर्वोपयुक्त व अचूक साधन है, यों
तो भगवान शिव के अनेक नाम हैं
लेकिन स्वयं भगवान के शब्दों में
मेरा शिव नाम उŸामोŸाम है। वही
परब्रह्म है एवं तारक है, इससे भिन्न
कोई तारक नहीं है’’। ‘शिव ‘शि’
तथा ‘व’ दो अक्षरों से मिलकर बना
है। ‘शि’ का अर्थ है, पापों का नाश
करने वाला तथा ‘व’ का अर्थ है
मुक्ति देने वाला। इस प्रकार शिव
स्मरण से पापों का नाश होकर मुक्ति
प्राप्त होती है। ‘शि’ का दूसरा अर्थ
है मंगल और ‘व’ का अर्थ है दाता,
इस प्रकार शिव नाम स्मरण मंगल
प्रदाता है।
निरंतर नाम स्मरण से अंतःकरण
की शुद्धि होती है। व्यक्ति में अपूर्व
आत्मशक्ति का संचार होता है। वह
गलत कार्य, अकर्मण्यता से दूर हो
जाता है तथा गीता के निष्काम कर्म
की ओर उन्मुख हो जाता है जिससे
उसे अपने उद्देश्यों की सफल प्राप्ति
हो जाती है।
शास्त्रों में विधान है कि जिस देवता
की पूजा की जाए उसी का स्वरूप
धारण करना चाहिए। इस प्रकार
शिव पूजन में भस्म लेपन, त्रिपुण्ड
व रुद्राक्ष को धारण करना आवश्यक
माना गया है, इनसे भगवान शिव
प्रसन्न होते हैं, पापों का नाश होता
है, ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है तथा
मुक्ति संभव होती है। भस्म लेपन
जहां व्यक्ति को निरंतर इस बात
का ध्यान दिलाता है कि उसका अंत
अवश्यम्भावी है अतः उसे निरंतर
ऐसे कार्यों में लगा रहना चाहिए जो
उसे जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्त
करें व मोक्षदायक हो, वहीं इसका
व्यावहारिक दृष्टि से भी महत्व है।
भस्म कीटाणु मुक्त सफाई का उŸाम
साधन है। इसके लेपन से शरीर की
शुद्धि होती है जलयुक्त भस्म लेपन
से शरीर की गर्मी बाहर निकलती
है तथा शरीर को ठंडक मिलती है
जिससे मस्तिष्क व शरीर साम्यावस्था
में आ जाते हैं।
त्रिपुण्ड भी शिव भक्त के लिए
आवश्यक है। त्रिपुण्ड में तीन
ेखाएं होती हंै। प्रत्येक रेखा नौ-नौ
देवताओं का प्रतिनिधित्व करती है।
त्रिपुण्ड मंगलकारी है, संकल्प का
प्रतीक है। संकल्प व काम से मुक्ति
‘ध्यान’ के लिए परमावश्यक है।
रुद्राक्ष धारण करने का भी विशेष
महत्व है, रुद्राक्ष धारण करने से जहां
प्रभु की प्राप्ति आदि आध्यात्मिक
उद्देश्यों की प्राप्ति होती है वहीं कई
व्यावहारिक व चिकित्सकीय उद्देश्यों
की प्राप्ति भी होती है। रुद्राक्ष धारण
करने से जीवन में संतुलित विचार
क्षमता रहती है। रुद्राक्ष ‘रुद्र’ व ‘अक्ष’
दो शब्दों से मिलकर बना है। रुद्र
गतिशीलता का द्योतक है। इस प्रकार
रुद्राक्ष के धारण करने से मानसिक
रोगियों, रक्तचाप व हृदय के रोगियों
को लाभ पहुंचता है। रुद्राक्ष धारण
करने वाले व्यक्ति को मांस, मदिरा
आदि के सेवन का निषेध कहा गया
है।
शिवलिंग पर जल चढ़ाने का विशेष
माहात्म्य है। शिव पुराण में उल्लेख
है कि जो मनुष्य शिवलिंग को
विधिपूर्वक स्नान कराकर उस स्थान
से जल का तीन बार आचमन करते
हैं उनके शारीरिक, वाचिक, मानसिक
तीनों प्रकार के पाप शीघ्र नष्ट हो
जाते हैं।
भगवान शिव को जलाभिषेक सर्वाधिक
प्रिय है। इससे भोले जल्दी प्रसन्न
होते हैं। जल का अर्थ प्राण भी होता
है। शिवलिंग पर जल चढ़ाने का
अर्थ है परमात्मा में अपने प्राणों को
उड़ेलना अर्थात् परमात्मा से आत्मा
का सम्मिलन। भगवान शिव पर बिल्व
पत्र चढ़ाने का विशेष फल है। इससे
भगवान प्रसन्न होते हैं, पापों का नाश
होता है, समृद्धि व स्वास्थ्य की प्राप्ति
होती है। बिल्व पत्र सत्व, रज व तम
गुणों में समन्वय का प्रतीक है। बिल्व
पत्र को काली मिर्च के साथ सेवन
करने से मधुमेह में लाभ मिलता है।
नशा उतारने में भी यह लाभकारी है।
शिवरात्रि का कृष्ण पक्ष में होना भी
विशेष महत्व रखता है। चंद्रमा से
निकलने वाली तरंगें (किरणें) मनुष्य
के मानसिक संतुलन को प्रभावित
करती हैं। यही कारण है कि पागल
व्यक्ति का पागलपन पूर्णिमा को बढ़
जाता है।
इस तरह कृष्ण पक्ष मानसिक
एकाग्रता को बढ़ाने में सहायक है।
मानसिक एकाग्रता से जप व ध्यान
में सहायता मिलती है।
शिवरात्रि का व्रत चतुर्दशी को आरंभ
होकर अमावस्या को पूर्ण होता है।
अमावस्या को संहार का तथा जीव
और परमात्मा के सम्मिलन का प्रतीक
माना जाता है, उपासक चतुर्दशी को
मोह, सांसारिक बंधनों व काम का
संहार करने का प्रयास करता है
और अमावस्या के दिन पूर्ण संहार
कर पाता है तथा उसका व शिव
(परमात्मा) का सम्मिलन हो पाता
है।