भोग कारक शुक्र और बारहवां भाव

भोग कारक शुक्र और बारहवां भाव  

अमित कुमार राम
व्यूस : 15605 | मई 2013

द्वादश भाव को प्रान्त्य, अन्त्य और निपु ये तीन संज्ञायें दी जाती हैं और द्वादश स्थान (बारहवां) को त्रिक भावों में से एक माना जाता है, अक्सर यह माना जाता है कि जो भी ग्रह बारहवें भाव में स्थित होता है वह ग्रह इस भाव की हानि करता है और स्थित ग्रह अपना फल कम देता है। बलाबल में भी वह ग्रह कमजोर माना जाता है, लेकिन शुक्र ग्रह बारहवें भाव में धनदायक योग बनाता है और यदि मीन राशि में बारहवें भाव में शुक्र हो तो फिर कहना ही क्या? कारण यह है


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कि शुक्र बारहवें भाव में काफी प्रसन्न रहता है क्योंकि बारहवां भाव भोग स्थान है और शुक्र भोगकारक ग्रह, इसी कारण इस भाव में शुक्र होने से भोग योग का निर्माण करता है, चंद्र कला नाड़ी की मानें तो- व्यये स्थान गते कात्ये नीचांशक वर्जिते। भाग्याधिपेन सदृष्टे निधि प्राप्तिने संशयः।। यानि- शुक्र द्वादश स्थान में स्थित हो और नवमेश द्वारा दृष्ट हो तो ऐसा मनुष्य निधि की प्राप्ति करता है। अर्थात शुक्र की द्वादश स्थान में स्थिति अच्छी मानी गई है।

भावार्थ रत्नाकार में कहा गया है- शुक्रस्य षष्ठं संस्थानं योगहं भवति ध्रुवम्। व्यय स्थितस्य शुक्रस्य यथा योगम् वदन्ति हि।। अर्थात - शुक्र छठे स्थान में स्थित होकर उतना ही योगप्रद है जितना की वह द्वादश भाव में स्थित होकर योगप्रद है। उत्तरकालामृत में कहा गया है कि - ‘षष्टस्थो शुभ कृत्कविः यानि छठे स्थान में शुक्र की स्थिति इसलिये अच्छी मानी जाती है, क्योंकि बारहवें भाव में उसकी पूर्ण दृष्टि रहती है, जिस कारण वह भोगकारी योग बनाता है। इस तरह शुक्र की बारहवें भाव में स्थिति भोग योग बनाती है और भोग बिना धन के संभव नहीं है अतः यही भोग योग धन योग भी बन जाता है। जिन व्यक्तियों के बारहवें भाव में शुक्र स्थित होता है, वे बहुधा योग सामग्री द्वारा अपना जीवन सुविधा से चला लेते हैं।

यदि अधिक धनी न हों तो दरिद्री को भी प्राप्त नहीं होता। परंतु जब यह ग्रह शुक्र लग्न के साथ सूर्य लग्न से व चंद्र लग्न से भी द्वादश हो या किन्हीं दो लग्नों में द्वादश स्थान में स्थित हो तो दो लग्नों से द्वादश स्थान में होने के कारण शुक्र दुगुना योगप्रद हो जाता है और तीनों लग्नों से द्वादश हो तो सोने पर सुहागा वाली बात होगी, ऐसी स्थिति में शुक्र अतीव शुभ योग देने वाला, महाधनी बनाने वाला बन जाता है- भावार्थ रत्नाकर के अनुसार - यह भाव कारको लग्नाद् व्यये तिष्ठति चेद्यदि। तस्य भावस्थ सर्वस्य भाग्य योग उदीरितः।। यानि - इस भाव से जातक को विषयक बातों का लाभ होगा, जिस भाव का कारक लग्न से द्वादश भाव में स्थित हो शुक्र जाया (पत्नी) भाव का कारक ग्रह है, अतः जिन जातकों के बारहवें भाव में शुक्र रहता है, उन्हें स्त्री सुख में कभी कमी नहीं होगी, प्रायः ऐसे व्यक्तियों की पत्नी दीर्घजीवी हुआ करती है।

प्रस्तुत कुंडली एक ऐसे जातक की है जिसके जन्म के साथ ही घर में सुख, समृद्धि और वैभव की शुरूआत हो गई। जातक के पिता को धन लाभ प्राप्त होना प्रारंभ हो गया। जातक की जन्मपत्री में शुक्र बारहवें भाव में मीन राशि में स्थित है और सुखेश चंद्रमा और सप्तमेश शुक्र का आपस में पूर्ण दृष्टि संबंध है जिसके कारण जातक को भौतिक सुख की प्राप्ति हुई। शुक्र की बारहवें भाव में स्थिति जब द्वादशेश के साथ होगी तो शुक्र जातक को बहुत भोगों को देने वाला और मनुष्य को खूब धनी बनाने वाला होगा। शुक्र की यह भी एक विशेष स्थिति होती है कि जब वह किसी ग्रह के बारहवें भाव में स्थित होता है, तब शुक्र अपनी अंतर्दशा में इस ग्रह का फल करता है, जिसके कि वह बारहवें स्थित होता है

यानि की अगर शुक्र सूर्य से बारहवें हो और सूर्य की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा चल रही हो तो वह सूर्य का शुभ फल देगा, इस नियम के मुताबिक शुक्र की सबसे अच्छी स्थिति तब होगी जब वह किसी जातक की कंडली में गुरु से द्वादश होगा। गुरु और शुक्र परस्पर शुभ ग्रह हैं। सामान्य नियम के अनुसार परस्पर शत्रु ग्रह अपनी दशांतर्दशा में विपरीत फल देते हैं जबकि गुरु से शुक्र द्वादश प्रायः करोड़पतियों की ही कुंडली में पाया जाता है।

यदि गुरु लग्नों का भी स्वामी हो अर्थात धनु अथवा मीन सूर्य व चंद्र हो, तब शुक्र की भुक्ति करोड़ों, अरबों रूपये देने वाली होगी। यदि शुक्र वृष या तुला राशि का होकर बारहवें भाव में केतु के साथ हो तो हद से ज्यादा शुभकारी भोग योग बनाता है, जो कि जातक को सुखी जीवन देता है। केतु जब-जब किसी शुभ ग्रह-बुध, गुरु, शुक्र के साथ जिस भाव में बैठता है, उस भाव संबंधी फल जातक को बहुत देता है।

अतः फलादेश करते समय जन्मपत्री में बुध गुरु, शुक्र व केतु की स्थितियों को भी अवश्य ध्यान में रखें। अंत में कहना यथेष्ट होगा- ग्रहराज्यं प्रयच्छति ग्रहाराज्यं हरान्ति च। ग्रहस्तु त्यातितं सर्व जगदेव तच्चराचरम्।। अर्थात्- ग्रह ही राज्य देते हैं, ग्रह ही राज्य का हरण कर लेते है, संसार का समस्त चराचर ग्रहों के प्रभाव से युक्त है।


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