ओडिशा प्रांत के गंगपुर
स्टेट का नाम राजनैतिक
दृष्टिकोण से तो सुदृढ़ है ही साथ
ही इस स्टेट ने धार्मिक सांस्कृतिक
उपलब्धियों में भी एक इतिहास
रचा है। इस पूरे क्षेत्र में कुल बारह
मंदिरों की स्थापना का वर्णन मिलता
है परंतु सुंदरगढ़ की बड़ी तालाब
के ठीक बगल की उच्च भूमि पर
महानदी की सहायक ईव नदी के
पाश्र्व में विराजमान सुंदरपुर संभाग
के सुंदरगढ़ राजप्रासाद के बगल
में ही जगन्नाथ मंदिर, राधाकृष्ण
मंदिर, देवी दुर्गा मंदिर, शिव मंदिर,
विजय स्तंभ व राजयक्षिणी के रूप
में स्थापित देवी संभलेश्वरी भवानी
मंदिर का सुनाम है। इसमें माता
संभलेश्वरी का स्थान आज जाग्रत
पीठ के रूप में पूरे प्रांत में चर्चित है।
इस पीठ की मान्यता जगन्नाथपुरी
मंदिर के अंगभूत शक्तिपीठों में है।
सर्वदयामयी देवी के भक्त गंगपुर
स्टेट के नृपाधिपतियों ने ऐसे न सिर्फ
अपने राज्यान्तर्गत् वरन् बाहर-बाहर
भी देवी देवताओं के देवालय व्यवसाय
पर इन सबों में आकार-प्रकार,
विशालता व बनावट के दृष्टिकोण से
माता संभलेश्वरी भवानी का स्थान
विशिष्ट है जिसकी महिमा अक्षुण्ण है
और यहां अधिष्ठात्री देवी के रूप में
प्रतिष्ठा प्राप्त है। यह जानकारी की
बात है कि माता संभलेश्वरी का मूल
स्थान संभलपुर में महानदी के किनारे
है पर मातृ महिमा का ही सुप्रभाव है
कि पूरे राज्य और राज्य के बाहर भी
मां के नाम से संबद्ध पांच दर्जन से
अधिक देवालय हैं जिसमें संभलपुर
के बाद माता का यह स्थान बड़ा ही
जाग्रत व महिमाप्रद बताया जाता है।
मुख्य राजमार्ग से देवी मंदिर तक
आने में चैराहे पर ही देव श्री
जगन्नाथ मंदिर पुरी के जगन्नाथ
मंदिर की अनुकृति है जिसके ठीक
बाहरी द्वार पर दोनों तरफ एक-एक
शेर है। आगे बढ़ने पर बाहरी द्वार
के ही समीप एक विजय स्तंभ देखा
जा सकता है जिसके ऊपर ‘विजय
चक्र’ बना है। इसी के आगे विशाल
आयताकार प्लेटफाॅर्म पर माता
संभलेश्वरी का मंदिर है जहां माता
जी भुवनेश्वरी देवी (मुंह माता) के
साथ विराजमान हैं।
इस मंदिर की स्थापना कथा बड़ी
ही रोचक है। यहां के ब्राह्मण पुजारी
अनिल पाण्डा इसे महान् शक्तिपीठ
बताते हैं और इसे सुंदरगढ़ स्टेट
की पुर रसिका बताते हैं जो इस
स्टेट की हरेक कार्य, कृत्यों की
साक्षी रही हैं। विवरण है कि एक
बार महारानी ने अपने राजमहल में
माता संभलेश्वरी का साक्षात दर्शन
किया तब जब वह तीन दिन पूर्व
ही माता श्री संभलेश्वरी स्थान का
दर्शन कर लौटीं थीं। कहते हैं उसके
पूर्व भी यहां माता का स्थान था
पर उसके बाद महारानी की इच्छा
कामना को पूर्ण करने के उद्देश्य से
राजा भवानी शंकर शिखर देव ने
1930 ई. के करीब इस मंदिर की
स्थापना करवाकर माता जी का यज्ञ
महापूजन कराने के बाद यहां प्राण
प्रतिष्ठित कराये और उसके बाद
माता जी का यह स्थान एक तीर्थ
के रूप में स्थापित हो गया जिसकी
परिपाटी आज भी देखी जा सकती
है।
इस मंदिर परिसर में मातृ तीर्थ के
साथ-साथ, महादेव पाड़ा, गणेश,
काली, तारा, मातंगी, शनि देव व
भैरवनाथ जी का भी स्थान है। बगल
में पूजन कक्ष, साधना कक्ष, भंडार
कक्ष व पुजारी के निवास भवन और
ठीक सामने कल-कल करती ईव
नदी इस परिसर को और भी सुंदर
बनाती है।
विवरण है कि पहली जनवरी 1948
ई. को गंगपुर स्टेट और बोनाई राज
मिलाकर सुंदरगढ़ जिला बनने के
बाद यहां का और भी विकास हुआ
है। मंदिर में बिजली या पेयजल की
सुविधा प्रदान की गई है। वैसे यहां
का कूप एक हजार वर्ष पुराना बताया
गया है जिसका नव शृंगार मंदिर के
नव निर्माण के समय किया गया।
इस मंदिर के मैनेजर पंचानंद ध्रुवा
ने बताया कि पूरे क्षेत्र में माता जी
की महिमा आज भी खूब मानी जाती
है। इस मंदिर के निर्माण में खासकर
मूल गर्भ गृह बनाने में सीमेंट का
प्रयोग नहीं किया गया है। पाषाण
खंड और तीन तरह के निर्मित ईंट
की जुड़ाई गुड़, मधु, गन्ने का रस,
गोंद व अन्यान्य सामग्री से हुई है।
हरके वर्ष सरस्वती पूजा, रक्षा बंधन,
रामनवमी, श्री कृष्ण अष्टमी, काली
पूजा आदि के साथ दोनों नवरात्रों में
दूर-दूर से भक्तों का आगमन होता
है और उसी क्रम में यहां दिवस के
अनुरूप भोग लगाए जाते हैं।
आज भी मंदिर में नित्य पूजा, पाठ,
आरती व भोग की व्यवस्था दिन,
तिथि व मास के अनुरूप की जाती है
जिसमें आम भक्त के साथ राजकीय
कोष से भी सहयोग प्राप्त होता है।
छत से ढंके विशाल आंगन के मध्य
माता जी का गर्भ गृह बड़ा ही आकर्षक
है जिसके अगल-बगल और पीछे के
तीनों दीवारों में पांच-पांच अलंकृत
ताखे बने हैं। मंदिर के गर्भगृह के
दरवाजे पर भक्तों के सहायतार्थ लोहे
का राॅड लगा दिया गया है। मंदिर
परिसर के दक्षिण में राजमहल है
जहां निचले कक्ष में भगवती दुर्गा
माता का छोटा मंदिर है। यहां राजा
व रानी आज भी पूजन कार्य में भाग
लेते हैं। यहीं बगल में 1944 की एक
तस्वीर लगी है जिसमें गंगपुर स्टेट
के समस्त राजा व राज कर्मचारियों
को देखा जा सकता है। कभी इसी
के ठीक सामने रंग-बिरंगे फूलों का
पार्क था जिसके अवशेष आज भी
देखे जा सकते हैं।
अंगरापाट पर्वतीय खंड के बगल
में विराजित इस प्राकृतिक धार्मिक
तीर्थ के अलावा पूरे नगर में शिव
शंकर, हनुमान, दुर्गा, तारिणी, शनि
देव व ब्रह्म देवता के प्राचीन देवालय
दर्शनीय हैं। भक्त बंधु यहां से
‘वेदव्यास’ ‘‘मंदिरा-डैम’, ‘धोधर धाम’
व ‘खंडदार जलप्रपात’ जरूर जाते हैं
जो यहां से पचास कि. मी. के अंदर
स्थित है और सुविधा युक्त मार्ग से
संबद्ध भी है। हिरक खंड के बगल
का यह क्षेत्र वन अरण्य से परिपूर्ण
है। राउरकेला, संभलपुर, भुवनेश्वर,
रायपुर, टाटानगर आदि से यहां
पहंुचना सहज है जो राष्ट्रीय राजमार्ग
पर अवस्थित करमडीह मोड़ से छः
कि. मी. अंदर है। मंदिर के आसपास
ही पूजा-पाठ व खाने और ठहरने
का सुविधापूर्ण इंतजाम है। ओडिशा,
बंगाल व बिहार के साथ-साथ
छत्तीसगढ़ी और स्वयं सुंदरगढ़ी
समाज में माता की ऐसी यश कृपा
बनी है कि हरेक पर्व-त्योहार व गृह
में आयोजित मांगलिक कार्य में लोग
पूरे परिवार के साथ मातृ दर्शन के
लिए यहां अवश्य आते हैं। दशहरे में
यहां संकल्पित कलश रख देने से
पूरा का पूरा गर्भगृह भर जाता है।
मातृ विग्रह के ऊपर रजत छत्र व
नीचे का सिंहासन दोनों राजा नरसिंह
देव वर्मन का दिया बताया जाता
है। मंदिर से नदी की तरफ जाने
में पीपल पेड़ के नीचे शनि देव की
पाषाण प्रतिमा यहां का सबसे प्राच्य
स्थान बताया जाता है जो अनगढ़
पाषाण खंड है और यहां भक्त दर्शन
के लिए अवश्य आते हैं।
कुल मिलाकर सुंदरगढ़ का यह
देवालय लोक आस्था और जन
विश्वास का ऐसा उदाहरण है
जिसकी यशः कीर्ति के दीप दिनों
दिन और भी मुखरित होकर शृंगारिक
होते चले जा रहे हंै। यहां की माता
करूणामयी हैं तभी तो इनके दरबार
से कोई निराश नहीं जाता। हरेक
आंग्ल नववर्ष में यहां दूर देश के
लोगों के आगमन से मेला लग जाता
है।