गीता के शब्दार्थों का मूल

गीता के शब्दार्थों का मूल  

आर. के. शर्मा
व्यूस : 4835 | आगस्त 2016

गीता के अध्यायों के विषय: श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को दिया था, उसे दिव्य द्रष्टा श्री व्यासजी ने देख-सुन लिया था। बाद में इस उपदेश को छंदों में ढालने का कार्य व्यासजी ने किया। श्री गीता को अठारह अध्यायों में विषयानुसार विभाजित किया गया, वे अध्याय तथा विषय इस प्रकार से हैं- (पहला अध्याय): अर्जुन विषाद योग, (दूसरा अध्याय) ः सांख्य योग, (तीसरा): कर्म योग, (चैथा): ज्ञान, कर्म, संन्यास योग (पांचवां): कर्म-संन्यास योग, (छठा) ः ध्यान योग, (सातवां): ज्ञान विज्ञान योग, (आठवां): अक्षर‘ ब्रह्म योग, (नवां): राजविद्या, राजगुह्य योग, (दसवां): विभूति योग, (ग्यारहवां) ः विश्वरूप दर्शन योग, (बारहवां): भक्ति योग, (तेरहवां): क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग, (चैदहवां): गुणवय विभाग योग, (पंद्रहवां): पुरूषोत्तम योग, (सोलहवां): दैवासुर संपद विभाग योग, (सत्रहवां): श्रद्धात्रय विभाग योग, (अठारहवां): मोक्ष संन्यास योग। गीता युग के शब्दार्थ तथा वत्र्तमान में उनका अर्थ: गीता जिस युग में कही गयी, उस युग में शब्दों के जो अर्थ प्रचलित थे, वे शब्द आज अन्य अर्थों के लिए प्रयोग में लाये जा रहे हैं।

उदाहरणतः आज ‘पुरूष’ शब्द का अर्थ ‘नर’ के अर्थ में प्रचलित है। प्राचीन काल (गीता काल) में ‘पुरूष’ का अर्थ ‘चेतन तत्व’ था, ‘परमात्मा’ था। ‘पुरूषोत्तम’, ‘पुरूषार्थ’ आदि शब्द, इसी ‘पुरूष’ शब्द के विस्तार में रचे गये। आज ‘काम’ शब्द ‘सेक्स’ तक सीमित रह गया है, उस युग में ‘काम’ सभी प्रकार की कामनाओं का प्रतिनिधित्व करता था। सकाम, निष्काम आदि शब्द इसी शब्द-परिवार के अंतर्गत आते थे। इसी प्रकार प्रकृति गुण, निर्गुण, नित्य, अनित्य, विकार, अविकार, सत्य, असत्य, माया, ब्रह्म, योग, तप, यज्ञ, धर्म, भूत आदि शब्द के उदाहरण दिये जा सकते हैं। आजकल इनका अर्थ बदल गया है। इसी का मूल कारण है कि ‘गीता’ किसी की समझ में नहीं आती। गीता को जानने-समझने के लिये गीता का शब्दकोश (डिक्शनरी) अलग से जाननी पड़ेगी। गीता में योग का प्रयोग बहुत अधिक बार हुआ है। साधारणतः योग का अर्थ ‘पतंजलि के योग-दर्शन’ सूत्र से लिया जाता है, अर्थात् ‘चित्त की वृत्तियों को रोकना योग कहा गया है; गीता के अनुसार ‘योग’ का अर्थ हुआ- ‘मुख्य-विषय’ या ‘प्रसंग’, -अर्थात् उस ‘अध्याय का मुख्य विषय’।

हृषीकेश - इंद्रियों को जीतने वाला, अच्युत- स्थिर स्वभाव वाला।

सांख्य योग - गीता कपिल मुनि के ‘सांख्य दर्शन’ को नहीं मानती, उसके अनुसार विवेक और तर्क पर आधारित विषयों को ‘सांख्य योग’ कहा गया है।

पंडित - गीता में जिसने शास्त्रों का तात्पर्य समझ लिया हो, जिसका विवेक जागृत हो और जो उचित-अनुचित का निर्णय करने में समर्थ हो, वह पंडित है।

नित्य-अनित्य - जो स्थिर हो, स्थायी हो, नाश न हो, सदा बना रहे वह नित्य है, अनित्य का अर्थ विपरीत है।

अमरता-मोक्ष - परम आत्मा नित्य है, स्थायी है, अमर है, इसलिए अमर आत्मा का अमर परमात्मा में समा जाना मोक्ष है, इसके बाद पुनर्जन्म नहीं होता।

सत-असत - सत् का अस्तित्व किसी अन्य पर निर्भर नहीं है, जबकि असत का है। सत् किसी काल, सीमा में बंधा हुआ नहीं है। सदा से है, सदा रहेगा। आत्मा और परमात्मा सत् हैं- असत् नाशवान है जैसे-शरीर।

देह-देही - जो देह में निवास करे, वह देही है- देह नाशवान है और देही अविनाशी।

जीर्ण शरीर - वृद्ध शरीर नहीं बल्कि जो अपने इस जन्म के कर्मों का फल भोग चुका है, वह जीर्ण है।

अव्यक्त - सांख्य सिद्धांत में आत्मा अव्यक्त है अर्थात् उसे इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता है।

धर्म - धर्म का अर्थ मजहब (रिलीजन) नहीं है, गीता में धर्म को कत्र्तव्य, नियम तथा स्वभाव के रूप में लिया गया है।

पाप - किसी भी फल की प्राप्ति के उद्देश्य से किया कत्र्तव्य/कर्म या कार्य पाप कहलाता है।

व्यवसाय - एक ही लक्ष्य की ओर प्रयत्नशीलता, अव्यावसायिकता का अर्थ है अनेक वासनाओं से संचालित डांवाडोल बुद्धि। धन, संपत्ति, यश, स्वर्ग आदि, ये सब वासनाओं के अलग-अलग प्रकार हैं।

स्थिर बुद्धि - गीता में स्थिर बुद्धि की उपमा गहरे समुद्र से दी है। आत्मतत्व में लीन व्यक्ति गहरे समुद्र की भांति होता है, इसमें कामनाएं उठती, समाती रहती हैं किंतु वे उसे अशांत नहीं करतीं।

मोक्ष - ब्रह्मलीन अवस्था का आशय मोक्ष है। कामनाओं का त्याग करने के बाद पुनः जन्म लेने का आधार खत्म हो जाता है, यही मोक्ष है। सत्व, रज और तम गुण: ‘सत्व’ ज्ञान की अवस्था है, ‘रज’ गतिशीलता है, ‘तम’ विराम की अवस्था है। इन तीनों अवस्थाओं का जीवन में समान संतुलन बना रहना ही जीवन के लिए अति आवश्यक है।

अनासक्ति - बिना लगाव की अवस्था, इस भाव वाला व्यक्ति कर्म योगी होता है, अर्थात् कर्मेन्द्रियां कर्म करें किंतु मन का उसमें लगाव न हो।

यज्ञ - हवनकुंड की सीमा से निकलकर अनासक्त भाव से किया जाने वाला कर्म ‘यज्ञ’ कहलाता है।

पांच महायज्ञ -

1. ब्रह्म यज्ञ- अध्ययन करना व कराना

2. देव यज्ञ- होम-हवन द्वारा पर्यावरण का संतुलन बनाये रखना,

3. पितृ यज्ञ-मृत पूर्वजों की स्मृति में दान करना तथा जीवितों की सेवा-सत्कार करना

4. नृयज्ञ-अतिथि, अनजाने व्यक्तियों का सत्कार, पालन पोषण करना,

5. बलिवैश्व देव यज्ञ-पशु-पक्षियों तथा जीवों के लिये अन्न का एक भाग देना, मानव की जिम्मेवारी है।

अहंकार का नाश: मैं कुछ नहीं करता, मेरे सभी कार्य प्रकृति की क्रियाओं की प्रतिक्रिया मात्र हैं। यह बोध हो जाने पर अहंकार और आसक्ति का नाश हो जाता है।

दुखों से छुटकारा: कर्म में से कत्र्ताभाव निकाल देना, जन्म-मरण के दुखों से छुटकारा।

कर्म-अकर्म-विकर्म: कत्र्तव्य भाव से किये जाने वाले कार्य कर्म हैं। पाप-पुण्य के भय से कर्म छोड़ना अकर्म है तथा न करने योग्य निषिद्ध कर्म, विकर्म है।

चित्त: मन, बुद्धि और अहंकार के समुच्चय को चित्त कहते हैं।

योगी: अपने इष्ट के प्रति एकाग्र होने वाला व्यक्ति, ब्रह्म रूपी अग्नि में स्वयं को समर्पित करने वाला योगी है।

योगाग्नि - आत्मा के प्रति एकाग्रता, इसे समाधि भी कहते हैं।

तत्वज्ञान - आत्मा-परमात्मा का ज्ञान तत्व ज्ञान है, जो विनय और सेवा भाव से प्राप्त होता है।

कर्म योग - निष्काम कर्म, यह इंद्रियों को जीत लेता है अर्थात ज्ञानेन्द्रियां।

ब्रह्मचर्य: अविवाहित होना नहीं है, बल्कि संयमपूर्वक एवं भय रहित जीवन।

परा-अपरा प्रकृति: परा का अर्थ श्रेष्ठ है, अपरा का अर्थ निम्न कोटि का। अपरा प्रकृति जड़ है, वह चेतना पर निर्भर है।

प्रकृति और पुरुष - जड़ तत्व प्रकृति और चेतन तत्व पुरूष है।

द्वैत एवं अद्वैतवाद - चेतन तत्व द्वैतवाद है। प्रकृति और पुरूष दो अलग नहीं हैं, बल्कि जड़ प्रकृति चेतन पुरूष का ही एक भाग है। इसी सिद्धांत पर वेदांत का अद्धैत सिद्धांत टिका है।

अध्यात्म - सभी जीव ब्रह्म का अंश हैं, ब्रह्म की पहचान ही अध्यात्म विद्या है।

अधिभूत: नाशवान शरीर में वास करने के कारण ब्रह्म को अधिभूत भी कहते हैं।

आधिदैव - देवत्व भाव ब्रह्म का आधिदैव रूप है।

अधियज्ञ - भगवान कहते हैं कि मैं ब्रह्म हूं, जो इस शरीर में अधियज्ञ रूप में स्थित है।

क्या श्रेष्ठ है - अभ्यास निरंतर यत्न है, अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठतर तथा कर्मफल का त्याग श्रेष्ठतम है क्योंकि यह शीघ्र शांति देता है।

ज्ञान-अज्ञान - आत्मा-परमात्मा के यथार्थ को समझने का यत्न करना ज्ञान है, बाकी सब अज्ञान है।

आत्मा-परमात्मा की व्याख्या- देह में स्थित आत्मा रूपी यह तत्व परमात्मा है। अनासक्त होने के कारण वह साक्षी तथा ठीक से सम्मति देने के कारण वह अनुमंता कहलाता है। पोषण करने के कारण वह भर्ता तथा पाप-पुण्यों का फल भोगने के कारण वह भोक्ता कहलाता है। अपने आपको देह या प्रकृति से अलग-अलग समझ लेने से वह सर्वोपरि महेश्वर और परमात्मा कहलाता है।

(22-13 अध्याय) अगला जन्म: सतोगुण के कारण देह त्यागने पर उत्तम लोक, यानि उत्तम योनि में, रजोगुण की प्रबलता के समय शरीर त्यागने पर आत्मा कर्मशील लोगों के घरों में और तमोगुण की अधिकता के समय देह त्यागने वाले मूढ़/निम्न योनियों में जन्म-लेते हैं।

(15/अध्याय-14) मोक्ष मार्ग - जब आत्मा यह समझ लेती है कि सत्व, रज और तम प्रकृति के ये तीनों गुण कर्मों के कर्ता हैं, मैं उन कर्मों का मात्र दर्शक हूं, तो आत्मा को मोक्ष प्राप्त हो जाती है।

तीनों गुणों से मुक्त: प्रकृति के तीनों गुण देह के स्तर तक अपना कार्य करते हैं, जो व्यक्ति ऐसा मानकर तटस्थ बना रहता है, अपने मन को विचलित नहीं करता, वह मुक्त है।

सद्गति का उपाय - काम, क्रोध और लाभ आसुरी अर्थात नरक के द्वार हैं, इनका त्याग ही सद्गति है।

(21/16 अध्याय) तीन तप - सद्व्यक्तियों का पूजन, सम्मान, पवित्रता, ब्रह्मचर्य एवं अहिंसा का पालन ही शरीर तप है। सद् विचारों का कथन, ये वाणी तप है। मन की शांति, संयम, पवित्रता मानसिक तप है।

(14-15-16 अध्याय-17) ये कायिक, वाचिक मानसिक तप हैं।

शुभ कर्म - यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म करके, इनके फल की आसक्ति का त्याग करना सर्वोत्तम है।

(6 अध्याय-18) कर्म सिद्धि: कर्म का एक कारण-देह है जो आधार है। दूसरा कारण-आत्मा, जिसे कत्र्ता कहते हैं तीसरा कारण इन्द्रियां हैं, जिन्हें करण कहते हैं। चैथा कारण इन्द्रियों की क्रियाएं हैं, जिन्हें चेष्टा कहते हैं। पांचवां कारण भाग्य है, जिसे दैव कहते हैं।

(14/अध्याय-18)। कर्म पांचों कारणों के मेल का परिणाम है...



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