कर्म का धर्म

कर्म का धर्म  

आलोक त्रिपाठी
व्यूस : 3717 | आगस्त 2016

यदि हम अपने आस-पास देखें तो प्रतिपल प्रत्येक व्यक्ति, पशु-पक्षीे व जीव-जन्तु को कोई न कोई कार्य करते हुए अथवा उसको करने की योजना बनाते हुये देखते हैं। वास्तव में ये सभी प्रक्रियाएं कर्म कहलाती हैं जो शारीरिक, वाचिक व मानसिक तीनों प्रकार से होती हैं। ध्यानपूर्वक देखने से ज्ञात होता है कि प्रतिक्षण जीव निरन्तर किसी न किसी कर्म को करने में व्यस्त है या यूं कहें कि बाध्य है। श्रीकृष्ण स्वयं भी श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय के प्रारम्भ में ही कर्म के इस महत्वपूर्ण सिद्धान्त का रहस्योद्घाटन करते हैं ‘‘न हि कष्चित् क्षणं अपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्’’, फलस्वरूप हम निरन्तर किसी न किसी कर्म के लिए बाध्य होते हैं। तो अब प्रष्न उठता है कि हम मनुष्यों व अन्य जीव-जन्तुओं के द्वारा किए गये कर्मों में क्या अन्तर है? वैदिक शास्त्र कहता है - ‘‘आहार निद्रा भय मैथुनं च समानम् एतद् पशुभिर् नराणाम्’’। शरीर निर्वाह हेतु किए गये कर्म तो पशु व जीव जन्तु भी करते हंै तो हम मनुष्यों को किस प्रकार के कर्म करने चाहिए जो मनुष्य को उसकी श्रेष्ठ स्थिति में बने रहने के लिए सहायक हो? यहाँ इस प्रष्न का उत्तर प्राप्त होता है- ‘‘धर्मो हि तेषां अधिको विषेषो, धर्मेणहीनाः पषुभिः समानाः।’’

केवल धर्मयुक्त होकर किए गये कर्म मनुष्य को उसकी श्रेष्ठ स्थिति में बने रहने में सहायक होते हैं। आइये वैदिक शास्त्रों में वर्णित इस ‘धर्मयुक्त कर्म’ के आषय को समझने का प्रयत्न करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कर्मों की प्रणाली को विस्तार से समझाते हैं ये मुख्यतः तीन भागों में विभाजित हैं कर्म, विकर्म तथा अकर्म। ‘‘कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। अकर्मणष्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।। (भगवद्गीता 4.17)’’ ‘कर्म’- शरीर के संरक्षण हेतु आवष्यकताओं की पूर्ति के लिए जब कोई मनुष्य शास्त्रों में वर्णित विधि का पालन करते हुए कर्म करता हैं उसे ‘कर्म’ या ‘नियत कर्म’ भी कहते हैं। विकर्म- इन्द्रियतृप्ति हेतु किए गये ऐसे प्रयत्न अथवा कार्य जिसमें मनुष्य शास्त्रों में वर्णित नियमों व विधियों की अवहेलना करता है ‘कामसंकल्प संहिता’’ जिन्हें हम ‘काम्य कर्म’ भी कहते हैं। इनमें इन्द्रियभोग व इन्द्रियतृप्ति की भावना प्रधान होती है जिसे पूर्ण करने की लालसा में मनुष्य अपराध करने में भी नहीं झिझकता। जबकि ‘कर्म’ में आवष्यकता की प्रधानता होती है तथा श्रेष्ठ नियमों व आधिकारिक संस्तुति का अधिक महत्व होता है।

‘‘नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः’’।। (भगवद्गीता 3.8)। उदाहरण स्वरूप महाराज युधिष्ठिर का अन्य राज्यों की प्रजा के कल्याण हेतु राजसूय यज्ञ कर राज्य का विस्तार करना नियत कर्म कहलाया जो ‘कर्म’ की श्रेणी में आते हैं। वहीं दुर्योधन की राज्यभोग की लालसा से प्रेरित द्यूतक्रीड़ा करके पांडवों के राज्य की प्राप्ति का प्रयास ‘काम्य कर्म’ कहलाये जो ‘विकर्म’ की श्रेणी में आते हैं। इन दोनों कर्म व विकर्म के अतिरिक्त एक अन्य कर्मविधि भी है जिसे श्रीकृष्ण सर्वोत्तम कर्मविधि के रूप में निरूपित करते हैं वो है ‘अकर्म’। जहाँ कर्म एवं विकर्म जीव को दुःख-सुख के कर्मचक्र से बाँधे रखते हैं वहीं जब मनुष्य स्वयं के इन्द्रिय-भोग व स्व-आनन्द की वासना को त्याग कर श्रीकृष्ण के आश्रित होकर उनकी प्रसन्नता हेतु कर्म करता है तब वह कर्म ‘अकर्म’ कहलाता है।

यह जीव को कर्मबन्धन से तो मुक्त करता ही है साथ ही परम नित्य मुक्तावस्था को भी प्रदान कराता है, जिसकी संस्तुति श्रीकृष्ण यहाँ करते हैं- ‘यज्ञार्थात्कर्मणो अन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।’’ (भगवद्गीता 3.9) यही नहीं ऐसे कर्म करने वाले को श्रीकृष्ण अत्यन्त बुद्धिमान व समस्त शान्ति प्राप्ति का अधिकारी मानते हैं। अब यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि यदि कोई मनुष्य अपने नियत कर्मों को भी परम सृष्टा श्रीकृष्ण के सेवा स्वरूप ही करता है तो भी वो कर्म बन्धन से मुक्त होकर दिव्य अवस्था को प्राप्त करता है- ‘‘कर्मण्यकर्म यः पश्येत् कर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।। (भगवद्गीता 4.18) महाभारत के युद्ध में अर्जुन द्वारा अपने स्वजनों से युद्ध करना ‘अकर्म’ कहलाया क्योंकि ये कार्य भगवान श्रीकृष्ण की धर्म की स्थापना की इच्छा से प्रेरित था जबकि अर्जुन पूर्व में इस कर्म का अभिलाषी नहीं था। वास्तव में ये श्रेष्ठ कर्म कोई विषेष प्रकार का कर्म अथवा कर्मों की वृद्धि नहीं है वरन् कर्ता की चेतना अर्थात उसकी उस कर्म के प्रति भावना है जो कर्म करने से पूर्व व कर्म सम्पन्न करते समय होती है जिसमें कर्मफल के उद्देष्य, कर्मफल से आसक्ति, कर्मफल पर अधिकार की स्थिति कर्म की श्रेष्ठता में कमी अथवा वृद्धि निर्धारित होती है।

तम गुण, रज गुण व सत्व गुण में क्रमानुसार जो व्यक्ति जिस प्रकार स्थित होता है उसी क्रम में उसके कर्मों का चयन व कार्य करने की चेतना प्रभावित होती है, क्योंकि ‘‘जो जितने निचले गुण में स्थित होता है उसमें उतने ही दैवीय गुणों के अभाव के कारण ज्ञान के अनुषीलन की क्षमता क्षीण होती जाती है’’- ‘‘मोघाषा मोघ कर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।’’ (भगवद्गीता 9.12) यहाँ श्रीमद्भागवत के नवम स्कन्ध के चतुर्थ अध्याय में वर्णित महर्षि दुर्वासा एवं महाराजा अम्बरीष का वृत्तांत उद्धृत होता है जिसमें क्रोध प्रेरित ऋषि दुर्वासा का सत्वगुणी महा-तपस्वी भक्त महाराजा अम्बरीष को दिया गया दण्ड उन्हीं के लिए अभिषाप बन गया। इक्ष्वाकु वंष के महान विष्णु भक्त महाराजा अम्बरीष ने विष्णु की प्रसन्नता हेतु अत्यन्त कठिन निर्जल व्रत का अनुष्ठान किया जिसके समापन हेतु अनेकों ब्राह्यणों व ऋषियों को आमंत्रित किया गया। उन्हें भोजन करा कर अन्त में प्रसाद ग्रहण करने के समय अचानक ऋषि दुर्वासा प्रकट हो गये। महाराजा अम्बरीष ने उन्हें भोजन ग्रहण करने का अनुग्रह किया परन्तु वे स्नान को चले तथा वापस आकर भोजन ग्रहण करने को कहा।

महाराजा अम्बरीष को निर्धारित समयावधि में अनुष्ठान को पूर्ण कर प्रसाद ग्रहण करना था परन्तु दुर्वासा वापस नहीं लौटे तो सभा में उपस्थित अन्य ऋषियों के अनुग्रह पर महाराजा अम्बरीष ने अनुष्ठान की औपचारिकता पूर्ण करने हेतु जल की कुछ बूंदों को ग्रहण करके अनुष्ठान पूर्ण किया और दुर्वासा ऋषि की प्रतीक्षा करने लगे। उसी समय क्रुद्ध दुर्वासा वहाँ प्रकट हुए व उनकी अनुपस्थिति में महाराजा अम्बरीष द्वारा अनुष्ठान पूर्ण करने का दण्ड देने के लिए दैत्य प्रकट कर दिया तथा राजा को मारने का आदेष दे दिया, परन्तु महाराजा अम्बरीष की निष्ठा व दैवीय गुणों से युक्त किये गये ‘अकर्म’ से प्रसन्न होकर विष्णु के अस्त्र सुदर्षन वहीं प्रकट हो गये जिनके प्रकट होने मात्र से ही दैत्य वहीं भस्म हो गया तत्पष्चात् सुदर्षन ऋषि दुर्वासा की ओर बढ़ने लगे और भयभीत दुर्वासा भागने लगे। वे बचने के लिए तीनों लोकों में भागे परन्तु सुदर्षन ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। समस्त देवों से दुर्वासा ने रक्षा की विनती की परन्तु सभी असमर्थ रहे। अन्त में ऋषि द्वारा महाराजा अम्बरीष से रक्षा विनती करने पर दुर्वासा की रक्षा हुई। यहाँ अन्त में विष्णु भक्त महाराज अम्बरीष द्वारा ऋषि दुर्वासा को मृत्यु-भय से मुक्त कराना दैवीय गुण प्रभावित ‘अकर्म’ प्रदर्षित करता है।

वहीं ऋषि दुर्वासा का दण्ड देना तम गुण प्रभावित निकृष्ट कर्म की संस्तुति कराता है। अतः श्रीकृष्ण हमें नित्य श्रेष्ठ व बन्धन मुक्त कर्मों की प्रेरणा देते हैं तथा हमें सदैव सत्वगुण में ही स्थित रहने की सलाह देते हैं-‘‘निद्र्वन्द्वो नित्य सत्वस्थो निर्योग क्षेम आत्मवान’’। जो व्यक्ति ऐसी श्रेष्ठ स्थिति को प्राप्त कर लेता है एवं उनपर पूर्ण विष्वास रखते हुए उन्हें ही सर्वोच्च आश्रयदाता व हितैषी मान कर कर्म करता है तो श्रीकृष्ण स्वयं उसकी सुरक्षा व प्रत्येक आवष्यकता पूर्ण करने का वचन दे देते हैं- अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। (भगवद्गीता 9.22) तत्पष्चात् वो परमपद अर्थात ऐसी अवस्था में रहता है जिसमें वो दुःख के भय व सुख के मोह से अप्रभावित रहकर नित्य शान्ति को धारण कर लेता है। अतः परम भगवान का पूर्ण आश्रय हमारे समस्त कर्मों को विकार अथवा दोष मुक्त कर देता है तथा परम-नित्य आनन्द, सुख व शान्ति प्रदान करता है।



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