एकाधिक वैवाहिक संबंध के ज्योतिषीय आयाम

एकाधिक वैवाहिक संबंध के ज्योतिषीय आयाम  

आभा बंसल
व्यूस : 6594 | जनवरी 2007

ज्योतिष के क्षेत्र में कार्यरत सभी महानुभावों के पास आम लोग किसी न किसी समस्या को लेकर आते रहते हैं। समस्याएं अधिकतर व्यक्ति के व्यवसाय, विवाह, बच्चे, स्वास्थ्य एवं आर्थिक पहलुओं से संबंधित होती हैं। परंतु अभी कुछ समय से जिस समस्या में तेजी आई है वह आम व्यक्ति के जीवन में उथल-पुथल लाने वाली एक बड़ी समस्या है वैवाहिक या विवाहोत्तर संबंधों में उतार-चढ़ाव। पहले जमाने में राजे महाराजे तो अनेक विवाह करते थे, पर हमारे हिंदू समाज में आम व्यक्ति को एक से अधिक विवाह करने की इजाजत नहीं थी। प्रथम पत्नी की अचानक मृत्यु अथवा किसी विशेष परिस्थिति के कारण ही बहुविवाह का चलन था

जिसे समाज की मान्यता भी मिल जाती थी। परंतु आज के समाज में बहु विवाह की बजाय बहुसंबंधों का चलन अधिक हो गया है और आजकल युवक एवं युवतियां दोनों ही अपनी अपनी संबंधों की समस्याओं में जब फंस जाते हैं, तो उनका निराकरण ज्योतिष द्वारा कराना चाहते हैं। बहु विवाह एवं बहु संबंधों के ज्योतिषीय विश्लेषण के लिए हमारे शास्त्रों ने अनेक सूत्र दिए हैं। इनमें कुछ प्रमुख सूत्र निम्नलिखित हैं जो विशेषतया हमारे अनुभव के आधार पर तर्कसंगत और फलीभूत होते पाए गए हैं।

Û मेष लग्न में नीच राशि में चंद्र अष्टम भाव में हो और चंद्र पर शनि की दृष्टि हो, अग्नि तत्व सिंह राशि में सूर्य एवं शुक्र हों और किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो एकाधिक संबंध योग की सृष्टि होती है।

Û वृषभ लग्न में सप्तमेश मंगल और सूर्य बुध के साथ द्वादश भाव में हों और चतुर्थ भाव में शनि तथा राहु हों तो जातक के बहु संबंध होते हैं।

Û स्त्री जातक के लिए मिथुन लग्न में गुरु लग्नस्थ हो, द्वितीय भाव में शुभ ग्रह बुध शुक्र तथा नीच मंगल के साथ हो और चतुर्थ भाव में क्षीण चंद्र को शनि देखता हो, तो जातक की मति भ्रष्ट हो जाती है और अनेक संबंध स्थापित होते हैं।

Û कर्क लग्न में सप्तम भाव में सूर्य हो, उस पर शनि की दृष्टि हो, लग्नेश चंद्र पापकर्तरी योग में पीड़ित हो, तो जातक एक से अधिक विवाह करता हैं।

Û पुरुष जातक की कुंडली में सिंह लग्न में शनि एवं चंद्र सप्तम भाव में हों और मंगल से दृष्ट हों, तो जातक के बहु संबंध होते हैं।

Û स्त्री जातक की कुंडली में कन्या लग्न में राहु, सप्तम भाव में सूर्य, बुध, केतु और शुक्र, अष्टम भाव में शनि तथा चंद्र, चतुर्थ भाव में मंगल से दृष्ट होकर बैठे हों, तो जातक के बहुसंबंध बनते हैं।

Û स्त्री जातक की कन्या लग्न हो, द्वितीय भाव में राहु, अष्टम में गुरु केतु, नवम में सूर्य, बुध और शुक्र अस्त, एकादश में शनि चंद्र मंगल हो तो व्यभिचारिणी योग होता है।


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Û सप्तम भाव में पापी ग्रह मंगल व चंद्र की युति हो तथा कुटुंबेश या सप्तमेश के साथ दो या दो से अधिक ग्रह हों तो भी बहुविवाह होते हैं।

Û विषम राशि में लग्न हो और सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु और शुक्र बली हों तथा शनि साधारण हो तो भी बहुसंबंध बनते हैं।

Û स्त्री जातक के लिए तुला लग्न हो और द्वितीय भाव वृश्चिक राशि में चंद्र, मंगल, बुध, शुक्र और केतु और अष्टम में राहु हो तो जातक के बहु संबंध होते हैं।

Û तुला लग्न में सप्तम भाव में शनि और गुरु हों, द्वादश भाव में राहु हो और पंचम में बुध हो, तो एक से अधिक विवाह का योग बनता है।

Û वृश्चिक लग्न में शनि व राहु, द्वादश में मंगल और शुक्र अस्त हो तो बहु सबंध होते हैं।

Û धनु लग्न में मंगल व शुक्र, द्वादश भाव में, वृश्चिक राशि में सूर्य, बुध व केतु हों और सिंह राशि में चंद्र को शनि देखता हो और किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो एक से अधिक विवाह होते हैं।

Û धनु लग्न में केतु और सप्तम में राहु हो, शुक्र अष्टम भाव में हो, लग्न पर मंगल की दृष्टि हो और चंद्र तथा शुक्र अस्त हों तो एक से अधिक विवाह होते हैं।


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Û मकर लग्न हो, द्वादश भाव में सूर्य, बुध व शुक्र हों और मंगल से दृष्ट हों, राहु व केतु वृषभ एवं वृश्चिक में हो और चंद्र को मंगल देखता हो तो जातक के बहु संबंध होते हैं।

Û मकर लग्न हो, सप्तम में मंगल हो, अष्टम में शुक्र, चंद्र, केतु और लग्नेश शनि नीच हों तथा किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो, तो जातक के बहु संबंध होते हैं।

Û कुंभ लग्न के लिए सूर्य व केतु द्वितीय स्थान में हों, छठे, सातवें, आठवें स्थानों में पापी ग्रह हों और बारहवें भाव में चंद्र हो और वह मंगल से दृष्ट हो तो बहु संबंध बनते हैं।

Û मीन लग्न हो, चतुर्थ भाव में मंगल हो, षष्ठ भाव में चंद्र व राहु हो और अष्टम भाव में सूर्य व बुध हों और किसी शुभ ग्रह की दृष्टि इन पर न हो, तो जातक के बहु संबंध होते हैं। प्रस्तुत है उदाहरण कुंडलियां जो हमारे समक्ष आई हैं- निम्न कुंडली एक महिला जातक की है जिसमें लग्नेश द्वादश भाव में है पर चलित कुंडली में शनि के साथ है और सप्तम भाव में केतु मंगल से दृष्ट है।

लग्न में नीच का राहु है जो चंद्र को देख रहा है और चंद्र से अष्टम मंगल की दृष्टि शुक्र पर है जो कि सप्तमेश है। चंद्र गुरु के नक्षत्र में और गुरु चंद्र से छठे में है। चंद्र लग्न से सप्तम भाव का स्वामी बुध पाप ग्रह के साथ और नवांश में अष्टम भाव में शनि बुध केतु जातक के दाम्पत्य जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहे हैं। जातक की केतु की महादशा 11 दिसंबर 1993 से 11 दिसंबर 2000 तक है। इस अवधि में जातक अपने ऊपर संयम नहीं रख पाई और चरित्र को कलुषित कर लिया। निम्न कुंडली एक पुरुष जातक की है

जिसमें लग्नेश चंद्र छठे भाव में अग्नि तत्व राशि में स्थित है और मंगल शनि राहु व सूर्य के मध्य पापकर्तरी योग से पीड़ित है। लग्न से सप्तम भाव में सूर्य को किसी शुभ ग्रह की दृष्टि नहीं होने से और जाया कारक ग्रह शुक्र चलित कुंडली में अष्टम भाव में होने से जातक का तलाक हुआ और दूसरा विवाह हुआ। चंद्र की पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में स्थिति एवं उस नक्षत्र मंगल के स्वामी शुक्र के उच्च का होने से जातक का बहु संबंध भी हुआ।


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