श्राद्ध के साथ करें पितरों को विदा

श्राद्ध के साथ करें पितरों को विदा  

वाई.के. बंसल
व्यूस : 5220 | सितम्बर 2016

श्राद्ध के द्वारा श्राद्धकत्र्ता के पिता, पितामह आदि पितरों का नरक से उद्धार हो जाता है। पितरों की भक्ति से मनुष्य को पुष्टि, आयु, वीर्य और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। श्राद्ध करने वाले मनुष्य का कुल कभी दुख में नहीं पड़ता। जो विधिवत अपने पितृजनों के लिए श्राद्ध करता है वह पुत्र सर्वजन श्रेष्ठता, सौभाग्य, समृद्धि, प्रमुखता, मांगलिक रक्षता, अभीष्ट कामना पूर्ति, वाणिज्य में लाभ, निरोगता, यश, शौकाराहित्य, परमगति, धन, विद्या वाक्सिद्धि, पात्र, गो, अज, भेड़, अश्व और दीर्घायु प्राप्त कर अंतकाल में मोक्ष लाभ प्राप्त करता है। पितरों का श्राद्ध करने से भोग एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है। समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुखी नहीं रहता। पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है। देव कार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्व है। देवताओं से पहले पितरांे को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है। पितरों की एक सौभाग्यवती कन्या थी। उस सुन्दरी का नाम ‘पीवरी’’ था। शुकदेवजी ने उन्हें अपनी पत्नी बनाया। उस कन्या से चार पुत्र उत्पन्न हुये। कृष्ण - गौरप्रभ - भूरि - देवश्रुत और कीर्ति नाम की एक कन्या हुई। पितर ब्रह्माजी की सभा में गये।

ब्रह्माजी को दुखी होकर अकेले रहने की बात बताई तब ब्रह्माजी ने परमसुंदरी मानसी कन्या प्रकट की। ये भगवती ‘‘स्वधा’’ ब्रह्माजी की मानसी कन्या हैं। ब्रह्माजी ने पितरों को संतुष्ट करने के लिए पत्नी रूप में उन्हें सौंप दिया। पितर सदा इनकी पूजा करते हैं। इन्हीं की कृपा से श्राद्धों का फल मिलता है। तुम्हें श्राद्ध व अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैं। श्राद्ध का प्रचलन कब हुआ: ‘‘प्राचीन काल में ब्रह्माजी से महर्षि अत्रि की उत्पत्ति हुई। वे बड़े प्रतापी ऋषि थे। उनके वंश में भगवान् दत्तात्रेय का जन्म हुआ। दत्तात्रेय के पुत्र निमि हुए जो बड़े आलसी थे। निमि के भी एक पुत्र हुआ जिनका नाम था श्रीमान्। वह बड़ा सुंदर था। उसने एक हजार वर्षों तक बड़ी कठोर तपस्या करके अंत में काल-धर्म के अधीन होकर प्राण त्याग दिये। महर्षि निमि को पुत्र शोक के कारण बड़ा संताप हुआ तो उन्होंने शास्त्र विधि के अनुसार अशौच निवारण की सारी क्रिया की। फिर श्राद्ध के लिए शास्त्रों में जो फल-मूल और अन्न आदि भोज्य पदार्थ बताये गए हैं तथा उनमें से जो-जो पदार्थ उनके पुत्र को प्रिय थे उन सबका विचार करके उन्होंने संग्रह किया। इस प्रकार श्राद्ध करने के पश्चात मुनि श्रेष्ठ निमि को बड़ा पश्चात्ताप होने लगा।

अतः मन ही मन बहु संतप्त होकर वे सोचने लगे मुनियांे ने जो कार्य पहले कभी नहीं किया उसे मंैने ही क्यों कर डाला? मेरे इस मनमाने बात को देखकर ब्राह्मण लोग मुझे अपने शाप से अवश्य भस्म कर डालेंगे। यह बात ध्यान में आते ही उन्होंने अपने वंश प्रवर्तक महर्षि अत्रि का स्मरण किया। निमि के ध्यान करते ही तपोधन अत्रि का स्मरण किया। निमि के ध्यान करते ही तपोधन अत्रि वहां आ पहुंचे। आने पर जब उन्होंने निमि को पुत्र शोक से दुखी देखा तो मधुर वाणी के द्वारा उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा - तुमने जो यह श्राद्ध किया है इससे डरो मत। सबसे पहले स्वयं ब्रह्माजी ने इस धर्म का ज्ञान प्राप्त किया है और वे ही उसके प्रवर्तक भी हैं, उन्हीं के द्वारा विहित धर्म का तुमने अनुष्ठान किया है। ब्रह्माजी के सिवा दूसरा कौन श्राद्ध-विधि उपदेश कर सकता है। इस प्रकार पहले निमि ने श्राद्ध का आरंभ किया उसके बाद सभी महर्षि उनकी देखा-देखी शास्त्र विधि के अनुसार श्राद्ध करने लगे। गया तीर्थ में श्राद्ध का महत्व गयासुर को भगवान विष्णु ने गदा से मारा। अतः गदाधर भगवान विष्णु ही गया तीर्थ मुक्तिदाता माने गये हैं। भगवान विष्णु ने इस तीर्थ की मर्यादा स्थापित की। जो मनुष्य यहां यज्ञ-श्राद्ध-पिंडदान एवं स्नान कर्म करता है वह स्वर्ग अथवा ब्रह्मलोक में जाता है।

गया में खीर-सत्तू-आटा-चावल आदि से भी पिंड दान किया जाता है। गया में जो पितरों का लोक है वहां साक्षात् भगवान विष्णु विराजमान हैं। वर्षभर में एक पक्ष गया श्राद्ध के लिए प्रतिष्ठित है। जो मनुष्य पशु या चोर द्वारा मारे जाते हैं, जिनकी मृत्यु सर्प के काटने से होती है वे सभी गया के पुण्य से उन्मुक्त होकर स्वर्ग चले जाते हैं। गया यात्रा के लिए मात्र घर से चलने वाले एक-एक कदम पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनते जाते हैं। गया तीर्थ में दिन तथा रात (प्रत्येक समय) में कभी भी श्राद्ध किया जा सकता है। श्राद्धकर्ता स्नान करके श्वेत वस्त्र धारण करे। दक्षिण दिशा की ओर ब्राह्मण का मुंह करवाकर भोजन करवायें। जिस श्राद्ध में रसोई करते समय कलह होता है वह श्राद्ध भी सफल नहीं होता। श्राद्धकर्ता श्राद्ध के एक दिन पहले ब्राह्मणों को निमंत्रित करे। ब्रह्मचारी को निमंत्रित करने से विशेष फल होता है। श्राद्ध में उच्चरित पितरांे के नाम तथा गोत्र ही उस दान दिये गये अन्न को ले जाते हैं। श्राद्धों की कुल संख्या सोलह है। ‘‘श्राद्ध का समय आ गया है’’ ऐसा जानकर पितरों को प्रसन्नता होती है। वे परस्पर ऐसा विचार करके उस श्राद्ध में तीव्रगति से आ पहुंचते हैं। अंतरिक्षगामी वे पितृगण उस श्राद्ध में ब्राह्मणों के साथ ही भोजन करते हैं। वे वायुरूप में वहां आते हैं और भोजन करके परमगति को प्राप्त हो जाते हैं।

श्राद्ध के पूर्व जिन ब्राह्मणों को निमंत्रित किया जाता है पितृगण उन्हीं के शरीर में प्रविष्ट होकर वहां भोजन करते हैं और उसके बाद वे पुनः वहां से अपने लोक को चले जाते हैं। श्राद्धकाल में यमराज प्रेत तथा पितरों को यमलोक से मृत्युलोक के लिए मुक्त कर देते हैं। पितृगण अमावस्या के दिन वायुरूप में घर के दरवाजे पर उपस्थित रहते हैं और अपने स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं। जब तक सूर्यास्त नहीं हो जाता तब तक वे वहीं भूख-प्यास से व्याकुल होकर खड़े रहते हैं। सूर्यास्त हो जाने के पश्चात् वे निराश होकर दुखित मन से अपने वंशजों की निंदा करते हैं और लंबी-लंबी सांस खींचते हुए अपने-अपने लोकों को चले जाते हैं। अतः प्रयत्नपूर्वक अमावस्या के दिन श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। श्राद्धकर्ता को चाहिए कि वह श्राद्ध में मित्र ब्राह्मण को निमंत्रित न करे। श्राद्ध और यज्ञ में भोजन तो उसे ही कराना चाहिए जो शत्रु या मित्र न होकर मध्यस्थ हो। जो लोग एक दूसरे के यहां श्राद्ध में भोजन करके परस्पर दक्षिणा देते और लेते हैं उनकी वह दान-दक्षिणा पिशाच दक्षिणा कहलाती है। वह न देवताओं को मिलती है न पितरांे को। यदि मातृश्राद्ध में ब्राह्मणी का अभाव हो तो श्रेष्ठ परिवार में उत्पन्न हुई पति पुत्र से संपन्न सौभाग्यवती स्त्रियों को श्राद्ध में निमंत्रित किया जा सकता है।

जब तक कन्या राशि पर सूर्य रहते हैं तब तक पितर अपनी संतानों द्वारा किये हुए श्राद्ध की प्रतीक्षा करते हैं। उसके भी बीत जाने पर कुछ पितर तुला राशि के सूर्य तक परे कार्तिक मास में अपने वंशजांे द्वारा किये जाने वाले श्राद्ध की राह देखते हैं। जब सूर्य देव वृश्चिक राशि में चले जाते हैं तब वे पितर दीन एवं निराश होकर अपने स्थान पर लौट जाते हैं। इस प्रकार पूरे दो मास तक भूख-प्यास से व्याकुल पितर वायु रूप में आकर घर के दरवाजे पर खड़े रहते हैं अतः जब तक कन्या और तुला पर सूर्य रहते हैं तब तक तथा अमावस्या के दिन सदा पितरों के लिए श्राद्ध करना चाहिए। विशेषतः तिल और जल की अंजलि देनी चाहिए। कन्या राशि और तुला राशि में श्राद्ध न हो तो अमावस्या को अवश्य करें वह भी न हो तो एक बार गयाजी में जाकर श्राद्ध कर दें जिससे नित्य श्राद्ध का फल प्राप्त होता है। भगवान सूर्य जब हस्त नक्षत्र एवं कन्या राशि पर स्थित हों तब आश्विन कृष्णपक्ष में महालय काल बताया गया है। उस समय पितरों के लिए जो कुछ दिया जाता है वह सब अक्षय होता है। जिस राशि पर सूर्य के स्थित रहते समय ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की मृत्यु हो जाती है उसी राशि में मृत्यु तिथि को पितृकर्म करना चाहिए। आकाश और दक्षिण दिशा पितरों के स्थान हैं।

मघा नक्षत्र पितरों का है अतः वह पितरों को अधिक प्रीति प्रदान करने वाला है। उस नक्षत्र में पुत्रों द्वारा दिया हुआ श्राद्ध का दान पितरों को विशेष तृप्त करता है। श्राद्ध भोजन में वर्जित पदार्थ मस ूर-सा ै ंफ-लहस ुन-गाजर-प्याज - मूली -हींग - आंवला-लौकी-काला नमक-काला जीरा-सिंघाड़ा- जामुन के फल- नींबू-उड़द-शलगम-लाल रंग की वस्तुएं श्राद्ध कर्म में नहीं होनी चाहिए। भैंस का दूध श्राद्ध कर्म में काम में न लाएं। खीर गाय के दूध से बनाएं। इन वस्तुओं के संपर्क से श्राद्ध व्यर्थ हो जाता है। श्राद्ध भोजन में श्रेष्ठ (उत्तम) पदार्थ: अनार-केला-कमल -सुगंधित फूल-श्वेत रंग के पुष्प -तिल-चावल-जौ-मूंग-गेहूं-मटर -सरसों-इन सबका श्राद्ध में होना अच्छा है। जो रात्रि के समय लाया गया हो वह जल श्राद्ध के योग्य नहीं होता। ऊंटनी का, भेड़ का, मृगी का तथा भैंस का दूध श्राद्धकर्म में काम में न लें। ब्रह्माजी के उत्पन्न किये हुये कुछ देवता ही पितरांे के नाम से प्रसिद्ध हैं उन्हें ‘‘उष्णप’’ भी कहते हैं। रजस्वला स्त्री को श्राद्ध भूमि में न उपस्थित होने दें। दूसरे कुल की स्त्री को श्राद्ध का भोजन तैयार करने में न लगायंे। पृथ्वी पर मनुष्य जिन-जिन वस्तुओं का दान करता है वे सभी वस्तुएं यमलोक तथा उस महापथ में उसके सामने उपस्थित रहती हैं।

यमलोक और मृत्युलोक के मध्य छियासी हजार योजन की दूरी है। प्राणी की मृत्युतिथि पर प्रतिमास श्राद्ध करना चाहिए। जिसका दाह नहीं हुआ है उसके लिए श्राद्ध नहीं करना चाहिए। जब बहुत से पुत्र हांे और धन का बंटवारा हो गया है तो सभी पुत्रों को अलग-अलग श्राद्ध करना चाहिए। यदि किसी प्राणी की मृत्युतिथि और प्रस्थान काल का दिन स्मरण नहीं है तो उसी मास की अमावस्या तिथि को उस प्राणी का श्राद्ध करें। जब मृतक के प्रस्थान का भी दिन और मास ज्ञात न हो तो जिस दिन एवं मास में मृत्यु की बात सुनी गई हो उसे ही श्राद्ध के लिए उपयुक्त मान लें। तर्पण करते समय पिता-पितामह आदि के नाम का उच्चारण करें। किसी नदी के किनारे पहुंचने पर पितरों का पिंडदान और तर्पण अवश्य करना चाहिए। ब ्रह्माजी-प ुलस्त्य-वशिष्ठ-प ुलह अंगिरा-ऋतु और महर्षि कश्यप ये सात ऋषि महान योगेश्वर और पितर माने गये हैं। पितरों के लिए दक्षिणाभिमुख होकर अन्न दें। श्राद्ध के दिन तथा सभी पर्वों के दिन बुद्धिमान पुरुषों को स्त्री संभोग नहीं करना चाहिए। विद्वान पुरूष को अमावस्या के दिन अवश्य श्राद्ध करना चाहिए। उत्तम कर्मों द्वारा उपार्जित धन से पितरों का श्राद्ध करना उचित है। श्राद्ध कर्म में जो मंत्रकाल और विधि आदि की त्रुटि रह जाती है उसकी पूर्ति पर्याप्त दक्षिणा देने से होती है।

अतः विद्वान पुरूष को दक्षिणा रहित श्राद्ध कदापि नहीं करना चाहिए। जो श्राद्ध-भोजन, श्राद्ध दान करके कलह करता है, वह उस संपूर्ण श्राद्ध को व्यर्थ कर देता है। पितरों की तृप्ति के लिए तिल की आवश्यकता होती है। ब ्राह्मण-म ंत्र-क ुश-अग्नि-त ुलसी-य े बार-बार प्रयोग होने पर भी बासी नहीं होते। ज्योतिष का एक योग होता है जब कृष्ण त्रयोदशी के दिन चंद्रमा मघा नक्षत्र में और सूर्य हस्त नक्षत्र में हो। यह योग श्राद्ध के लिए अच्छा माना जाता है। श्राद्धकाल में शरीर-द ्रव्य-स्त्री-भ ूमि-मन-म ंत्र तथा ब्राह्मण इन सात वस्तुओं की शुद्धि पर विशेष ध्यान देना चाहिए। देवकर्म में ब्राह्मण की परीक्षा न करंे किंतु श्राद्धकर्म में यत्न पूर्वक ब्राह्मण की परीक्षा करें। उत्तरमुख होकर देवताओं का और दक्षिणमुख होकर पितरों का कार्य करना चाहिए। ब्राह्मण को सतयुग, क्षत्रिय को त्रेता, वैश्य को द्वापर और शूद्र को कलियुग माना गया है। विद्वान पुरूष शुक्ल पक्ष के पूर्वाह्न और कृष्ण पक्ष के अपराह्न में श्राद्ध करें। स्वयं पुत्र ही आकर श्राद्ध के पात्रों को उठाये। चंद्र ग्रहण के सिवा और कभी रात्रि में श्राद्ध न करें। चंद्रग्रहण का दर्शन होने पर शीघ्र सर्वस्व लगाकर भी रात्रि में श्राद्ध करें। ग्रहण के समय श्राद्ध न करने वाला कष्ट पाता है और जो श्राद्ध करता है वह अपने पाप से उसी प्रकार तर जाता है जैसे जहाज समुद्र के पार होता है।

श्राद्ध के दिन काष्ठ से दातून नहीं करनी चाहिए। जहां तुलसी वन की छाया देती है वहीं पितरो को तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए। जो मनुष्य आंवले की छाया में बैठकर पिंडदान करता है उसके पितर भगवान विष्णु के प्रसाद से मोक्ष को प्राप्त होते हैं। सोने-चांदी और तांबे के पात्र पितरों के पात्र कहे जाते हैं। श्राद्ध में चांदी की चर्चा और दर्शन भी राक्षसों का विनाश करने वाला-यशोदायक तथा पितरों को तारने वाला होता है। जो भोजन के समय बातचीत करता है उसके खाये हुए अन्न को पितर ग्रहण नहीं करते। स्त्री श्राद्ध के पात्र को न हटाये। आत्मघात करने वाले प्राणियों का श्राद्ध न करायंे। कुतपकाल में श्राद्ध करें। (12 सायं से 3 सायं) के बीच में कुतपकाल होता है। पितरों को तिल विशेष प्रिय है। श्राद्ध में गाय का दूध और घी उत्तम माना गया है। श्राद्धकर्ता सबके अंत में मौन भाव से भोजन करे। श्राद्ध करने वाले को उस दिन तेल लगाना मना है। श्राद्ध में आने वाले ब्राह्मण का मुंह भोजन करते समय दक्षिण दिशा की ओर हो। पितरांे की ‘‘स्वधा’’ पत्नी थी। देवताओं के लिए वस्तु दान में ‘‘स्वाहा’’ और पितरांे के लिए ‘‘स्वधा’’ शब्द का उच्चारण श्रेष्ठ माना है। स्वधा-स्वधा तीन बार स्मरण करें तो श्राद्ध तर्पण का फल मनुष्य को मिल जाता है। यह श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी हैं।

दौहित्र (लड़की का लड़का) कुतपकाल (दिन का आंठवा मुहूर्त) और तिल-ये तीन तथा चांदी का दान और उसकी चर्चा तथा कीर्तन-दर्शन आदि (अथवा भगवतकथा कीर्तन आदि) करना ये सब श्राद्धकाल में पवित्र माने गये हैं। श्राद्धकर्ता के लिए क्रोध-मार्ग-गमन और उतावालापन ये तीन बातंे वर्जित हंै। पितृगण का आधार चंद्रमा है और चंद्रमा का आधार योग है इसलिए श्राद्ध में योगिजन को नियुक्त करना अति उत्तम है। ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक गर्म-गर्म भोजन कराना चाहिए। ब्राह्मणों के पात्रों में चुपचाप अन्न परोसकर संकल्प करना चाहिए। स्वयं पुत्र ही आकर पिता के श्राद्ध के पात्रों को उठाये। श्राद्ध समाप्त होने पर ब्राह्मण को एक चांदी का सिक्का यथासंभव और सफेद तिल और काले तिल का दान दें। दान देते समय आपका अपना मुंह दक्षिण दिशा की तरफ होना चाहिए और दान देते समय स्वधा शब्द का तीन बार उच्चारण करना है। यदि बासी अन्न-तेल का बना हुआ पदार्थ अथवा केश आदि से दूषित भोजन परोसा जाय तो वह श्राद्ध भी व्यर्थ हो जाता है। जिस श्राद्ध में रसोई तैयार करते समय कलह होता है वह श्राद्ध भी सफल नहीं होता।

श्राद्ध के भोजन को रजस्वला स्त्री देख लेती है तो वह व्यर्थ हो जाता है। अमावस्या को तो विशेष रूप से श्राद्ध करने का आदेश दिया गया है। अमावस्या प्रत्येक धर्मकार्य के लिए अक्षयफल देने वाली बताई गई है। श्राद्धकर्म में तो इसका विशेष महत्व है। श्राद्ध से पितरों को एक वर्ष तक तृप्ति बनी रहती है। श्राद्ध की समाप्ति होने पर ब्राह्मणों से आशीर्वाद लेना चाहिए। इससे दीर्घायु की प्राप्ति होती है। पुत्र वो है जो पितरांे को तार दे। संसार में पुत्र वही कहलाता है जो पिता का उद्धार करे। पितरों की तृप्ति चाहने वाले पुरुष को पिता का श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। आत्मा ही पुत्र का नाम है। वही पुत्र यमलोक में पिता का रक्षक होता है। घोर नरक से वही पिता का उद्धार करता है इसलिए इसे पुत्र कहा जाता है। अतः पुत्र को पिता के लिए श्राद्ध करना चाहिए। इस प्रकार यह शास्त्र की उत्तम विधि बतायी गयी है। मरे हुए मनुष्य अपने वंशजों द्वारा पिंडदान पाकर प्रेतत्व के कष्ट से छुटकारा पा जाते हैं।

उपरोक्त विवरण और लेख मागदर्शन इन पुराणों से लिये गये हैं:-

1. नारद पुराण

2. स्कंद पुराण

3. गरूड़ पुराण

4. संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत् पुराण

5. महाभारत



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