मंगल-मंगल भी, अमंगल भी

मंगल-मंगल भी, अमंगल भी  

शिव प्रसाद गुप्ता
व्यूस : 9261 | अप्रैल 2011

मंगलकारी ग्रह 'मंगल' को जन्मकुंडली के प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश भावों में होने पर अमंगली होने का दोष लग जाता है। भारतीय ज्योतिष में मांगलिक दोष सर्वाधिक चर्चा का विषय है। क्योंकि यह दोष जातक के विवाह में विलंब, तलाक या घर परिवार में विघटन का कारण बन जाता है। परंतु मंगल पर शुभ ग्रहों का प्रबल प्रभाव होना या मंगल के अति निर्बल व अस्त होने पर मंगल दोष नगण्य सा हो जाता है। पति एवं पत्नी दोनों में मंगल दोष होने पर उसका समायोजन हो जाता है और दोष भंग हो जाता है। इसी तथ्य को कृतार्थ करते हुए इस शोध में चर्चा की गई है। जन्मकुंडली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम व द्वादश भाव में मंगल की उपस्थिति मंगल दोष का सृजन करती है जो गृहस्थ जीवन में बाधकता, पारिवारिक सुख में कमी तथा मानसिक पीड़ा व दैहिक संताप को दर्शाती है। लग्न जातक के शरीर का है। इसमें मंगल की उपस्थिति से उनका स्वास्थ्य व स्वभाव प्रभावित होता है और वह स्वभाव से जिद्दी, क्रोधी व उग्र हो जाता है।

लग्न में स्थित मंगल की चतुर्थ दृष्टि चतुर्थ भाव (गृहस्थ सुख) पर, सप्तम दृष्टि सप्तम भाव (पति/पत्नी, व्यापार) पर तथा अष्टम दृष्टि अष्टम भाव (कामेच्छा, आयु) पर पड़ती है जिसके फलस्वरूप गृहस्थ सुख में कमी, पति/पत्नी में अवरोध उत्पन्न होने की संभावना बन जाती है। जातक के व्यवहार में उत्तेजना, क्रोध व आवेश का समावेश होने से उसका जीवन दुःखमय हो जाता है। क्रोध आवेश के कारण वह गलत निर्णय लेकर बार-बार पछताता है और अपना नुकसान करता है। पति/पत्नी के विचारों में मतभेद से गृहस्थ जीवन में विघटन, टूटन एवं अवरोध होना स्वाभाविक है। चतुर्थ भाव गृह सुख का है जिसमें मंगल की उपस्थिति जातक के गृहस्थ जीवन के सुख में अवरोध का संकेत देती है। चतुर्थ भाव में स्थित मंगल की चतुर्थ दृष्टि सप्तम (पति/पत्नी, व्यापार) भाव पर, सप्तम दृष्टि दशम (कर्म, व्यवसाय) भाव पर व अष्टम दृष्टि एकादश भाव (लाभ, आजीविका) पर पड़ती है। व्यवसाय एवं लाभ में व्यवधान उत्पन्न होने पर पारिवारिक गृहस्थ सुख में कमी होना स्वाभाविक है और उसका प्रभाव पति/पत्नी के बीच के सामंजस्य पर भी पड़ सकता है।

इस प्रकार मंगल के चतुर्थ भाव में होने पर जातक के गृहस्थ सुख, दाम्पत्य जीवन, आजीविका व भोग में कमी आती है तथा व्यापार में हानि होती है। वह क्रोध, उत्तेजना, आवेश में बार-बार व्यवसाय परिवर्तित करता है और हानि उठाता है जिससे उसकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो जाती है और उसका जीवन दुःखमय हो जाता है। सप्तम भाव जीवन साथी एवं व्यापार (साझेदारी) का है। मंगल की यहां उपस्थिति जीवन साथी व सहयोगी के लिए कष्टकारी होती है। सप्तम भाव में स्थित मंगल की चतुर्थ दृष्टि दशम (कर्म/व्यवसाय) भाव पर, सप्तम दृष्टि प्रथम (स्वयं के शरीर) भाव पर तथा अष्टम दृष्टि द्वितीय (परिवार/संचित धन) भाव पर पड़ती है जिसके फलस्वरूप शारीरिक अस्वस्थ्यता, उग्र स्वभाव, परिवार के विरोध, धन की कमी, व्यवसाय में गतिरोध जैसी स्थितियों के उत्पन्न होने पर उनका प्रभाव जातक के दाम्पत्य जीवन पर पड़ना स्वभाविक ही है। अष्टम भाव कामेच्छा, लिंग, आयु व मृत्यु का है। अष्टम भाव में उपस्थित मंगल की चतुर्थ दृष्टि एकादश (लाभ, आजीविका) भाव पर, सप्तम दृष्टि द्वितीय (परिवार/संचित धन) भाव पर तथा अष्टम दृष्टि तृतीय (पराक्रम) भाव पर पड़ती है। फलस्वरूप घर-परिवार, समृद्धि से वंचित, आर्थिक उपार्जन से हीन, पराक्रम विहीन व्यक्ति का दाम्पत्य जीवन दुःखी बने रहना स्वभाविक है।

द्वादश भाव शैय्या सुख एवं भोग विलास का है। मंगल की यहां उपस्थित व उसकी दृष्टि सप्तम भाव पर पड़ने से शैय्या सुख में कमी होने से दाम्पत्य जीवन में व्यवधान उत्पन्न होना स्वभाविक है। द्वादश भाव में मंगल धन का अपव्यय कराता है और जातक रोग शोक ग्रस्त होकर शत्रुओं से घिरा रहता है। वह अपने अपमान, निराशा, कुंठा, सन्यास आदि का दोष अपने जीवन साथी को देता है और क्रोध व आवेश से वशीभूत होकर वह अपना जीवन नारकीय बना लेता है। कुछ विद्वानों के अनुसार द्वितीय भाव में भी मंगल के उपस्थित रहने से मंगल दोष होता है। द्वितीय भाव सप्तम से अष्टम है जो जीवनसाथी की आयु का प्रतिनिधित्व करता है। द्वितीय भाव में स्थित मंगल की चतुर्थ दृष्टि पंचम (संतान, बुद्धि) भाव पर, सप्तम दृष्टि अष्टम (कामेच्छा, आयु) भाव पर तथा अष्टम दृष्टि नवम(भाग्य, धर्म) भाव पर पड़ती है। बुद्धि भ्रष्ट होने, भाग्य की प्रतिकूलता, धर्म से विमुखता, कामेच्छा के अन्यथा प्रभावित होने से दाम्पत्य जीवन में अवरोध उत्पन्न होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है।

चूंकि चंद्र मन का और शुक्र दाम्पत्य सुख का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए चंद्र लग्न तथा शुक्र की स्थिति से भी उपरोक्त भावों अर्थात् प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वादश में मंगल की उपस्थिति दाम्पत्य जीवन को प्रभावित करती है। मंगल के उच्च या स्वगृही होकर मंगल दोष बनने पर मंगल का सूर्य, राहु या शनि के साथ होने पर, चंद्र मंगल या गुरु मंगल योग बनने पर मंगल दोष की अशुभता काफी कम हो जाती है। गुरु के लग्न या केंद्र में होने पर भी मंगल दोष की अशुभता का शमन होता है। मंगल पर शुभ ग्रहों का प्रबल प्रभाव होना या मंगल के अति निर्बल व अस्त होने पर मंगल दोष नगण्य सा हो जाता है। पति एवं पत्नी दोनों में मंगल दोष होने पर उसका समायोजन हो जाता है और दोष भंग हो जाता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार वर्णित भावों (प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश) में अन्य तमोगुणी ग्रह राहु, केतु, शनि की उपस्थिति को भी मंगल दोष का परिहार माना जाता है।

किंतु वस्तुतः इस स्थिति में मंगल दोष अपना कुछ प्रभाव तो अवश्य ही परिलक्षित करता है। मंगल दोष का विचार करने के साथ जातक के सांसारिक सुख, पारिवारिक सुख, संतान, आयु एवं आजीविका आदि के बारे में भी आंकलन करना चाहिए क्योंकि इन्हीं से जीवन की सार्थकता जुड़ी हुई है। प्रस्तुत कुंडलियां ऐसे दंपत्ति की है जो मांगलिक है किंतु उनका जीवन सुखमय है और वह एक दूसरे के प्रति समर्पित एवं निष्ठावान है। यहां पर पति की जन्मकुंडली में लग्न में मंगल एवं राहु है जबकि पत्नी की कुंडली में मंगल केतु सप्तम स्थान में है जिससे उनके मंगल दोष का प्रतिकार हो रहा है। दोनों जन्मकुंडलियों में सूर्य (आत्मा) एवं चंद्र (मन) कन्या राशि में है जिसके अधिपति बुध (बुद्धि) है। पति की लग्न के अधिपति बुध, पत्नी की लग्न के अधिपति शनि के साथ पति की कुंडली में दृष्टि संबंध व पत्नी की कुंडली में युति बना रहे हैं। पति एवं पत्नी दोनों के सूर्य व चंद्र लग्न के अधिपति बुध ही है जो शनि (पत्नी के लग्नेश) से संबंध बना रहे हैं।

इस प्रकार इन जन्मकुंडलियों से पति पत्नी के बीच परस्पर सामंजस्य व आपसी समझ उत्तम परिलक्षित होती है। पति की कुंडली में चतुर्थ (गृहस्थ सुख) भाव पर गुरु की स्वक्षेत्रीय दृष्टि है और पत्नी की कुंडली में चतुर्थेश शुक्र चतुर्थ से चतुर्थ अर्थात सप्तम भाव में दशमेश मंगल के साथ विराजमान है। यद्यपि शुक्र पर मंगल केतु का प्रभाव है जिससे पत्नी फैशनपरस्त एवं उन्मुक्त विचारों की है। किंतु उसका व्यवहार मर्यादित है क्योंकि शुक्र मंगल की युति नवमेश (धर्म) एवं दशमेश (कर्म) की भी युति है। पति पत्नी दोनों प्रगतिशील विचार के एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व के होने से उनके अहम टकराव से कभी-कभी छोटी मोटी नोक झोक अवश्य उनके बीच होती रहती है किंतु उनके बीच सामंजस्य, समर्पण एवं निष्ठा में कोई कमी नहीं है। अब प्रस्तुत कुंडलियां ऐसे दम्पत्ती की है जो वरिष्ठ पदों पर कार्यरत हैं।

इन्होंने प्रेम विवाह किया किंतु उनका दाम्पत्य जीवन लंबे समय तक नहीं चल पाया। यहां पति की जन्मकुंडली में मंगल दोष है जिसका प्रतिकार पत्नी की जन्मकुंडली में नहीं है। पति की लग्न के अधिपति मंगल एवं पत्नी की जन्म लग्न के अधिपति शनि पति की कुंडली में एक दूसरे से छठे, आठवें स्थान पर है जबकि पत्नी की कुंडली में यह एक दूसरे से चैथे व दसवंे स्थान पर है। पति के चंद्र लग्नेश मंगल व पत्नी के चंद्र लग्नेश सूर्य पति की कुंडली में एक दूसरे से तीसरे ग्यारहवें भाव पर है जबकि पत्नी की कुंडली में एक दूसरे से दूसरे बारहवें स्थान पर है। यह स्थिति पति पत्नी के बीच समंजस्य व आपसी समझ समुचित रूप से नहीं होना दर्शाती है। पति की कुंडली में चतुर्थ भाव में नीच का मंगल है जो गृहस्थ सुख में अवरोध का संकेत देता है। सप्तम (पत्नी) भाव में मंगल की चतुर्थ दृष्टि एवं राहु की पंचम दृष्टि है। सप्तमेश शुक्र पर वक्री शनि की सप्तम दृष्टि व केतु की नवम दृष्टि है। इस प्रकार सप्तम, सप्तमेश व शुक्र पर विजातीय तत्वों के प्रभाव के कारण इनका अंर्तजातीय प्रेम विवाह हुआ किंतु अलगाववादी प्रभाव ने इनके दाम्पत्य जीवन में दरार उत्पन्न की।

द्वादशेश गुरु के वक्री होने से शैय्या सुख में कमी आई और चतुर्थ भाव में नीच के मंगल में उनके गृहस्थ जीवन को ध्वस्त कर दिया। भाग्येश गुरु की दशम भाव पर नवम दृष्टि, दशमेश शनि की एकादश भाव में उपस्थिति, दशम भाव में लग्नेश मंगल की उचच दृष्टि के कारण जातक एक उच्च अधिकारी बना और आर्थिक रूप से काफी संपन्न भी रहा। पत्नी की कुंडली में नवमेश, दशमेश व एकादशेश की पंचम भाव में युति बुद्धि, कर्म एवं भाग्य के माध्यम से अच्छी आय होना दर्शाता है। जातिका भी एक उच्च अधिकारी एवं आर्थिक रूप से काफी संपन्न है। सप्तम (पति) भाव में षष्टमेश चंद्र विराजमान है जिन पर राहु की पंचम दृष्टि है। सप्तम भाव, सप्तमेश, चंद्र, शुक्र, गुरु पर विजातीय प्रभाव ने जहां जातिका को प्रेम विवाह के लिए प्रेरित किया वहीं उन पर अलगाववादी प्रभाव के कारण दाम्पत्य जीवन लंबे समय तक नहीं चल सका और विघटन हुआ।

जातिका के लग्नेश व द्वादशेश शनि वक्री है जो उसके शैय्या सुख में व्यवधान को दर्शाते हैं। चतुर्थ भाव (गृहस्थ सुख) पर वक्री शनि की तृतीय दृष्टि ने उसके गृहस्थ जीवन को छिन्न भिन्न कर दिया। प्रस्तुत कुंडलियां ऐसे दंपत्ति की है जिनके बीच काफी तनाव होते हुए भी उनका दाम्पत्य जीवन चल रहा है। पति की कुंडली में द्वादश भाव में मंगल और पत्नी की कुंडली में सप्तम में मंगल है जिसके फलस्वरूप उनके मंगल दोष का प्रतिकार होता है। पति के लग्नेश मंगल व पत्नी के लग्नेश शनि पति की कुंडली में एक दूसरे से छठवें आठवें स्थान में तथा पत्नी की कुंडली में एक दूसरे से नवम पंचम में है। पति के चंद्र लग्नेश शुक्र एवं पत्नी के चंद्र लग्नेश शनि पति की कुंडली में एक दूसरे से तीसरे ग्यारहवें स्थान में तथा पत्नी की कुंडली में एक दूसरे से सप्तम स्थान में है। इस प्रकार पति पत्नी के बीच समंजस्य मध्यम श्रेणी का है।

पति की कुंडली में सप्तम भाव पर उच्च के चंद्र विराजमान है जिन पर गुरु की नवम दृष्टि है जिसके फलस्वरूप उन्हें समर्पित, बुद्धिमान एवं प्रसन्नमुख पत्नी मिली किंतु शनि की तृतीय दृष्टि व षष्टेश मंगल की अष्टम दृष्टि ने पत्नी को रोगग्रस्त बना दिया। पत्नी की कुंडली में लग्नेश व व्ययेश शनि वक्री होकर नीच राशि के तृतीय भाव में स्थित है जो उसके शैय्या सुख में कमी को दर्शा रहे हैं। शनि की तृतीय दृष्टि पंचम स्थान पर है जो तनावपूर्ण जीवन एवं शिक्षा में व्यवधान का द्योतक है। सप्तम भाव में तृतीयेश व दशमेश मंगल, अष्टमेश पंचमेश बुध व केतु के साथ हैै। सूर्य व चंद्र दोनों पर ग्रहण योग राहु केतु की उपस्थिति से बन रहा है किंतु यहां चंद्र पूर्ण बली है और गुरु की उस पर पंचम दृष्टि है जिससे जातिका का मनोबल व आत्म विश्वास प्रबल रहा। गुरु की पंचम भाव पर नवम दृष्टि ने उसे संतान भी दी और बुद्धि भी।

षष्टमेश चंद्र की लग्न में राहु के साथ युति ने उसे रोग ग्रस्त कर दिया जिससे पारिवारिक जीवन में तनाव बना और पति से उसे अपेक्षित सुख नहीं मिल पाया किंतु गुरु के शुभ प्रभाव के कारण उनके दाम्पत्य जीवन में विघटन नहीं हुआ और उनकी गृहस्थी की गाड़ी चल रही है।



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