छाया ग्रह होते हुए भी प्रभावी है राहू-केतु

छाया ग्रह होते हुए भी प्रभावी है राहू-केतु  

शिव प्रसाद गुप्ता
व्यूस : 48586 | आगस्त 2006

राहु-केतु छाया ग्रह हैं। इनका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता, इसीलिए ये जिस ग्रह के साथ बैठते हैं उसी के अनुसार अपना प्रभाव देने लगते हैं। लेकिन राहु-केतु की दशा-महादशा काफी प्रभावशाली मानी जाती है। यदि कुंडली में उनकी स्थिति ठीक हो तो जातक को अप्रत्याशित लाभ मिलता है और यदि ठीक न हो तो प्रतिकूल प्रभाव भी उतना ही तीव्र होता है। पढ़िए इस आलेख में राहु-केतु के स्वरूप एवं प्रभाव का विशद् वर्णन...

सार मंडल में सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर अपने-अपने अंडाकार पथ पर निरंतर परि क्रमा करते रहते हैं। सूर्य से बढ़ती दूरी के क्रम में ग्रह हैं- बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, गुरु और शनि। चूंकि हम पृथ्वी पर निवास करते हैं इसलिए पृथ्वी पर ग्रहों के प्रभावों के आकलन के लिए पृथ्वी के स्थान पर सूर्य को ज्योतिष शास्त्र में ग्रह माना गया है।


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राहु-केतु के संबंध में पुराणों में कथा आती है कि दैत्यों और देवताओं के संयुक्त प्रयास से हुए सागर मंथन से निकले अमृत के वितरण के समय एक दैत्य अपना स्वरूप बदलकर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया और उसने अमृत पान कर लिया। उसकी यह चालाकी जब सूर्य और चंद्र देव को पता चली तो वे बोल उठे कि यह दैत्य है और तब भगवान विष्णु ने चक्र से दैत्य का मस्तक काट दिया। अमृत पान कर लेने के कारण उस दैत्य के शरीर के दोनों खंड जीवित रहे और ऊपरी भाग सिर राहु तथा नीचे का भाग धड़ केतु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ये दोनों सूर्य और चंद्र से प्रबल शत्रुता रखने के कारण उन्हें समय-समय पर ग्रहण के रूप में ग्रसित करते रहते हैं।

राहु-केतु का सौर मंडल में अपना कोई भौतिक अस्तित्व और स्वरूप न होने से ये दोनों वस्तुतः छाया ग्रह हंै और इसलिए इनकी अपनी कोई राशि नहीं है। दैत्य कुल के होने के कारण इनका रंग काला, स्वभाव क्रूर, वर्ण म्लेच्छ एवं प्रवृत्ति तमोगुणी (पापी) मानी गई है। राहु-केतु की तुलना सांप से भी की गई है। राहु सांप का मुंह है और केतु उसकी पूंछ। यह सांप गहन अंधकार और धुएं का भी प्रतीक है।

राहु-केतु सदैव वक्री गति से भ्रमण करते हैं और सदैव एक दूसरे से 1800 पर रहते हैं। इनका एक राशि का भ्रमण लगभग 18 माह का तथा संपूणर्् ा राशि चक्र का 18 वर्षों का माना गया है। अगर कोई ग्रह राहु-केतु से अंशों में कम हो तो भ्रमण के दौरान उसे इन दोनों का सामना करना पड़ेगा जिसके फलस्वरूप उस ग्रह की शक्ति क्षीण हो जाएगी। राहु-केतु के अंशों से अधिक अंशों वाले किसी ग्रह को इन दोनों के बीच से होकर नहीं गुजरना पड़ेगा, और ये दोनों उत्प्रेरक के रूप में उस ग्रह के प्रभाव पर असर डालेंगे।


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चंूकि राहु-केतु की अपनी कोई राशि नहीं है इसलिए ये जिस भाव और राशि में स्थित होते हैं तथा जिस भावेश के साथ बैठते हैं या संबंध रखते हैं, उसी से संबंधित फल देते हैं। राहु-केतु संबंधित ग्रह के प्रभाव में उत्प्रेरक का कार्य करते हैं अथर्¬ात यदि ये योगकारक ग्रह के साथ हों तो योगकारक और यदि मारक ग्रह के साथ हों तो मारक हो जाते हैं। चूंकि इन ग्रहों (राहु केतु) का स्वभाव अनिश्चयात्मक है इसलिए ये अप्रत्याशित रूप से संबंधित ग्रह के फल में वृद्धि करते हैं किंतु बाद में उसे छीन भी लेते हैं।

राहु में शनि तथा केतु में मंगल के समान गुण पाए जाते हैं। गुरु के समान राहु-केतु की उनकी स्थिति से पंचम, सप्तम और नवम भावों पर पूर्ण दृष्टि मानी गई है। पापी स्वभाव के होने के कारण ये जन्मकुंडली के केंद्र स्थान ( 1, 4, 7, 10) में उदासीन रहते हैं। लग्न तथा त्रिकोण (5, 9 ) स्थान में शुभ, द्वितीय और द्वादश में उदासीन (न शुभ न अशुभ) त्रिषडाय ( 3, 6, 11) में पापी और अष्टम भाव में महापापी होते हैं। ये यदि केंद्र (4, 7, 10) में स्थित होकर त्रिकोण (5, 9) के स्वामी से संबंध स्थापित करें या त्रिकोण (5, 9) में स्थित होकर केंद्र (4, 7, 10) के स्वामी से संबंध स्थापित करें या लग्न में स्थित होकर लग्न, त्रिकोण् ोश या केन्द्रेश से संबंध स्थापित करें तो राहु-केतु बहुत शुभ फल देते हैं। सूर्य और चंद्र राहु-केतु के प्रबल शत्रु हैं। इसलिए इनसे युक्त होने या संबंध स्थापित होने पर ये दोनों की शक्ति को क्षीण कर देते हैं। अष्टम भाव में यदि अष्टमेश या अन्य किसी पापी ग्रह के साथ राहु-केतु हांे तो परम अशुभ होकर मृत्यु या उसके जैसा कष्ट देते हैं।

आइये, कुछ जन्मकुंडलियों की सहायता से राहु केतु के प्रभाव का और स्पष्ट रूप से विश्लेषण करें।

कुंडली संख्या 1 में राहु लग्न में है और लग्नेश शनि की उस पर तृतीय दृष्टि है। लग्न में होने और लग्नेश से दृष्टिगत होने से वह यहां शुभ है। पंचमेश शुक्र पंचम भाव में अपनी राशि वृष में है और लग्नेश और धनेश शनि से दृष्टि संबंध बना रहा है। राहु की पंचम दृष्टि शुक्र पर और केतु की पंचम दृष्टि शनि पर इस शुभ संयोग को और बढ़ा रही है। लग्नेश और द्वितीयेश (धनेश) शनि स्वयं एकादश (लाभ) स्थान में है और लग्नेश की दृष्टि लग्न को शक्तियुक्त बना रही है। एकादश (लाभ) स्थान में स्थित शनि की एकादशेश एवं चतुर्थेश मंगल पर दशम दृष्टि तथा लग्नेश व धनेश शनि पर मंगल की चतुर्थ दृष्टि का संबंध आय, धन-संपत्ति, ऐश्वर्य और सुख की दृष्टि से कुछ अच्छा है। इस प्रकार लग्नेश और धनेश शनि के पंचमेश (बुद्धि कारक) और कर्मेश (दशमेश) शुक्र, लाभेश और सुखेश मंगल और लग्न में स्थित राहु से संबंध ने शुभता प्रदान की जिसमें राहु केतु की पंचम दृष्टि ने और वृद्धि की। फलस्वरूप जातक को ऐश्वर्यवान और सतृद्ध कर उसे सभी प्रकार के सांसारिक सुख प्राप्त कराए।


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कुंडली संख्या 2 में लग्न में नीच राशि (कर्क) का मंगल है। द्वितीय कुटुंब और धन भाव में द्वितीयेश सूर्य स्वयं है। केतु के साथ होने से सूर्य तथा राहु के साथ अष्टम भाव में लग्नेश चंद्र (मन का कारक) होने से सूर्य व चंद्र दोनों की शक्ति क्षीण हो गई। द्वादशेश (व्ययेश) बुध की द्वितीय भाव में उपस्थिति ने भी सूर्य व चंद्र की शक्ति को और कम किया।

सप्तमेश शनि नीच का होकर दशम स्थान में है और केतु की नवमी दृष्टि उसकी अशुभता को और बढ़ा रही है। फलस्वरूप संपन्न और धनी परिवार में पैदा होने के बावजूद जब जातक ने अपना हिस्सा लेकर अलग व्यवसाय किया तो उसकी फैक्ट्री, धन और व्यवसाय सभी कुछ जाता रहा और पत्नी से तलाक की स्थिति बनी जिससे पारिवारिक जीवन भी छिन्न-भिन्न हो गया और उसे दर-दर की ठोकरें खाने के लिए व मानसिक संताप झेलने के लिये विवश होना पड़ा।

कुंडली संख्या 3 प्रधानमंत्री श्री जुल्फिकार अली भुट्टो की है। यहां त्रिषडाय भाव (6) में होने से केतु अशुभ हो गया है। केतु के साथ अष्टमेश शुक्र और द्वादशेश बुध होने से उसके अशुभ प्रभाव में और वृद्धि हो गई। चतुर्थेश और पंचमेश शनि के षष्ठम भाव में स्थित होने एवं पापी ग्रहों के साथ होने से शनि की शुभ शक्ति (केन्द्रेश व त्रिकोणेश की) क्षीण हो गई। दशमेश (राज्येश) चंद्र का द्वादश (व्यय) भाव में राहु के साथ संयोग चंद्र को शक्तिहीन बना रहा है। अष्टम भाव पर राहु की नवमी दृष्टि अशुभ फलदायी है। षष्ठेश गुरु पर भी अशुभ केतु की पंचम दृष्टि है। इस प्रकार अशुभ तीनों त्रिक भावों (6, 8, 12) व उनके अधिपति अर्थात अष्टम भाव और अष्टमेश शुक्र, षष्ठम भाव व षष्ठेश गुरु तथा द्वादश व द्वादशेश बुध पर अश्ुाभ स्थान में स्थित राहु-केतु का प्रबल प्रभाव है जिससे इन भावेशों का अशुभ (पाप) प्रभाव और बढ़ गया। राज्येश चंद्र व उसकी राशि कर्क भी राहु-केतु के प्रबल प्रभाव मे हैं। फलस्वरूप भुट्टो को सत्ताच्युत होना पड़ा और साथ ही साथ फांसी का दंड भी भोगना पड़ा।


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कुंडली सं. 4 के लग्न भाव में गुरु (लग्नेश व चतुर्थेश), सूर्य (नवमेश व भाग्येश), बुध (सप्तमेश व राज्येश) और शुक्र (लाभेश व षष्ठेश) के अंशों से पीछे होने के कारण ये चारों ग्रह राहु (सांप के मुंह के स्वरूप धुआं, अंधकार) से ग्रसित और निष्प्रभावी हो गए। मन के कारक चंद्रमा पर क्रूर (पापी) ग्रह मंगल की चतुर्थ व शनि की दशम दृष्टि है। इस पाप प्रभाव को केतु की नवमी दृष्टि और बढ़ा रही है। इस अशुभ प्रभाव के कारण यह व्यक्ति मानसिक रूप से विकलांग है और बड़े अधिकारी का पुत्र होने के बावजूद उसे जीवन पराश्रित होकर एवं अत्यंत साधारण रूप से व्यतीत करना पड़ रहा है। कुंडली सं. 5 एक ऐसे इंजीनियर की है जो एक संपन्न परिवार में पैदा हुआ। उसने भवन निर्माण एवं शेयर का कार्य बड़े पैमाने पर किया जिसमें उसे बहुत हानि उठानी पड़ी और अंततः उसे विपन्नता की स्थिति में जीवन निर्वाह करना पड़ा। इस

जन्मकुंडली में तृतीयेश (पुरुषार्थ) चंद्र के साथ शत्रु राशि (सिंह) का राहु ग्रहण योग बना रहा है जिससे चंद्र (पुरुषार्थ) शक्तिहीन हो गया। भाग्येश (नवमेश) व कर्मेश (दशमेश) शनि, जो व्यवसाय ( निर्माण व शेयर) का भी कारक है, अष्टम भाव में अष्टमेश व लाभेश गुरु के साथ है और उस पर राहु की पंचम दृष्टि है जिससे गुरु व शनि के अशुभ प्रभाव में और वृद्धि हो गई। दशम (कर्म) भाव भी राहु-केतु के प्रभाव में है। इस प्रकार राहु-केतु ने भाग्य, कर्म व पुरुषार्थ तीनों को क्षीण किया और फलस्वरूप जातक को विपन्नता का जीवन गुज.ारना पड़ा।

कुंडली सं. 5 दस्यु सुंदरी और बाद में सांसद बनी फूलनदेवी की है। अष्टम भाव में नवमेश (भाग्येश) व षष्ठेश बुध तथा पंचमेश (बुद्धिकारक) व कर्मेश (दशमेश) शुक्र के साथ अष्टमेश सूर्य विराजमान है। राहु के अंशात्मक पीछे होने से इन तीनों ग्रहों के अशुभ प्रभ्¬ााव में और वृद्धि हो गई। फलस्वरूप बुद्धि, भाग्य, कर्म और धर्म दूषित हो गए। तृतीयेश (पराक्रमेश) गुरु लाभ (एकादश) स्थान में है और अपने भाव (तृतीय) को पंचम दृष्टि से देख रहा है। तृतीय भाव में केतु है जो भावेश (गुरु) से दृष्ट है। लाभेश (एकादशेश) मंगल भाग्य (नवम) स्थान में राहु के साथ है और तृतीय (पराक्रम) भाव को देख रहा है। इस प्रकार पराक्रम, पराक्रमेश व लाभेश पर राहु-केतु उनके बल में वृद्धि कर रहे हैं। किंतु बुद्धि, भाग्य, कर्म और धर्म भावों की अशुभता न े फू लन क े जीवन का े गलत दिशा में मोड़कर उसे दस्यु बना दिया। नवम (भाग्य) भाव में सुखेश (चतुर्थेश)



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