महिमामय है वृन्दावन

महिमामय है वृन्दावन  

राकेश कुमार सिन्हा ‘रवि’
व्यूस : 3780 | आगस्त 2016

त्रियोग के प्रवत्र्तक भगवान श्री कृष्ण की लीला भूमि, मंदिरों की नगरी, वृन्दा का धाम और भारतीय तीर्थों के श्रीधाम के नामों से अलंकृत तीर्थों का देश भारतवर्ष के सदाबहार तीर्थों में सुविख्यात ब्रजप्रदेश के हृदयक्षेत्र में विराजमान वृन्दावन महाभारत काल के पूर्व से ही धर्म व अध्यात्म का केंद्र रहा है। देश के सप्त पुनीत पवित्र धामों में एक श्री कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा से करीब 15 किमीउत्तर-पश्चिम 26.330 उत्तरी आक्षांश और 66.410 पूर्वी देशान्तर पर अवस्थित पुण्य सरिता यमुना के किनारे बारह वनों के समूह से बना विशाल वन क्षेत्र ही आज का वृन्दावन है

जो एक ओर नंदग्राम से दूसरी ओर गोवर्द्धन तक सुविस्तृत है। जिस प्रकार वाराणसी से सारनाथ, गया से बोधगया, हरिद्वार से ऋषिकेश, जगन्नाथपुरी से कोणार्क, अजमेर से पुष्कर, राजगीर से नालंदा, शिरडी से शनि-शिंगणापुर आदि तीर्थ अभिन्न रूप से जुड़ा है ठीक उसी प्रकार मथुरा से छः मील की दूरी पर बसे वृन्दावन की स्थिति है जो भारत देश के भ्रमणकालीन तीर्थ-संस्कृति का संवाहक स्थल है। श्रीमद् भागवत्, हरिवंश पुराण, पद्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, तीर्थ दीपिका, रघुवंश सहित कितने ही प्राचीन ग्रंथों में वृन्दावन के विशद् वृत्तांत अंकित हैं। और तो और जैन साहित्य, मराठी साहित्य, बंगला साहित्य, ओडिया साहित्य और ब्रजभाषा में भी वृन्दावन से जुडे़ ऐतिहासिक सांस्कृतिक विवरण उपलब्ध हैं।

वृन्दावन के नामकरण के तीन तथ्य वर्णन योग्य हैं। पहला तो यह कि श्री कृष्ण की प्राणबल्लभा श्री राधा जी के सोलह नामों में एक है ‘वृन्दा’। चूंकि राधा-कृष्ण का प्रथम रास, जिसे महारास भी कहा गया है; इसी वन में होने के कारण यह वृन्दावन कहलाया। दूसरी युक्ति यह है कि वृन्दा का आशय तुलसी से है जो श्री विष्णु को अतीव प्रिय है। प्राच्य काल में यह पूरा क्षेत्र तुलसी वृक्ष से आच्छादित होने के कारण वृन्दावन कहलाया तो एक अन्य विवरण के अनुसार राजा मंदार की पुत्री वृन्दा ने इसी वन प्रान्त क्षेत्र में कठोर साधना व तप संपन्न की जिस कारण यह क्षेत्र वृन्दावन कहलाया। नामकरण का आधार चाहे जो भी रहा हो पर यह तीर्थ नगरी आज भी पूर्णतया राधामय है। पूरे नगर में संबोधन व अभिवादन के प्रधान शब्द हैं राधे-राधे। भारतीय तीर्थों में वृन्दावन एक सदाबहार तीर्थ है।

काशी, प्रयाग और गया की भांति वृन्दावन का विस्तार पंचयोजन है जहां देव दर्शन के क्रम में झांसी के अवलोकन का विशेष आनंद है। विवरण है कि गोकुल से कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंद जी कुटुम्बियों और सजातीय के साथ वृन्दावन चले आये थे। श्री कृष्ण के बाद यहां प्रारम्भिक निर्माण का श्रेय श्री कृष्ण के प्रपौत्र ब्रजनाभ को दिया जाता है। आगे के समय में थूरसेन जनपद के प्रमुख केंद्र के रूप में यहां की उच्च स्थिति बनी रही। कालीदास ने अपनी कृति ‘रघुवंश’ मंे तो नरसी मेहता ने अपनी गीतों में वृन्दावन का वर्णन विवरण किया है।


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महाप्रभु बल्लभाचार्य का स्थान भी वृन्दावन में ही था जहां महाकवि सूरदास दीर्घकाल तक रहे। 16वीं शताब्दी के प्रारंभिक चरण में श्री चैतन्य महाप्रभु के आगमनोपरांत इस तीर्थ की ख्याति पुनः मुखरित हुई। आगे स्वामी हरिदास, श्री हित हरिवंश, श्री निम्बकाचार्य, श्री लोकनाथ बाबा, तैलंग स्वामी, श्री अद्वैताचार्य, श्री मात्रित्यानंद पाद जी महाराज आदि महात्माओं के चरण रज से यह स्थान और भी पवित्र हुआ। इसी जमाने से यहां देवालय निर्माण का क्रम आज तक जारी है। मुगलकाल में औरंगजेब की क्रूर निगाह भी इधर पड़ी और उन्होंने वृन्दावन का नाम ‘मोमिनाबाद’ रखने का भी भरसक प्रयास किया। इस काल में मथुरा-वृन्दावन के कितने ही देवालय कोपभाजन के शिकार बने पर राजे रजवाड़ों की दानभक्ति व जाट राजाओं के उद्योग से वृन्दावन की अस्मिता बनी रही। ब्रिटिश शासन काल में भी यहां उन विद्रुप-देवालयों का शृंगार उसी पुराने ढर्रे पर किया गया। देश के तपप्रधान नदियों में एक यमुना नदी वृन्दावन को तीन तरफ से घेरे है। आज जिसे रासमंडल कहा जाता है

उसके चारांे ओर यमुना नदी बहती है। इसके चातुर्दिक दर्जनों मंदिर और 12 छायादार विशाल वृक्ष वाटिकाएं शोभित हैं। यमुना नदी के घाट पर पहुंचते ही मन पुरातन स्मृति में लीन हो जाता है। यहां कितने ही घाट बने बिगड़े पर जो शेष हंै उनमें केशी घाट, गोपाल घाट, गोविन्द घाट, टिकारी घाट, शृंगारवट घाट, वंशीवट घाट, चीरघाट आदि प्रमुख हैं। बरसात के दिनों में आस-पास की हरियाली मन मोहती है और इन घाटों से नौका विहार में एक अलग आनंद ही प्राप्त होता है। कहते हैं वृन्दावन में साढे पांच हजार मंदिर, सवा सौ से अधिक आश्रम और कुंज और 365 धर्मशालाएं हैं और पूरे नगर में ऐसी कोई भी गली, सड़क या मुहल्ला नहीं जहां मठ, मंदिर या आश्रम न हांे।

यहां के प्रतिष्ठित देवालयों में गोविन्द देव मंदिर, रंग जी मंदिर, मदन मोहन मंदिर, श्री कृष्ण बलराम मंदिर, शाह जी मंदिर, राधा-दामोदर मंदिर, बांके बिहारी मंदिर, मानस मंदिर, श्री गोपीश्वर महादेव मंदिर, ब्रह्मचारी जी मंदिर, मीराबाई मंदिर, राधा श्यामसुंदर मंदिर, रसिक बिहारी मंदिर, सत्यनारायण मंदिर, पागलबाबा मंदिर व प्रेम मंदिर का सुनाम है। यहां के अन्य तीर्थ में ज्ञानगुदड़ी, हितरास मंडल, अष्टसखीधाम, वंशीवट, निकुंज आश्रम आदि में भी भक्त जरूर जाते हैं। गौ सेवा परंपरा से जुड़ा महान् धाम है वृन्दावन जहां श्री कृष्ण ने भी अपने हाथों से गौ-सेवा की है।

उस जमाने में यहां नौ लाख गाएं थीं। आज भी यहां आधे दर्जन से अधिक गौशाले हैं जहां भक्त बंधु जाकर गौ सेवा में अपना योगदान अर्पित कर धन्य होते हैं। ऐसे तो वृन्दावन में हरेक भारतीय पर्व को मनाने का अपना अलग अंदाज व ढंग है पर सर्वाधिक आकर्षण होती है यहां श्री कृष्णजन्माष्टमी। प्रारंभ काल से ही मथुरा वृन्दावन में तीर्थ परिक्रमा की बात है तो वृन्दावन में यह 4 मील का है और स्वामी वास की जो चालीस दिवसीय परंपरा है उसका भी समापन श्री कृष्ण जन्म उत्सव के बाद हो जाता है।

वृन्दावन को भारतीय तीर्थों में प्रेम की स्थली के रूप में भी अलंकृत किया जाता है। यही वह स्थल है जहां श्री कृष्ण ने गोपियों के साथ रासलीला रचाते वंशी बजाई तो राधिका ने अपने प्रियतम के विरह में करूण तान सुनाकर पूरे क्षेत्र को प्रेममय बना दिया। आज भी यहां इसके पुट कमोबेश देखे जा सकते हैं और लोगों में शालीनता व मिलनसार भाव इसके उदाहरण हैं। जहां सबको लगता मन है वही प्यारा वृन्दावन है।। 84 कोस का महाधाम ब्रज प्रदेश, जो चारों धाम से निराला है; के आंचल में विराजित वृन्दावन दर्शनीय है, वन्दनीय है, आदरणीय है तो पूज्यनीय भी है, जहां के कण-कण में राधा-कृष्ण वास करते हैं।


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