चतुर्थ भावस्थ शनि एक विचित्र सत्य

चतुर्थ भावस्थ शनि एक विचित्र सत्य  

रश्मि चैधरी
व्यूस : 17273 | अकतूबर 2014

ज्योतिष शास्त्र में शनि ग्रह के अनेक नाम हैं - सूर्य पुत्र, अस्ति, शनैश्चर इत्यादि। अन्य ग्रहों की अपेक्षा जो ग्रह धीरे-धीरे चलता हुआ दिखाई देता है उसे ही हमारे ऋषि मुनियों ने ‘‘शनैश्चर ‘‘अथवा ’शनि’ कहा है। पाश्चात्य ज्योतिष में इसे ‘‘सैटर्न’’ कहते हैं। जनसाधारण में इसे सर्वाधिक आतंकवादी ग्रह के रूप में जाना जाता है। ऐसी धारणा है कि शनि की महादशा, ढैया अथवा साढ़ेसाती कष्टकारी या दुःखदायी ही होती है। भारतीय ज्योतिष में शनि को न्यायाधीश माना गया है। किंतु ‘शनि’ एक ऐसा ग्रह है जो विपŸिायों, संघर्षों और कष्टों की अग्नि में तपाकर जातक को अतिशय साहस और उत्साह देता है तथा उसके श्रम एवं अच्छे कर्मों का पूर्ण फल और शुभत्व भी प्रदान करता है।

‘‘जातक परिजाता’’ में दैवज्ञ वेद्यनाथ जी ने शनि को ‘‘चतुष्पदो भानुसुत’’ कहा है। 6, 8, 12 भाव इसके अपने भाव हैं। यह पश्चिम दिशा का स्वामी ग्रह है, मकर तथा कुंभ राशि का स्वामी है। शनि ग्रह से वात्-कफ, वृद्धावस्था, नींद, अंग-भंग पिशाच बाधा आदि का विचार करना चाहिए। शनि से प्रभावित व्यक्ति अन्वेषक, ज्योतिषी, ठेकेदार, जज इत्यादि हो सकता है, मेष राशि में नीच तथा तुला राशि में उच्च स्थिति में होता है। पुष्य, अनुराधा और उŸाराभाद्रपद इसके नक्षत्र हैं। अन्य ग्रहों के समान शनि ग्रह के भी कुंडली के 12 भावों और 12 राशियों में भिन्न-भिन्न फल होते हैं। वैसे प्रथम भाव में शनि यदि उच्च राशिस्थ अथवा स्वगृही है तो जातक को धनी, सुखी बनाता है। द्वितीय भाव में नेत्र रोगी, तृतीय में बुद्धिमान, चतुर्थ में भाग्यवान, बुद्धिमान एवं अपयशी भी बनाता है।

इसी प्रकार द्वादश भावों में शनि के पृथक-पृथक फल बताये गये हैं। किंतु यहां पर में केवल चतुर्थ भावस्थ शनि के बारे में एक विचित्र एवं स्वानुभूत सत्य बताने की चेष्ट है। जैसा कि सर्वविदित है कि चतुर्थ भाव मातृ कारक भाव माना गया है। माता से संबंधित ज्ञान कुंडली के चतुर्थ भाव से प्राप्त करना चाहिए। अनेकानेक कुंडलियों का अध्ययन करने के बाद देखा गया कि शनि यदि चतुर्थ भाव में होगा तो ऐसे जातक को अपनी माता का सुख कम मिलता है तथा उसके जीवन में किसी एक ऐसी महिला का पदार्पण अवश्य होता है जिसे वह अपनी माता के समान ही सम्मान देता है और अपनी मां के होते हुए भी वह अपना सम्पूर्ण आदर, प्रेम व सम्मान उस स्त्री को देता है जिसे वह मातृतुल्य समझता है।

चतुर्थ भावस्थ शनि वाला जातक ऐसी स्त्री को मां मानता है अर्थात उसके जीवन में एक से अधिक माताओं का प्यार होता है। यह महिला कोई भी हो सकती है, उसकी मौसी, चाची, बुआ या यहां तक भी देखने में आया है कि दोनों का कहीं से कोई भी संबंध नहीं है फिर भी कभी उससे बात हुई और धीरे-धीरे ये मां और बेटे के संबंध इतने मधुर हो जाते हैं कि यथार्थ में उनका प्रेम मां बेटे जैसा हो जाता है। यह एक शोध का विषय है जो क्रमशः कई कुंडलियों का लगातार अध्ययन करने के बाद पाया गया है। अब इस कथन की सत्यता को स्थापित करने के लिए कुछ कुंडलियों की ज्योतिषीय व्याख्या करते हैं - सर्वप्रथम देखते हैं युग पुरुष-मर्यादा पुरुषोŸाम भगवान श्रीरामचंद्र जी की जन्म पत्रिका - भगवान श्रीरामचंद्र की कुंडली कर्क लग्न की है। माता का कारक ग्रह चंद्रमा स्वयं लग्न में और चतर्थ भाव में उच्चस्थ शनि ।

शनि और च ंद्र का केंद्रस्थ संबंध और माता का कारक कुंडली में (शुक्र) नवम् भाव में गुरु की राशि में उच्चस्थ। चतुर्थ भावस्थ शनि ने चार-चार माताएं प्रदान की। प्रस्तुत कुंडली लेखिका एक परिचित की है। कन्या लग्न, चतुर्थ भावस्थ शनि, दशम् भाव में गुरु (चतुर्थ भाव का कारक) चतुर्थ भाव का नैसर्गिक कारक चंद्रमा सूर्य की राशि में और सूर्य तथा लग्नेश बुध पुनः शनि की राशि में - जातक मेडिकल का छात्र है। कुंडली में शनि और गुरु की एक-दूसरे पर दृष्टि भी है। जातक कुछ समय पूर्व से एक महिला ज्योतिषी को अपनी मां के समान ही मानने लगा है और बहुत सम्मान देता है। कुंडली में शनि और गुरु की स्थिति भी चतुर्थ और दशम भाव में होने ने कारण एक-दूसरे से दृष्ट हंै दोनों ग्रह यह संकेत दे रहे हैं कि जिसमें यह जातक अपनी मां की छवि देख रहा है वह स्त्री भी ज्योतिष की पूर्ण ज्ञाता तथा सदैव उसका मार्गदर्शन करेगी।

ये कुंडली वृश्चिक लग्न व मेष राशि की है। चतुर्थ भावस्थ शनि कुंभ राशि में। चंद्रमा गुरु के साथ लग्नेश मंगल की राशि में जातक अपनी मां से ज्यादा अपने मित्र की मां को मातृवत् सम्मान देता है क्योंकि जातक के अध्ययन काल में उसके मित्र की मां ने उसे मातृवत् स्नेह दिया। प्रस्तुत कुंडली में धनु लग्न, कुंभ राशि शनि गुरु का संबंध है। शनि चतुर्थ भाव में गुरु की राशि में, गुरु लग्न में और माता का कारक ग्रह पुनः शनि की राशि में तृतीय भाव में (तृतीय भाव संबंधी या रिश्तेदार का भाव भी होता है)। जातक को जन्म के कुछ समय बाद से ही उसकी मौसी का मातृवत् स्नेह मिला। उसकी अपनी मां भी बहुत सभ्य, शिक्षित और बहुत अच्छे पद पर कार्यरत है। किंतु मौसी ने मां के समान ही प्यार दिया।

तुला लग्न की कुंडली और कुंभ राशि, शनि चतुर्थ भाव में स्थित है अपनी ही राशि में चंद्रमा भी शनि की राशि में, पंचम भावस्थ है। गुरु और शनि की परस्पर दृष्टि तथा गुरु भी उच्चस्थ (कर्क-चंद्रमा की राशि में) जातक को अपनी बुआ का स्नेह माता से भी अधिक मिला। उपर्युक्त सभी कुंडलियों का अध्ययन करने के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि यदि चतुर्थ भाव में शनि आ जाये तो जातक को जीवन में एक से अधिक माताओं का प्यार मिलता है। ऐसा इसलिए होता है कि कालपुरुष की कुंडली में शनि की राशि को (कुंभ राशि का) लाभ भाव का स्वामित्व प्राप्त है। अतः यह सुनिश्चित एवं प्रामाणिक तथ्य है कि जब कभी भी कुंडली में लाभ भाव के स्वामी का संबंध चतुर्थ भाव से बनेगा तो वह लाभ देगा ही।

अर्थात् बहुत सीधा और सरल ज्योतिषीय सिद्धांत है कि नैसर्गिक रूप से लाभेश का संबंध चतुर्थ भाव से स्थापित हो गया तो निश्चित है जीवन में अपनी मां के अतिरिक्त किसी और की मां आपकी (जातक) भी मां बनेगी ही। इसमें चतुर्थ भाव के नैसर्गिक कारक चंद्रमा, चंद्रमा और शनि का संबंध तथा चंद्रमा शनि और लग्नेश का संबंध भी अवश्य ही होता है। गुरु भी ऐसी अवस्था में सकारात्मक भूमिका का कार्य करता है किसी क्योंकि सिकी भी जातक की प्रथम गुरु उसकी मां ही होती है अतः गुरु की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण है। निष्कर्षतः किसी भी जातक की कुंडली में यदि उपर्युक्त योग बन रहे हैं तो ज्योतिषी पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता है कि ऐसे जातक को (चतुर्थ भावस्थ शनि वाले जातक को) अपनी मां के अतिरिक्त एक और मां की ममता भरी छांव अवश्य मिली है या अवश्य मिलेगी।



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