विभिन्न विधियों द्वारा रत्नों का चयन

विभिन्न विधियों द्वारा रत्नों का चयन  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 8901 | अकतूबर 2007

विभिन्न विधियों द्वारा रत्नों का चयन किसी व्यक्ति विशेष के लिए किसी कुंडली को पढ़कर उसका भविष्य कथन करना जितना महत्वपूर्ण व अहम कार्य है उतना ही महत्वपूर्ण उस व्यक्ति विशेष के लिए रत्न का चुनाव करके बताना भी है।

इसमें विभिन्न ज्योतिषियों द्वारा रत्न निर्धारण के लिए भिन्न-भिन्न पद्ध तियां अपनाई जाती है, परंतु सभी का लक्ष्य एक ही होता है जातक की समस्या को दूर करना और जातक को वांछित लाभ पहुंचाना। कई बार रत्न चुनाव करते समय भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपने सिद्ध ांत के अनुसार, एक ही व्यक्ति और एक ही समस्या या लाभ के लिए अलग-अलग रत्न बता सकते हैं।

जन्मकुंडली के आधार पर व्यक्ति के जन्म लग्न के आधार पर भाग्यशाली रत्न का चयन करना एक सरलतम विधि है जो प्रायः प्रयोग की जाती है। ज्योतिष के प्रारंभिक ज्ञान मात्र से आप यह विधि उपयोग में ला सकते हैं। ज्योतिष शास्त्र में जन्म कुंडली में लग्न का स्थान विशेष महत्वपूर्ण है क्योंकि यह व्यक्ति के तन, आचार-विचार, स्वास्थ्य, व्यक्तित्व आदि का द्योतक है।

ज्योतिष के अनेक विद्वान मात्र लग्नेश की स्थिति से रत्न का चयन करते हैं। निम्न सारिणी से यह अधिक यह रत्न चयन करने का एक अति सामान्य सा विधान है। रत्न चयन के लिए अधिक गहराई में जाने के लिए जन्मकुंडली के बारह भाव शुभ-अशुभ प्रभाव दर्शाते हैं। लग्न कुंडली में त्रिकोण को सर्वाधिक प्रभावशाली माना गया है।

दूसरा स्थान है केंद्र का एवं 6, 8 तथा 12वां भाव सबसे निकृष्ट स्थान माने गए हैं। लग्न द्वारा रत्न चुनने में इसलिए वि.ि भन्न लग्नों वाली जन्मपत्री में त्रिकोण तथा केंद्र के कारक ग्रहों से संबंधित रत्न चयन करने पर बल दिया जाता है तथा निकृष्ट भावों 6, 8 तथा 12 वां भाव के स्वामी ग्रहों के रत्नों को सर्वथा त्याज्य माना जाता है।

अष्टक वर्ग द्वारा ज्योतिष शास्त्र में अष्टक वर्ग की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके आधार पर यदि सर्वाष्टक वर्ग द्वारा किसी जन्म कुंडली का भविष्यफल भावा ंे म ंे स्थित शभ्ु ा रख्े ााआंे को देखकर किया जाए तो इसका फल अत्यंत सटीक हो सकता है।

अष्टक वर्ग द्वारा रत्न का चयन इस आधार पर करना चाहिए कि जिस ग्रह से संबंधित ग्रह का उपाय करना हो, वह ग्रह गोचरवश जब उस राशि में प्रवेश करे जिसमें उस ग्रह से संबंधित भिन्नाष्टक वर्ग में प्राप्त शुभ रेखाएं अधिक हों तो उस समय उस ग्रह से संबंधित ग्रह का रत्न ध् ाारण करके अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। किसी भी भिन्नाष्टक में किसी भी भाव में कम से कम शून्य शुभ रेखा हो सकती है जबकि अधिकतम शुभ रेखा 8 हो सकती है।

अर्थात औसतन जब 4 से अधिक रेखाएं होंगी तो उस राशि में ग्रह का गोचर शुभ फलदायक ही होगा। इष्ट फल और कष्ट फल के आधार पर: कुछ विद्वान ज्योतिषी ग्रहों के बल के आधार पर भी ग्रहों के रत्नों का निर्धारण करते हैं। इसमें देखा जाता है कि किस ग्रह का बल सबसे अधिक है। अधिक में भी यह देखना आवश्यक है कि उस ग्रह के रत्न धारण करने से कितने प्रतिशत इष्ट फल मिलेगा और कितने प्रतिशत कष्ट फल मिलेगा क्योंकि प्रत्येक ग्रह से कष्ट फल और इष्ट फल प्राप्त होते हैं। अतः रत्न का निर्धारण करने से पूर्व यह देखना आवश्यक है कि अशुभ ग्रह का इष्ट फल कष्ट फल से अधिक होना चाहिए।

कृष्णामूर्ति पद्धति के आधार पर कृष्णामूर्ति पद्धति में प्रत्येक भाव के कारक ग्रह कुंडली के आध् ाार पर निश्चित किए जाते हैं और इसी प्रकार इसके विपरीत प्रत्येक ग्रह कुछ भावों का कारक होता है।

अतः यदि हम किसी जन्मकुंडली के भावों के कारक ग्रहों को जान जाएं तो व्यक्ति को जिस भाव से संबंधित फल की आवश्कता हो, उस भाव के सबसे प्रबल कारक ग्रह का रत्न ध् ाारण करवाकर उस भाव से संबंधित फल प्राप्त कर सकते हैं।

इसके विपरीत हम कुंडली में रत्न चयन के लिए ऐसे ग्रह के रत्न का चुनाव कर सकते हैं जो ग्रह कुं. डली में अधिक से अधिक शुभ भावों का कारक ग्रह है। इस आधार पर रत्न चयन करके हम उस रत्न का अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

लाल किताब के अनुसार लाल किताब में राशियां नहीं लिखी जाती हैं, परंतु पहले भाव में मेष राशि और इसी प्रकार क्रमशः बारहवें भाव में मीन राशि मानी जाती है और अन्य पद्धति के समान इसमें भी लग्न की गणना की जाती है।

किसी कुंडली में ग्रह यदि बलवान हैं- लाल किताब की भाषा में कहें तो यदि वह अपने पक्के घरों में स्थित हैं- तो उनसे संबंधित रत्न का चयन किया जा सकता है। परंतु यदि कुंडली में शक्तिशाली ग्रह अथवा ग्रहों का अभाव हो तो आप सुप्त ग्रह तथा सुप्त भाव को बलवान बनाने की प्रक्रिया अपनाएं।

यह विधि जितनी सरल है उतनी ही प्रभावशाली सिद्ध होगी। जब कोई ग्रह किसी अन्य ग्रह को नहीं देखता तो वह ग्रह सुप्त कहलाता है। भाग्य के लिए सर्वोत्तम ग्रह के अनुरूप रत्न-उपरत्न आदि का चयन आप निम्न चार बातों की सहायता से कर सकते हैं। 

1. जिस राशि में ग्रह उच्च का होता है और लाल किताब की कुंडली के अनुसार भी उसी भाव अर्थात राशि में स्थित होता है तो उससे संबंधित रत्न भाग्य रत्न होता है। 

2. यदि ग्रह अपने स्थायी भाव में स्थित हो तथा उसका कोई मित्र ग्रह उसके साथ हो अथवा उसको देखता हो तो उस ग्रह से संबंधित रत्न भाग्य रत्न होता है। 

3. नौ ग्रहों में से जो ग्रह श्रेष्ठतम भाव में स्थित हो, उस ग्रह से संबंधित रत्न भाग्य रत्न होता है। 

4. कुंडली के केंद्र अर्थात भाव 1, 4, 7 तथा 10 में बैठा ग्रह भी भाग्यशाली रत्न इंगित करता है।

यदि उक्त भाव रिक्त हों ता नौवें, नौवां रिक्त हो तो तीसरे, तीसरा रिक्त हो तो ग्यारहवें, ग्यारहवां रिक्त हो तो छठे और यदि छठा भाव भी रिक्त हो तो बारहवें भाव में बैठा ग्रह भाग्य ग्रह कहलाता है। इस ग्रह से संबंधित रत्न भी भाग्य रत्न कहलाता है। जिस भाव पर किसी भी ग्रह की दृष्टि नहीं हो अर्थात जो भाव किसी भी ग्रह द्वारा देखा नहीं जाता हो वह सुप्त भाव कहलाता है।

यदि इन भावों को चैतन्य कर देने वाले ग्रहों का उपाय किया जाए तो ये चैतन्य हो जाएंगे तथा इन भावों से संबंधित विषय में व्यक्ति को आशातीत लाभ मिलने लगेगा।

अंक शास्त्र के आधार पर अंक ज्योतिष में तीन प्रकार के अंक महत्वपूर्ण माने गए हैं- मूलांक, भाग्यांक और नामांक। उदाहरण के लिए यदि किसी की जन्म तिथि 11 जुलाई 1964 है तो मूलांक 1$1=2 होगा, जुलाई महीना सातवां होता है।

अतः भाग्यांक 1$1$7$1$9$6$4=29 = 2$9 = 11 = 1$1=2 इस तरह उसका भाग्यांक 2 होगा। मान लें कि व्यक्ति का नाम टप्छ।ल् है, तो ट़ प़् छ़ ।़ ल् त्र 4़9़5़1़7 त्र 26त्र 2़ 6त्र8 अर्थात उसका नामांक 8 होगा। इसलिए इनमें से किसी एक के अनुसार अर्थात 2 के ग्रह शुक्र और 8 के ग्रह मंगल के रत्न धारण किए जा सकते हैं। अंकों के प्रतिनिधि ग्रह निम्न प्रकार हैं।

ग्रह स्वामी अंक सूर्य 5 चंद्र 4 मंगल 1 तथा 8 बुध 3 तथा 6 गुरु 9 शुक्र 2 तथा 7 शनि 10 अंश शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक अक्षर एक अंक विशेष का प्रतिनिधित्व करता है।

इस तरह नामांक निम्नलिखित सारणी की सहायता से निकाल सकते हैं। । ठ ब् क् म् थ् ळ भ् प् 1 2 3 4 5 6 7 8 9 श्र ज्ञ स् ड छ व् च् फ त् 1 2 3 4 5 6 7 8 9 ै ज् न् ट ॅ ग् लर्् 1 2 3 4 5 6 7 8 हस्त रेखाओं के आधार पर हस्त रेखाओं के माध्यम से रत्न चयन के सूत्र जटिल हैं तथापि कुछ ऐसे भी हैं जो जनसाधारण अपने लिए प्रयोग कर लाभ उठा सकते है।ं निम्न चित्र के माध्यम से स्पष्ट कर लें कि हथेली में कौन सी रेखा कहां स्थित है?

विभिन्न पर्वत कहां है तथा वे किस ग्रह के द्योतक हैं। एक बार हथेली मंे शुभ तथा अशुभ फल देने वाली रेखाओं का ज्ञान आपको मिल गया तो समझ लीजिए कि रत्न चयन विषय आपके लिए सुलभ हो गया। साधारण नियमानुसार स्त्री का बायां हाथ तथा पुरुष का दायां हाथ अध्ययन के लिए चुना जाता है।

पंरतु यदि कोई पुरुष बायां हाथ प्रधान है अर्थात बाएं हाथ का सर्वाधिक प्रयोग करता है तब उसका बायां हाथ अपने प्रयोजन के लिए देखा जाएगा। अनेक स्त्री वर्ग मर्दों की भांति कार्यरत हैं उनका दायां हाथ अधिक महत्वपूण्र् ा फल देगा।

हाथ में जो रेखाएं निर्दोष हों, ऊध्र्वागामी हों तथा पूर्णरूपेण व्यवस्थित तथा उन्नत पर्वत पर समाप्त होती हों, उन्हें नोट कर लें। माना कि आपके हाथ में प्रबल भाग्य रेखा एक उन्नत तथा सुव्यवस्थित शनि पर्वत पर समाप्त होती हो तो आप नीलम रत्न अपने लिए चयन कर सकते हैं। भाग्यरेखा के साथ-साथ यदि उन्नत गुरु रेखा अथवा गुरु वलय भी हथेली में प्रत्यक्ष हो तो आप नीलम के साथ-साथ पुखराज भी धारण कर सकते हैं।

गुरु पवर्त का शिखर उन्नत हो, तर्जनी के मूल में ठीक मध्य में स्थित हो, यहां एक, दो अथवा अधिक ऊध्र्वगामी रेखाएं करतल के किसी भी भाग से आकर समाप्त हो रही हों, गुरु पर्वत पर निर्दोष गुरु वलय हो तो यहां कहरवा पहन लें - आप अध्यात्म, रूहानियत की असीम शांति में खोने लगेंगे।

ऐसे में यहां पुखराज का प्रयोग आपकी भौतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने लगेगा। उन्नत शुक्र पर्वत हो, निर्दोष जीवन रेखा हो, इसके ठीक नीचे जीवनी रेखा हो तो ऐसी स्थिति में हीरा बहुत रास आएगा। यह स्वस्थ पारिवारिक सुख तो देगा ही, आपके ऐश्वर्य में भी वृद्धि करेगा।

निर्दोष चंद्र पर्वत पर गोलाई के साथ झुकी हुई मस्तिष्क रेखा भावुक, कलात्मक प्रवृत्ति वाला तथा लेखक आदि बनाती है। इन गुणों में अधिक सृजनात्मकता लाने के लिए यहां मोती धारण करना शुभ रहेगा। यह आपकी लेखनी, भावों -अविभावों को बल देगा।

करतल में एक अकेली बुध रेखा ऐसी मानी गई है जिसका मूर्त होना अस्वस्थता का लक्षण है। यदि यह पूर्णतया दोषपूर्ण तथा उन्नत हो, जो सामान्यतः नहीं होता, तो व्यक्ति जन्म निरोगी काया का धनी होता है। यदि बुध की उंगली तथा बुध पर्वत भी निर्दोष हों तो आप पन्ना धारण कर लें- भौतिक सुखों में उत्तरोत्तर उन्नति दिखाई देने लगेगी।

एक अकेली निर्दोष सूर्य रेखा व्यक्ति को दैहिक, भौतिक तथा आध्यात्मिक सुखों से संपन्न करने में सक्षम है। यदि सूर्य पर्वत भी अनामिका के मूल में ठीक मध्य में स्थित है और सूर्य रेखा ठीक इसके मध्य में समाप्त हो रही है तब तो सोने पर सुहागा। यहां आप एक माणिक्य धारण कर उपर्युक्त सुखों का द्विगुणित लाभ पा सकते हैं।

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