मंत्र व तंत्र साधना का स्वरूप

मंत्र व तंत्र साधना का स्वरूप  

सीताराम सिंह
व्यूस : 11856 | दिसम्बर 2014

पुराणों में वर्णित सफल साधकों के जीवन चरित जनसाधारण के लिए प्रेरणा स्रोत का कार्य करते हैं। मंत्र की व्याख्या में कहा गया है: ‘मननात् त्रायते यस्मात् तस्यात् तस्याय मंत्र उदाद्धृतः।’ अर्थात् ‘‘जिसके मनन और चिंतन द्वारा दुख और कष्ट से निवृत्ति होकर आनंद की प्राप्ति होती है उसका नाम मंत्र है।’’ मंत्र में निष्ठा, विश्वास तथा विधिपूर्वक जप करने से साधक को मनोरथ सिद्धि और मुक्ति की भी प्राप्ति होती है। ‘अग्नि पुराण’ में जप की व्याख्या इस प्रकार की गई है: जकारो जन्म विच्छेदः पकारः पाप नाशकः। तस्याज्जय इति प्रोक्तो जन्म पाप विनाशकः।। अर्थात्, ‘‘ज’’ से अभिप्राय जन्म का विच्छेद और ‘प’ का अर्थ है पापों का निवारण।’’ मंत्र-जप द्वारा जन्म-मरण और पापों का नाश होता है। मंत्र साधना में एक योग्य गुरु से दीक्षा व मार्गदर्शन, श्रद्धा, विश्वास, शुद्ध उच्चारण तथा दृढ़ संकल्प परम आवश्यक होता है। किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के निश्चित अवधि में निर्धारित मंत्र संख्या जप के बाद दशांश का हवन व हवन संख्या के दशांश का तर्पण ‘अनुष्ठान’ कहलाता है। ग्रह पीड़ा शांति के लिए ग्रह का मंत्र और जप संख्या शास्त्रों द्वारा निर्धारित है। प्रारब्ध (कर्मफल) के प्रबल होने पर कभी-कभी वांछित पूर्ण लाभ नहीं मिलता।

व्यावहारिक रूप से इष्टदेव का अनुग्रह विशेष ही मंत्र है। मंत्र एक अव्यक्त देवता शक्ति को अभिव्यक्त करने वाली शक्ति है। मंत्र का देवता से घनिष्ठतम संबंध है। मंत्र को देवता का स्वरूप व आत्मा भी कहा गया है (देवस्य मंत्रस्वरूपस्य)। जनसाधारण की सुविधा के लिए हमारे प्राचीन ऋषियों ने अपनी कठिन साधना द्वारा परमात्मा-ज्ञान और दिव्य-दृष्टि से प्रत्येक देवता के मंत्र से उसके सूक्ष्म बीज को पृथक किया है। जैसे एक सूक्ष्म बीज में वृक्ष का आकार, गुण, स्वभाव व शक्ति निहित होती है, उसी प्रकार किसी देवता के ‘बीजमंत्र’ में उसका स्वरूप, प्रभाव, तेज, शक्ति एवं सभी गुण निहित रहते हैं। प्राणी केवल अपने प्रयत्न से तो ब्रह्म या देवता को नहीं पा सकता, परंतु मंत्र व बीजमंत्र स्वयं देवता की चेतना युक्त ध्वनि-शरीर होने के कारण साधक के इष्टदेवता तक पहुंचने में निश्चित रूप से साधन बनता है। बीजमंत्र मंत्रों के जीवरूप होते हैं। अतः मंत्र का जप बीज मंत्र सहित ही करना चाहिए। जैसे ‘गं’ गणपति का, ‘ऐं’ सरस्वती का, ‘दुं’ दुर्गा का, ‘क्रीं’ काली का एवं ‘श्रीं’ लक्ष्मी जी का बीज मंत्र है। बीज मंत्र के जप से देवता के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। देवतायाः शरीरंतु बीजादुत्पद्यते ध्रवम्)।

मंत्रों की शक्ति और प्रभाव को गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस’ में इस प्रकार व्यक्त किया है: मंत्र महामनि विषय व्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के।। हरन मोह तम दिनकर करसे। सेवक सलि पाल जलधर से’’ अभिमत दानि देवतरू बरसे। सेवत सुलभ सुखद हरिहर से’’ (बालकंड, 31-9-11) अर्थात् ‘‘मंत्र विषय रूपी सर्प का जहर उतारने के लिए महामणि है। यह मनुष्य के ललाट पर लिखे कठिन प्रारब्ध (पूर्व जन्म फल) मिटाने में सक्षम है। मंत्र अज्ञान और मोह रूपी अंधकार का हरण करने के लिए सूर्य किरणों के समान हैं तथा धान की फसल के लिए जल बरसाने वाले बादलों जैसे हैं। ये मनोवांछित वस्तु देने में श्रेष्ठ कल्पवृक्ष के समान हैं और सेवा (जप साधना) करने पर श्री विष्णु (हरि) तथा शिवजी (हर) के समान सुलभ सुख देने वाले हैं।’’ मंत्र का स्वरूप ‘विन्दुऽन्त’ मंत्र देवता को प्रसन्न करने वाले होते हैं तथा ‘नमोऽन्त’ मंत्र शान्ति, भोग और सुखदायक होते हैं। अतः बीज मंत्रों के साथ अनुस्वार रूप ‘विन्दु’ लगाकर उनके प्रारंभ में प्रणव तथा अंत में ‘नमः पद लगाकर उसका जप किया जाता है। ‘नमः’ पद जीव-निष्ट अहंकार का निषेध करके देवता के प्रति पूर्ण शरणागत होने का भाव व्यक्त करता है।

जैसे- ‘‘ऊँ गं गणपतये नमः।’’ ‘‘ऊँ हं हनुमते नमः।’’ आदि। प्रत्येक मंत्र में तीन आवश्यक तत्व-‘प्रणव’, बीज तथा ‘देवता’ निहित होते हैं। ‘बीज’ परमतत्व का दर्शन कराता है, तथा ‘देवता’ परमतत्व की विभूति एवं लीला भाव दर्शाता है। एकाक्षर मंत्र’ में भी ये तीनों तत्व पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ, ‘श्रीं’ महालक्ष्मी का एकाक्षरी बीजमंत्र है। इसमें ‘श’ महालक्ष्मी, ‘र’ - धन, ‘ई’ पुष्टि ‘नाद’ विश्वमाता तथा ‘विन्दु’ दुःख नाश का द्योतक है। अर्थात्, ‘‘धन और तुष्टि पुष्टि की देवी लक्ष्मी मेरे दुःखों का नाश करें।’ मंत्रों का वर्गीकरण शास्त्रों में मंत्रों के तीन प्रकार कहे गये हंै: (1) वैदिक (2) पौराणिक और (3) तांत्रिक। उदाहरणार्थ सूर्य देव के विभिन्न मंत्र इस प्रकार हैं:-

1. वैदिक मंत्र ऊँ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं यत्यंच। हिरण्येन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।

2. पौराणिक मंत्र ऊँ जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम्। तमोहरं सर्वपापद्यतम् प्रणतोस्म् िदिवाकरम्।।

3. बीज मंत्र ऊँ घृणिः सूर्याय नमः।

4. तांत्रिक मंत्र ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः।

वैदिक मंत्र लंबे, पौराणिक मंत्र मध्यम, और तांत्रिक मंत्र छोटे होते हैं। तांत्रिक मंत्रों का उल्लेख वेद, पुराण तथा जैन और बौद्ध धर्मशास्त्रों में मिलता है। शोधकर्ताओं के अनुसार भारत में तंत्र शास्त्र का विस्तार गुप्त काल में हुआ। तंत्र शास्त्रों में सर्वोत्तम माने जाने वाले ‘महानिर्वाण तंत्र’ में शिव-पार्वती संवाद के रूप में तंत्र साधना का विस्तृत वर्णन है। तंत्र शास्त्रियों के अनुसार वेद और आगम (तंत्र) में कोई अंतर नहीं है क्योंकि दोनों के रचियता शिव हैं। जहां एक ओर ‘वैदिक तथा पौराणिक मंत्रों द्वारा लंबे समय तक साधना करने पर मनोवांछित फल प्राप्त होता है वहीं तांत्रिक मंत्र साधना थोड़े समय में फलदायक होती है। वेदों में स्वाध्याय की अनुमति केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ग के लिए है, परंतु तंत्र साधना के लिए कोई बंधन नहीं है। शूद्र और स्त्रियां भी उच्चकुलीन पुरूषों की तरह तांत्रिक साधना कर सकती हैं। वैदिक कर्मकांड के अनुपात में तांत्रिक साधना कम खर्चीली है। वैदिक साधना में शुद्धि अशुद्धि का बहुत विचार होता है, परंतु तंत्र साधना में ऐसा नहीं है। सक्षम गुरु के मार्गदर्शन बिना अप्रामाणिक ग्रंथों में बताए विधान से की गई तंत्र साधना सफलता की बजाय साधक के लिए हानिकारक बन जाती है।

तंत्र साधना में देवता की यंत्र या मंडल रूप में उपासना की जाती है। सोना, चांदी, पंचधातु या ताम्रपत्र पर रेखांकित यंत्र में प्राण-प्रतिष्ठा से देवत्व के समाविष्ट होने पर यंत्र अद्भुत प्रभावशाली बन जाता है और उसकी उपासना से प्राप्त शक्ति द्वारा सांसारिक कार्य संपन्न किये जा सकते हैं। तंत्र साधना के दो मार्ग हैं- ‘दक्षिणपंथी तथा वामपंथी’। ‘दक्षिणपंथी’ विशुद्ध साधना का रूप है। इस मार्ग को ‘वैदिक तंत्र’ भी कहते हैं। इस पंथ के साधक सात्विक देवी शक्ति की कठिन साधना से प्राप्त सिद्धि द्वारा किसी व्यक्ति पर आये दुष्प्रभाव या प्रेत बाधा हटाने और असाध्य रोगों अैर अन्य विपत्तियों आदि से छुटकारा दिलाने में सक्षम होते हैं। वस्तुतः इस तंत्र साधना का उद्देश्य सात्विक तथा जनकल्याण के लिए होता है। वामपंथी मार्ग में तांत्रिक के इष्ट भूत-प्रेत व पिशाच होते हैं। वे पंचमकारों (मांस, मदिरा, मत्स्य, मैथुन और मुद्रा) का प्रयोग करते हैं और तंत्र साधना रात्रि के समय एकांत स्थान या श्मशान में करते हैं। ऐसे साधक अपनी क्षुद्र साधना से प्राप्त शक्ति का गलत उपयोग दूसरों के अनिष्ट, मारण, मोहन और उच्चाटन के लिये करते हैं। जनता तंत्र के इसी रूप से परिचित है। कई स्वार्थी तांत्रिक पहले अपनी सिद्धि प्रदर्शन द्वारा व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं और फिर उनका शोषण करते हैं।

इस कारण जन साधारण में तंत्र के बारे में डर और भ्रांतियां हैं। ‘वामपंथी’ तांत्रिक साधना निकृष्ट साधना है। इससे आत्मा का पतन होता है। यह मानव जीवन के उद्देश्य के विपरीत है। तांत्रिक शक्ति का दुरूपयोग किसी कारण असफल होने पर तांत्रिक के लिए उल्टा घातक बन जाता है। वामपंथी तांत्रिक अपने जीवन के अंतिम काल में घोर कष्ट और यातना सहते मृत्यु को प्राप्त होते हैं। जैसे इष्ट को ध्याते हैं वही गति पाते हैं। अतः वामपंथी तंत्र साधना हर दृष्टि से त्याज्य है। सात्विक मंत्र साधना किसी भी देवता की उपासना ‘साकार’ अथवा ‘निराकार’ रूप में की जाती है। ‘साकार’ उपासना में पंचोपचार या ‘षोडशोपचार’ पूजा प्रत्यक्ष वस्तुओं से की जाती है। ‘निराकार’ उपासना में देवता को उन सब वस्तुओं का मानसिक अर्पण किया जाता है। ‘ध्यान’ और ‘मंत्र’ का घनिष्ठ संबंध होता है। ध्यान का अर्थ है देवता का संपूर्ण स्वरूप एक क्षण में मानस पटल पर प्रतिबिम्बित होना। मंत्र और देवता के शरीर नित्य होते हैं। मंत्र में ‘नाद’ (ध्वनि तरंग) शक्ति होती है। जप ध्यान के सतत प्रयास से साधक के चित्त में ‘नाद’ प्रकाश रूप में परिणत होकर साकार देवता के रूप में परिस्फुरित होता है। निरंतर मंत्र उच्चारण से साधक के चित्त में एक ही धारा चलती रहती है जो अंत में उस देवता का स्वरूप धारण कर लेती है। देवोपासना की यज्ञग्नि में साधक अपने मन, बुद्धि और अहंकार की पूर्ण आहुति देता है। वह अपना जीवन पूर्ण विरक्त भाव से जीता है और प्रारब्ध क्षय के उपरांत मोक्ष को प्राप्त करता है जो मानव जीवन का परम उद्देश्य है। सात्विक मंत्र साधना ही उसका श्रेष्ठ उपाय है।



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