प्राकृतिक चिकित्सा आरोग्य की संजीवनी

प्राकृतिक चिकित्सा आरोग्य की संजीवनी  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 15824 | मार्च 2007

प्राकृतिक चिकित्सकद्ध स्वस्थ रहने के भी प्रकृति के कुछ नियम व विधान हैं। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान में जीवन को प्रकृति के इन्हीं नियमों के अनुसार बनाने का प्रयास किया जाता है। कितना खाना चाहिए, कितना पानी पीना चाहिए, कैसे सांस लेनी चाहिए, कितना व कैसे व्यायाम करना चाहिए और न केवल शरीर की ऊपरी अपितु उसकी अंदरूनी स्वच्छता के साथ मन, बुद्धि और चिŸा को कैसे निर्मल रखा जाए आदि सभी प्राकृतिक नियम इस प्रणाली में सिखाए जाते हंै।

प्राकृतिक चिकित्सा उतनी ही पुरानी है जितनी कि प्रकृति स्वयं या उसके मूल तत्व आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी आदि। इस प्रकार यह चिकित्सा प्रणाली सभी चिकित्सा प्रणालियों की जननी है। आदि काल में कोई औषधि चिकित्सा नहीं होती थी। उस समय फल, दूध, उपवास आदि द्वारा ही शरीर को स्वस्थ बनाया जाता था।

प्राचीन समय में प्राकृतिक जीवन बिताने के कारण लोग रोगी कम होते थे। तब वे उपवास, संयम आदि करके ठीक हो जाते थे। आगे चलकर रोगों से बचाव के लिए हमारे ऋषि मुनियों ने जड़ी बूटियों और पांच तत्वों के गुणों की खोज की और उनसे औषधियों का निर्माण किया। इस क्रम में वे प्रकृति से जुड़े रहे और उसके नियमों के अनुरूप होने के कारण उनकी चिकित्सा प्रणाली प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली कहलाई।

धीरे-धीरे इसमें विकास होता गया और इसी के आधार पर विकसित चिकित्सा की कई प्रणालियां हमारे सामने हैं। इनमें एक प्रमुख प्रणाली है एलोपैथी। तुरंत प्रभाव डालने के इसके गुणों के कारण लोगों का इसकी तरफ तेजी से आकर्षण हुआ और प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली नेपथ्य में चली गई। किंतु आज लोगों का रुझान पुनः प्राकृतिक चिकित्सा की ओर बढ़ रहा है। स्वस्थ रहने के भी प्रकृति के कुछ नियम व विधान हैं।

प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान में जीवन को प्रकृति के इन्हीं नियमों के अनुसार बनाने का प्रयास किया जाता है। कितना खाना चाहिए, कितना पानी पीना चाहिए, कैसे सांस लेनी चाहिए, कितना व कैसे व्यायाम करना चाहिए और न केवल शरीर की ऊपरी अपितु उसकी अंदरूनी स्वच्छता के साथ मन, बुद्धि और चिŸा को कैसे निर्मल रखा जाए आदि सभी प्राकृतिक नियम इस प्रणाली में सिखाए जाते हंै।

सदा स्वस्थ रहने का सबसे पहला नियम है प्रकृति के अनुरूप जीवन बिताना। अप्राकृतिक जीवन की वजह से शरीर में जहर या मल जमा हो जाता है, जो समस्त रोगों का मूल कारण होता है। प्राकृतिक चिकित्सा में मिट्टी, पानी, धूप, हवा के माध्यम से उपचार किया जाता है और वैज्ञानिक जल, मिट्टी, सूर्य किरण चिकित्सा, आहार चिकित्सा द्वारा शरीर का शोधन किया जाता है।

इस प्रणाली में अंगों को बदला या काटा नहीं जाता। बल्कि होलिस्टिक हीलिंग द्वारा कुछ बीमारियों का इलाज इस प्रकार किया जाता है। जिससे शरीर पूरी तरह से ठीक हो जाता है। मोटापा मोटापे को आधुनिक जीवनशैली की देन कहा जाता है। मोटापा स्वयं तो एक रोग है ही, अन्य रोगों को भी आमंत्रित कर यह शरीर को अनेक रोगों का घर बना देता है। मोटापा कई कारणों से होता है, जिनमें प्रमुख हैंः- 

1. शारीरिक श्रम या व्यायाम से बचना। 

2. गरिष्ठ आहार, चर्बी बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थों का अत्यधिक सेवन करना। 

3. आलस्यपूर्ण तथा विलासिता का जीवन बिताना। 

4. थाइराॅइड ग्रंथि का आनुवंशिक स्राव।

प्राकृतिक चिक्त्सिा में मोटापे का उपचार:-

1. पहले तीन दिन का उपवास- रस उपचार अर्थात नींबू पानी, गेहूं के जवारे के रस, ऋतु के अनुसार फलों के रस, नारियल पानी एवं सब्जियों के सूप पर रहें तथा नींबू का एनिमा लें। 

2. इसके बाद 1 दिन फल, सब्जियां एवं दलिया एक समय लें। 

3. फिर धीरे-धीरे रोटी व हरी सब्जी के साथ लें। 

4. मिट्टी की पट्टी, सूखी मालिश, पेट एवं रीढ़ की ठंड, गर्ग सेक, भाप स्नान, कटि स्नान तथा पेट पर लेप। योग क्रिया प्रथम माह कुंजल, शंख प्रक्षालन एवं बाधी क्रिया का अभ्यास माह में एक बार करना चाहिए।

इसके साथ ही प्राणायाम, ताड़ासन, कटिचक्रासन, पादहस्तासन, सर्वांगासन, हलासन, भुजंगासन, धनुरासन, पश्चिमोत्तानासन, मत्स्यासन, अर्धमत्स्येंद्रासन तथा सूर्य नमस्कार का भी नियमित अभ्यास करना चाहिए। 65 वर्षीय श्रीमती कृष्णा बाटला और 22 वर्षीय शिवानी दास दोनों ने प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा मोटापे पर आश्चर्यजनक रूप से नियंत्रण पा लिया। कृष्णा का वजन 76 किलो था जबकि मात्र 22 वर्ष की शिवानी 90 किलो भार से परेशान थी।

उपचार के दौरान मिठाई और गरिष्ठ चीजों जैसे हलुवा, पूड़ी, पकौड़े, समोसे, आइसक्रीम, कोका कोला आदि का त्याग करें। आकाश तत्व से उपचार वास्तव में खाली स्थान का नाम ही आकाश है। आकाश तत्व के बिना तो ग्रह-उपग्रह, सौर मण्डल आदि टकरा जाएं और चूर-चूर हो जाएं। इसी तरह आकाश तत्व के बिना हमारे शरीर के अंग सुचारु रूप से काम न कर पाएं, और रक्त व वायु संचार भी न हो सके।

आकाश तत्व की प्राप्ति के साधन तथा निवारण मिताहार: भोजन करते समय एक-चैथाई भाग पेट आकाश तत्व के लिए खाली रखें ताकि वायु भी शरीर के अंदर-बाहर जा सके और पाक स्थली के सिकुड़ने तथा फैलने की क्षमता भी बनी रहे। ‘अति भोजनम् रोगमूलम्‘ (अति भोजन रोग की जड़ है)। ‘मात्राशी स्यात्’ (परिमित भोजी बनो)। कम वस्त्र पहनें: त्वचा में असंख्य रोमकूप (छोटे-छोटे छिद्र) हैं।

ये रोमकूप शरीर के लिए झरोखे एवं खिड़कियां हैं जो कि आकाश तत्व से शक्ति ग्रहण करने के साधन हैं। वस्त्र ढीले, हल्के, पतले व छिद्रयुक्त होने चाहिए, सिंथेटिक कपड़े न हों। खुले मकानों में रहें: गांधी जी ने आकाश तत्व को आरोग्य सम्राट की संज्ञा दी थी। मकान में अत्यधिक सामान न हो।

मकानों के बाहर रहें: खुले आकाश के नीचे अधिक से अधिक समय व्यतीत करें ताकि आकाश से संपर्क बना रहे और निरोगी काया तथा दीर्घायु प्राप्त कर सकें।

यौगिक-कुंभक प्राणायाम: इसके अभ्यास से हमारे शरीर में आकाश तत्व की पूर्ति होती है जिसके फलस्वरूप निरोगी काया और दीर्घायु की प्राप्ति होती है। कुंभक का निरंतर अभ्यास करने से कुंडलिनी की आधार शक्ति का बोध होता है और वह जाग्रत होती है। इससे सुषुम्नानाड़ी कफादि दोषों से रहित हो जाती है।

निद्रा: गाढ़ी नींद से जीवनी शक्ति विकसित होती है। यह शक्ति सारे आकाश में व्याप्त है। ‘‘सोना एक प्रकार का स्नान है जिससे मनुष्य का शरीर और दिमाग ताजा और तर हो जाता है’’- शेक्सपियर।

उपवास: यह आकाश तत्व प्राप्त करने का सर्वोŸाम साधन है। ‘‘रोग का सरल, सस्ता, सर्वश्रेष्ठ, अचूक, निःशुल्क उपचार या प्राकृतिक चिकित्सा का सर्वप्रथम उपचार है-उपवास।’’ आंतरिक सफाई का सर्वोŸाम साधन है उपवास।

उपवास की परिभाषा: उप (ऊपर या समीप) $ वास (निवास करना)। इससे शरीर व मन दोनों की शुद्धि होती है। अध्यात्म के क्षेत्र में इसका अर्थ परमात्मा के समीप रहना है। उपवास एक उपचार प्रणाली है जिसमें रोगी आवश्यकता के अनुसार कम या अधिक समय के लिए पानी या नींबू पानी पर रहता है। बीमारी में जब उपवास किया जाता है, तो उसे उपचारात्मक उपवास कहते हैं।

उपवास निषेध: जिन व्यक्तियों के शरीर में क्षति हो रही हो या विशेष अंग जैसे फेफड़े, गुर्दे, हृदय तथा यकृत का क्षय हो रहा हो, तो लंबा उपवास नहीं करना चाहिए। वायु व प्राणायाम चिकित्सा पांच महातत्वों में आकाश के बाद वायु का ही स्थान आता है। उपनिषदों के कथनानुसार सूर्य-चंद्र अस्त होने पर वायु में लीन हो जाते हैं, जल सूखने पर वायु में लीन हो जाता है, आग बुझने पर वायु में लीन हो जाती है।

इसी प्रकार पृथ्वी आदि वायु में ही लीन हो जाते हैं। भोजन के बिना कुछ घंटों तक तो हम जीवित रह सकते हैं, परंतु वायु के बिना तो थोड़े से क्षण भी जीवित रहना असंभव है। वायु का मुख्य कार्य रक्त की शुद्धि करना है। वायु चिकित्सा कोई नई नहीं है इसका वर्णन वेदों में मिलता है।

‘‘सौ दवा, एक हवा’’ वाली कहावत से कोई इनकार नहीं कर सकता। रोगों से बचने के लिए हमें बाग-बगीचे, नदी-झरने, खुले मैदान, समुद्र, ऊंचे पहाड़ आदि स्थानों की शुद्ध वायु का सेवन करना चाहिए।

वायु-सेवन के आवश्यक अंग: नाक, फेफड़े, त्वचा। वायु-सेवन की प्रमुख विधियां तथा रोग निवारण: वायु सेवन की प्रमुख विधियां हैं- वायु भक्षण तथा गहरी लंबी-लंबी सांस, भ्रमण (टहलना) एवं भ्रमण प्राणायाम, वायु-स्नान यौगिक बंध प्राणायाम, स्वर योग, सिंहगर्जन व हंसना, संगीत, ध्यान, योग शंख बजाना इत्यादि।

वायु-भक्षण तथा गहरी लंबी सांसः वायु-भक्षण में खड़े होकर घुटनों पर हाथ रखकर अंदर की वायु बाहर निकाल देते हैं। फिर मंुह को खोलकर वायु अंदर भर लेते हैं। दो-तीन बार करके पेट को वायु से भर लेने पर जब चाहें बायीं तरफ को दबाने से बाहर निकाल सकते हैं।

भ्रमण प्राणायाम की आवश्यकताः बाहर तेजी से टहलते हुए गहरी लंबी सांसें लेने से संचित कार्बन-डाइ- आॅक्साइड बाहर निकल जाता है।

वायु स्नान: नंगे सिर-पैर व नंगे शरीर अथवा यथासंभव बहतु कम और ढीले छिद्रयुक्त कपड़े पहनकर खुली हवा में लेटकर या बैठकर या खड़े होकर या टहलकर वायु सेवन करने को वायु-स्नान कहते हैं।

प्राणायाम का अर्थ: प्राण $ आयाम = प्राणस्य आयाम अर्थात सांस की लंबाई बढ़ाना। प्राणवायु का नियमन (विस्तार) करना ही प्राणायाम है। बाहर की वायु को सांस द्वारा अंदर ले जाकर अंदर रोकना और अंदर की वायु को सांस द्वारा बाहर निकालकर बाहर रोकना ही प्राणायाम है। सांस लेने, रोकने और छोड़ने को प्राणायाम की भाषा में पूरक, कुंभक और रेचक कहा जाता है। प्राणायाम एकांत, शांत, शुद्ध, स्वच्छ, दुर्गंधहीन, सूखे और हवादार स्थान पर ही करना चाहिए। प्राणायाम का सर्वोŸाम समय तो सूर्योदय से पहले का ही है, परंतु खाली पेट सूर्यास्त के तुरंत बाद भी प्रयोग करें। पिŸा (गर्मी की अधिकता) को दूर करने के लिए आसमानी, बैंगनी व नीले रंग का प्रयोग।

सूर्य ताप से दवाई तैयार करने की विधि:- पानी: जिस रंग का पानी तैयार करना हो, उस रंग की बोतल को अच्छी तरह धोकर, तीन भाग स्वच्छ पानी से भरकर और टाइट लकड़ी का कार्क लगाकर, धूप में रख दें। यदि बोतलें अधिक हों, तो ध्यान रहे कि एक रंग की बोतल की छाया दूसरी पर न पड़े। हर रात को बोतलों को उठाकर ऐसी जगह रखें, जो चांद-तारों या कृत्रिम प्रकाश से दूर हो। यह पानी तीन दिन तक काम आ सकता है। फ्रिज या बर्फ में बोतल का पानी ठंडा न करें।

खांड या दूध की खांड: यात्रा या वर्षा में सूर्य-तप्त रंगीन पानी की असुविधा होने पर खांड में दवाई तैयार की जाती है। जिस रंग की खांड आदि तैयार करनी हो, उस रंग की बोतल को आधा भाग भरकर ऋतु के अनुसार 20-40 दिन धूप में रखें और रात को उठा लें। हर प्रातः बोतल को बाहर से पोंछकर और हिलाकर धूप में रखें। एक महीने में दवा तैयार हो जाने पर इस्तेमाल करें। परंतु फिर भी इसे छह महीने तक नित्य धूप में रखते रहें, इससे यह ज्यादा गुणकारी होती है।

तेल: शरीर पर बाह्य प्रयोग के लिए नीले रंग की बोतल में सरसों या नारियल का तेल ठंडक पहुंचाने के लिए और लाल रंग की बोतल में अलसी या तिल का तेल गर्मी पहुंचाने के लिए रखा जाता है। इसका भी ऋतु के अनुसार 25-50 दिन में तैयार हो जाने पर इस्तेमाल करें, और नित्य धूप में हिलाकर छः महीने तक रखते रहें।

ग्लिसरीन: नीले रंग की बोतल में ग्लिसरीन को एक महीने तक धूप में रखने से दवा तैयार हो जाती है। तैयार हो जाने पर इस्तेमाल शुरू कर दें और बची दवा को छह महीने तक हिलाकर धूप में रखते रहें इससे उसके गुण में वृद्धि होती है। यह दवा गला पकने और मुंह फूलने पर मसूड़ों पर लगाई जाती है।

विभिन्न रोगों के लिए अलग अलग रंगों का इलाज:-

1. अधिक गर्मी व तेज ज्वर से मुक्ति के लिए नीला रंग। 

2. अनिद्रा - नीला रंग 

3. लू लग जाने में - नीला रंग 

4. मलेरिया ज्वर में - नीले रंग की बोतल का पानी व तेल 

5. तनाव एवं अवसाद - नीला रंग 

6. अधिक सर्दी लगने में गर्म नारंगी रंग 

7. ल्यूकोरिया - नारंगी और हरा रंग 

8. दमा-नारंगी

9. पेट दर्द में - नारंगी रंग 

10. रात को बच्चों के पेशाब निकलने पर - नारंगी रंग 

11. स्त्रियों को ऋतुस्राव के समय दर्द होना या कम आना - नारंगी रंग व लाल तेल की मालिश 

12. लकवा -लाल तेल की मालिश 

13. रक्त-विकार से मुक्ति के लिए-हरे रंग का पानी 

14. जीर्ण कब्ज - हरे रंग का पानी 

15. बवासीर - हरे रंग का पानी 

16. फ्लू - हरे रंग का पानी व नीले तेल से गर्मपाद स्नान 

17. कनपेड़े - हरे रंग का पानी व सफेद पानी 

18. पीलिया - हरे रंग का पानी

सूर्य-स्नान से सफेद दाग का उपचार: अखिल भारतीय प्राकृतिक चिकित्सक संघ के सचिव डाॅ. पूनम चंद्र अग्रवाल ने बैंगलोर में 944 रोगियों के 50 फीसदी से ज्यादा लोगों को ठीक करने का दावा किया है। डाॅ. अग्रवाल के अनुसार पीड़ित रोगी को दोपहर 11 बजे से 1 बजे के बीच 15 मिनट से 45 मिनट तक कमल के पŸो लपेटकर पूरे शरीर पर प्रकाश देना चाहिए। फिर ठंडे पानी का कटि स्नान 17 डिग्री संेटीग्रेड के तापमान पर दिन में दो बार आधा-आधा घंटे तक सहनशक्ति के अनुसार कराया जाए।

केवल 5 मिनट के लिए 21 डिग्री संेटीग्रेड पर रीढ़-स्नान दिन में एक बार करा दिया जाए तो रोगी 15-20 दिन में ठीक होने लगता है। जल चिकित्सा जल प्राण-रक्षा के लिए प्रसिद्ध पंच तत्वों में से एक है। यह जीवन के लिए उतना ही आवश्यक है जितनी श्वास लेने के लिए वायु। हमारे शरीर के वजन के 100 भागों में 70 भाग केवल जल है।

महर्षि सायणाचार्य के अनुसार लोहे के कुठार को अग्नि में गरम करके पानी में बुझा कर उससे शीत ज्वर के रोगी का सिंचन किया जाना चाहिए। जल किसी वस्तु के संपर्क में आने पर अपनी गर्मी या ठंडक उसे बड़ी शीघ्रता से दे सकता है और उसकी गर्मी या ठंडक ले सकता है। जल तरल होने के कारण चिकित्सा विधियों में आसानी से काम आ सकता है।

जल स्नान की कई विधियां हैं जिनमें से कुछ प्रमुख विधियों का उल्लेख यहां किया जा रहा है। कटि स्नान की क्रिया-प्रतिक्रिया तीव्र रोगों में यह स्नान जल्दी-जल्दी और कई बार तथा जीर्ण रोगों में 1-2 चिबिार ही कराना चाहिए। कटि स्नान से लगभग सभी रोगों में लाभ मिलता है क्योंकि प्रायः सभी रोग पेडू की बढ़ी हुई गर्मी को कम करते हंै तथा कटि प्रदेश में रक्त संचालन की क्रिया को तेज करते हंै।

डाॅक्टर लूई कूने का कहना है कि दूषित द्रव्य पहले पेडू में संचित होकर तब चारों तरफ फैलता है। कटि स्नान करते समय पेडू को रगड़ा जाता है तो उससे वहां की मांसपेशियां बलवान हो जाती हैं, जिससे आंतों में भरा और चिपका मल खिसक कर बाहर हो जाता है।

पेडू में स्नान की ठंडक पहुंचने से वहां की स्नायु पेशियां कुछ सिकुड़ती हैं। बाद में उनमें नए रक्त के आ जाने से वे इतनी बलवान और सतेज हो उठती हैं कि आंतों में मल देरी तक टिकने नहीं पाता। आंतों की दशा कितनी ही खराब क्यों न हो, उनमें संचित मल कितना ही कड़ा क्यों न पड़ गया हो, कुछ दिनों तक दोनों वक्त कटि स्नान करने से निश्चय ही रोज दो बार टट्टी होने लगती है।

लाभ: कटि स्नान पेट को साफ करने के साथ-साथ यकृत, तिल्ली एवं अंतड़ियों के रस स्राव को भी बढ़ाता है जिससे रोगी की पाचन शक्ति में असाधारण वृद्धि हो जाती है।

गर्म कटि स्नान: इस स्नान के लिए पानी 100-104 डिग्री (फा.) पर गर्म अर्थात शरीर के तापमान से कुछ अधिक सहने योग्य होना चाहिए। यह स्नान करने से पूर्व ठंडा पानी पी लेना चाहिए और सिर भिगोकर कर सिर पर एक भीगा कपड़ा रख लेना चाहिए। गर्म कटि स्नान 5 से 10 मिनट तक करना चाहिए। यदि केवल गर्म कटि स्नान ही करना हो तो अंत करते समय और उसके बाद ठंडे जल से स्नान करना चाहिए।

गर्म ठंडा कटि स्नान: इसमें दो टबों में पानी रखना चाहिए- एक में साधारण ठंडा पानी तथा एक में शरीर की गर्मी से कुछ अधिक (104 डिग्री फा.)। स्नान करने से पहले एक गिलास पानी पी लेना चाहिए। सिर पर भीगे कपड़े की पट्टी रखें और पांच मिनट गर्म पानी में बैठें। उसके तुरंत बाद ठंडे पानी के टब में तीन मिनट बैठें और तौलिए से पेडू को हल्का-हल्का रगड़े।

उसके बाद तुरंत गर्म पानी के टब में बैठें, परंतु बैठने के पूर्व गर्म पानी टब में डाल दें ताकि पानी की गर्मी पहले जैसी बनी रहे। इस प्रकार गर्म पानी के टब में तीसरी बार बैठकर स्नान का अंत कर दें। उसके बाद ठंडे पानी से स्नान कर लें। प्रत्येक गर्म स्नान, गर्म से प्रारंभ कर ठंडे से ही समाप्त किया जाए।

घर्षण मेहन स्नान (कूने): इस स्नान को लिंग स्नान, या इंद्रिय स्नान भी कहते हैं। इसके आविष्कारकर्ता श्री डाॅ. लूई कूने हैं। यह स्नान स्त्री रोगों में विशेष लाभदायक होता है।

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