समृद्धि और दरिद्रता के ज्योतिषीय सूत्र

समृद्धि और दरिद्रता के ज्योतिषीय सूत्र  

राजीव रंजन
व्यूस : 6647 | अकतूबर 2016

भारतीय संस्कृति धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षरूपी पुरूषार्थ प्राप्ति को ही अपना ध्येय मानती रही है। इनमें से भी अर्थ तथा काम के प्रति मानव मस्तिष्क का आकर्षण सर्वविदित है।

इस लौकिक जगत में शायद ही ऐसा कोई मनुष्य हो जो अर्थप्राप्ति के प्रति आकृष्ट न हो। प्रश्न यह नहीं है कि धन अथवा लक्ष्मी की इच्छा कौन करता है, महत्वपूर्ण बात तो यह है कि लक्ष्मी किसका वरण करती हैं। यह समस्त विश्व द्वन्द्वमय है।

सुख-दुःख, लाभ-हानि, ऐश्वर्य-दारिद्र्य आदि का अस्तित्व इस सिद्धान्त की सत्ता का समर्थन करने के लिए पर्याप्त है। जहां इस समाज में सर्वसुख सम्पन्न कोट्याधिपति पुरूष भी हैं, वहीं दरिद्रता के अभिशाप से पीड़ित पुरूषों का भी अभाव नहीं है।

अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर ऐसे कौन से कारण हैं जो किसी व्यक्ति को समस्त विश्व का वैभव, सुख व समृद्धि प्रदान करते हैं अथवा किसी को अन्न के दाने-दाने के लिए मोहताज बना देते हैं।

अन्य लौकिक प्रश्नों के समान ही इस प्रश्न का समाधन भी ज्योतिषशास्त्र के पास ही है। ज्योतिषशास्त्र यह स्पष्ट रूप से कहता है कि व्यक्ति अपने पूर्वजन्म के कृत्यों के कारण ही वर्तमान जीवन में सुख अथवा दुःख का भागी होता है

- मत्र्याः सर्वेजगज्जाताश्चराचरिमिदं हि वै। स्वकर्मणा विशेषेण सुखदुःखादिकं च सत्।। जन्मकालीन ग्रहों की स्थितियों से बनने वाले योग मानव जीवन के विस्तार में धन, सुख, सम्पदा आदि की स्थिति को स्पष्ट करने में पूर्णतः सक्षम होते हैं।


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जहां कुछ योग प्रचुर धन लाभ की ओर संकेत करते हैं वहीं कुछ ऐसे भी ग्रह योग हैं जो दरिद्रता की स्थिति उत्पन्न करने वाले होते हैं। आइए सर्वप्रथम हम कुछ ऐसे ही सम्पत्तिमान योगांे पर दृष्टिपात करते हैं जो जातक को प्रचुर धन लाभ प्रदान करने में समर्थ होते हैं-

- चन्द्र राशि से उपचय स्थानों (3,6,10,11) में शुभग्रहों की स्थिति धनदायक होती है।

- केन्द्र भावों (1,4,7,10) तथा त्रिकोण (1,5,9) भावों में यदि द्वितीयेश तथा दशमेश एक साथ स्थित हों।

- चार ग्रह यदि अपनी राशि में स्थित हों।

- धनेश अर्थात् द्वितीय भाव का अधिपति यदि नवम, दशम अथवा एकादश भाव में स्थित हों।

- चन्द्रमा तथा मंगल की युति भी प्रभूत धनदायक योग का निर्माण करती है।

- द्वितीय, लग्न तथा एकादश भाव अपने भावेशों से युत हों।

- द्वितीय भाव का स्वामी ग्रह और एकादश भाव का अधिपति ग्रह मित्रराशि अथवा उच्चस्थ होकर लाभस्थान में युति संबंध बना रहे हों।

- द्वितीयेश और एकादशेश मित्र ग्रह होकर लग्न भाव में एक साथ स्थित हों।

- धनेश, लाभेश तथा लग्नेश लग्न भाव में ही स्थित हों।

- बृहस्पति तथा शुक्र तृतीय, षष्ठ, दशम अथवा एकादश भाव में स्थित हांे।

- चारों केन्द्र भाव (1,4,7,10) शुभग्रहों से युक्त हों।

- बुध कर्क राशि का हो और शनि एकादश भाव में हों तो भी प्रबल धनयोग निर्मित होता है।

- शनि स्वराशि (मकर, कुंभ) के होकर पंचम या एकादश भाव में स्थित हों।

- एकादश भाव में देवगुरु बृहस्पति हों तथा सिंह राशि का सूर्य पंचम भाव में स्थित हांे।

- सिंह राशि अर्थात् स्वराशि का सूर्य लग्न भाव में हो तथा मंगल से बृहस्पति का युति सम्बन्ध बन रहा हो।

- मंगल स्वराशि (मेष, वृश्चिक) का होकर लग्नस्थ हों तथा इनका शुक्र, शनि व बुध के साथ युति सम्बन्ध हो।

- स्वराशि का बुध लग्न भाव में स्थित हों तथा उन पर शनि तथा शुक्र की दृष्टि हो अथवा इनसे युक्त हों।

- द्वितीय भाव में शुभग्रहांे से दृष्ट बुध की उपस्थिति अक्षय धन का स्वामी बनाने वाला होती है।

- द्वितीय भाव में लग्न का स्वामी ग्रह हो, जबकि धनेश एकादश भाव में हो तथा एकादश भाव के अधिपति लग्न भाव में हों तो अचानक प्रचुर धन लाभ होता है।

- लग्नेश का नवांशेश जिस राशि में स्थित हों, उसके स्वामी से दृष्ट होकर नवमेश और द्वितीयेश यदि केन्द्रस्थ हों तो ऐसे जातक को बाल्यावस्था में ही अकूत धन का लाभ होता है।


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- लग्न भाव का अधिपति यदि बुध, बृहस्पति और शुक्र से युत होकर केन्द्र भावों में स्थित हो।

- नवमेश लग्न भाव में स्थित होकर नवम भाव को देख रहे हों तथा चतुर्थेश चतुर्थ भाव को देख रहे हों।

- द्वितीय भाव का स्वामी बृहस्पति से युक्त होकर द्वितीय भाव अथवा केन्द्र भावों में स्थित हों। जन्मपत्रिका में उपरोक्त ग्रहयोगों की उपस्थिति जातक को निश्चित ही धन संपदा तथा समृद्धि का लाभ देती है।

द्वितीयेश की दशा-अन्तर्दशा में यह धनागम होता है। जन्मांग में इन ग्रह योगों की उपस्थिति का यह आशय बिल्कुल भी नहीं है कि जातक को बिना प्रयास किए ही धन लाभ हो जाएगा। ज्योतिष शास्त्र कर्मप्रधान शास्त्र है और इस शास्त्र का आशय है कि इन ग्रहयोगों से युक्त जन्मांग वाले जातक अपेक्षाकृत अल्पप्रयास से ही धनलाभ प्राप्त कर लेते हैं।

सम्पन्नता का द्वन्द्वभाव दरिद्रता से है अतः ज्योतिषशास्त्रीय विभिन्न दारिद््रय योगों को प्रस्तुत किया जा रहा है। इन ग्रहयोगों में उत्पन्न जातक अत्यधिक श्रम तथा प्रयास करने के बाद भी ज्यादा धन नहीं कमा पाते हैं। निम्नलिखित ग्रहयोग दरिद्रता का सृजन करते हैं-

- द्वितीयेश क्रूर षष्ठ्यांश में स्थित होकर केन्द्र अथवा त्रिकोण भावों में हो तो जातक अल्प धनी होता है।

- द्वादश भाव का स्वामी यदि पाप ग्रहांे के साथ हो।

- सूर्य तथा चन्द्रमा मारकेश (द्वितीयेश-ससमेश) से युक्त होकर लग्न में स्थित हों।

- षष्ठेश लग्न भाव में तथा लग्नेश षष्ठ भाव में मारकेशों के साथ हों।

- पापयुक्त नीचराशिगत (तुला) सूर्य केन्द्र भावों में हों तो भी जातक दरिद्र होता है।

- एकादश भाव अथवा एकादशेश पर पाप प्रभाव हो।

- बृहस्पति से द्वितीय, चतुर्थ तथा पंचम भाव में पाप ग्रह हों।

- द्वितीय भाव में पाप ग्रह और दशम भाव में शुभ ग्रह हों तो दरिद्रता होती है।

- नवमेश द्वादश भाव में, द्वादशेश द्वितीय भाव में तथा तृतीय भाव में पाप ग्रह स्थित हों।

- सूर्य तथा चन्द्रमा एक ही राशि में स्थित हों तथा साथ ही परस्पर नवांश में भी हों।

- सूर्य तथा चन्द्र कुम्भ राशि में स्थित हों तथा शेष ग्रह नीचराशिगत हों।

- सूर्य वृष राशि में, चन्द्रमा मीन में, शनि मेष में तथा मंगल कर्क राशि का हो तो जातक धन-सम्पदा से हीन होता है।

- नवम भाव का स्वामी द्वादश भाव में हो तथा केन्द्र भावों में पापग्रह स्थित हों।

- द्वितीय भाव में पापग्रह, लग्न भाव का स्वामी द्वादश भाव में तथा दशम भाव का अधिपति, एकादशेश से युत हो तो ऐसा जातक आजीवन ऋणी रहता है।

- द्वितीय भाव का स्वामी जिस नवांश में हो, उसका स्वामी 6-8-12 भावों में पाप ग्रहों के साथ हो।

- द्वितीयेश पाप ग्रहांे के साथ हो तथा द्वितीय भाव में भी पापग्रह हो।

- एकादश भाव में क्रूर ग्रह बैठे हों तथा एकादश भाव का स्वामी भी पाप ग्रहों के साथ हो।

- बृहस्पति से छठे, आठवें या बारहवें स्थान में चन्द्रमा हो तो भी जातक धनाभाव से ग्रस्त रहता है।

- द्वितीय भाव का अधिपति यदि छठे, बारहवें अथवा आठवें स्थान में हों तथा लग्नेश कमजोर हो।

- एकादश भाव का अधिपति षष्ठ, अष्टम् या द्वादश भाव में हो तथा यह लाभेश नीच, अस्त तथा पाप पीड़ित हो तो जातक महादरिद्र होता है।

ये सभी ग्रहयोग अशुभ कहे जा सकते हैं। इन योगों में उत्पन्न जातक दरिद्र, ऋणग्रस्त तथा अभाव में जीवन-यापन करने के लिए अभिशप्त होते हैं। जन्मांग में इन ग्रहयोगों की उपस्थिति से जातक को विचलित नहीं होना चाहिए। अपने अथक परिश्रम, आध्यात्मिक तथा ज्योतिषशास्त्रोक्त उपायों द्वारा इन अशुभ योगों की तीव्रता को काफी सीमा तक कम किया जा सकता है। ऐसे जातकों को अधोलिखित उपायों का आश्रय ग्रहण करना चाहिए-


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- लग्नेश तथा नवमेश का रत्न धारण करें।

- बृहस्पति सर्वविध सम्पत्तिदाता हैं, अतः पुखराज रत्न धरण करना चमत्कारिक प्रभाव दिखाता है।

- कनकधारा स्तोत्र का नित्य 11 बार पाठ करें।

- श्री सूक्त का पाठ भी समस्त दुःखों का नाशक तथा समृद्धिदाता माना गया है। यह पाठ यदि स्फटिक या पारद श्रीयन्त्र के समक्ष किया जाय तो शीघ्र ही लाभ मिलता है।

- यथासामथ्र्य लक्ष्मी गायत्री मन्त्र का मानसिक जाप करंे। मंत्र इस प्रकार है-

‘‘ऊँ महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नोलक्ष्मीः प्रचोदयात्’’

- देवी पद्मावती का मंत्र भी अचूक माना गया है। जैन सम्प्रदाय की देवी के रूप में प्रसिद्ध यह देवी समस्त वैभव प्रदान करने वाली है। मंत्र इस प्रकार है-

‘‘ऊँ नमो भगवती पद्मावती सर्वजन मोहनी सर्वकार्यकरणी मम विकट संकट संहारिणी मम महा मनोरथ पूरणी मम सर्व चिन्तापूरणी ऊँ पद्मावती नमः स्वाहा’’। 51 माला 21 दिन तक करें। अनुष्ठान मंगलवार के दिन प्रारंभ करना श्रेयस्कर है।

- शुद्ध तथा सात्विक बने रहें।

- गणपति मंत्र का पाठ भी इष्ट फलदायक होता है-

‘‘ऊँ गं गणपतये नमः’’

- यदि अत्यधिक ऋण हो गया हो तो ऋणहत्र्ता मंगलस्तोत्र का नियमित पाठ करें तथा मंगल का व्रत रखंे।

- श्री यन्त्र का किसी भी रूप मंे उपासना समस्त सिद्धि तथा ऐश्वर्य देने वाला होता है।



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