श्रीयंत्र: भोग व मोक्ष की कुंजी

श्रीयंत्र: भोग व मोक्ष की कुंजी  

मितु सहगल
व्यूस : 6058 | नवेम्बर 2010

श्री यंत्र को यंत्रों का राजा कहा जाता है। सिद्ध श्री यंत्र की गुरु दीक्षा से प्राप्त मंत्र द्वारा शुभ मुहूर्त में विधिवत् उपासना से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चतुर्विध पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है। दे वाधिदेव भगवान महादेव शिव ने अपने दिव्य तापसी तेज से समस्त पुरुषार्थों को प्रदान करने में सक्षम श्री यंत्र को इस धरा पर प्रतिष्ठित किया। श्री यंत्र ब्रह्मांड का सर्वश्रेष्ठ यंत्र है जिसकी साधना ऐसे योग्य साधकों और शिष्यों को प्राप्त होती है जिन्होंने पिछले अनेक जन्मों में ईश्वर की बहुत भक्ति की हो। श्री यंत्र प्रमुख रूप से ऐश्वर्य तथा समृद्धि प्रदान करने वाली महाविद्या त्रिपुरसुंदरी महालक्ष्मी का सिद्ध यंत्र है। यह यंत्र सही अर्थों में यंत्रराज है। इस यंत्र को स्थापित करने का तात्पर्य श्री को अपने संपूर्ण ऐश्वर्य के साथ आमंत्रित करना होता है। कहा गया है। श्रीसुंदरी साधन तत्पराणाम्, भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव अर्थात जो साधक श्री यंत्र के माध्यम से श्रीविद्या त्रिपुरसुंदरी महालक्ष्मी की साधना करते हैं, उन्हें सभी प्रकार के भोग प्राप्त होते हैं तथा पूर्ण मोक्ष भी मिलता है। इस प्रकार यह एकमात्र ऐसी साधना है जो एक साथ भोग तथा मोक्ष दोनों ही प्रदान करती है। श्रीविद्या उपासना की श्रेष्ठता भक्ति कल्पित नहीं अपितु वास्तविक है।

इस अद्भुत यंत्र के अनेक लाभ हैं-

Û श्रीयंत्र के स्थापन मात्र से भगवती लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है।

Û कार्यस्थल पर इसके नित्य पूजन से विकास होता है।

Û प्रत्येक दीपावली की रात्रि को इसके विधिवत् पूजन से घर में वर्ष भर किसी प्रकार की कमी नहीं होती।

Û इस पर ध्यान लगाने से, मानसिक क्षमता की वृद्धि होती है।

Û इस पर ध्यान कुंडलिनी जागरण में सहायक माना गया है।

Û विविध वास्तु दोषों के निवारण का श्रेष्ठतम उपाय।

ऐसे अद्भुत श्रीयंत्र की विशिष्टता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सनातन धर्म के पुनरुद्धारक जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने चार पीठों की स्थापना करके यहां श्रीविद्या के आवास-श्रीयंत्र-की विधिवत् उपासना की परंपरा को प्रारंभ करके न केवल भारतीय संस्कृति के इस गौरव को सुरक्षित किया अपितु आम जनता के लिए गुरु शिष्य परंपरा द्वारा इस उपासना का समुचित साधन उपलब्ध कराया। तबसे आज तक इन चार शांकर पीठों में श्रीविद्या की उपासना अनवरत रूप से चलती आ रही है।

श्रीयंत्र एवं श्रीविद्या: यह सर्वाधिक लोकप्रिय प्राचीन यंत्र श्रीविद्या अर्थात् त्रिपुरसंदुरी का ही स्वरूप है। अति प्राचीनकाल से ही भारत वर्ष में श्रीविद्या की उपासना प्रचलित है। श्रीमत् शंकराचार्य, उनके गुरु परमगुरु गोडपादस्वामी तथा तदनुवर्ती सुरेश्वर, पद्मपाद, विद्यारण्य स्वामी, प्रभृति अनेकों वेदांती आचार्य श्रीविद्या के उपासक थे। मीमांसकों के आचार्यप्रवर शम्भु भट्ट भास्करराय प्रभृति, महाप्रभु श्री चैतन्य, नित्यानंद महाप्रभु व शैवाचार्यगण में अभिनव गुप्त श्रीविद्या के उपासक थे। शंकराचार्य के जीवन काल में बौद्ध और जैन धर्म के कारण हिंदू धर्म का वर्चस्व कम हो गया था। शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को फिर से लोकप्रियता प्रदान की। उन्होंने अनेक गं्रथों व स्तोत्रों की रचना की जिनमें से श्रीविद्या को समर्पित ‘‘सौंदर्यलहरी’’ में उन्होंने भगवती त्रिपुरसुंदरी व इनके श्रीयंत्र की उपासना के अनेक रहस्यों को उद्घाटित किया है। श्रीविद्या ब्रह्मांड की रचना, पोषण और विध्वंस के क्रम का गूढ़ विज्ञान है। इसे समझना अपने मूल तत्व को समझने जैसा है। इसी कारण श्रीविद्या के स्वरूप श्रीयंत्र को समझना आवश्यक है। संपूर्ण ब्रह्मांड और पंचमहाभूत (जिससे सभी प्राणियों व वस्तुओं की रचना हुई है) को समझने की कुंजी यह श्रीयंत्र ही है। यही कारण है कि श्रीयंत्र आध्यात्मिक के साथ-साथ भौतिक एवं सांसारिक उन्नति भी प्रदान करता है।

श्रीयंत्र की रचना: जिस प्रकार मंत्र देवता की आत्मा है, इसी प्रकार यंत्र देवता का शरीर है। श्रीयंत्र को बनाने की रीति निम्न स्तोत्र में बताई गई है- बिंदु-त्रिकोण-वसुकोणदशारयुग्म मंत्रस्त्रनागदलदशोभितोषडशारम्। वृŸात्रयं च धरणीसदनत्रयं च श्रीचक्र मेतदुदितं पर देवतायाः।। अर्थात् बिंदु, त्रिकोण, अष्टकोण, अंतर्दशार, बहिर्दशार, चतुर्दश दल, अष्ट दल, षोडश दल, वृŸात्रय, चतद्र्वारयुक्त भूपुर-यही नवावरण युक्त श्रीयंत्र का स्वरूप है। संपूर्ण ब्रह्मांड एक ज्यामितीय प्रतिरूप है। सभी प्राणियों का शरीर भी इसी ज्यामितीय प्रतिरूप में बना हुआ है। इसी कारण ऋषियों ने ‘‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्मांडे’’ का सूत्र दिया। इसी वजह से हमारा शरीर, वातावरण और संपूर्ण ब्रह्मांड समक्रमिक रूप से चलता है। यंत्र इसी ज्यामितीय प्रतिरूप का आविर्भाव है। यंत्र का मूल एक आकृति है जो एक विशेष ऊर्जा से स्पंदन करती है। जब मन और मस्तिष्क उस यंत्र पर एकाग्र हो जाते हैं तब हम भी उस यंत्र से संबंधित ऊर्जा से स्पंदन करने लगते हैं जिससे हम ब्रह्मांड की ऊर्जा से जुड़ जाते हैं।

अतः यंत्र केवल एक द्वार या कुंजी करते हैं। श्रीयंत्र संपूर्ण ब्रह्मांड की ऊर्जा, समस्त तत्वों और तनमात्रा जिनसे तत्व बने हैं- इनकी ऊर्जा समाए हुए है। इसलिए श्रीयंत्र ब्रह्मांड तथा मानव जीवन का कार्य के रहस्य जानने का अति उŸाम स्रोत है। बिन्दु: श्रीयंत्र के केंद्र में बिंदु केंद्रित ऊर्जा का प्रतिनिधि है। बिन्दु प्रतीक रूप में श्री त्रिपुरसुंदरी का वास है।

त्रिकोण: त्रिकोण दैवी शक्ति का स्वरूप है। शक्ति ही सृष्टि निर्माण करती है। ऊध्र्वमुखी त्रिकोण योनी का प्रतीक है (जल तत्व)। इसे शक्ति कोण भी कहते हैं। जल की प्रकृति सबसे नीचे जाकर पात्र की आकृति धारण करना है। अधोमुखी त्रिकोण अग्नि तत्व का प्रतीक है क्योंकि अग्नि सदैव अधोमुख होती है। इसे शिव कोण भी कहते हैं। शिव के चार त्रिकोण और शक्ति के पंाच त्रिकोणों के मिलने पर तैंतालीस कोणों वाला तथा अष्ट दल, षोडश दल, वृतत्रय एवं भूपुर के साथ श्रीयंत्र बनता है। इन त्रिकोणों के मिलने पर ऊर्जा सहस्त्र गुणा हो जाती है। इनके बीच जो खाली जगह होती है वह शक्ति के लिए संचालन का क्षेत्र है। इसलिए यहां मंत्रों केा लिखा जाता है।

चक्र: नव त्रिकोण वृत्त के अंदर निर्मित है। वृत्त आकाश तत्व का प्रतीक है जहां शिव और शक्ति (त्रिकोण रूप) के मिलने से सृष्टि की रचना होती है।

पद्म: वृत्त के बाहर पहले अष्ट दल कमल हंै जो अष्ट सिद्धियों का प्रतीक है। पुनः वृत्त ब्रह्म का प्रतीक है। पद्म में कोई दोष नहीं होता। यह बाह्य प्रभाव से मुक्ति और स्वयं की शक्ति का प्रतीक है। इसके बाद षोडश दल कमल है जो जीवन की संपूर्णता माने जाने वाले षोडश कलाओं का प्रतीक है। इसके बाहर चार द्वारों से युक्त आवरण भूपुर है।

भूपुर: भूपुर यंत्र की बाह्य सीमा है जो यंत्र की शक्तियों और ऊर्जा की हानि रोकता है। यह पृथ्वी तत्व का प्रतीक है। पृथ्वी तत्व में ही ऊर्जा प्रकट होती है। श्रीयंत्र आराधना दो प्रकार से होती है। सृष्टिक्रम में बिंदु से आरंभ कर भूपुर तक पूजन किया जाता है। संहार क्रम में भूपुर से आरंभ कर बिंदु तक पूजन किया जाता है। विभिन्न संप्रदाय इन दोनों में से किसी एक क्रम से पूजन करते हैं। श्रीयंत्र का पूजन कुंडलिनी जागरण के लिए किसी योग्य गुरु के सान्निध्य में ही करना चाहिए। इस प्रकर देखा जाए तो यंत्र केवल एक साधन है जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बनाने में सहायक है। जब जप, ध्यान से इसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाती है तब यह ब्रह्मांड की ऊर्जा से हमें जोड़ने तथा आध्यात्मिक उन्नति का कार्य करता है। क्योंकि श्रीयंत्र बहुत ही शक्तिशाली ऊर्जा का स्रोत है, इसलिए यह भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पदों के विकास में अति सहायक है। श्री यंत्र और कुंडलिनी जागरण श्रीयंत्र साधना वास्तव में कुंडलिनी जागरण का तरीका है। हमारे शरीर में ऊर्जा के सात मुख्य चक्र बताए गये हैं- सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्धि, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान और मूलाधार। कुंडलिनी मूलाधार में साढ़े तीन फेरे में अपने आप को लपेटे हुए पूंछ को मुख से पकड़े हुए है। जब कुंडलिनी शक्ति मूलाधार से चलकर षट्चक्रों का भेदन करती हुई सहस्त्रार में शिव के साथ मिलन करती है तो यह अवस्था योगी के लिए परम शक्ति देने वाली है।

कुंडलिनी योग के दो क्रम हैं-

Û आरोही क्रम: जब कुंडलिनी मूलाधार से चलकर स्वाधिष्ठान आदि चक्रों को भेदती हुई सहस्त्रार तक पहुंचती है, उसे आरोह क्रम या संहार क्रम कहते हैं।

Û अवरोह क्रम: जब कुंडलिनी सहस्त्रार में शिव का तादाम्य प्राप्त करने के बाद आज्ञा आदि चक्रांे से होती हुई मूलाधार में पहुंचती है, उसे अवरोह क्रम या सृष्टि क्रम कहते हैं।

ब्रह्मचर्य और योग साधना द्वारा कुंडली जागरण इत्यादि अत्यंत श्रमसाध्य व कठिन प्रक्रिया है जिसमें पतन की आशंका भी रहती है जबकि श्री विद्या व श्रीयंत्र की गुरु दीक्षा प्राप्त करके विधिवत् उपासना से षटचक्र वेध आदि आसानी से सिद्ध हो सकता है। तंत्र मार्ग में तंत्र के सर्वश्रेष्ठ श्रीविद्या तंत्र की साधना में पतन की आशंका नहीं है इसलिए कहा है जो शीघ्र हृदय ग्रंथि का भेदन करना चाहता है वह तांत्रिक विधि से केशव की आराधना करे। कुंडलिनी जागरण के विभिन्न तरीकों में मंत्रयोग को सर्वश्रेष्ठ, सुलभ व सरल माना जाता है और श्रीविद्या कुंडलनी जागरण के लिए सर्वश्रेष्ठ मंत्र है। इसलिए श्रीविद्या द्वारा श्रीयंत्र की साधना का शास्त्रों में बड़ा ही गौरवपूर्ण वर्णन मिलता है।



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