पांडवों के महाप्रयाण के
पश्चात् भगवान के परम
भक्त राजा परीक्षित श्रेष्ठ
ब्राह्मणों की शिक्षानुसार पृथ्वी का
शासन करने लगे। उन्होंने उत्तर की
पुत्री ‘इरावती’ से विवाह किया। उससे
जन्मेजय आदि चार पुत्रों की प्राप्ति
हुई। कृपाचार्य को आचार्य बनाकर
तीन अश्वमेध यज्ञ किए। महाराज
परीक्षित दिग्विजय के समय जहां भी
जाते वहीं उन्हें पांडवों व श्रीकृष्ण
(यदुवंशियों) के संुदर चरित्र श्रवण
करने को मिलते कि किस प्रकार
श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनकर
महाभारत के युद्ध में विजय दिलायी,
किस प्रकार अंगुष्ठ मात्र का स्वरूप
धारण कर गर्भ में तुम्हारी (परीक्षित)
रक्षा की आदि-आदि। इन दिव्य
चरित्रों का श्रवण करते-करते परीक्षित
का रोम-रोम पुलकित हो जाता, हृदय
गद्गद् हो जाता तथा अंतःकरण
आनंद का अनुभव करता और विचार
करते मैं व मेरा कुल धन्य है जिन्होंने
परात्पर परब्रह्म श्रीकृष्ण की सान्न्ािध्यता
का अनित्य सुख संपन्न लाभ प्राप्त
किया। दिग्विजय के प्रसंग में राजा
परीक्षित ने देखा-कलियुग राजा का
वेष धारण करके एक गाय और बैल
के जोड़े को ठोकरों से मार रहा है।
कमल तंतु के समान श्वेत रंग का बैल
एक पैर से खड़ा कांप रहा था। तीन
पाद नष्ट हो चुके थे। धर्मोपयोगी दूध,
घी आदि हविष्य पदार्थों को देने वाली
वह गाय भी बार-बार शूद्र के पैरों
की ठोकरें खाकर अत्यंत दीन हो रही
थी। उसका बछड़ा भी उसके निकट
नहीं था। नेत्रों से अश्रु निकल रहे थे।
स्वर्णजटित रथ पर आरूढ़ राजा ने
अपना धनुष चढ़ाकर मेघ के समान
गंभीर वाणी से उसको ललकारा और
कहा- तू निरपराधों पर प्रहार करने
वाला अपराधी है, अतः वध के योग्य
है। धेनुपुत्र व गोमाता को परीक्षित् ने
आश्वस्त किया और कहा- मैं दुष्टों
को दंड देने वाला हूं आप रोयें नहीं।
दुखियों के दुख को दूर करना ही
राजाओं का परम धर्म है।
धर्म ने कहा- राजन ! आप पांडुवंशजों
का दुःखियों को आश्वासन देना आपके
योग्य ही है; जो आपने पूछा कि तीन
पैर किसने काट दिए तो नरेंद्र! शास्त्रों
के विभिन्न वचनों से मोहित होने के
कारण हम उस पुरुष को नहीं जानते,
जिससे संकटों के कारण उत्पन्न होते
हैं। कोई प्रारब्ध को कारण बतलाते हैं,
तो कोई कर्म को। कुछ लोग स्वभाव
को, तो कुछ लोग ईश्वर को दुख का
कारण मानते हैं, आदि आदि। इनमें
कौन सा मत ठीक है, यह आप स्वयं
ही विचार कर लीजिए!
सूतजी कहते हैं- ऋषिश्रेष्ठ शौनकजी!
धर्म का यह प्रवचन सुनकर सम्राट
परीक्षित् अत्यंत प्रसन्न हुए और वृषभ
के रूप में स्थित धर्म को उन्होंने जान
लिया। धर्म देव ! तपः शौचं दया
सत्यमिति पादाः कृते कृताः।
अधर्मां शैस्त्रयो भग्नाः स्मयसंगमदैस्तव।।
सत्ययुग में आपके चार चरण थे- तप,
पवित्रता, दया और सत्य। इस समय
अधर्म के वंश गर्व, आसक्ति और मद
से तीन चरण नष्ट हो गए हैं चतुर्थ
चरण ‘सत्य’ ही बच रहा है। अधर्मरूप
कलि उसे भी ग्रास बना लेने की
तत्परता में है। यह गौमाता साक्षात्
पृथ्वी देवी हैं। महाराज ने दोनों को
सान्त्वना दी और अधर्म के कारण रूप
कलियुग को मारने हेतु दीक्षा तलवार
उठायी तभी उसने अपने राजचिह्नों का
परित्याग कर भय से थर-थर कांपते
हुए परीक्षित के चरणों में अपना सिर
रख दिया।
परीक्षित बोले - शरणागत की रक्षा
करना मेरा धर्म है अतः इस ब्रह्मावर्त
का तू शीघ्र ही परित्याग कर दे,
क्योंकि यह धर्म, सत्य और यज्ञपुरुष
भगवान् की आराधना का निवास
स्थान है। कलि ने कहा- सार्वभौम! मैं
जिधर भी दृष्टिपात करता हूं उधर मुझे
आप धनुष पर बाण चढ़ाये खड़े दिखते
हैं। धार्मिक शिरोमणि ! अब आप ही
बताइये मैं आपकी आज्ञा को शिरोधार्य
कर कहां निवास करूं? कलियुग की
प्रार्थना स्वीकार कर उसे चार स्थान
द्यूत, मद्यपान, स्त्री संग और हिंसा
तथा असुंदर स्थान जानकर कलि की
पुनः प्रार्थना पर एक स्थान-सुवर्ण
(धन) और दे दिया। सुवर्ण धन से
तात्पर्य उस धन से है जिसको अधर्म
से अर्जित किया जाये। उपरोक्त पांचों
स्थानों का आत्मकल्याणकामी पुरूष
को सेवन नहीं करना चाहिए और
महाराज परीक्षित के दयारूप धर्म का
त्याग भी नहीं करना चाहिए; कहा भी
है-
दया धर्म का मूल है, पाप मूल
अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िए, जब लगी
घट में प्रान ।।
सम्राट परीक्षित ने धर्म के तीन पाद
जोड़ दिए और पृथ्वी का संवर्धन
किया। योगीराज परीक्षित् महाराज
युधिष्ठिर के द्वारा प्रदत्त राज्यलक्ष्मी
का प्रजापालन में तत्पर व भगवान्
श्रीकृष्ण की लीलाओं तथा नामरस का
पान करते हुए धर्मानुसार आनंद प्राप्त
करने लगे।
सूतजी कहते हैं - जब तक
अभिमन्युनन्दन महाराज परीक्षित सम्राट
रहे, तब तक भूमंडल पर कलियुग का
कुछ भी प्रभाव नहीं था। परीक्षित भी
कलियुग से कोई वैर नहीं रखते थे
क्योंकि इसमें पुण्यकर्म तो संकल्पमात्र
से ही फलीभूत हो जाते हैं। परंतु
पापकर्म का फल शरीर से करने पर
ही मिलता है, संकल्पमात्र से नहीं।
परीक्षित के शासन में अधर्म का मूल
कारण कलियुग वैसे तो श्रीकृष्ण के
स्वधाम गमन के समय ही आ गया
था, फिर भी झूठ (असत्य), मद, काम
(आसक्ति), निर्दयता (वैर) और रजोगुण
रूपी स्थान न होने के कारण कलियुग
का प्रभाव न हो सका।
एक दिन राजा परीक्षित् - धनुष लेकर
वन में शिकार खेलने गए। हरिणों के
पीछे दौड़ते-दौड़ते वे थक गए और
उन्हें बड़े जोर की भूख और प्यास
लगी। आस-पास सरोवर न देखकर
शमीक ऋषि के आश्रम में गए। ऋषि
अपने मन-बुद्धि-इन्द्रिय को रोककर
ब्रह्मानंद में निमग्न थे। सत-रज-तम
तथा जागृत-स्वप्न-सुषुप्ति को पार
करके विश्व-तैजस-प्राज्ञ का भाव
छोड़कर तुरीयावस्था में समाधिस्थ
थे। उनकी जटायें बिखरी हुई थीं।
परीक्षित् ने ऐसे निर्विकार ब्रह्म पुरूष
के पास जाकर उनसे जल की याचना
की। परंतु राजा को जल तो बहुत दूर,
बैठने को आसन आदर (मान-सम्मान)
भी न मिला। मन में विचार आया कि
यहां हमारा अपमान हो गया। क्रोध व
ईष्र्या के वशीभूत होकर राजा ने ऋषि
के गले में धनुष की नोंक से मार्ग में
पड़े हुए मृत सर्प को डाल दिया और
अपनी राजधानी लौट आए।
महाराज परीक्षित के जीवन में यह
पहला ही अवसर था कि मन-बुद्धि
विकारी हो गए और स्वाधिष्ठान,
आत्माराम विषयारण्य से परे एवं
सत्यकर्म में लीन ऋषि के प्रति यह
अपराध कर दिया। शमीक मुनि का पुत्र
बड़ा तेजस्वी था। राजा के दुव्र्यवहार
की सूचना ऋषिकुमारों के साथ खेलते
हुए तेजस्वी पुत्र को प्राप्त हुई और
उसने कहा- ये नरपति कहलाने वाले
लोग उच्छिष्ट भोजी कौओं के समान
संड-मुसंड होकर कितना अन्याय
करने लगे हैं, राजा तो कुत्तों के
समान हमारे द्वारपाल हैं। इनको घर
में घुसकर चरूपुरोडाश खा जाने का
कोई अधिकार नहीं है। उसकी आंखें
लाल-लाल हो गयीं और कौशिकी
नदी के जल से आचमन करके अपने
वाणीरूपी वज्र का प्रयोग करते हुए
कहा कि- कुलांङ्गार परीक्षित ने मेरे
पिता का अपमान किया है। इसलिए
मेरी प्रेरणा से आज के सातवें दिन
उसे तक्षक सर्प डस लेगा।
सूतजी कहते हैं- ऋषियों ! इसके
बाद वह बालक आश्रम पर आया और
पिता के गले में सर्प देखकर दुखित
हो जोर-जोर से रोने लगा। ऋषि ने
अपने पुत्र का रोना सुनकर धीरे-धीरे
नेत्र खोले और गले में पड़े मृत सर्प
को दूर फेंक दिया। पुत्र से पूछा-बेटा
तुम क्यों रो रहे हो। पुत्र ने राजा के
शाप का संपूर्ण वृत्तांत पिता को बतला
दिया। इससे ऋषि को बड़ी पीड़ा हुई;