श्राद्ध से होती है पितृदोष शान्ति

श्राद्ध से होती है पितृदोष शान्ति  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 10410 | सितम्बर 2011

पितृ दोष की शांति के विधि-विधान हमारे शास्त्रों में दिये गये हैं। पितृ दोष की शांति किस तरह से करनी चाहिए तथा कुंडली में कौन सी ग्रह स्थिति पितृ दोष पैदा करती है, जानिए इस लेख से।

शास्त्रों में अनेक लोकों का वर्णन मिलता है, जैस- ब्रह्मलोक, सूर्यलोक, चंद्रलोक, पितृलोक, मृत्युलोक, पाताललोक आदि। सूर्यलोक और चंद्रलोक के बीच स्वर्गलोक की स्थिति है और चंद्रलोक से नीचे पितृलोक है। बहुत से विद्वान चंद्रलोक को ही पितृलोक मानते हैं।

यह आवश्यक नहीं है कि सभी मृतक जीव पितृलोक गमन कर जाएं। शुभ कर्मों वाले सतोगुणी जीव ही पितरलोक वासी होते हैं। पितर भी देवतुल्य होते हैं। इसलिए उन्हें पितृदेव कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार पितरों को पूजने वाला व्यक्ति पितरों को प्राप्त होता है अर्थात् पितृलोक को जाता है।

सूर्य छः महीने भूमध्य रेखा से उत्तर की ओर तथा छः महीने दक्षिण की ओर दिखाई देता है। दक्षिणायन काल में पितृलोक प्रकाशित रहता है। हमारी पृथ्वी सूर्य का भ्रमण करती हुई जब इस स्थिति में पहुंचती है कि जहां से सूर्य कन्या राशि में दिखाई देता है, उस समय (आश्विन कृष्ण पक्ष में) पितृलोक पृथ्वी के और अधिक नजदीक आ जाता है।

ऐसी मान्यता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष में चंद्रलोक पर पितरों का आधिपत्य रहता है। इस समय पृथ्वी का मार्ग प्रशस्त तो रहता ही है। साथ ही पितृगण पृथ्वी पर जाने के लिए चंद्रमा से शक्ति प्राप्त कर लेते हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार आश्विन माह में जब सूर्य कन्या राशि में रहता है, तब यमराज पितरों को अपने वंशजों से मिलने की छूट देते हैं। पितर अपने वंशजों के द्वार आकर खीर आदिकव्य (नैवेद्य) की आशा करते हैं।

पितरों से व्यक्ति का संबंध : पितर या पितृ शब्द पिता का समानार्थी है। स्थूल रूप से प्रपितामह, पिता या पिता तुल्य अपने पूर्वजों को पितर कहते हैं। वस्तुतः हमारे वंश/ खानदान के सभी मृत स्त्री-पुरुष पितरों की श्रेणी में आते हैं।

हमारे परिवार/कुटुंब के सभी मृतक (हमसे आयु में छोटे मृतक भी) पितृलोकवासी होने के कारण पितर कहलाते हैं। व्यक्ति के सगे दादा, परदादा, प्रधान या मुखय पितर माने जाते हैं। वसु, रुद्र और आदित्य पितृलोक के मुखय देवता हैं। भीष्म पितामह को भी पितृलोक में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है।

पितृदोष और उसकी ग्रह स्थितियां : पूर्व जन्म में पिता के अनादर के कारण पितृश्राप से वर्तमान जन्म में व्यक्ति को पितृदोष लग जाता है। संतानहीनता, संतान-सुख में बाधा आ रही है तो समझ लेना चाहिए कि पितृदोष का ही परिणाम है। बृहद पाराशर होराशास्त्र में पितृदोष/ पितृश्राप की ग्रह स्थितियां निम्न प्रकार बताई गई हैं।

पंचम स्थान में सूर्य अपनी नीच राशि तथा शनि के अंश में हो और उसके आगे पीछे ग्रह हों। पंचमेश सूर्य पंचम या नवम् भाव में पाप ग्रह से संयुक्त हों या त्रिकोण स्थान पाप ग्रहों से आक्रांत या दृष्ट हो। सिंह राशि में गुरु हो और पंचमेश सूर्य से युत हो तथा पंचम और लग्न में पाप ग्रह हों। लग्नेश दुर्बल होकर पंचम भाव में हो तथा पंचमेश सूर्य से युत हो तथा पंचम और लग्न में पाप ग्रह हों।

लग्न और पंचम स्थान में सूर्य, मंगल या शनि, आठवें, बारहवें भाव में राहु तथा गुरु हों तथा लग्न में पापग्रह हों। लग्न से आठवें भाव में सूर्य हो, पांचवे भाव में शनि तथा पंचमेश राहु से युत हो और लग्न में पापग्रह हो तो पिता के शाप/ पितृदोष के कारण संतान हानि होती है। पितृश्राप से मुक्ति के लिए अपने पितरों का पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध करना चाहिए।

श्राद्ध क्या है? पितरों की संतुष्टि के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले पूजन, तर्पण, पिण्डदान एवं ब्राह्मण भोजन आदि कर्मों को श्राद्ध कहते हैं। पितरों की प्रसन्नता के लिए श्रद्धायुक्त जो कर्म किये जाते हैं, वे सब श्राद्ध की श्रेणी में आते हैं। अतः श्राद्ध पितरों के प्रति हमारे श्रद्धाभाव की अभिव्यक्ति है। श्राद्ध एक वैदिक कर्म है। इसे पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति के साथ किया जाना चाहिए।

महालय श्राद्ध भाद्रशुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक मनाया जाता है। यह 16 दिन शोकाकुल होने के कारण इन्हें कड़वे दिनों की संज्ञा दी जाती है। इस अवधि में कोई नवीन एवं मांगलिक कार्य नहीं किये जाते हैं। जिस तिथि को पूर्वज की मृत्यु हुई हो, श्राद्धपक्ष में उसी तिथि को उस पितर का श्राद्ध करना चाहिए। मृत्यु तिथि के निर्धारण में सूर्योदयकालीन तिथि ग्राह्य नहीं है।

पितृण से मुक्ति का पर्व : जो व्यक्ति अपने पितरों का श्राद्ध नहीं करते वे पितृण से मुक्त नहीं हो पाते हैं, फलतः अगले जन्म में उन्हें पितृ-दोष लग जाता है। अतः हम सभी को अपनी-अपनी सामर्थ्यानुसार श्राद्ध करना चाहिए। पूरे 16 श्राद्ध किसी कारण से करना संभव न हो तो कन्यागत सूर्य में दशमी से अमावस्या तक श्राद्ध अवश्य करना चाहिए क्योंकि सूर्य कन्यागत होने पर पितर पक्वाज्ज और मिष्ठाज्ज की कामना करते हैं।

श्राद्ध न करने पर वृश्चिक संक्रांति के बाद पितर शाप (श्राप) देकर निःश्वास छोड़ते हुए चले जाते हैं। पंच महायज्ञों में सम्मिलित पितृयज्ञ का आयोजन करना प्रत्येक गृहस्थ का परम कर्तव्य है। श्राद्ध भी पितृयज्ञ है। श्राद्ध कर्ता को आशीर्वाद देते हैं, फलस्वरूप वह पितृण से उऋण हो जाता है।

''आयुः प्रजाः धनं विद्या स्वर्गं मोक्षं सुखानि च।

प्रयच्छंति तथा राज्यं पितरः श्राद्धतर्पिताः॥''

मार्कण्डेय पुराण के अनुसार- श्राद्ध करने से संतुष्ट पितर श्राद्ध कर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विद्या, सभी प्रकार का सुख, मरणोपरांत स्वर्ग एवं मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

श्राद्ध न करने से हानि : अपने वंशजों द्वारा श्राद्ध न करने पर पितृगण असंतुष्ट व दुःखी होकर, श्राद्ध न करने वाले व्यक्ति को श्राप देते हैं और उसका रक्त चूसते हैं। पितृश्राप के कारण वह वंशहीन हो जाता है।उसका जीवन कष्टमय हो जाता है, उसे शारीरिक व मानसिक व्याधियां घेरे रहती हैं। जैसा कि महर्षि पाराशर ने कहा है, 'पितृशापात्सुतक्षयः' पितृश्राप के कारण संतान क्षय होता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को पितृण से मुक्ति के लिए श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। वैसे भी गृहस्थों के 'पितृगण' सूर्य के समान पूज्य देव हैं।

गरीबी में ऐसे करें श्राद्ध : महर्षि दयानंद सरस्वती ने मृतक के श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन को गरीब जनता के ऊपर अनावश्यक बोझ बताया था। किंतु गरीब से गरीब व्यक्ति भी पितरों को पानी तो दे सकता है। पितृ केवल श्रद्धा भाव के भूखे होते हैं। यदि किसी व्यक्ति के पास श्राद्ध कर्म करने की सामर्थ्य न हो तो केवल शाक (सब्जी) से श्राद्ध करें। यदि शाक भी न हो तो घास काटकर गाय को खिला देने से श्राद्ध संपन्न हो जाता है क्योंकि पशु योनी में गये हुए पितर चारे के रूप में भोजन ग्रहण कर लेते हैं।

निर्धनता की स्थिति में किसी एकांत खुले स्थान में जाकर श्रद्धा एवं भक्ति पूर्वक अपने दोनों हाथों को ऊपर उठाते हुए अपने पितरों से निम्न प्रार्थना करें- 'हे! मेरे पितृगण, मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य आदि। हां, मेरे पास आपके लिए श्रद्धा और भक्ति है, मैं इन्हीं के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूं, आप तृप्त हो जाएं।''

श्राद्ध-विधि : स्नान आदि से निवृत होकर, सर्वप्रथम हाथ में तीन कुशांकुर, काले तिल औ जल लेकर दक्षिण की ओर मुख करके संकल्प मंत्र का उच्चारण करें। संकल्प मंत्र बोलने के बाद हाथ में लिया हुआ जल आदि भूमि पर छोड़ दे।

संकल्प के पश्चात् तांबे, पीतल या चांदी की थाली में पानी, दूध और काले तिल डालें, दर्भ (कुशा) को इस प्रकार पकड़ें कि हाथों की अंजली बन जाए दाभ (कुश) को पानी में डुबोकर सबसे पहले पितरों के अधिष्ठाता देव-वसु, रुद्र और आदित्य को जल की आहुतियां दें। इसके बाद अपने पितरों के नाम लेकर उनको जल अर्पित करें। (कम से कम सात आहूतियां दें)।

पितरों के लिए भोजन लगाने से पूर्व पंचबलि निकालें। पूजन के पश्चात् पंचबलि की एक एक पत्तल-गाय, कुत्ता, कौआ, अतिथि देव और चींटियों को खिलाएं। इसके बाद ही ब्राह्मण को श्रद्धापूर्वक भोजन करायें और तिलक करके दान और दक्षिणा दें। पितरों से संबंधित सभी कार्य दक्षिण की ओर मुख करके करना चाहिए। पूजा में पुष्प, गंध, जल, धूप आदि वामवर्त (एंटीक्लोकवाइज) क्रम से दिये जाते हैं।

नारायण-नागबलि और त्रिपिंडी श्राद्ध : पितृदोष के कारण संतान हीनता व संतान-कष्ट होता है। इसके अलावा परिवार में आर्थिक उन्नति नहीं होती। व्यक्ति हमेशा परेशानियों में उलझा रहता है। पूर्वकृत पाप के कारण प्रारब्धजन्य रोगों का प्रादुर्भाव होता है।

योगरत्नाकर के अनुसार- जब किसी रोग का निदान शास्त्रीय चिकित्सा से नहीं हो पाए, तो ऐसे असाध्य रोगों को कर्मज रोग समझना चाहिए। पूर्व जन्म के पापों का प्रायाश्चित रूप दान-पुण्य ही कर्मज रोगों की औषधि है। धर्मानुष्ठान करने से कर्मज रोग दूर होते हैं।

महर्षि पराशर कहते हैं कि पिता के अपमान के कारण पितृश्राप लगता है। जब पितरों के श्राद्धकर्म का लोप होता है, तो वे प्रेतयोनी में चले जाते हैं। वे अपने वंशजों से रुष्ट होकर वंश वृद्धि रोकते हैं। पितृशाप के कारण पुरुषों में नपुंसकता एवं स्त्रियों में बन्ध्या रोग उत्पन्न होते हैं।

पितृदोष की शांति हेतु नारायणबलि- नागबलि श्राद्ध किया जाता है। पितृशाप, प्रेतशाप और सर्पश्राप आदि के कारण उत्पन्न कर्मज रोगों की शांति हेतु, पीड़ा देने वाली जीवात्मा की मुक्ति के लिए नारायण-नागबलि श्राद्ध किया जाता है। इस श्राद्ध विधि में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, यम और प्रेत इन पांच देवताओं का पूजन और पिंडदान किया जाता है।

इसकी विधि सुश्रुत संहिता, धर्मसिंधु आदि ग्रंथों में दी हुई है। नारायण-नागबलि की भांति त्रिपिंड़ी भी काम्य श्राद्ध है। प्रेतयोनी की पिशाच-पीड़ा से मुक्ति के लिए यह श्राद्ध किया जाता है। जौ, तिल और चावल के आटे में शक्कर एवं घी डालकर तीन पिंड बनाए जाते हैं।

जौ का पिंड सात्विक प्रेतात्मा को दिया जाता है। चावल के आटे से बना पिंड रजोगुणी प्रेतात्मा को दिया जाता है। तिल का पिंड तमोगुणी प्रेतात्मा को प्रदान किया जाता है। इस श्राद्ध प्रेतयोनी को प्राप्त जीवात्मा की तृप्ति और मुक्ति हो जाती है।

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