साढ़ेसाती की वास्तविकता

साढ़ेसाती की वास्तविकता  

कनक कुमार वार्षणेय
व्यूस : 6386 | अप्रैल 2012

आपकी साढ़ेसाती शुरू हो गई है, इसलिए ये असंभावित घटनाऐं घट रही है। जन्मकुंडली देखने वाले पंडितों के उपरोक्त वाक्य हर व्यक्ति को अपने 70-80 वर्ष के जीवन काल में 2-3 बार सुनने को मिलते हैं। एक साढ़ेसाती समाप्त होने के लगभग साढ़े 22 वर्ष बाद दूसरी साढ़ेसाती शुरू हो जाती है। ऐसे वक्त पर पंडितों, तांत्रिकों और ज्योतिषियों को याद किया जाता है और फिर पूजा-पाठ, अनुष्ठान, रत्न धारण तथा शनिदेव की शांति का दौर चल निकलता है।

जो कुछ साढ़ेसाती के दौरान गुजरता है, उसकी आधारशिला का शिलान्यास तो साढ़ेसाती शुरू होने के लगभग ढाई वर्ष पूर्व ही हो जाता है। चंद्र राशि से ग्यारहवें स्थान का शनि का गोचर जातक के लिए अनुकूल परिस्थितियों को जन्म दे देता है और यदि इन ढाई वर्षों के दौरान गुरु और राहु का अनुकूल गोचर भी समर्थन देता हो तो जातक की पौ-बारह हो जाती है, भले ही जातक की जन्मकुंडली एक अच्छे चरित्र को इंगित करती हो अथवा एक आपराधिक प्रवृत्ति की। चरित्रवान व्यक्ति तो एक सम्माननीय सोपान पर चढ़ता जाता है

और आपराधिक प्रवृत्ति का व्यक्ति आपराधिक सफलताओं के कीर्तिमान स्थापित करने की ओर अग्रसर होने लगता है। शनि एक पापी और क्रूर ग्रह है, जो एक ओर तो महत्वाकांक्षा, नेतृत्व, साहस और निर्भयता का कारक है, वहीं उदंडता, मूर्खता, तानाशाही, अहंकार, अपराध, दुर्घटना, निराशा, अवसाद व विषाद का प्रणेता भी है। शनि का चंद्र राशि से ग्यारहवें स्थान का संचार महत्वाकांक्षाओं और निर्भयता को देता है, चाहे वह महत्वाकांक्षा सद्कार्यों के लिए हो अथवा गलत कार्यों के लिए। जन्मकुंडली में विशेषकर शनि व अन्य ग्रहों के बलावल तथा महादशा की स्थिति के अनुसार जातक अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में साधारण अथवा असाधारण सफलता प्राप्त करता है।

वास्तविकता तो यह है कि शनिदेव इस गोचर के दौरान जो कुछ देते हैं, साढ़ेसाती के दौरान उसे छीनने के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं। शनिदेव की इस कार्य विधि का एक उल्लेखनीय वृतांत प्रस्तुत करूंगा - वर्ष 1969 के प्रारंभ में शनि ने अपनी नीच राशि ‘मेष’ में प्रवेश किया था। शनिदेव चूंकि लोहे के कारक माने जाते हैं, इनके मेष राशि में प्रवेश करते ही एकाएक लोहे और इस्पात की मांग में एक जबर्दस्त उछाल आ गया। कारण था, भारत सरकार द्वारा कुछ परियोजनाओं की घोषणा जिनमें लोहे और इस्पात का प्रमुख योगदान था। इससे पूर्व लौह और इस्पात उद्योग एक जबर्दस्त मंदी के दौर से गुजर रहा था।

देखते ही देखते मांग और पूर्ति में भारी अंतर होने के कारण लोहे के उत्पादनों में साठ से सौ प्रतिशत तक की मूल्य वृद्धि हो गई। मैं उन दिनों इस्पात के उत्पादन से जुड़ा हुआ था। 1970 के अंत में मेरी मुलाकात मेरे एक संबंधी के चाचाजी से हुई जो मिथुन राशि के जातक थे और शनिदेव की महाकृपा का सुख (ग्यारहवें शनि के कारण) भोग रहे थे। वे लौह और इस्पात स्क्रैप के संग्रहकर्ता और विक्रेता थे। 1968 के अंत तक स्क्रैप की समुचित मांग न होने के कारण वे संघर्षशील थे।

मार्च 1969 के बाद एकाएक स्क्रैप के दाम लगभग दुगुने हो गए। इन्होंने अपने संग्रहित माल की बिक्री से, जो जंग खा रहा था, अच्छा धनार्जन किया, साथ ही चूंकि वे इस धंधे में थे, उन्होंने सस्ते दामों में स्क्रैप क्रय-विक्रय से अपने वारे-न्यारे कर लिए। अर्जित धन से इन्होंने खेतों में सिंचाई के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले डीजल पंपों की एजेंसी भी ले ली। 1970 में कम वर्षा होने के कारण पंपों की अच्छी मांग हुई, इनकी महत्वाकांक्षा और भी उछाल लाने लगी और 1971 की गर्मियों के लिए इन्होंने बैंक से ऋण लेकर डीजल पंपों का अच्छा खासा स्टाॅक जमा कर लिया, साथ ही एक बर्फखाने की स्थापना भी कर ली। बात 1970 के अंत की है

जब इन्होंने अपनी अहंकार जनित भाषा में मुझ से अपने भविष्य की ज्योतिषीय जानकारी चाही। चूंकि अप्रैल 1971 में शनि का संचार वृष राशि में होने वाला था, जब उनकी साढ़ेसाती शुरू होने वाली थी, मैंने उनकी कुंडली व हस्तरेखा देखकर केवल इतना ही कहा कि आगे का समय आपके अनुकूल नहीं रहेगा। इसलिए वे अपनी विस्तार योजनाओं को विराम दे दें। इतना सुनते ही ये 60 वर्षीय सज्जन बुरी तरह बिगड़ गए और बोले तुम्हें ज्योतिषी किसने बना दिया ? मैं तो यदि मिट्टी को हाथ लगा दूं तो वह भी सोना बन जाती है।


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शायद यह बात वे स्वयं नहीं बोल रहे थे, बल्कि उनका मेषस्थ शनि प्रेरित कर रहा था। जो इनकी कुंडली में भी ग्यारहवें भाव (मेष राशि) में स्थित था। उन दिनों मुझे ज्योतिष को हाॅबी के रूप में शुरू किए कुछ ही वर्ष हुए थे, इसलिए मैं उन्हें कोई अधिकारपूर्ण उत्तर नहीं दे पाया। सोचा कि शायद इनके पास शनिदेव को परास्त करने के लिए कोई ब्रह्मास्त्र होगा।

अब हुआ यह कि अप्रैल 1971 में शनि ने वृष राशि में प्रवेश किया जबकि गुरुदेव भी उनकी राशि से छठे स्थान (वृश्चिक राशि) में संचरित थे और इनके दुर्भाग्य से उनके प्रदेश को वृष्ठिदेव ने समय से पूर्व ही तृप्त कर दिया, लिहाजा न तो किसानों को पंपों की आवश्यकता हुई और न ही ठंडे मौसम के कारण जनसाधारण को बर्फ की।

पंपों और बर्फ की न्यून बिक्री होने के कारण इन्हें बैंकों का ब्याज और किश्तें चुकाना दूभर हो गया। इस अक्षमता के कारण बैंकों ने इनके बर्फखाने और माल संपत्ति का अधिग्रहण कर लिया और वे दिवालिया हो गए। सारे काम धंधे ठप हो जाने से इनके परिवार में खाने पीने के भी लाले पड़ गए। मुझे ध्यान है कि उनके धंधे में शामिल इनके एक पुत्र भी वृष राशि में होने के कारण साढ़ेसाती की चपेट में थे। ये सज्जन व्यापार में हुए जबर्दस्त घाटे का सदमा नहीं झेल पाए और दिवंगत हो गए। उनकी महत्वाकांक्षा और अहंकार को शनिदेव इस भयंकर तरीके से चूर-चूर कर देंगे, इसकी आशंका मुझे भी नहीं थी। उनका ‘सोना’ कैसे ‘मिट्टी’ बन गया। दूसरा वृतांत 1998 के प्रारंभ का है।

मेरे एक इंजीनीयर मित्र जो मीन राशि के जातक थे, मुझसे सलाह लेने आया करते थे, क्योंकि वे साढ़ेसाती की चपेट में थे और आर्थिक कठिनाईयों से जूझ रहे थे। साढ़ेसाती शुरू होने से पूर्व मकर के शनि में वे एक प्रतिष्ठित कंपनी में मुख्य अभियंता के पद पर पहुंच गए थे। उन्हें लगा कि अपनी तकनीकी जानकारी तथा कार्य कुशलता के बल पर वे स्वयं ही उसी उत्पादन के लिए फैक्टरी लगा कर बहुत धन कमा लेंगे, लिहाजा वे नौकरी छोड़कर अपनी जमा पूंजी लगाकर तथा बैंक से ऋण लेकर अपना लघु उद्योग स्थापित करने में जुट गए।

तब तक उनकी साढ़ेसाती शुरू हो गई थी और शनिदेव को भी आखिर अपनी कारगुजारी करनी ही थी। व्यवसायिक अनुभव न होने के कारण एक नए उद्योग को खड़ा करने और विक्रय विकसित करने में समय लग गया और इन्हें आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा केवल तकनीकी जानकारी ही बेड़ा पार नहीं लगा सकी। इसी बीच वे अपने एक निकट संबंधी की कुंडली लेकर आए, जो भारतीय सेना में एक उच्च पद (कर्नल) पर तैनात थे और उन्हें सेना के लिए सामान खरीदने की जिम्मेदारी मिली हुई थी।

कुंडली देखकर मुझे लगा कि वे बेईमानी को यदि अवसर मिले, तो अंगीकार कर सकते हैं। जब मैंने अपने मित्र को यह आशंका जताई तो उन्होंने स्वीकार किया कि वे कर्नल साहब रिश्वतों के जोर पर खूब धनार्जन कर रहे हैं। चूंकि वे वृष राशि के जातक थे गयारहवें स्थान के मीनस्थ शनि की कृपा का भरपूर लाभ उठा रहे थे। इसी वर्ष (1998) के अप्रैल माह में शनि का मेष राशि में प्रवेश निर्धारित था तथा गुरुदेव भी अनुकूल स्थिति में नहीं थे, मैंने उन्हें सलाह दी कि वे इन कर्नल साहब को समझाएं कि वे इस प्रकार के गलत धनार्जन की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाऐं क्योंकि आगे समय खराब है।

उन्होंने जब यह बात कर्नल साहब की धर्मपत्नी को बताई तो वे बुरी तरह बिगड़ गई और बोलीं कि इन ‘नीम हकीम ज्योतिषी’ को बताते कि मेरे पति का कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है क्योंकि उनका अपने कार्य क्षेत्र में जबर्दस्त रूतबा है। अप्रैल माह भी आ गया और एक दिन वे मेरे मित्र के साथ लगभग रोती हुई आईं और बताया कि उनके पति को नौकरी से निलंबित कर दिया गया है और उन्हें गिरफ्तार कर लिया है।

पूछने लगीं कि अब क्या होगा। मैंने उन्हें बताया कि चूंकि उनकी साढ़ेसाती शुरू हो चुकी है, उनके लिए उस जंजाल से छुटकारा मिलना कठिन है। हां, कुछ समय बाद मीन राशि में गुरु के प्रवेश के कारण उन्हें जमानत तो संभावित है किंतु केस लंबा खिंचेगा और इसी बीच शायद उनकी सेवा निवृत्ति का समय भी आ जाए, इसलिए उनकी पुनर्नियुक्ति की आशा न करें। उपरोक्त वृतांतों से यह तो सिद्ध होता ही है कि शनि प्रदत्त महत्वाकांक्षा और अहंकार को स्वयं शनि देव ही चूर-चूर कर देते हैं।

आखिर शनि देव ही इस कहावत को चरितार्थ कर देते हैं - ष्च्तपकम ळवमजी ठमवितम । थ्ंससष् शनिदेव की कार्यविधि के संदर्भ में मैं एक और दृष्टांत प्रस्तुत करूंगा। बात 1992-93 की है। उन दिनों मैं सउदी अरब में एक बड़े प्रोजेक्ट को निर्देशित कर रहा था और भारत आना जाना लगता रहता था। एक आकस्मिक मुलाकात में जयपुर के एक युवा व्यापारी ने अपनी कुंडली मुझे दिखाई। वे हीरे जवाहरात के व्यवसाय में सफलता के सोपान पर चढ़े जा रहे थे, क्योंकि उनकी मीन राशि में ग्यारहवें स्थान पर संचरित मकरस्थ शनिदेव उन पर कृपालु थे।


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चूंकि मार्च 1993 में शनिदेव कुंभ राशि में प्रविष्ट होकर उनकी साढ़ेसाती की शुरूआत कर रहे थे, मैंने उन्हें सलाह दी कि वे धन संबंधी मामलों में सावधानी बरतें और विश्वस्त कर्मचारियों पर भी पूर्ण विश्वास न करके, उन्हें भी शक के दायरे में रखें, क्योंकि हीरे-जवाहरात के धंधे में सब कुछ विश्वास पर ही आधारित होता है। मेरा अनुभव है किसी भी व्यक्ति पर ज्योतिषीय चेतावनी का कोई विशेष असर नहीं होता है, क्योंकि शनिदेव को तो अपना कार्य करना ही होता है।

बहरहाल जब मैं सउदी अरब में था तो इन युवा व्यापारी ने किसी प्रकार से मेरा टेलीफोन नंबर ज्ञात करके मुझसे संपर्क किया और बताया कि उनका व्यवसायिक साझीदार ही 32 लाख रूपयों के हीरे लेकर नेपाल भाग गया है, अब क्या होगा ? 90 के दशक में यह राशि बहुत अहम थी। यदि साझीदार ने ही धोखा दे दिया तो शनिदेव को दोष देने के अतिरिक्त किया भी क्या जाए? चूंकि यह घटना 1993 के अंत में हुई थी जब गुरुदेव तुला राशि में उनकी राशि से अष्टम स्थान पर संचार कर रहे थे, मैंने उन्हें बताया कि अब हीरे मिलने की आशा त्याग दें, क्योंकि उस समय गुरु और शनि दोनों ही उन्हें धन हानि के कूप में फेंक रहे थे।

वैसे भी हीरे जहवाहरात के धंधे में कोई लिखित हिसाब किताब तो होता ही नहीं है, लिहाजा कोर्ट में भी जा नहीं सकते और पुलिस में इसलिए रिपोर्ट नहीं कर सकते कि उससे आयकर के जंजाल में फंस सकते हैं। हां आयकर चोरी की सजा देने के लिए स्वयं शनिदेव ही दंडनायक बन बैठे। इसके बाद उन्होंने मुझसे संपर्क नहीं किया। वास्तविकता तो यह है कि चंद्र राशि से ग्यारहवें स्थान पर भ्रमण करते हुए शनिदेव जातक की महत्वाकांक्षाओं (सही या गलत) को प्राप्त करने में पूर्ण सहायक होते हैं।

इस दौरान यदि गुरु भी अनुकूल हो जाएं तो फिर नौकरी या व्यवसाय का श्रीगणेश, चालू कार्यों में सफलता व लाभ, प्रोन्नति, धन प्राप्ति आदि अपेक्षित होते हैं। जातक की महत्वाकांक्षाऐं आकाश को छूने लगती है और जन्मकुंडली में शनि, मंगल जैसे क्रूर ग्रहों की स्थिति के अनुसार जन्म होता है अहंकार का जिसके वसीभूत होकर जातक अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार करने के लिए उतारू हो जाता है जिसमें शनिदेव जातक की यथासंभव सहायता करते हैं। परंतु जैसे ही जातक की साढ़ेसाती शुरू होती है

शनिदेव स्वयं ही जातक के शत्रु हो जाते हैं। गुरु के अनुकूल संचार में तो शनिदेव अवश्य संकोच करते हैं, किंतु प्रतिकूल गोचर में अपने वाण चला ही देते हैं। शनिदेव उनको भी नहीं छोड़ते हैं जो अपनी प्रति या ईमानदारी और मेहनत के बल पर सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंच जाते हैं। प्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन के साथ ही 1982 में यही हुआ, जब वे शूटिंग के दौरान चोट खाकर लंबे समय तक अभिनय जगत से निर्वासित हो गए। 30 वर्ष बाद उसी प्रकार की स्थिति आ गई है

जब उनकी 1982 की चोट ने फिर से निष्क्रिय कर दिया है। ऐसा भी नहीं है कि पूरी साढ़ेसाती के दौरान शनिदेव का प्रकोप व्याप्त रहता है। हां, इस दौरान जब जब गुरु का अनुकूल गोचर होता है, शनिदेव की दूर्भावना पर अंकुश लग जाता है और स्थिति में सुधार भी होता है, जबकि प्रतिकूल गोचर में शनिदेव को खुली छूट मिल जाती है और इसी उतार-चढ़ाव में साढ़ेसाती बीत जाती है। हां, इस दौरान जातक को भले-बुरे, दोस्त-दुश्मन और की गई गलतियों की भी पहचान हो जाती है।

साढ़ेसाती बीतने पर राशि से तीसरे स्थान के शनि के अनुकूल गोचर में जातक फूंक फूंक कर कदम रखने को तत्पर हो जाता है। किंतु कब तक? शनि के राशि से चाथे स्थान के गोचर में गलतियों की पुनरावृत्ति होने लगती है। पूरा जीवन उसी उतार-चढ़ाव में बीतता है, जो मिर्जा गालिब के इस कथन की पुष्टि करता हैः- ”शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक।“ गौरतलब है कि जब शनिदेव को किसी को चढ़ाना होता है अथवा गिराना होता है


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तो सरकारी नीतियां राजनीतिक परिदृश्य, वैश्विक परिस्थितियां और प्राकृतिक उठा पटक भी तदनुसार जातक के भाग्य को निर्देशित कर देती है। मेरी चंद्र राशि ‘वृष’ है और मेरे 76 वर्ष के जीवन काल में तीन साढ़ेसातियां घटित हो चुकी है। प्रथम साढ़ेसाती तो मेरी वाल्यावस्था में ही घटी थी, जब मेरे पिताजी, जो महात्मागांधी के अनुयायी थे, 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में भाग लेने के कारण लगभग ढाई वर्ष के लिए जेल में रहे। उनके जेल जाने से हमारे परिवार पर आर्थिक संकट के बादल छा गए।

उन दिनों शनि वृष/मिथुन राशियों में संचरित था। मेरे पिताजी की तुला राशि थी और वे भी अष्टम शनि की ढैया भुगत रहे थे। दूसरी साढ़ेसाती 1968-75 में प्रभावित थी। तब मुझे अपने कार्यक्षेत्र में विरोधियों की दुष्टता का शिकार होना पड़ा। जिन व्यक्तियों को मैंने ही नियुक्त किया था और पदोन्नति दी थी, वही एकाएक पीठ पीछे छुरा भोंकने लगे। इस कारण मुझे तीन प्रतिष्ठानों की नौकरी छोड़नी पड़ी। इस दौरान जहां तुला और धनु के गुरु गोचर ने हानि पहुंचाई तो वृश्चिक व मकर के गुरु ने लाभ भी पहुंचाया। मैने अपनी कार्य कुशलता और ईमानदारी के बल पर पद/यश बनाए रखा।

इस समय तक मुझे ज्योतिष का भी कुछ ज्ञान हो चुका था, इसलिए संभावित खतरों को टाल सका था। तीसरी साढ़ेसाती 1998-2003 के दौरान गुजरी, जो विशेष कष्टदायी नहीं रही, क्योंकि तब तक मैं अपने उच्चतम पद और आर्थिक समृद्धि के उस छोर पर पहुंच गया था जहां धनार्जन की कोई महत्वाकांक्षा नहीं रही थी। इस दौरान मुझे अपनी विशिष्ट तकनीकी ज्ञान के बल पर देश-विदेश में सफलताऐं मिलीं, क्योंकि कार्य धनार्जन के लिए नहीं, किंतु ज्ञान विसर्जन के लिए किए थे। ज्योतिष ने मुझे एक दार्शनिक दृष्टिकोण भी प्रदान कर दिया था और अब तो यह कह सकता हूं

- राहे हस्ती का सफर कैसे कटा, वोह बुरा था या भला, भूल गए। अब यदि कोई मुझसे पूछे कि साढ़ेसाती और लघु कल्याणी से निबटने के लिए क्या प्रयत्न किए जाऐं तो मेरी सलाह यह होगी कि या तो स्वयं ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त करें, अथवा किसी अच्छे ज्योतिषी से संपर्क बनाए रखें, नीम-हकीम या धन लोलुप ज्योतिषी से नहीं। शनिदेव कब कृपालु होते हैं और कब कुपित, इसकी जानकारी लेते रहें।

शनि के चंद्र राशि से तीसरे, छठे और ग्यारहवें स्थान के गोचर में शनि की कृपा का भरपूर लाभ उठाऐं, किंतु गोचर के समाप्त होते होते अपनी महत्वाकांक्षाओं को विराम दे दें और इस दौरान हुई उपलब्धियों को अपनी कार्य कुशलता और बुद्धि चातुर्य की अतिरंजित देन न समझें। अति बुद्धिमता और महत्वाकांक्षाऐं साढ़ेसाती और लघु कल्याणी के दौरान फेल हो जाती है।

रोग शोक, दुर्घटना, चोरी, धन हानि और शत्रुता तो कुंडली दोष के अनुसार होनी ही होती है, उन्हें ‘नियति’ मानकर स्वीकार करें। गोस्वामी तुलसीदास भी नियति से हार मान बैठे थे और यह मानते थे- हानि लाभु, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ। लघु कल्याणी और साढ़ेसाती के दौरान गुरुदेव के अनुकूल संचार को तो भुनाऐं, किंतु प्रतिकूल संचार (चैथे, छठे, आठवें और बारहवें) के समय विशेष सतर्कता बरतें, क्योंकि उस समय करेला ‘नीम चढ़ा’ से जाता है।

राहु भी अपने तीसरे, छठे और ग्यारहवें स्थान में संचार करते समय कुछ न कुछ सहायता अवश्य प्रदान करते हैं विशेषकर शत्रुओं से बचाव। लघु कल्याणी और साढ़ेसाती के समय मुकदमेबाजी से बचने की यथासंभव कोशिश करें और क्रोध की अधिकता पर अंकुश रखें। यदि आय सही भी होंगे, तब भी हार आपकी ही होगी।


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