भृगु संहिता का रहस्य

भृगु संहिता का रहस्य  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 20481 | मई 2007

प्राचीन भारतीय ज्योतिष विद्या को अंक शास्त्र, टैरो कार्ड, फेंगशुई आदि भविष्य कथन की विधाओं से आज कड़ी प्रतिद्व ंद्विता का सामना करना पड़ रहा है। किंतु भृगु संहिता के फलित का न तो कोई विकल्प है और न ही कोई चुनौती क्योंकि यह अतींद्रिय आध्यात्मिक ज्ञान की पराकाष्ठा से प्रकट हुई प्रज्ञा का परिणाम है।

ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान मानव ज ा ित क ा े गुरु-शिष्य परंपरा से श्रुत रूप में प्राप्त हुआ है। ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक प्रमुख रूप से 18 ऋषि माने जाते हैं। सृष्टि के प्रारंभ में स्वयं ब्रह्माजी ने इस विद्या का ज्ञान नारद मुनि और सूर्य को दिया था। सूर्य देव ने इसे विभिन्न युगों में मय, यवन और वराहमिहिर आदि महर्षियों को दिया।

चंद्रदेव ने शौनक को, वशिष्ठ ने मांडव्य को, भृगु ने शुक्राचार्य को तथा पराशर ने मैत्रेय को ज्योतिष शास्त्र पढ़ाया था। आज से करोड़ों वर्ष पूर्व हिमालय पर्वत पर महर्षि वशिष्ठ, नारद, भृगु, अगस्त्य, सूर्य, अत्रि आदि त्रिकालदर्शी ऋषि एकत्र हुए।

उन्होंने अपने ज्ञान नेत्रों से ग्रह, नक्षत्रों की गति को देखा तथा पृथ्वी और मानव जाति पर पड़ने वाले उनके प्रभाव को जाना और कुछ सिद्धांत प्रतिपादित किए। पर्याप्त शोध के पश्चात् उन्होंने ग्रहों, नक्षत्रों आदि की गति और पारस्परिक संबंध के आधार पर समय की सूक्ष्म व बृहद् कालगणना निर्धारित की।

उन्होंने सृष्टि के प्रारंभ से प्रलय तक, त्रुटि से लेकर संवत्सर चक्र तक तथा पंचांग निर्माण हेतु गणितीय साधन द्वारा तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण की गणितीय गणना के सिद्धांत प्रतिपादित किए। जिस सिद्ध ांत को सूर्य देव ने लिपिबद्ध किया, उसे ही ‘सूर्य सिद्धांत’ के नाम से जाना जाता है।

आचार्य वराहमिहिर ने (राजा विक्रमादित्य के समय) सूर्य सिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया। यह सिद्धांत आज भी लोकप्रिय है और भविष्य में भी रहेगा। उन्होंने भूलोक का समष्टिगत फल बताने वाली बृहत्संहिता तथा बृहज्जातक होरा शास्त्र की रचना की।

भृगु संहिता का प्रणयन: गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने लिखा है, ‘‘ब्राह्मण जात अति उत्तम जात। फिर काहे को मांगत खात? अगस्त्य ने समुद्र खारो कीनों। भृगु ने मारी लक्ष्मीपति लात, यहीं सों मांगत खात।।’’ एक पौराणिक कथा के अनुसार ब्रह्म ऋषि मंडल में स्थान न मिलने के कारण उत्तेजित होकर महर्षि भृगु भगवान विष्णु से मिलने पहुंचे, तो वे निद्रामग्न थे तथा लक्ष्मीजी उनके पांव दबा रही थीं। अपनी अवमानना से क्रुद्ध होकर भृगु ने उनके वक्षस्थल पर पैर रख दिया।

भगवान विष्णु ने उठकर विनम्रतापूर्वक पूछा कि उनके वज्र के समान कठोर वक्ष से ऋषि प्रवर के कोमल चरणों में चोट तो नहीं लगी? इस सहनशीलता और विनम्रता को देखकर भृगु शर्म से पानी-पानी हो गए और क्षमा मांगने लगे। विष्णुजी ने तो उन्हें क्षमा कर दिया, किंतु भृगु के इस दुष्कृत्य से लक्ष्मीजी ने उन्हें शाप दे दिया कि वे ब्राह्मणों के घर में कभी नहीं जाएंगी। अर्थात ज्ञानी या सरस्वती के उपासक दरिद्र ही रहेंगे। इस पर महर्षि भृगु ने उद्घोष किया कि,

‘‘मैं अपनी साधना और तप के बल पर एक ऐसी विद्या का सूत्रपात करूंगा, जिसके माध्यम से लक्ष्मी ज्ञानी के पास हमेशा आती रहेंगी।’’

इस हेतु भृगु ने एक ज्योतिष संहिता की रचना की जो भृगु संहिता के नाम से विख्यात हुई। कहा जाता है कि भृगु संहिता संस्कृत भाषा में भोजपत्रों पर लिखी गई थी, जिसे दक्षिण भारतीय ज्योतिषियों ने ताड़ की पट्टियों पर सांकेतिक तमिल भाषा में अनुवादित कर लिया।

भृगु संहिता को तमिलनाडु में लोग भृगु नाड़ी के नाम से जानते हैं। लोक कल्याण की भावना से आविर्भूत लग. भग 27 महर्षियों द्वारा होकर विभिन्न समय व स्थानों पर नाड़ी भविष्य ज्योतिष ग्रंथांें की रचना की गई थी।

भृगु संहिता के बिखरे पन्ने जन्मकुंडली के द्वादश भावों में स्थित नवग्रहों के फल कथन हेतु महर्षि भृगु ने भृगु सूत्रम् की रचना की थी, किंतु उन्होंने देखा कि भविष्य बताने के लिए फलित ज्योतिष के और भी बहुत से सिद्धांतों की आवश्यकता होगी।

किंतु फलित के सिद्धांतों को जान लेने के बाद भी फल कथन करना कोई आसान कार्य नहीं है, क्योंकि बहुत से सिद्धांत एक दूसरे के परस्पर विरोधी हैं। ऐसे में किसी ज्योतिषी के लिए किसी निर्णय पर पहुंचना बहुत कठिन हो जाता है।

अतः हम कह सकते हैं कि ज्योतिषीय सिद्धांतों के आधार पर किसी व्यक्ति का शत-प्रतिशत सही भविष्य जान लेना टेढ़ी खीर है। महर्षि भृगु जानते थे कि भविष्य में एसे े तपाेि नष्ठ ज्याेि तषी पैदा नही ं हागंे े जो फलित (होरा) सिद्धांतों के आधार पर किसी व्यक्ति का ठीक-ठीक भविष्य बता सकें।

शायद इसीलिए उन्होंने भविष्य में जन्म लेने वाले असंख्य मनुष्यों की जन्म पत्रिकाएं बनाकर उनका भूत, वर्तमान और भविष्य पहले ही लिख दिया। भृगु संहिता अत्यंत लोकप्रिय आर्ष ग्रंथ है। कहा जाता है कि इसमें संसार के प्रत्येक मनुष्य की जन्मकुंडली निहित है। भृगु संहिता की बहुत सी ऐसी पत्रिकाएं देखने को मिलती हैं, जिनमें एक लग्न की विभिन्न अंशों की भिन्न-भिन्न कुंडलियां हैं।

ये करोड़ों कुंडलियां किसी एक ग्रंथ के रूप में समाहित नहीं हैं। इस संदर्भ में किंवदंती है कि पार्वती के श्राप के कारण महर्षि भृगु द्वारा निर्मित जन्म पत्रिकाएं यत्र-तत्र बिखरी हुई हैं। अलग-अलग स्थानों पर विभिन्न व्यक्तियों के पास ये पत्रिकाएं आज भी मौजूद हैं।

किंतु जिस किसी के पास भृगु संहिता के मात्र दो-चार हजार पन्ने ही हैं, वह असली भृगु संहिता शास्त्री होने का दावा करता है। जम्मू-कश्मीर के राजकीय पुस्तकालय में भृगु संहिता कुछ वर्षों पहले थी, जिसकी पृष्ठ संख्या 1,60,000 है।

यह ग्रंथ भी अधूरा है क्योंकि भृगु ने जो संहिता लिखी थी उसमें 74,64,9,600 व्यक्तियों की जन्म कुंडलियां थीं। प्रत्येक कुंडली का फल 75 श्लोकों में लिखा हुआ था। इतना विशाल ग्रंथ मिलना असंभव है, जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं। भृगु संहिता अनेक व्यक्तियों और क्षेत्रों में बंट गई है।

जन्मपत्रिका की खोज प्रश्नकाल के अनुसार प्रश्न लग्न ज्ञात किया जाता है। यह एक गणितीय प्रक्रिया है। प्रश्न लग्न से यह मालूम पड़ जाता है कि व्यक्ति का जन्म किस लग्न में हुआ। हाथों को नापकर तथा रेखाओं को देखकर भी लग्न का कुछ अनुमान लगाया जाता है। और फिर मस्तक रेखा से उसका मिलान किया जाता है।

व्यक्ति के अंगूठे की बनावट तथा उसकी छाप से भी लग्न का उचित निर्धारण हो जाता है। इसी लग्न राशि के आधार पर पत्रिका की खोज की जाती है। जातक से किसी खास पन्ने पर बनी कुंडली पर उंगली रखने को कहा जाता है।

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