सुखद दाम्पत्य के लिए ज्योतिष में कुंडली मिलान की
यह शाखा भी ऐसे विरोधांे से वंचित नहीं है। स्थानीय
परम्पराओं के अनुसार भी ‘मांगलिक योग’ आदि का निर्णय
करने में भारी मतभेद मिलता है। दक्षिण भारत में द्वितीय भाव
को भी दाम्पत्य-जीवन की समृद्धि व वृद्धि के लिए उत्तरदायी
माना गया है, जबकि उत्तर भारत के अधिकतर भाग में केवल
सप्तम भाव को ही इस विषय के लिए उत्तरदायी मानने की
दैवज्ञ-परम्परा है। इस मतभेद के कारण कुंडली मिलान में
‘मांगलिक दोष के बारे मे दोनों पक्षांे के अनुयायी दैवज्ञ एक
परिणाम पर नहीं पहुंच पाते हैं।
सभी वशिष्ठ, नारद आदि संहिता ग्रन्थांे मंे वर-कन्या के
विवाह सम्बन्ध के निर्णय के लिए केवल वर्ण, गण, नाड़ी
सचिन अत्रे
फलित ज्योतिष की प्रत्येक शाखा, प्रशाखा भारी अन्तर्विरोधों की शिकार है, जिससे
फलित की किसी भी शाखा पर शुचिता एवं प्रतिज्ञा पूर्वक फलादेश करने का प्रयास करने
वाला व्यक्ति भारी धर्मसंकट मंे फंस जाता है। ज्योतिष शास्त्रांे के विभिन्न लेखकांे,
आचार्यों, मुनियांे तथा ऋषियांे द्वारा प्रणीत रचनाओं (संहिता-जातक-मुहूर्तसाहित्य)
का अध्ययन करते हुए प्रत्येक व्यक्ति को पग-पग पर इतने स्पष्ट विरोधांे का
साक्षात्कार होता है कि वह इस शास्त्र की प्रामाणिकता को सन्देह की कोटि में रखे
बिना नहीं रह सकता।
आदि कूटों के विचारांे की ही बात मिलती है। इन ग्रन्थांे के
मिलान प्रकरणांे मंे इन कूटांे के कुफल तथा इनके परिहार
आदि की सुविस्तृत विवेचना मिलती है और इन्हीं कूटों के
आधार पर ही वर-कन्या के विवाह-सम्बन्ध की सफलता/
असफलता का वहां निर्णय किया गया है। लेकिन वहां कहीं
भी मांगलिक आदि का विचार करने की चर्चा नहीं है। 16वीं
शताब्दी के मुहूर्तचिंतामणि, मुहूर्त मार्तण्ड आदि मुहूर्तग्रन्थों
मंे भी मिलान के प्रसंग में भी अष्टकूट ही विचारणीय हैं।
जन्मकालिक मंगल की स्थिति आदि से मिलान का कोई
सम्बन्ध इन मौहूर्तिकांे ने कदापि नहीं माना। 17वीं सदी के
‘प्रश्नमार्ग’ का ‘आनुकूल्य’ (मिलान) भी वर्ण आदि कूटांे
पर आधारित है। ‘ज्योतिर्विदाभरण’ आदि समस्त मुहूर्तग्रन्थों
मंे भी कूटांे को ही वर-कन्या के सम्बन्ध के लिए विचारण्
ाीय विषय बनाया गया है। यहां तक की ‘विवाहवृन्दावन’
जिसका एकमात्र विषय वर-कन्या के सफल विवाह सम्बन्ध
के ज्योतिष शास्त्रीय आधार का सांगोपांग विवेचन ही है, वह
भी केवल अष्टकूटों का ही विवेचन करता है। इसके रचयिता
केशवार्क ने भी वर-कन्या की जन्मकालिक ग्रहस्थिति के आध्
ाार पर विवाह सम्बन्ध की सफलता- विफलता की ओर कोई
संकेत नहीं किया। लगभग 16वीं शताब्दी की कृति ‘जातक
पारिजात’ में दैवज्ञ बैद्यनाथ ने वर-वधू की ग्रह स्थितियों के
मिलान से दाम्पत्य सुखकारी कुयोग के कुफल की निवृत्ति की
बात केवल इस श्लोक में दी है:
घून-कुटूम्बगतौ यदि पापौ दार वियोगज दुःख करौ तौ।
तादृशयोगज-दारयुतश्चेत जीवती-पुत्र-धनादियुतश्च।।
इसके अतिरिक्त कहीं अन्यत्र प्राचीन ज्योतिष साहित्य में
वर-कन्या की जन्मकालिक ग्रह स्थिति की तुलना से दाम्पत्य
सम्बन्ध के शुभाशुभ का सन्देश शायद नहीं है।
सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए पांच बातांे को ध्यान में रख कर
‘मंगली-दोष’ या अन्य कुयोगांे का वर्णन दैवज्ञ करते हैं, जो
इस प्रकार हैं: 1) अच्छा स्वास्थ्य 2) भोगोपभोग की साम्रग्री
की उपलब्धि 3) रतिसुख 4) अनिष्ट का अभाव तथा 5)
समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अच्छी क्रय-शक्ति।
ज्योतिष शास्त्र में इन पांचांे वस्तुओं के प्रतिनिधि भाव लग्न,
चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश माने गये हैं। किसी भाव
का फल शुभ होगा या अशुभ यह जानने का नियम सर्वमान्य
यह है कि जो भाव अपने स्वामी या शुभ ग्रह से दृष्ट-युत हो
तो वह जिन वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करता है उनकी वृद्धि
होती है। तात्पर्य यह है कि भाव में भाव का स्वामी या शुभ
ग्रह न बैठा हो या पाप ग्रह भाव मंे बैठा हो तो भाव का फल
अशुभ होता है। यही कारण है कि ज्योतिष शास्त्र में ग्रह
मेलापक के लिए इन पांचों भावों पर पाप ग्रहों के प्रभाव का
विचार करने की परम्परा है।
विवाह करने से पूर्व वर-कन्या की कुंडली मे मंगलदोष तब
माना जाता है जब जन्मकुंडली मंे लग्न, चतुर्थ, सप्तम,
अष्टम या द्वादश भाव में मंगल स्थित हो। लग्न मंे मंगल
हो तो स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति स्वभाव से उग्र
एवं जिद्दी होता है। चतुर्थ स्थान में मंगल होने पर जीवन में
भोगोपभोग सामग्री की कमी रहती है। यहां स्थित मंगल की
सप्तम भाव पर दृष्टि पड़ती है जो दाम्पत्य-सुख पर प्रतिकूल
प्रभाव डालती है। सप्तम भाव में स्थित मंगल दाम्पत्य सुख
(रतिसुख) की हानि तथा पत्नी के स्वास्थ्य को भी हानि
पहुंचाता है। इस स्थान में स्थित मंगल की दशम तथा द्वि
तीय भाव पर दृष्टि पड़ती है। दशम स्थान आजीविका का तथा
द्वितीय स्थान कुटुम्ब का होता है। अतः इस स्थान में स्थित
मंगल आजीविका तथा कुटुम्ब पर अपना दुष्प्रभाव डालता है।
अष्टम स्थान में स्थित मंगल जीवन में विघ्न बाधा एवं दम्पत्ति
मंे से किसी एक की मृत्यु का कारण भी बन सकता है। द्वादश
स्थान मंे मंगल व्यक्ति की क्रयशक्ति (व्यय) को प्रभावित
करने के साथ सप्तम भाव पर अपनी दृष्टि द्वारा साक्षात्
दाम्पत्य सुख को भी प्रभावित करता है। इसलिए मंगली दोष
की संक्षिप्त परिभाषा यह है कि प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम
या द्वादश स्थान में मंगल होने से मंगली दोष होता है।
उल्लेखनीय है कि ज्योतिष के पांच प्राचीन एवं आधारभूत
ग्रन्थों 1. वृहत् पाराशर होराशास्त्र 2. जातक पारिजात 3.
सारावली 4. फलदीपिका 5. प्रश्न मार्ग में मंगल दोष का कोई
व्यवस्थित एवं पारिभाषिक स्वरुप नहीं प्राप्त होता। दक्षिण
भारतीय ‘देवकेरलम्’ नामक पुस्तक में सर्वप्रथम मंगल दोष
का सैद्धांतिक विवरण प्राप्त होता है। इसलिए बहुधा अमंगली
जातक भी मंगली घोषित कर दिए जाते हैं एवं उनके लिए
मंगली जीवन साथी का शोध प्रारंभ हो जाता है। यह स्थिति
नितान्त अमांगलिक है। विशेषकर कन्या वर्ग के अभिभावकों
के लिए यह स्थिति भयानक समस्या सिद्ध होती है जिससे
पराभूत होकर वे कन्या का कृत्रिम जन्मांग निर्मित करवा
लेते हैं।
जन्मांग में मंगल के लग्नस्थ, द्वितीयस्थ, चतुर्थस्थ,
सप्तमस्थ, अष्टमस्थ अथवा द्वादशस्थ होने पर मंगल दोष
परिगणित होता है। इस संदर्भ मे दो श्लोक उल्लेखनीय हैं।
अगस्त्यसंहिता के अनुसार-
धने व्यये च पाताले जामित्रे चाष्टमे कुजे।
भार्या भर्तृविनाशायभर्तुश्च स्त्रीविनाशायम् ।।
केरल की भावदीपिका में उल्लिखित है-
लग्ने व्यय च पाताले जामित्रे चाष्टमे कुजे
स्त्रीणां भर्तृविनाशः स्यात्पुंसा भार्या विनश्यति ।।
कुछ विद्वानों के अनुसार लग्न के अतिरिक्त चंद्रलग्न अथवा
शुक्र से प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश स्थान
में मंगल स्थ्ति होने पर भी मंगल दोष होता है। किन्तु यह
महत्वपूर्ण मान्यता सिद्ध नहीं होती है। इसीप्रकार केरल सूत्र
की इस अवधारणा को भी अधिक महत्ता नहीं प्राप्त है कि
मंगली होने पर जीवनसाथी की मृत्यु हो जाती है। इसे विद्वानों
ने सर्वथा अप्रामाणिक माना है एवं अनुभव भी इसी तथ्य की
पुष्टि करता है। अब भावानुसार मंगल का विवेचन प्रस्तुत है।
लग्नस्थ मंगल: लग्न से व्यक्ति के व्यक्तित्व, शारीरिक
सरंचना, चरित्र, बचपन, स्वास्थ्य, जीवन शक्ति आदि का विचार
होता है। लग्नस्थ मंगल क्रोधी प्रकृति, शारीरिक उष्णता, रुध्
िार विकार, दुर्घटना, मानसिक उष्णता, विचार-अस्तव्यस्तता
को प्रदर्शित करता है। स्वास्थ्य निश्चित रुप से प्रभावित होता
ै और व्यक्ति अपनी हठवादिता एवं उग्रता पर नियन्त्रण
नहीं रख पाता। लग्नस्थ मंगल की दृष्टि चतुर्थ, सप्तम एवं
अष्टम भाव पर भी पड़ती है। इसके परिणामस्वरुप व्यक्ति के
शारीरिक स्वास्थ्य, घर, संपत्ति एवं आयु आदि अनेक महत्वपूण्र्
ा पक्ष कुप्रभावित होते हैं। इसलिए लग्नस्थ मंगल व्यक्ति को
मंगल दोष से पूर्ण करता है। एक उक्ति के अनुसार-
‘‘विलग्ने कुजे दंडलोहाग्निभीतिस्तपेन्मानसं केसरी किं द्वितीयः।“
मंगल यदि क्षीण चन्द्रमा अथवा निर्बल शुक्र के साथ संस्थित
हो, तो उस स्थिति में भी इसी प्रकार की विषमतायें उत्पन्न
होती हैं।
द्वितीय भावस्थ मंगल: कुटुम्ब, मुखाकृति, दक्षिण नेत्र, वाक्
चातुरी एवं मृत्यु के कारण आदि का विवेचन द्वितीय भाव से
किया जाता है। द्वितीय भावस्थ मंगल की पंचम भाव पर पूर्ण
दृष्टि के कारण धन एवं संतति की क्षति होती है। अष्टम भाव
एवं नवम भाव पर दृष्टि निक्षेप के फलस्वरुप क्रमशः स्वास्थ्य
हानि एवं भाग्यावरोध होता है। संस्कृत की एक उक्ति है कि-
भवेतस्य किं विधमाने कुटुम्बे धने वा कुजे तस्य लब्धे धने किम्।
यथा त्रोटयेत् मकृटः कण्ठहारं पुनः सम्मुखं को भवेक्षदमग्नः।।
द्वितीय भावस्थ मंगल प्रायः जीवनसाथी के स्वास्थ्य को
अव्यवस्थित करता है और कुटुम्ब मंे अनपेक्षित विषमताओं
को जन्म देता है।
चतुर्थ भावस्थ मंगल: वैवाहिक विचार में इस भाव को सुख
स्थान भी कहते हैं। भोगोपभोग की सामग्री, गृह, भूमि,
वाहन, गृहपरक उपकरण, बर्तन, फर्नीचर सुख, मनोनुकूलता
का विचार इस भाव के माध्यम से करते हंै। यद्यपि अचल
संपति के लिए चतुर्थ भावस्थ मंगल एक अच्छी संस्थिति है
तथापि सुख-शान्ति के स्थायित्व के लिए यह स्थिति अशुभ
है। यहां से मंगल की सप्तम भाव पर पूर्ण दृष्टि है जिसके
कारण जीवनसाथी से उचित तारतम्य नहीं हो पाता। आचार्यों
ने चतुर्थ भावस्थ मंगल से उत्पन्न मंगल दोष को अत्यन्त
क्षीण बतलाया है।
सप्तम भावस्थ मंगल: सप्तम भाव वैवाहिक विचार का प्रमुख
भाव है। इससे वैवाहिक सुख, विचार सामंजस्य, जीवन सहचर
की आकृति-प्रकृति, सूरत-संबंध आदि का विचार किया जाता
है। मंगल दोष के संदर्भ में सप्तम भावस्थ मंगल विशेषतः
विचारणीय है। संस्थिति के परिणामस्वरूप जीवन-सहचर की
स्वास्थ्य क्षति, दांपत्य सुखावरोध, व्यावसायिक-अनिश्चय
आदि तथ्य प्रकट होते हंै। यहां स्थित मंगल लग्न और धन
भाव को पूर्ण दृष्टि से प्रभावित करता है जिसमें धन-हानि,
कौटुम्बिक सृजन की विकृतियां, दुर्घटना, फोड़ा-फुंसी, चारित्रिक
स्खलन आदि अनपेक्षिततायें होती हंै। जीवन-सहचर द्वोष्ठ
आकृति किन्तु युयुत्सु-प्रकृति का होता है। मेष, सिंह, वृश्चिक,
मकर, कुंभ राशि का मंगल द्वितीय विवाह की संभावना प्रबल
करता है। प्रकृतितः मिथुन, कन्या, धनु, मकर, वृश्चिक, सिंह
राशि मंगल जातक को बुद्धि-दंभी, दुराग्रही, व्यभिचारी (बहुधा
जीवन-सहचर की संपति से) अमित्र बनाता है।
अष्टम भावस्थ मंगल: अष्टम भाव से विध्न, बाधा, अनिष्ट,
आयुष्क्रम, विषाद, मृत्यु, मृत्यु का कारण एवं स्थान आदि का
परिबोध होता है। स्त्री जन्मांग में यह भाव सौभाग्य भाव होता
है। अतएव मंगल की यह स्थिति मंगल दोष की पराकाष्ठा
या चरम सीमा है। वैवाहिक सुख के विनाश की धोषणा इस
भाव स्थिति से समझनी चाहिए। आधियां-व्याधियां शारीरिक
सौंदर्य का क्षरण करती है। वैधव्य की प्रबल कुसंभावना होती
है। अष्टम भावस्थ मंगल के कारण जीवन सहचर की मृत्यु
अथवा हत्या के प्रयास के परिणामस्वरुप जातक को मानसिक
संताप, पारिवारिक कोप एवं सामाजिक तिरस्कार सहन
करना पड़ सकता है। यदि इस भाव मंे शुक्र या बृहस्पति की
सहस्थिति हो या दृष्टि हो तो समस्या और भयावह हो जाती
है। यहां स्थित मंगल कुटुम्ब भाव पर पूर्ण दृष्टि डालता है,
परिणामस्वरुप कौटुम्बिक एवं आर्थिक क्षति वहन करनी पड़ती
है। पाराशर के मत से- ”मृत्यु धननाशं पराभवं“ (धन हानि
एवं पराजय होती है)। प्रायः सभी शास्त्रों ने इस स्थिति को
अशुभ कहा है। जातक अवैध धन संग्रही, भक्ष्याभक्ष्यप्रिय एवं
एनीमिया, ब्लड प्रेशर से उत्पीड़ित होता है।
द्वादश भावस्थ मंगल: इस भाव से व्यय, यात्रा, शैय्या सुख,
क्रय शक्ति, भोग, त्याग, निद्रा आदि का विचार किया जाता है।
द्वादश भावस्थ मंगल सप्तम भाव पर पूर्ण दृष्टि के फलस्वरूप
दाम्पत्य सुख को प्रत्यक्षतः बाधित करता है। जीवन सहचर के
स्वास्थ्य का हनन, दुव्र्यसन, बंधु विरोध की प्रवृत्तियां विकसित
होती हंै। यौन जीवन पर से अनुशासन के बंधन क्षीण हो जाते
हंै। जातक क्रूरता, परछिद्रान्वेषिता, अधमता, दृष्टि-कष्ट की
ओर उन्मुख होता है। इस योग से जातक बहुभक्षी, कामुक,
वनस्पतिशास्त्र एवं प्राणिविज्ञान के अध्येता, क्रोधी, विद्रोही,
न्यूनसंतति, क्षयवंशी, व्यभिचारी होते हंै। धन का जीवन में
विशेष क्षय एवं अभाव होता है। दुर्घटना, विषबाधा, अपघात,
सिर दर्द, आधासीसी, रक्त विकृति, गुप्त रोग, अपच जैसी
आधियांे-व्याधियों का प्रकोप रहता है।
कल्याण वर्मा के अनुसार जातक नेत्ररोगी, पतित, अपमानित,
पत्नीघाती एवं अपराधी होता हैः-
”नयनविकारी पतितो जायाध्नः सूचकश्चैव।
द्वादशगे परिभूतो बन्धनभाक् भवति भूपुत्रे ।।“
अशुभ फलांे की मात्रा वृश्चिक और मकर मंे सर्वाधिक होती है।
मेष, सिंह, धनु, कर्क, मीन मंे अशुभता मध्यम एवं मिथुन,
तुला, कुंभ में अशुभ फल न्यून होते हैं।