शुकदेव बाबा ने महाराज
परीक्षित को भागवत
कथा श्रवण कराते हुए बताया कि
राजन् ! मनु-शतरूपा की कन्या
आकूति का विवाह पुत्रिका धर्म के
अनुसार रूचि प्रजापति से तथा
प्रसूति कन्या का विवाह ब्रह्माजी के
पुत्र दक्ष प्रजापति से किया। उससे
उन्होंने सुंदर नेत्रों वाली सोलह
कन्यायें उत्पन्न कीं। इनमें से तेरह
कन्यायें (श्रद्धा, मैत्री, दया, शांति,
तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि,
मेधा, तितिक्षा, ही और मूर्ति) धर्म की
पत्नियां बनीं। स्वाहा नाम की कन्या
अग्निदेव, स्वधा नामक कन्या समस्त
पितरों की तथा सती नाम की कन्या
महादेव की पत्नी बनीं। सती अपने
पतिदेव की सेवा में ही संलग्न रहने
वाली थीं। दक्ष प्रजापति की सभी
कन्याओं को संतान की प्राप्ति हुई,
परंतु सती के पिता दक्ष ने बिना ही
किसी अपराध के भगवान् शिवजी से
प्रतिकूल आचरण किया था, इसीलिए
युवावस्था में ही क्रोधवश योग के
द्वारा स्वयं ही अपने शरीर का त्याग
कर देने से सती को कोई संतान न
हो सकी।
चक्रवर्ती सम्राट के पद का त्याग करने
वाले महाराज परीक्षित ने श्री शुकदेव
जी से पूछा-भगवान ! प्रजापति दक्ष
तो अपनी सभी कन्याओं से विशेष
प्रेम करते थे, फिर चराचर के गुरु
वैररहित, शान्तमूर्ति, आत्माराम श्री
महादेवजी के प्रति द्वेष तथा प्रगाढ़
स्नेहा सती के प्रति अनादर क्यों
किया?
श्री शुकदेवजी ने कहा- राजन्
! एक बार प्रजापतियों के यज्ञ में
ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि
अपने-अपने अनुयायियों के सहित
एकत्र हुये थे। उसी समय प्रजापति
दक्ष ने भी उस सभा में प्रवेश किया।
सूर्य के समान तेजोमय प्रजापति
दक्ष को सभी सभासदों ने उठकर
सम्मान दिया। ब्रह्माजी व महादेव ही
अपने-अपने आसनों पर बैठे रहे।
दक्ष प्रजापति जगत्पिता ब्रह्माजी को
प्रणाम कर उनकी आज्ञा से अपने
आसन पर बैठ गए।
परंतु महादेव जी को पहले से बैठा
देख तथा उनसे अभ्युत्थानादि के
रूप में कुछ भी आदर न पाकर दक्ष
क्रोधित हो, देवता और अग्नियों सहित
समस्त ब्रह्मर्षि गणों से इस प्रकार
कहने लगे- यह निर्लज्ज महादेव
समस्त लोकपालों की पवित्र कीर्ति को
धूल में मिला रहा है। इसने घमंड को
धारण कर सत्पुरूषों के आचरण को
लांछित व मटियामेट कर दिया है।
इसने मेरी सावित्री-सरीसी मृगनयनी
पवित्र कन्या का पाणिग्रहण किया
था, इसलिए यह मेरे पुत्र के समान
हो गया है। उचित तो यही था कि
यह उठकर मेरा सम्मान करता, मुझे
प्रणाम करता, परंतु इसने वाणी से
भी मेरा सत्कार नहीं किया। वास्तव
में तो यह नाम भर का ही शिव
है, परंतु यह है पूरा अशिव-अमंगल
रूप। दक्ष ने आचारहीन, भूतों के
सरदार, मतवाले, पाखंडी, चिता की
अपवित्र भस्म धारण करने वाले,
भूत-प्रेत-प्रमथ तमोगुणी जीवों का
नेता, पागल, नंग-धडं़ग घूमने वाला,
श्मशान वासी आदि शब्दों के द्वारा
आत्माराम शिव को बुरा-भला कहा,
फिर भी महादेवजी ने कोई प्रतिकार
नहीं किया, निश्चल भाव से बैठे रहे।
इससे दक्ष का क्रोध और बढ़ गया
और हाथ में जल लेकर शाप दिया
कि ‘‘यह महादेव देवताओं में बड़ा
ही अधम है। अब से इसे इंद्र-उपेन्द्र
आदि देवताओं के साथ यज्ञ का
भाग न मिले।’’ ऐसा कहकर अत्यंत
क्रोधित हो उस सभा से निकलकर
अपने घर चले गये।
जब भगवान शंकर के अनुयायियों में
अग्रगण्य नन्दीश्वर को दक्ष शाप की
जानकारी हुई तब, क्रोध से तमतमाते
हुए उन्होंने दक्ष तथा उन (ब्राह्मणों)
को जिन्होंने दक्ष के दुर्वचनों का
अनुमोदन किया था, बड़ा भयंकर शाप
देते हुए कहा- कि ‘‘जो मरण-धर्मा
शरीर में ही अभिमान करके किसी
से भी द्रोह न करने वाले भगवान्
शंकर से द्वेष करता है, वह भेद बुद्धि
वाला दक्ष तत्वज्ञान से विमुख ही
रहे। इसने आत्मस्वरूप को भुला
दिया है; यह साक्षात् पशु के समान
है, अतः अत्यंत स्त्री लम्पट हो और
महादेवजी के प्रति द्वेष तथा प्रगाढ़
स्नेहा सती के प्रति अनादर क्यों
किया?
श्री शुकदेवजी ने कहा- राजन्
! एक बार प्रजापतियों के यज्ञ में
ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि
अपने-अपने अनुयायियों के सहित
एकत्र हुये थे। उसी समय प्रजापति
दक्ष ने भी उस सभा में प्रवेश किया।
सूर्य के समान तेजोमय प्रजापति
दक्ष को सभी सभासदों ने उठकर
सम्मान दिया। ब्रह्माजी व महादेव ही
अपने-अपने आसनों पर बैठे रहे।
दक्ष प्रजापति जगत्पिता ब्रह्माजी को
प्रणाम कर उनकी आज्ञा से अपने
आसन पर बैठ गए।
परंतु महादेव जी को पहले से बैठा
देख तथा उनसे अभ्युत्थानादि के
रूप में कुछ भी आदर न पाकर दक्ष
क्रोधित हो, देवता और अग्नियों सहित
समस्त ब्रह्मर्षि गणों से इस प्रकार
कहने लगे- यह निर्लज्ज महादेव
समस्त लोकपालों की पवित्र कीर्ति को
धूल में मिला रहा है। इसने घमंड को
धारण कर सत्पुरूषों के आचरण को
लांछित व मटियामेट कर दिया है।
इसने मेरी सावित्री-सरीसी मृगनयनी
पवित्र कन्या का पाणिग्रहण किया
था, इसलिए यह मेरे पुत्र के समान
हो गया है। उचित तो यही था कि
यह उठकर मेरा सम्मान करता, मुझे
प्रणाम करता, परंतु इसने वाणी से
भी मेरा सत्कार नहीं किया। वास्तव
में तो यह नाम भर का ही शिव
है, परंतु यह है पूरा अशिव-अमंगल
रूप। दक्ष ने आचारहीन, भूतों के
सरदार, मतवाले, पाखंडी, चिता की
अपवित्र भस्म धारण करने वाले,
भूत-प्रेत-प्रमथ तमोगुणी जीवों का
नेता, पागल, नंग-धडं़ग घूमने वाला,
श्मशान वासी आदि शब्दों के द्वारा
आत्माराम शिव को बुरा-भला कहा,
फिर भी महादेवजी ने कोई प्रतिकार
नहीं किया, निश्चल भाव से बैठे रहे।
इससे दक्ष का क्रोध और बढ़ गया
और हाथ में जल लेकर शाप दिया
कि ‘‘यह महादेव देवताओं में बड़ा
ही अधम है। अब से इसे इंद्र-उपेन्द्र
आदि देवताओं के साथ यज्ञ का
भाग न मिले।’’ ऐसा कहकर अत्यंत
क्रोधित हो उस सभा से निकलकर
अपने घर चले गये।
जब भगवान शंकर के अनुयायियों में
अग्रगण्य नन्दीश्वर को दक्ष शाप की
जानकारी हुई तब, क्रोध से तमतमाते
हुए उन्होंने दक्ष तथा उन (ब्राह्मणों)
को जिन्होंने दक्ष के दुर्वचनों का
अनुमोदन किया था, बड़ा भयंकर शाप
देते हुए कहा- कि ‘‘जो मरण-धर्मा
शरीर में ही अभिमान करके किसी
से भी द्रोह न करने वाले भगवान्
शंकर से द्वेष करता है, वह भेद बुद्धि
वाला दक्ष तत्वज्ञान से विमुख ही
रहे। इसने आत्मस्वरूप को भुला
दिया है; यह साक्षात् पशु के समान
है, अतः अत्यंत स्त्री लम्पट हो और
शीघ्र ही इसका मुंह बकरे का हो
जाय। यह मूर्ख कर्ममयी अविद्या को
ही विद्या समझता है, इसलिये यह
और जो भगवान शंकर का अपमान
करने वाले इस दुष्ट के अनुगामी
हैं, वे सभी जन्म-मरण रूपी संसार
चक्र में पड़े रहें। ये ब्राह्मण लोग
भक्ष्याभक्ष्य के विचार को त्यागकर
केवल पेट पालने के लिए ही विद्या,
तप और व्रतादि का आश्रय लें तथा
धन, शरीर और इन्द्रियों के सुख को
ही सुख मानकर उन्हीं के गुलाम
बनकर दुनिया में भीख मांगते भटका
करें।
ब्राह्मण कुल के लिए नन्दीश्वर के
मुख से शाप सुनकर बदले में भृगुजी
ने दुस्तर शापरूप ब्रह्मदंड दिया-
‘‘जो लोग शिवभक्त हैं तथा जो उन
भक्तों के अनुयायी हैं, वे सत्-शास्त्रों
के विरूद्ध आचरण करने वाले और
पाखंडी हों। तुम लोग जो धर्म मर्यादा
के संस्थापक एवं वर्णाश्रमियों के रक्षक
वेद और ब्राह्मणों की निन्दा करते हो,
इससे मालूम होता है तुमने पाखंड
का आश्रय ले रखा है। यह वेदमार्ग
ही लोगों के लिए कल्याणकारी
और सनातन मार्ग है। इसके मूल
साक्षात् विष्णु भगवान हैं। तुम लोग
सत्पुरुषों के परम पवित्र और सनातन
मार्ग स्वरूप वेद की निन्दा करते
हो- इसलिए उस पाखंड मार्ग में
जाओ, जिसमें भूतों के सरदार तुम्हारे
इष्टदेव निवास करते हैं।’’
भृगु ऋषि के इस प्रकार शाप देने
पर भगवान् शंकर कुछ खिन्न से हो
वहां से अपने अनुयायियों सहित चले
गये। प्रजापतियों ने भी पुरूषोत्तम
श्रीहरि ही जिसके उपास्यदेव थे उस
यज्ञ को पूर्णकर श्रीगंगा-यमुना के
संगम में यज्ञान्त स्नान कर अपने
स्थानों को पदार्पण किया।
श्री शुकदेव जी कहते हैं- राजन्!
भगवान् शंकर के प्रति दक्ष का वैर
विरोध बढ़ता ही गया। उसके बाद
दामाद-ससुर का मिलन नहीं हुआ।
इसी समय ब्रह्माजी ने दक्ष को
प्रजापतियों का अधिपति बना दिया।
‘प्रभुता पाई कहि मद माही’ दक्ष का
गर्व और भी बढ़ गया। उसने भगवान
शंकर आदि ब्रह्मनिष्ठों को यज्ञभाग न
देकर ‘वाजपेय यज्ञ’ किया और फिर
‘बृहस्पतिसव’ नामक महायज्ञ आरंभ
किया। भगवान शिव को निमंत्रण
नहीं दिया, परंतु आकाशमार्ग से जाते
हुए देवताओं के द्वारा अपने पिता दक्ष
के यहां होने वाले महायज्ञ के विषय
में दक्षकुमारी सती ने जान लिया।
सती ने सानन्द कहा- वामदेव !
सुना है, इस समय आपके ससुर दक्ष
प्रजापति के यहां बड़ा भारी यज्ञोत्सव
हो रहा है। सभी देवता, ब्रह्मर्षि, देवर्षि,
पितर आदि सभी अपनी-अपनी
पत्नियों के साथ जा रहे हैं, यदि
आपकी इच्छा हो तो हम भी चलें।
इस समय सभी आत्मीय जनों से
मिलन का सुअवसर भी प्राप्त होगा।
पति, गुरु और माता-पिता आदि
सुहृदों के यहां तो बिना बुलाये भी
जा सकते हैं। आपको प्रसन्नतापूर्वक
मेरी यह इच्छा अवश्य पूर्ण करनी
चाहिए- ‘‘पिता भवन उत्सव परम
जौ प्रभु आयसु होई। तो मैं जाऊँ
कृपायतन सादर देखन सोई।।’’
आपने मुझे अपने आधे अंग मंे स्थान
दिया है, इसलिए मेरी याचना को
स्वीकार कीजिए।
भगवान शंकर ने कहा - सुन्दरी
! बन्धुजन के यहां बिना बुलावे के
भी जा सकते हैं, यह ठीक है; किंतु
ऐसा तभी शोभा देता है, जब उनकी
दृष्टि देहाभिमान से उत्पन्न हुए
मद और क्रोध के कारण द्वेष-दोष
से युक्त न हो गयी हो। देवी ! मैं
जानता हूं तुम दक्षप्रजापति को अपनी
कन्याओं में सबसे अधिक प्रिय हो।
तथापि मेरी आश्रिता (पत्नी) होने के
कारण तुम्हें अपने पिता से मान नहीं
मिलेगा, क्योंकि वे मुझसे बहुत जलते
हैं। प्रजापतियों की सभा में नम्रता,
प्रणाम आदि क्रियायें लोकव्यवहार में
प्रसिद्ध हैं और तत्वज्ञानियों के द्वारा
उनका संपादन भी अच्छी प्रकार से
किया जाता है। वे अंतर्यामीरूप से
सबके अंतःकरणों में स्थित परमपुरूष
वासुदेव को ही प्रणामादि करते हैं,
देहाभिमानियों को नहीं। मैं भी शुद्ध
चित्त में स्थित इन्द्रियातीत भगवान्
वासुदेव को ही नमस्कार किया
करता हूं। मेरा कोई अपराध न होने
पर भी मेरा कटुवाक्यों से तिरस्कार
किया ऐसे तुम्हारे पिता दक्ष के
यज्ञ में तुम्हारा जाना उचित नहीं
है। मेरा शत्रु होने के कारण तुम्हारा
वहां जाना अच्छा न होगा; क्योंकि
जब प्रतिष्ठित व्यक्ति का अपने
आत्मीयजनों के द्वारा अपमान होता
है, तब वह तत्काल मृत्यु का कारण
हो जाता है।
श्री शुकदेव जी कहते हैं- राजन् !
इतना कहकर भगवान शंकर मौन हो
गए। उन्होंने देखा कि दक्ष के यहां
जाने देने अथवा न जाने देने-दोनों
ही अवस्थाओं में सती के प्राण त्याग
की संभावना है। सती भी दुविधा में
पड़ गयीं; कभी अंदर कभी बाहर।
शोक और क्रोध ने उनके चित्त
को बेचैन कर दिया। बुद्धि मूढ़ हो
गयी और लंबी-लंबी सांस लेती
हुई भगवान् शिव को छोड़कर अपने
माता-पिता के घर चल दीं। सती को
फुर्ती से अकेली जाते देख श्रीमहादेव
जी के हजारांे सेवक सती के संपूर्ण
उपहारों को साथ लेकर भगवान् के
वाहन वृषभराज के सहित सती के
समक्ष स्थित हो गए। सती को बैल
पर सवार करा दिया और चल पड़े।
दक्ष की यज्ञशाला में सती का पदार्पण
हुआ- ‘पिता भवन जब गई भवानी
दच्छ त्रास काहुं न सनमानी।’’ परंतु
दक्ष के भय से माता और बहनें
अवश्य प्रसन्न हुईं किंतु किसी ने
भी उनका आदर नहीं किया। सती
का तो अनादर हुआ ही, उस यज्ञ
में भगवान् शंकर को भी कोई भाग
नहीं दिया गया है इससे उन्हें बहुत
क्रोध हुआ और देवी सती ने कहा -
पिताजी ! भगवान् शंकर से बड़ा तो
संसार में कोई भी नहीं है। वे तो सभी
देहधारियों के प्रिय आत्मा हैं। उनका
न कोई प्रिय है न कोई अप्रिय। सभी
देवता-दानव, ऋषि-मानव उनका
आदर करते हैं, वे परब्रह्म परमात्मा
हैं। उनसे आपने द्वेष किया। आप
जैसे दुर्जन से संबंध होने के कारण
मुझे लज्जा आती है। इसलिए आपके
अंग से उत्पन्न इस शवतुल्य शरीर
को त्याग दूंगी।
श्री शुकदेव जी कहते हैं- राजन्।
ऐसा कहकर सती मौन होकर उत्तर
दिशा में भूमि पर बैठ गयी। भगवान्
शंकर का चिंतन करते-करते योगाग्नि
के द्वारा शरीर को जलाते हुए प्राण
त्याग दिया। दक्ष को सभी असहिष्णु
और ब्राह्मणद्रोही कहते हुए उस दक्ष
के दुव्र्यवहार की निंदा करने लगे।
हाहाकार मच गया। शिवजी के पार्षद
दक्ष को मारने दौड़े, परंतु भृगु ने यज्ञ
से ‘ऋभु’ नामक तेजस्वी देवताओं
को प्रगट किया और शिवजी के गणों
को भगा दिया।
सती के प्राण त्याग का समाचार
महादेवजी ने देवर्षि नारद के मुख
से सुना और क्रोधावेश में अपनी
एक जटा से विशालकाय कालरूप
विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों से युक्त हजार
भुजाओं वाले वीरभ्रद को प्रगटकर
दक्ष तथा उसके यज्ञ को नष्ट करने
की आज्ञा दे दी। वीरभद्र ने दक्ष यज्ञ
नष्ट कर दिया और दक्ष का सिर
यज्ञ की दक्षिणाग्नि में डाल दिया।
वीरभद्र वापिस कैलाश लौट आए।
ब्रह्मादि देवताओं ने कैलाश जाकर
भगवान् शिव की स्तुति की और
दक्ष यज्ञ की पूर्णता का वरदान
प्राप्त कर दक्ष को बकरे का सिर
लगाकर यज्ञ को पूर्ण किया। दक्ष
को ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई। माता
सती ने हिमालय राज के गृह में
पार्वती के रूप में जन्मधारण कर पुनः
भगवान् शिव को प्राप्त किया, क्योंकि
उन्होंने मरते समय यही वरदान मांगा
था- सती मरत हरिसन बरू मांगा।
जनम-जनम शिवपद अनुरागा।