मासोतम मासे श्रवण मासे

मासोतम मासे श्रवण मासे  

शैलजा गौड़
व्यूस : 7453 | जुलाई 2011

मासोत्तम मासे श्रावण मासे शैलेश प्रताप शास्त्री शास्त्रों में सावन के महात्म्य पर बहुत कुछ लिखा गया है। इस मास में शिव आराधना का विशेष महत्व है। इसे मनोकामनाओं की पूर्ति का मास भी कहा जाता है। वर्ष के सभी मासों में मासोत्तम मास श्रावण मास अपना एक विशिष्ट महत्व रखता हैं। भारतीय वाङ्मय में श्रावण मास का विशेष महत्व है। इस मास की अपनी संस्कृति होती है। जेठ के तीव्र ताप और आषाढ़ की उमस से क्लांत प्रकृति को अमृत वर्षा की दरकार होती हैं।

श्रावण मास, श्रवण नक्षत्र तथा सोमवार से भगवान शिव शंकर का गहरा संबंध हैं। भगवान शिव ने स्वयं अपने श्रीमुख से सनत्कुमार से कहा है कि मुझे 12 महीनों में सावन (श्रावण) विशेष प्रिय है। इसी काल में वे श्री हरि के साथ मिलकर पृथ्वी पर लीलाएं रचते हैं। इस मास की एक विशेषता यह भी हैं कि इसका कोई भी दिन व्रत शून्य नहीं देखा गया। इस महीनें में गायत्री मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र, शतरूद्रिपाठ और पुरुषसूक्त का पाठ एवं पंचाक्षर, षडाक्षर आदि शिव मंत्रों व नामों का जप विशेष फल देने वाला हैं।

श्रावण मास का माहात्म्य सुनने अर्थात् श्रवण योग्य हो जाने के कारण इस मास का नाम श्रावण हुआ। पूर्णिमा तिथि का श्रवण नक्षत्र के साथ योग होने से भी इस मास का नाम श्रावण कहा गया जो श्रवण (सुनने) मात्र से सिद्धि देने वाला है। श्रावण मास व श्रवण नक्षत्र के स्वामी चंद्र और चंद्र के स्वामी भगवान शिव, श्रावण मास के अधिष्ठाता देवाधिदेव त्र्यम्बकम् शिव ही हैं। श्रावण पूजा का नियम : श्रावण में एक मास तक शिवालय में स्थापित, प्राण-प्रतिष्ठित शिवलिंग या धातु से निर्मित लिंग का गंगाजल व दुग्ध से रुद्राभिषेक करें, यह शिव को अत्यंत प्रिय हैं।

वही उत्तरवाहिनी गंगाजल - पंचामृत का अभिषेक भी महाफलदायी हैं। कुशोदक से व्याधि शांति, जल से वर्षा, दधि से पशु धन, ईख के रस से लक्ष्मी, मधु से धन, दूध से एवं 1000 मंत्रों सहित घी की धारा से पुत्र व वंश वृद्धि होती है। श्रावण मास में द्वादश ज्योतिर्लिंगों पर उत्तरवाहिनी गंगाजल कांवर में लेकर पैदल यात्रा कर, अभिषेक करने मात्र से अश्वमेघ यज्ञ के समान फल मिलता हैं। ऊँ नमः शिवाय मंत्र के जप से अकाल मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है।

श्रावण मास में वारों का महत्व : सावन में सोमवार सोमवारी व्रत रोटक भी कहते हैं। इसे सोम या चंद्रवार भी कहते हैं। यह दिन शिव को अतिप्रिय है। मंगलवार को मंगला गौरी व्रत, बुधवार को बुध गणपति व्रत, बृहस्पतिवार को बृहस्पति देव व्रत, शुक्रवार को जीवंतिका देवी व्रत, शनिवार को बजरंग बली व नरसिंह व्रत और रविवार को सूर्य व्रत होता हैं। तिथियों के देवता : श्रावण प्रतिपदा तिथि के देवता अग्नि, द्वितीया के ब्रह्म, तृतीया के गौरी, चतुर्थी के गणनायक, पंचमी के सर्प, षष्ठी के स्कंद, सप्तमी के सूर्य, अष्टमी के शिव, नवमी के दुर्गा, दशमी के यम, एकादशी के स्वामी विश्वदेव हैं, द्वादशी के भगवान श्री हरि, त्रयोदशी के कामदेव, चतुर्दशी के शिव, अमावस्या के पितर और पूर्णिमा के स्वामी चंद्र हैं।

तिथियों के व्रत : श्रावण शुक्ल व कृष्ण पक्ष के व्रत- द्वितीया को औदुंबर व्रत, तृतीया को गौरी व्रत, चतुर्थी को दूर्वा गणपति व्रत, पंचमी को उत्तम नाग पंचमी व्रत, षष्ठी को सूपौदन व्रत, सप्तमी को शीतलादेवी व्रत, अष्टमी और चतुर्दशी को देवी व्रत, नवमी को नक्त व्रत, दशमी को आशाव्रत, एकादशी को भगवान हरि व्रत, द्व ादशी को श्रीधर व्रत, अमावस्या को पिठोरा व्रत, कुशोत्पाटन और वृषभों का अर्चन करे, पूर्णिमा को उत्सर्जन, उपाकर्म सभा, दीप उपाकर्म की सभा में रक्षा बंधन, श्रावणी कर्म, सर्प बलि तथा हयग्रीव नामक ये सात व्रत श्रावणी पूर्णिमा को होते हैं।

शिव का श्रावण में जलाभिषेक प्रसंग कथा : सतयुग में देव-दानवों के मध्य अमृत प्राप्ति के लिए सागर मंथन हो रहा था। अमृत कलश से पूर्व कालकूट विष निकला, उसकी भयंकर लपट न सह सकने के कारण सभी देवगण ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्मा जी ने अपने तपोबल से कहा अब तो समस्त ब्रह्मांड को सदाशिव ही बचा सकते हैं। सभी देवगणों की प्रार्थना पर भगवान शिव प्रगट हुए और उन्होंने वस्तु स्थिति को ज्ञात करने के पश्चात ब्रह्माजी के अनुरोध पर विष की भयानकता से जगत के संरक्षण हेतु कल्याण भावना से तुरंत विष को एकत्र कर पान कर लिया और विषपान से सृष्टि विनाश से बच गयी।

वही विष उन्होंने अपने कंठ में अवरूद्ध कर लिया, जिससे उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाये। इसी से इनका नाम शिव के साथ नीलकंठ पड़ा। समुद्र मंथन से निकले उस हलाहल के पान के समय के बारे में मान्यता है कि वह श्रावण मास ही था और उस विष के ताप को शांत करने के लिए देवताओं ने वर्षातु में तापनाशक बेलपत्र चढ़ाकर गंगाजल से उनका (शिव का) पूजन व जलाभिषेक आरंभ किया, तभी से जलाभिषेक की परंपरा का श्रीगणेश (प्रारंभ) माना जाता है। शिव का एक अर्थ जल भी होता है, और यही जल प्राण भी हैं। शिवलिंग पर जलार्पण का अर्थ हैं विषयुक्त योगीराज में प्राण विसर्जन करके परम तत्व में अपना प्राण मिला देना- समर्पण कर देना। यही श्रावणी जलाभिषेक का संदेश है।



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