वास्तु संबंधित प्रश्न

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कुलदीप सलूजा
व्यूस : 11140 | अकतूबर 2010

प्रष्न: पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य की परिक्रमा करती है। अर्थात् पृथ्वी स्थिर नहीं है। ऐसे में वास्तु की प्रासंगिकता क्या है?

उत्तर: यह सही है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य की परिक्रमा करती है, साथ ही हमारा पूरा सौरमंडल भी आकाषगंगा में अनंत की ओर तेजी से दौड़ रहा है। रेलगाड़ी के कई डिब्बे पटरी पर एक साथ दौड़ते हैं तथा डिब्बांे के गतिषील होनेे पर भी अंदर रखा सामान स्थिर रहता है। गति के अचनाक कम या ज्यादा हाने पर ही सामान में अस्थिरता पैदा होती है जिससे हमारा सामान इधर-उधर बिखर जाता है। इसी प्रकार पृथ्वी अपनी धुरी पर प्रारंभ से ही एक निष्चित गति के साथ ही घूम रही है जिस कारण सभी स्थूल चीजें अपनी जगह स्थिर हंै। वास्तुषास्त्र का मूल आधार विष्वव्यापी पंच तत्त्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाष हैं। इन्हीं पांच तत्त्वों के अनुरूप घर को बनाना, सजाना, संवारना ही वास्तु कहलाता है।

प्रष्न: सामान्य मनुष्य को कैसे ज्ञात हो कि उसका घर वास्तु अनुरूप है या नहीं?

उत्तर: यदि किसी नए घर में प्रवेष करने से पूर्व या पुराने घर के नवीनीकरण के पहले, जीवन सुखद चल रहा हो, घर में शांति हो, कारोबार ठीक चल रहा हो और इस परिवर्तन के बाद जीवन दूभर हो जाए, घर में अषांति पैदा हो जाए, कारोबार में घाटा होने लगे, स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता हो, तो समझ लेना चाहिए कि यह नया घर या यह नवीनीकरण वास्तु विपरीत है।

प्रष्न: यदि घर में वास्तु दोष होने के बाद भी सुख-षांति हो, क्या तब भी वास्तु दोष निवारण अनिवार्य है?

उत्तर: नहीं। यह सही है कि जब भाग्य अनुकूल होकर प्रबल होता है, तब वास्तु दोष का अहसास नहीं होता। लेकिन जब भाग्य की अनुकूलता समाप्त हो जाती है, तब वास्तु दोष प्रबल होकर जीवन मंे उथल-पुथल मचा देते हंै।

प्रष्न: भारतीय वास्तुषास्त्र एवं चीनी वास्तुषास्त्र फेंगषुई में क्या समानता हैं ?

उत्तर: जिस प्रकार आयुर्वेद, होम्योपैथी, एलोपैथी, यूनानी इत्यादि सभी चिकित्सा पद्धतियों का उद्देष्य मनुष्य के स्वास्थ्य को ठीक करना है, उसी प्रकार वास्तुषास्त्र और फेंगशुई दोनों शास्त्र किसी भी भवन के आकार, अनुपात, दिषा तथा आसपास के वातावरण में पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाए रखने के लिए प्रचलित हैं।

प्रष्न: क्या वास्तुषास्त्र के सिद्धांत सिर्फ भारत में व फेंगशुई के सिद्धांत सिर्फ चीन में लागू होते हैं?

उत्तर: नहीं वास्तुषास्त्र और फेंग शुई के सिद्धांत समूचे विष्व में समान रूप से लागू होते हैं क्योंकि यह शास्त्र सूर्य की किरणों एवं पृथ्वी पर बहने वाली चुंबकीय तरंगों पर आधारित हैं, जो मनुष्य द्वारा निर्धारित की गई, किसी भी देष की सीमा से प्रभावित नहीं होते हंै। वरन् वास्तुषास्त्र एवं फेंगशुई इन दानों शास्त्रों का प्रयोग एक साथ करना बहुत अधिक लाभदायक रहता है।

प्रष्न: यदि किसी व्यक्ति के पास एक से अधिक संपत्ति हो तो उस स्थिति में वास्तु का प्रभाव किस प्रकार पड़ेगा ?

उत्तर: यदि किसी व्यक्ति के पास एक से अधिक संपत्ति हो, तो वह संपत्ति जिसका उपयोग वह अपने रहने या व्यवसाय के लिये करता है, उसके वास्तु का प्रभाव उसके जीवन पर पड़ता है। जो संपत्ति उसने किसी दूसरे को उपयोग के लिये दे रखी हो तो उस संपत्ति का प्रभाव उस दूसरे व्यक्ति पर पडे़गा जो उसका उपयोग कर रहा है। जो संपत्ति स्वामी के स्वयं के उपयोग में नहीं आ रही है उस संपत्ति से संबंधित आर्थिक लाभ-हानि या उस पर किसी प्रकार के विवाद का प्रभाव उसके स्वामी पर नहीं पड़ता है।


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प्रष्न: यदि किसी व्यवसायी के एक से अधिक व्यावसायिक स्थल हों, तो उनके वास्तु का प्रभाव किस प्रकार पड़ता है?

उत्तर: यदि किसी व्यवसायी के एक से अधिक व्यावसायिक स्थल हों तो, वह व्यावसायिक स्थल जो वास्तु अनुकूल होगा, वह व्यवसायी को अच्छा आर्थिक लाभ देगा जहां व्यापार सफलतापूर्वक बिना परेषानियों के सुचारू रूप से चलेगा। इसके विपरित जो व्यावसायिक स्थल वास्तु अनुकूल नहीं होगा वहां उस व्यावसायिक स्थल के दोषों के अनुसार व्यवसायी को अपने व्यापार में परेषानियों का सामना करना पड़ेगा।

प्रश्न: यदि बड़े मकान के छोटे से भाग में वास्तुदोष होने से पूरा मकान ही वास्तुदोष युक्त हो जाता है, तो क्या ऐसे में दोषपूर्ण भाग के परिवार के ही किसी दूसरे सदस्य के नाम से रजिस्ट्री करने से क्या वह दोष समाप्त हो सकता है?

उत्तर: कई मकानों के थोडे़े से भाग में वास्तुदोष इस प्रकार होतेे हैं कि उस भाग को अलग कर दिया जाए तो बचा हुआ मुख्य भाग पूणर्तः वास्तुनुकूल बन जाता है। ऐसे मामलों में कई वास्तुविद् इस तरह की सलाह देते हैं कि आप इस भाग को अलग न करंे। यदि इस भाग की रजिस्ट्री या लिखा पढ़ी दूसरे के नाम कर दें तो यह दोष समाप्त हो जाएगा जो कि पूर्णतः अवैज्ञानिक है।

सम्पत्ति का किसी व्यक्ति के नाम से होना या करना यह सब हमारी अपनी सामाजिक व्यवस्था है। सूर्य की किरणों एवं पृथ्वी पर बहने वाली चुबंकीय धाराओं को इन बातों से कोई मतलब नहीं होता। वास्तुशास्त्र के अनुसार एक चार दीवार के अंदर का स्थान एक वास्तु कहलाता है और दूसरी चारदीवारी का स्थान दूसरा वास्तु कहलाता है। अतः भवन के दोषपूर्ण भाग को दीवार बनाकर ही अलग करना पड़ता है जिससे यह वास्तु दो भागों में विभाजित हो जाता है और दोनों भाग अपनी-अपनी वास्तु संरचना अनुरूप शुभ-अशुभ परिणाम देने लगते हैं।

प्रष्न: क्या सिर्फ पूर्व मुखी या उत्तर मुखी भूखंड ही वास्तु अनुरूप होते हैं ?

उत्तर: नहीं, चारों दिषाएं प्रकृति की देन हैं। किसी भी दिषा की तरफ मुख्य द्वार रखकर वास्तु अनुरूप निर्माण किया जा सकता है लेकिन वास्तुषास्त्र के नियमानुसार सूर्य की प्रातःकालीन जीवनदायी ऊर्जा का अधिक से अधिक लाभ लेने के लिए उत्तर और पूर्व दिषा में ज्यादा खुली जगह छोड़नी चाहिए व दोपहर के बाद के सूर्य की नकारात्मक किरणों के संपर्क में कम से कम आएं इसलिए दक्षिण और पष्चिम दिषा मंे कम जगह छोड़नी चाहिए। इस कारण दक्षिण व पष्चिममुखी मकान के सामने वाले भाग में गार्डन व वाहन खड़े करने के लिए पर्याप्त जगह नहीं रह पाती है। इसलिए पूर्व मुखी और उत्तर मुखी भूखंड को ज्यादा अच्छा माना जाता है।

प्रष्न: शास्त्रों में लिखा है कि ब्रह्म स्थान खाली रहना चाहिए और ऊपर से खुला हुआ भी होना चाहिए ताकि आकाश देखा जा सके। क्या यह सही है?

उत्तर: आपने ठीक ही पढ़ा है। शास्त्रों में ऐसा ही लिखा है। हमारे देश में पुराने जमाने में जो बड़ी हवेलियां महल इत्यादि बनाते थे उनके मध्य स्थान में आंगन खुला रखा जाता था परंतु आजकल छोटे-छोटे प्लाॅट पर बने मकान और मल्टी स्टोरी के फ्लैट में ऐसा कर पाना संभव नहीं है ऐसी स्थिति में ब्रह्म स्थान में किसी प्रकार का निर्माण कार्य न कर उसे खाली छोड़ना चाहिए, वहां पर काॅलम दीवार आदि नहीं बनानी चाहिए ताकि उस स्थान पर वायु का उचित आवागमन होता रहे। ऐसा करने से ब्रह्म स्थान में किसी प्रकार का भी दोष नहीं रहता है।


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प्रष्न: क्या वास्तु दोष ढूंढने का कोई यंत्र बाजार में उपलब्ध है ?

उत्तर: नहीं। जिन ऋषि-मुनियों ने वास्तुषास्त्र की खोज की उन्होंने तो कोई ऐसा यंत्र नहीं बनाया या भारत व चीन के किसी भी पुराने ग्रंथ में इस प्रकार के यंत्र का वर्णन नहीं मिलता है। कुछ वास्तुषास्त्री पर्यावरण एवं मानवीय तंत्र की ऊर्जा को मापने के लिए प्रयोग में आने वाला ‘लेकर एंटिना’ नामक यंत्र का उपयोग वास्तु दोष ढूंढने में करते हैं जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।

प्रष्न: क्या वास्तु दोष निवारण यंत्र लगाने से कुछ लाभ होता है ?

उत्तर: बिल्कुल नहीं। वास्तुषास्त्र के प्रथम गं्रथ से लेकर, 1995 से पूर्व छपे किसी भी वास्तुषास्त्र के ग्रंथ में इस प्रकार के किसी भी यंत्र का वर्णन नहीं है। यह वास्तु दोष निवारण यंत्र केवल तथाकथित लालची वास्तुषास्त्रियों द्वारा भोली-भाली जनता को लूटने के लिए बनाया गया है जो बहुत ज्यादा दाम लेकर लगाया जाता है। वास्तु दोष निवारण यंत्र लगाने से एक प्रतिषत लाभ भी नहीं होता।

प्रष्न: क्या घर के आगे गाय बांधने से या तुलसी का पौधा लगाने से वास्तु दोष का निवारण होता है?

उत्तर: बिलकुल नहीं। यह सही है कि गाय की उपयोगिता को देखते हुए हम गाय को मां के समान दर्जा देते हैं। गाय बांधना, गाय के गोबर से घर लीपना, घर को गौ मूत्र से धोना यह हमारी धार्मिक आस्थाएं हैं। इसी प्रकार तुलसी के औषधीय गुणों के कारण हम तुलसी की पूजा करते हैं। यह भी हमारी धार्मिक आस्था है। वास्तुषास्त्र विज्ञान है। अतः वास्तु दोष निवारण में ऐसे किसी भी प्रकार की धार्मिक आस्था से जुड़े कृत से कोई लाभ नहीं होता है।

प्रश्नः कई वास्तुविद् नैऋत्य कोण को ऊंचा करने के लिए एंटीना लगाने की सलाह देते है, क्या यह कारगर उपाय है?

उत्तर: वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुसार उत्तर व पूर्व की तुलना दक्षिण व पश्चिम को ऊंचा रखना चाहिए, क्योंकि वास्तु एक विज्ञान है और इसमें सूर्य का बहुत महत्व है, सूर्य की प्रातः कालिन किरणें सकारात्मक एवं जीवनदायी होती हैं एवं दोपहर बाद की किरणें नकारात्मक होकर हानिकारक होती हैं। सूर्य की प्रातःकालिन किरणों से मिलने वाली ऊर्जा का पूर्ण लाभ लेने के लिए भवन के उत्तर पूर्व के भाग को नीचे रखा जाता है और दोपहर के बाद सूर्य से मिलने वाली नकारात्मक ऊर्जा से बचने के लिए दक्षिण व पश्चिम के भाग को ऊंचा रखा जाता है। अतः एंटीना लगाकर इस दोष को ठीक करना संभव नहीं है। यह दोष भवन की बनावट को ही ठीक करके दूर किया जा सकता है।

प्रश्न: कई वास्तुविद् नैऋत्य कोण को भारी करने के लिए वजन रखने की सलाह देते हंै, हमारे पड़ोसी ने किसी की सलाह पर 50-50 किलोग्राम के दस बांट बनवाकर प्लाॅट के नैऋत्य कोण में गाड़े हैं इसका क्या लाभ है?

उत्तर: किसी भी भवन के नैऋत्य कोण को भारी करने के लिए कई वास्तुविद् इस तरह के वजन रखवाने की सलाह देते हैं जो कि पूणर्तः अवैज्ञानिक है। वास्तु नियमों के अनुसार उत्तर पूर्व की तुलना मंे दक्षिण पश्चिम को भारी रखना चाहिए। उसका वास्तुनुकुल सही तरीका यह है कि दक्षिण पश्चिम की कम्पाउण्ड वाॅल व भवन की दीवार को उत्तर पूर्व की दीवारों की तुलना में थोड़ा मोटा बनाया जाए।

प्रश्न: क्या जमीन में तांबे की तार या रत्न गाड़ने से वास्तुदोष दूर हो जाते हैं?

उत्तर: बिलकुल नहीं। पिछले कुछ वर्षोंं से कुछ वास्तुविद् प्लाॅट के दोषपूर्ण बढ़ाव से उत्पन्न होने वाले कुप्रभाव को समाप्त करने के लिए जमीन में तांबे की तार गड़वाते हैं तो कुछ प्लाॅट की ऊर्जा बढ़ाने के लिए चारों दिशाओं, चारों कोणों एवं मध्य में विभिन्न रंगों के रत्न गड़वाते हैं। इससे सिर्फ पैसांे की बर्बादी होती है और लाभ एक नए पैसे का नहीं होते क्योंकि यह पूणर्तः अवैज्ञानिक प्रक्रिया है। प्लाॅट में दोषपूर्ण बढ़ाव से उत्पन्न होने वाले कुप्रभाव से बचने का एकमात्र तरीका है कि कम से कम चार फीट ऊंची दीवार खड़ी करके उस हिस्से को अलग कर दिया जाए।

प्रश्न: क्या विभिन्न प्रकार के रंगों का उपयोग करने से भी वास्तुदोष दूर होते हैं?

उत्तर: बिलकुल नहीं। पिछले कुछ वर्षों से कई वास्तुविद् विभिन्न दिशाओं के दोषों को दूर करने के लिए ज्योतिष के आधार पर दिशाओं के स्वामी के प्रतिनिधित्व रंग के अनुसार लाल, पीले, हरे, इत्यादि रंगों का उपयोग करने की सलाह देते हैं। जैसे दक्षिण दिशा में भूमिगत पानी की टंकी हो तो इस दोष को दूर करने के लिए टंकी के ऊपर लाल रंग करवाते हंै। क्योंकि इस दिशा का स्वामी मंगल है। किंतु सच्चाई यह है कि इससे वास्तुदोष के कुप्रभाव में 1 प्रतिशत की भी कमी नहीं आती। दोषपूर्ण स्थान पर बने टैंक के कुप्रभाव से बचने का एकमात्र तरीका है कि उस टैंक को मिट्टी डालकर पूरी तरह से बंद कर दिया जाए।


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प्रश्न: क्या दक्षिण या पश्चिम दिशा की दीवार पर दर्पण (मिरर) लगाने से वास्तुदोष उत्पन्न हो जाता है?

उत्तर: नहीं बिलकुल नहीं। घर की किसी भी दिशा में मिरर लगाने से कोई वास्तुदोष उत्पन्न नहीं होता। वास्तुशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में मुंह देखने के कांच के बारे में तो कोई उल्लेख ही नहीं है। अलबत्ता फेंगशुई में घर का कोई कोना कटा होने से अधूरेपन का एहसास होता है उस एहसास को दूर करने के लिए वहां मिरर लगाने की सलाह दी जाती है और वहां भी दिशाओं से इसका कोई संबंध नहीं है। आप देखें कि, आजकल लगभग हर बेडरूम में टीवी होता है जो कि, बंद होने पर टीवी की स्क्रीन मिरर की तरह ही रिफ्लेक्शन देता है। इसी प्रकार नये बन रहे घरों के फर्श पर एवं टाॅयलेट बाथरूम की दीवारों पर इतनी चमकदार टाईल्स् लगाई जाने लगी हैं जिसमें आप अपना रिफ्लेक्शन देख सकते हैं।

प्रष्न: क्या स्वस्तिक के उपयोग से वास्तुदोषों को दूर किया जा सकता है?

उत्तर: हमारे देष में हमारी आस्था के प्रतीक मांगलिक चिन्ह स्वस्तिक का दुरूपयोग तांबे एवं प्लास्टिक के स्वस्तिक पिरामिड बना कर किया जा रहा है। स्वस्तिक की आकृति पर छोटे-छोटे पिरामिड बनाये जाते हैं जिनका उपयोग वास्तुदोष निवारण में किया जाता है। इजिप्ट में इन पिरामिडों का उपयोग शव को सुरक्षित रखने के लिए किया जाता था। परंतु आज इसकी आकृति को पवित्र स्वस्तिक के साथ उपयोग कर हमारी आस्था का अपमान हो रहा है। दुनिया की लगभग सभी प्रमुख सभ्यताओं में इस चिन्ह का उपयोग मिलता है।

भारत, इजिप्ट, चीन या आदि संस्कृतियों में जहां भी स्वस्तिक का उपयोग किया जाता है, उसे उसके मूल स्वरूप में ही रखा जाता है, किन्तु लगभग 1998 के आस पास कतिपय लोगों ने अपने निजी लाभ के लिये आस्था के प्रतीक चिन्ह को पिरामिड रूप में प्रस्तुत कर वास्तु से जोड़ दिया है जो सर्वथा गलत एवं अवैज्ञानिक है। स्वस्तिक सहित मांगलिक चिन्हों का वास्तु में महत्व है, इनसे उत्पन्न होने वाली ऊर्जा से व्यक्ति की सकारात्मक सोच विकसित होती है, किन्तु इसी के साथ पिरामिड बना देने से न सिर्फ उसका मूल स्वरूप विकृत होता है बल्कि वह अमंगलकारी भी हो जाता है।

प्रश्न: कई वास्तु आलेखों में यह बात पढ़ने को मिलती है कि घर के आंगन में मंदिर की छाया पड़ना शुभ नहंीं होती है इसका वैज्ञानिक आधार क्या है?

उत्तर: वास्तुषास्त्र, पृथ्वी पर रहने वाली चुम्बकीय प्रभाव की धाराओं एवं सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा का वैज्ञानिक तरीके से उपयोग कर अधिकतम लाभ प्राप्त करने का विज्ञान है, इस हेतु यह शास्त्र हमारा मार्गदर्षन करता है। जिससे सूर्य से मिलने वाली सकारात्मक व ऋणात्मक ऊर्जा का सही अनुपात में उपयोग कर हम सुख, शांति, समृद्धि और वैभव प्राप्त कर सकें। जन सामान्य में यह भ्रांति है कि मंदिर की छाया आंगन पर पड़नी शुभ नहीं होती है। जिन घरों में मंदिर की छाया पड़ती है वह भवन देवताओं की कृपा से वंचित रह जाता है।

इसके पीछे वैज्ञानिक आधार है जिसे धर्म के साथ जोड़ दिया गया है। वास्तु शास्त्र के अनुसार प्रातः काल मंदिर की छाया या किसी भी दूसरे भवन की छाया आपके भवन के पूर्व या उत्तर दिषा स्थित आंगन में पड़ती है तो ऐसी स्थिति में आपके आंगन में सूर्य की सुबह की सकारात्मक ऊर्जा युक्त किरणें आने में बाधा पैदा होती है और यदि दोपहर या उसके बाद की छाया आपके आंगन में पड़ती है

तो इसका मतलब आपने अपना आंगन दक्षिण या पष्चिम दिशा में बना रखा है ऐसी बनावट वाला भवन भी वास्तुदोष पूर्ण होते हैं, क्योंकि आंगन केवल भवन के उत्तर एवं पूर्व दिषा में ही बनाना चाहिए और दक्षिण तथा पष्चिम दिशा में भारी निर्माण कार्य करना चाहिए ताकि भवन में दोपहर के बाद सूर्य से निकलने वाली नकारात्मक ऊर्जा युक्त किरणें प्रवेष न कर सकें। अतः यह धारणा कि मंदिर की छाया घर के आंगन में पड़ना शुभ नहीं होता। वास्तु की दृष्टि से एकदम सही है।


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प्रष्न: घर के पूजा स्थल मंे देवी-देवताओं की फोटो या मूर्तियां किस दिषा की ओर मुख करके रखी जानी चाहिए?

उत्तर: इसके लिए अलग-अलग मान्यताएं है। जैसे-श्री हनुमानजी, गणेषजी, मां दुर्गा की मूर्ति दक्षिण मुखी होनी चाहिए, श्री राम व श्री कृष्ण की मूर्ति उत्तर या पूर्व मुखी होनी चाहिए। परंतु मेरे गृह नगर उज्जैन में ही उत्तर मुखी हनुमान जी का मंदिर है, चिंतामणी गणेष जी के मंदिर में गणेष जी की मूर्ति पूर्व मुखी है। गढ़कालिका माताजी के मंदिर में मां पष्चिम मुखी विराजमान है, मां हरसिद्धि के मंदिर में मां पूर्वमुखी विराजित हैं। यह सभी मंदिर उज्जैन के प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिरों में से हैं जहां हमेषा भक्तों के दर्षन के लिए तांता लगा रहता है। कभी-कभी दर्षन के लिए लम्बा इंतजार भी करना पड़ता है।

हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार ईष्वर कण-कण मंे विद्यमान है उनकी दृष्टि और कृपा दसों दिषाओं में रहती है। घरों में देवी-देवताओं की फोटो एवं मूर्तियां इस प्रकार स्थापित करनी चाहिए कि पूजा करते समय हमारा मुंह उत्तर या पूर्व दिशा की ओर हो।

प्रष्न: मंदिरों में भगवान शनि देव की मूर्ति ठीक सामने क्यों नहीं लगाई जाती है?

उत्तर: ज्योतिष एवं वास्तुषास्त्र के अनुसार पष्चिम दिषा के स्वामी शनि देव है। इसलिए यहां भगवान शनि देव की मूर्ति पष्चिममुखी स्थापित की गई है। धार्मिक मान्यता है कि शनि देव के दर्षन सामने से नहीं करना चाहिए। अतः यहां भी दर्षन के लिए दर्षनार्थी दक्षिण दिषा से क्लाक वाईज चलते हुए पष्चिम दिषा में आकर शनि देव के दर्षन करके पुनः बाहर पष्चिम दिषा में आते हैं और फिर उत्तर तथा पूर्व दिषा होते हुए पुनः दक्षिण दिषा में ही आकर बाहर निकल जाते हैं।

शनि देव के दर्षन की इस प्रक्रिया को कुछ लोग अंधविष्वास कह सकते हैं किंतु शनि देव के दर्षन के लिए सदियों से अपनाई जा रही यह प्रक्रिया वास्तु के एक महत्वपूर्ण सिद्धांत का पालन करने के लिए हंै। चीनी वास्तुषास्त्र फेंगषुई का एक सिद्धांत है कि मुख्य द्वार के सामने मध्य का भाग प्रसिद्धि का होता है। अतः यहां लाल रंग होने से प्रसिद्धि बढ़ती है और काला रंग होने से प्रसिद्धि धूमिल होती है।

भारत में भी मुख्य द्वार पर बनाए जाने वाले मांगलिक चिन्ह लाल रंग से बनाए जाते हैं जैसे ओम्, एक ओमकार, स्वस्तिक, शुभ-लाभ इत्यादि। मंदिरों में भी मुख्य द्वार के सामने स्थित मूर्ति को लाल रंग के वस्त्र पहनाना शुभ माना जाता है। शनि देव को काले रंग के वस्त्र पहनाए जाते हैं, उनकी मूर्ति पर काला रंग किया जाता है। ऐसी स्थिति में यदि मुख्य द्वार के सामने मूर्ति स्थापित की जाए तो वास्तु एवं फंेगषुई के उपरोक्त सिद्धांतों की अवहेलना होने से मंदिर की प्रसिद्धि को हानि पहुंचती है।

निष्चित ही इसलिए सदियों पूर्व विद्वान ऋषि मुनियों द्वारा शनि भगवान की मूर्ति को मंदिर के मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थापित न करवाते हुए दांयी ओर स्थापित करवाने की परंपरा डलवाई होगी। श्री शनिधाम में भी इसी वास्तुनुकूल परंपरा का पालन किया गया है।


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