संत का कहना है वही- जो है,
जैसा; वैसा का वैसा। पत्थर
को पत्थर, गुलाब को गुलाब। जैसा
है वैसा। फिर चोट लगे तो लगे, न
लगे तो न लगे। जिसे नहीं लगेगी
चोट, या तो वह बहरा है या जाग
गया। जिसे चोट लगेगी, उसे लगनी
ही चाहिए; क्योंकि चोट ही जगाएगी,
नहीं तो वह जागेगा कैसे !
मैं तो वही कहता हूं जो है। उसमें
रत्तीभर फर्क नहीं करना चाहता हूं।
मैंने सुना, एक गांव में एक महात्मा
आए। प्रवचन दे रहे थे तो सामने ही
एक महिला अपने बच्चे को लिए बैठी
थी, वह बच्चा बड़ी गड़बड़ कर रहा
था। अब बच्चे को तो कुछ मतलब ही
नहीं महात्मा से। कभी कुछ कहता।
महात्मा भी परेशान हो रहे थे। उनका
प्रवचन भी ठीक से नहीं चल पाता
था, उस बच्चे के कारण। वह महिला
उसे बार-बार डांटती-डपटती, दबाती;
मगर वह फिर फिर उठकर खड़ा हो
जाता, कुछ फिर कहता। आखिर
महात्मा के बरदाश्त के बाहर हो गई,
जब बच्चे ने यह कहा कि मुझे पेशाब
लगा है। मां ने उसको कहा- ‘चुप
रह !’ मगर वह काहे को चुप रहे !
वह बोला कि मुझे जोर से पेशाब लगा है।
बच्चे भी होते हैं, वे भी अपना रास्ता
निकाल लेते हैं कि अब तुम उन्हें दबा
भी नहीं सकते। अभी-अभी आइसक्रीम
मांग रहा था थोड़ी देर पहले तो चलो
समझा-बुझा दिया कि शाम को दे
देंगे, मगर पेशाब लगा तो अब शाम
थोड़े ही। उसने भी तरकीब निकाली।
आखिर बच्चे में बुद्धि तो है ही। उसने
भी बाधा खड़ी कर दी। उसने कहा-
अब ऐसी चीज लगी है कि अब इसी
वक्त होना चाहिए।
आखिर महात्मा से नहीं रहा गया।
महात्मा ने कहा कि सुन देवी, बच्चे में
संस्कार नहीं है। तू बड़े घर की है,
प्रतिष्ठित कुल तेरा, समृद्ध है; बच्चे
को कुछ संस्कार दे। सत्संग दे, मंदिर
में इस तरह के शब्द बोले जाते हैं !
पेशाब !
तो महिला ने कहा - मैं इसे और
कौन-सा शब्द सिखाऊं?
तो उन्होंने कहा कि कुछ भी सिखा
दे, कोई भी एक प्रतीक शब्द। समझो
कि इसे कह दे कि ‘मुझे गाना गाना
है।’ जब भी इसे पेशाब लगे, यह कह
दे ‘गाना गाना है’। किसी को पता भी
न चलेगा, तू अपने ले गई बाहर।
मगर यह क्या कि बीच में खड़ा होकर
वह कह रहा है ! और इधर ब्रह्म-चचा
चल रही है और इसे पेशाब लगा है !
महिला को भी बात जंची। उसने जाकर
बच्चे को खूब समझाया-बुझाया। वह
बच्चा राजी भी हो गया। घर में भी
उससे कहा- तू इसी का अभ्यास
कर, नहीं तो एकदम से सत्संग में
कैसे अभ्यास करेगा ! तो घर में भी
वह इसी का अभ्यास करता। कभी भी
जाता तो कहता ‘गाना गाना है’। फिर
तीन महीने बाद झंझट हुई। संयोग
की बात कि महात्मा फिर आए गांव।
उसी महिला के घर मेहमान हुए। रात
को, संयोग कि कोई पड़ोसी बीमार हो
गया बहुत और महिला को जाना पड़ा।
वह बच्चा अकेला सोने को राजी नहीं
था, तो उसने कहा कि महात्मा के
पास सो जाओ। तो महात्माजी के
पास सुला कर चली गई। रात के
कोई दो बजे होंगे। महात्माजी की
बड़ी तोंद लयबद्ध नीचे ऊपर हो रही
थी और उनकी नाक से सातों स्वर
एक साथ निकल रहे थे। वे बड़े मस्त
थे अपनी नींद में। तभी उस बच्चे ने
उन्हें हिलाया और उसने कहा कि
महात्माजी, महात्माजी ! गाना गाना
है।
महात्मा ने कहा- हद हो गई ! धत
तेरे की ! आधी रात गाना गाना है?
यह भी कोई बात हुई? सो जा चुपचाप।
महात्मा ने जोर से दबकाया उसे तो
वह थेड़ी देर तो पड़ा रहा; लेकिन
जब ‘गाना गाना ही है’ तो वह पड़ा
भी कैसे रहे! उसने फिर थोड़ी देर
बाद जब उनका स्वर फिर जमने लगा
और तोंद हिलने लगी और आवाज
फिर निकलने लगी, बच्चे ने फिर उन्हे
हिलाया और कहा महात्माजी, गाना
गाना ही पड़ेगा।
महात्मा ने कहा- तू सोने देगा रात
भर कि नहीं? यह किस तरह का
गाना? दिन में गाना ! चुपचाप से जा,
नहीं तो दो चपतें लगा दूंगा।
अब महात्मा ने चपतों की बात कही
तो वह बेचारा फिर चुप रह गया;
लेकिन अब वह चुप रहे भी कैसे,
गाना गाना ही था। फिर उसने महात्मा
को हिलाया। थोड़ी देर बाद उसने
कहा- महात्माजी सुबह तक रुक नहीं
सकता, अभी गाऊंगा !
महात्मा ने कहा- मुहल्ले-पड़ोस के
लोगों को भी जगा देगा। अच्छी झंझट
तेरी मां मेरे पीछे लगा गई ! यह कोई
...। तू चुपचाप सो जा । गाना कोई
ऐसी चीज थोड़े ही है कि अभी इत्ती
जरूरी होगी कि अभी हो गए।
बच्चे ने कहा - महात्माजी, गा लेने
दो; नहीं तो गाना बिस्तर में ही निकल
जाएगा।
महात्मा बहुत घबरा गए कि गाना
बिस्तर में निकल जाए....। तो उन्होंने
कहा कि देख, शोरगुल मचेगा,
पास-पड़ोस के लोग ...। कहां का
तेरा गाना, क्या तेरा गाना ! तू मेरे
कान में चुपचाप गा दे और फिर सो
जा।
बच्चे ने कहा- ‘फिर मत कहना आप!’
उसने गा दिया। गुन-गुना गुन-गुना
गाना ! जब गा दिया तब महात्मा को
बोध आया। मगर तब तक बहुत देर
हो चुकी थी।
मैं, बात जैसी है, उसे वैसी ही कह
देना पसंद करता हूं। इधर गोल-मोल
बातें खोजने में कोई सार नहीं है;
उससे झंझटें बढ़ती हैं। तुम्हारे पास
काफी झूठ वैसे ही इकट्ठे हो गए हैं।
उन झूठों को तोड़ डालना है।
इन सारे झूठों में सबसे बड़ा झूठ है
कि इंद्रियों को वश में रखना अनिवार्य
है धर्म के लिए। यह सबसे बड़ा
बुनियादी झूठ है। परमात्मा इंद्रियां
देता है और महात्मा सिखाते हैं कि
इंद्रियों को नष्ट कैसे करो ! जार्ज
गुरजिएफ कहता था कि मेरे अनुभव
में एक बात बड़ी अजीब आई है कि
महात्मा परमात्मा के विपरीत मालूम
पड़ते हैं।
यह बात वास्तव में बड़ी मूल्यवान है।
परमात्मा इंद्रियां देता है और महात्मा
कहते हैं- इंद्रियों का दमन करो। यह
बात जंचती नहीं। यह धार्मिक नहीं हो
सकती। इंद्रियों को परिशुद्ध करो, दमन
नहीं। इंद्रियों का निखार करो, परिष्कार
करो। आंखों को इतना उज्ज्वल बनाओ
कि जहां भी, जो भी दिखाई पड़े,
परमात्मा ही अनुभव हो। कानों को
इतना शुद्ध करो कि जो भी स्वर सुनाई
पड़े, वह उसी के अनहदनाद का अंग
हो। प्रेम को ऐसा परिपूर्ण करो कि
जिस पर भी प्रेम डालो, वही तुम्हारा
कृष्ण हो जाए।
तो मैं इंद्रियों के दमन के पक्ष में ही
नहीं हूं। जो पक्ष में हैं, वे धार्मिक नहीं
हैं।
लेकिन इंद्रियों के दमन करने की बात
लोगों को जंची। जंची इसलिए, दमन
करने से अहंकार को मजा आता है।
किसी को भी दबाओ तो अहंकार को
मजा आता है। दूसरे को दबाओ तो
भी मजा आता है। अपने को दबाओ
तो भी मजा आता है। अहंकार को
मजा ही दबाने में आता है। किसी की
छाती पर बैठ जाओ तो मजा आता है,
अपनी ही छाती पर बैठ जाओ तो भी
मजा आता है। अहंकार संघर्ष से जीता
है। तो या तो दूसरों से लड़ो और
दूसरों को हराओ। मगर दूसरे से लड़ना
हमेशा संभव नहीं होता और महंगी भी
बात है- तो अपने से ही लड़ो, अपने
को ही दबाओ। या तो दूसरों को
जीतो या अपने को जीतो- मगर जीतो
जरूर। जहां जीत है, वहां अहंकार
को मजा आता है कि मैं कुछ खास, मैं
विशिष्ट।
तो इंद्रियों को दबाने की बात
अहंकारियों को खूब जमी। और समाज
को भी यह बात जमी, क्योंकि जो
इंद्रियों को दबाने में लग जाता है, वह
समाज के लिए सहयोगी हो जाता है,
वह दूसरों को नहीं दबाता। नहीं तो
वह दूसरों को दबाएगा। दबाने का
कहीं उसे रस है तो दबाने का रस
वह निकालेगा। अगर अपने को दबाने
लगे तो समाज सुविधा में हो जाता
है। उस आदमी से झंझट मिटी। वह
अब किसी दूसरे को नीचा दिखाना
चाहता है। वह अपने ही साथ जूझ
रहा है। वह अपने ही दाएं-बाएं हाथ
को लड़ा रहा है। वह अंधेरे में अपनी
ही छाया से लड़ रहा है, वह जाने,
उसका काम जाने।
समाज कहता है- यह सज्जन आदमी
है। ‘दुर्ज’ समाज उसे कहता है, जो
दूसरों को दबाता है- दुष्ट! जो अपने
को दबाता है, उसको कहता है ‘साधु’,।
मगर दोनों के पीछे राज क्या है। बात
तो एक ही है। दबाने का रस ही
अहंकार है। और जब तक दबाना है,
तब तक तुम समर्पण न कर सकोगे।
क्योंकि दबाना संकल्प है।