श्री यंत्र की महिमा एवं साधना

श्री यंत्र की महिमा एवं साधना  

व्यूस : 9405 | मई 2008
श्री यंत्र की महिमा एवं साधना पं. मनोहर शर्मा ‘पुलस्त्य स लोक व परलोक के कार्यों के लिए संसाधन जुटाने में मां लक्ष्मी की कृपा की नितांत आवश्यकता होती है। सभी प्रकार के व्यवहार लक्ष्मी से ही प्रेरित होते हैं। श्री सूक्त एवं लक्ष्मी सूक्त के पाठ से ऋण, रोग, दारिद्र्य, शोक, भय, अकाल मृत्यु, पाप आदि से रक्षा होती है। इससे यह सिद्ध होता है कि लक्ष्मी प्राप्ति जीवन का एक आवश्यक लक्ष्य है। लक्ष्मी की आठ सिद्धियां आठ दिशाओं में होती हैं। संसार हरि से प्रेम करता है और लक्ष्मी जी हरिप्रिया हैं। लक्ष्मी कभी स्थिर नहीं रहतीं। कबीर ने कहा भी है, कमला थिरु न रहीम कहि, यह जानत सब कोय। पुरुष पुरातन की वधू, क्यों न चंचला होय।। लक्ष्मी बनी रहे इसके लिए हम श्रीयंत्र की साधना व पूजा करते हैं। तंत्र के प्रसिद्ध ग्रंथ यामल में लिखा है, ”चक्रं त्रिपुर सुन्दर्यां ब्रह्माण्डाकारी भीश्वरि।“ अर्थात ईश्वरी त्रिपुर सुंदरी का आधार ब्रह्मांडाकार ही उत्पत्ति का विकास चक्र हुआ, जिसका हमारे ऋषियों ने समाज के हित के लिए सरलीकरण किया। सभी दैवीय एवं आसुरी शक्तियां मंत्रों के अधीन कर दीं। श्री सूक्त मां लक्ष्मी की प्रसन्नता की स्तुति है। लक्ष्मी का एक नाम श्री भी है। श्री अत्यंत प्राचीन है। वैदिक काल में शोभा, सुंदरता, सजावट के अर्थ में श्री शब्द का प्रयोग होता था। श्री एक बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द है। पुरुष के नाम के पूर्व श्री शब्द इसलिए लगाया जाता है कि वह श्री से, लक्ष्मी से संपन्न हो अन्यथा वह श्री विहीन होगा, लक्ष्मी विहीन होगा। यही वैदिक ‘श्री’ देवता था। उस काल में मूर्ति नहीं होती थी। वह केवल भावात्मक देवता था। धीरे-धीरे इसे मूर्ति का रूप दिया जाने लगा। मां से हम बिना डर के कुछ भी मांग सकते हैं। मां के हृदय में संतान के प्रति वात्सल्य होता है, करुणा होती है। वह भूल क्षमा करने वाली होती है। अतः ऋषियों ने उस ‘श्री’ देवता की, मां के रूप में आराधना की। श्री देवता को मां का रूप कैसे मिला ? ‘शतपथ’ में इस संबंध में एक रूपक है। प्रजापति तप कर रहे थे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उनके हृदय से श्री देवता नारी रूप लेकर उनके सामने प्रकट हुए। अर्थात् वैदिक काल से प्रजापति के काल तक आते-आते श्री देवता ने देवी का रूप धारण कर लिया। श्री देवता से श्री देवी का रूप धारण करने वाले इस देवता का आज हम लक्ष्मी रूप में पूजा, साधना व आराधना करते हैं। वैदिक ऋषियों ने भूतधात्री, सर्वसहा, आदि जननी, महालक्ष्मी, करुणामयी, आत्यंतिका प्रेम वाली, दुःख दारिद्र्य व दैन्य का नाश करने वाली, जीवन बनाने वाली, जीवन खिलाने वाली, जीवन को आकार देने वाली आदि शक्ति को लक्ष्मी अथवा श्री कहकर उनकी अपार महिमा गाई है। लक्ष्मी को केवल मां कहकर पुकारने से हम उनके बालक नहीं बन जाएंगे। बालक बनने के आदर्श श्री सूक्त में चित्रित हैं। ”गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमैका भवानि, विवादे विषादे प्रवासे प्रमादे। जले चा नले पर्वते शत्रुमध्ये, अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि। गतिस्त्वं“ अर्थात विवाद में, विषाद में, प्रमाद में, जल में, अग्नि में, पर्वत पर, शत्रु के बीच में, वन में, शरण में आने पर हे मां! सदा मेरी रक्षा करना, तू ही मेरी एकमात्र गति है। हमारे आस पास लक्ष्मी सदैव ही विद्यमान हैं किंतु हम अपनी भूल, तामझाम, असंयमित जीवनचर्या, रागद्वेष, प्रलोभन आदि दुर्गुणों के कारण उन्हें प्राप्त करने के बावजूद खो देते हैं। तंत्र-मंत्र, संस्कार, संस्कृति आदि भारत की अमूल्य धरोहर हैं। मंत्र से यदि विषधर भुजंग को वश में किया जा सकता है तो देवता, गंधर्व, यक्ष और अपरा शक्तियों को क्यों नहीं प्राप्त किया जा सकता है। इसका मुख्य कारण यही है कि हम उस वस्तु के धरातल व रास्ते से अनभिज्ञ हैं। प्राचीन काल में भी श्री की अनभिज्ञता संबंधी एक दृष्टांत आता है। महर्षि दुर्वासा की एक छोटी सी भूल ने श्री को शापित करने की धृष्टता कर डाली थी जिससे लक्ष्मी अर्थात श्री कुछ समय के लिए खो गई थीं। दुर्वासा प्रणीत सरल श्री मंत्र यंत्र साधना सर्वप्रथम ऐरावत हाथी-हथिनी का जोड़ा चित्र प्रतीक रूप में स्थापित करें। फिर लक्ष्मी के प्रिय पुष्प शांताक्रूज की मालाएं उनके सूंड में पहनाएं। शांताक्रूज पुष्प न मिलने पर लक्ष्मी को प्रिय किसी भी प्रकार के पुष्पों का प्रयोग कर सकते हंै। फिर महालक्ष्मी का श्री यंत्र बनाकर उसमें 27 नक्षत्रों, 12 राशियों, सूर्य, चंद्र, नृसिंह, वीर, क्षेत्रपाल, मणिभद्र, ‘‘कराला द्रंष्ट्र हूं हूं पाल’’ का आवाहन करें। फिर 105 बार ‘‘हूं हूं’’ मंत्र से चतुजपि योगिनी का आवाहन करें। इसके बाद ‘‘¬ एंे ह्रीं क्रीं श्रीं हसौः’’ चतुषाजि योगिनीभ्यो नमः मंत्र का जप करके रास्ते को देखें एवं यंत्र के तीन द्वारों की अर्गला खोलें जो निम्नानुसार हैं। स क्लीं ¬ ह स क ल ह्रीं स्वाहा, स ऐं ¬ ह स क ल क्लीं स्वाहा् स ¬ ल व क ल ह्रीं स्वाहा। फिर गोघृत में प्रत्येक मंत्र की 108 आहुतियां कमलगट्टे से दें। फिर श्री चक्र में प्रवेश निम्नलिखित मंत्र के जप से करें। ह्रीं क ए ई ब्रीं ह स क ल ह्रीं स क ल ह्रीं महालक्ष्मी का श्री यंत्र निर्माण चार कंठ पांच शिव युवती के मेल से नौ रेखाएं बनती हैं, जिसे मूल प्रकृति कहते हैं। इन रेखाओं को एक दूसरे से मिलाने पर 43 कोण बनते हैं। चार श्री कंठ, मध्य में चतुर्भुज वाले चार कोण, चैरस यंत्र वाला शक्ति मंत्र, पार्वती, माहेश्वरी, रुद्राणी, सती, उमा। उसके ऊपर प्रथम वलय कुंडलाकार बनाकर उस पर 9 दल निर्मित करें। उसमें भगवान शंकर की नौ शक्तियां अर्थात् शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि महागौरी और सिद्धिदात्री यह मूल नौ प्रकृतियां रखें। पुनः द्वितीय वलय कुंडलाकार बनाकर उस पर अष्टदल वाला कोण बनाएं। अनंग कुसुमा, अनंग मेखला, अनंग मंदना, अनंग मानाकुश, अनंग रेखा, अनंग वेगनी, अनंग क्रशा, अनंग भातिनि, आदि की स्थापना कर तीसरा वलय कुंडलाकर बनाकर 16 (षोडशदल) बनाएं। उसमें श्री लक्ष्मी, कमला, पùा, पùिनि, कमलालया, रमा, वृषाकयी, धान्या, पृथ्वी, यज्ञा, इंदिरा, ऊषा, माया, गिरा, राधा आदि 16 देवियों की स्थापना करें। अब रेखाकृत चार भृंगुर निर्मित करें। इस प्रकार 43 कोण वाले महालक्ष्मी के आसन वाले श्री यंत्र का निर्माण होता है। बिंदु शिवरूप है। देवी का प्रथम आसन 1, 4, 5, 9, 16, 43 दल का कोण बन जाता है। तीनों ‘क’ और दो ‘ह’ ये काय शैव भाग हैं। शेष अक्षर इ, ई, ल, स, ल शक्ति के भाग हैं। योनि ‘ह्रीं’ शुरू और अंत का ‘ह्रीं’ शक्ति वाचक हैं। अंतिम ‘ह्रीं’ शैव काम भाग हैं। शैव काम के चार चक्र दक्षिणवर्ती, शक्ति के पांच चक्र वामवर्ती, कुल नौ चक्र वामवर्ती - इस प्रकार शैव शक्ति सहित महालक्ष्मी श्री यंत्र का निर्माण करें। अब रक्त चंदन के अंगुष्ठ भाग मात्र दो हाथी, जो पुष्य नक्षत्र में निर्मित हों महालक्ष्मी रूपी श्री यंत्र के पास रखकर प्राण प्रतिष्ठा करें। प्राण प्रतिष्ठा का मंत्र निम्नानुसार है। ‘‘¬ अस्य लक्ष्मी चक्रस्य श्री भगवान् महादेव, ऋषि दुर्वासा छंदः, आद्याशक्तित्रिमूर्ति मध्ये, लक्ष्मी देवता, ह्रीं बीजं, श्रीं शक्ति, क्लीं कीलकः श्री कामकला प्राण प्रतिष्ठा जपे विनियोगः।’’ इस प्रकार लक्ष्मी श्री यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा करें। हस्तिचक्र द्वारा श्री यंत्र को प्रणाम् कर, हाथी-हथिनी की पूजा कर और लक्ष्मी चक्र में स्थित श्री ललिता देवी के प्रसन्नार्थ ‘‘बीजाक्षर मंत्रस्य वाशिनादिभ्यो वाग्देवाभ्य चतुर्विध पुरुषार्थ सिद्धि हेतु श्री ललिता प्रीतये जपे पाठे विनियोगः’’ मंत्र से विनियोग करें। फिर करन्यास करें- ‘‘ह्रीं एक वीराय नमः अंगुष्ठाभ्यां नमः, ‘क’ तर्जनीभ्यां नमः, ए ई ल मध्यमाभ्यां नमः, ह स क अनामिकाभ्यां नमः स क ल कनिष्ठिकाभ्यां नमः, स क ल ह्रीं करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः।’’ इस प्रकार अंगन्यास कर रात्रि में बीजाक्षरों का 11 माला जप दीपावली की निशा या नवरात्रि में अथवा अन्य किसी भी शुभ मुहूर्त में मंत्र जप में एक-एक अक्षर पर विराम देकर अबाध गति से पूर्ण करने से श्री लक्ष्मी पूर्ण प्रसन्न होती हैं। साधारण गृहस्थ इतना तो किसी श्री सूक्त मां लक्ष्मी की प्रसन्नता की स्तुति है। लक्ष्मी का एक नाम श्री भी है। श्री अत्यंत प्राचीन है। वैदिक काल में शोभा, सुंदरता, सजावट के अर्थ में श्री शब्द का प्रयोग होता था। श्री एक बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द है। पुरुष के नाम के पूर्व श्री शब्द इसलिए लगाया जाता है कि वह श्री से, लक्ष्मी से संपन्न हो अन्यथा वह श्री विहीन होगा, लक्ष्मी विहीन होगा। भी शुभ मुहुर्त में कर सकते हैं किंतु जिन साधकों को अपने रोम रोम में श्री को स्थापित करना हो, उन्हें चाहिए कि वे दीपावली की निशा या नवरात्रि की निशा में लगातार 41 दिनों तक साधना अवश्य ही संपन्न करें। ऐसे साधकों को चाहिए कि 41 दिनों तक प्रतिदिन 21 माला जप करने के पश्चात् बीजमंत्र की बिल्व पत्रों से 16 आहुतियों से हवन करें। इस प्रकार करने से श्री प्रसन्न होंगी। मां से हम बिना डर के कुछ भी मांग सकते हैं। मां के हृदय में संतान के प्रति वात्सल्य होता है, करुणा होती है। वह भूल क्षमा करने वाली होती है। अतः ऋषियों ने उस ‘श्री’ देवता की, मां के रूप में आराधना की। श्री देवता को मां का रूप कैसे मिला ? ‘शतपथ’ में इस संबंध में एक रूपक है। प्रजापति तप कर रहे थे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उनके हृदय से श्री देवता नारी रूप लेकर उनके सामने प्रकट हुए।



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