राहु-केतु का योगकारक फल

राहु-केतु का योगकारक फल  

व्यूस : 10407 | नवेम्बर 2013
आकाश में जिस स्थान पर चंद्रमा का रास्ता पृथ्वी के रास्ते को काटता है, उस बिंदु को राहु कहते हैं। उससे ठीक 180 Degree सामने स्थित बिंदु को केतु कहते हैं। राहुः सदा चाष्टमन्दिरस्थे रोगान्वितं पापरंत प्रगल्भम्। चैरं कृशं कापुरूषं धनाढ्यम् मायामतीतं पुरूषं करोति।। अर्थात ‘ऐसा व्यक्ति रोगी, निन्दित कर्म करने वाला, धनी, तथा मायावी (छलिया) होता है। राहु की विंशोत्तरी दशा 18 वर्ष की होती है। वह एक राशि में डेढ़ वर्ष गोचर करता है। 42वें वर्ष में राहु अपनी भाव स्थिति तथा बलानुसार विशेष प्रभावी होता है। केतु धनु में उच्च, सिंह में मूलत्रिकोण, मीन राशि में स्वक्षेत्री व मिथुन राशि में नीच होता है। इसके मित्र, सम व शत्रु ग्रह तथा भाव फल राहु की तरह ही हैं। अष्टमस्थ केतु भी प्रायः अनिष्टफल करता है, किंतु मेष, वृष, मिथुन, कन्या और वृश्चिक राशियों में से किसी एक में केतु अष्टम में हो तो धन लाभ देता है। भवेदष्टमे राहु पुच्छेऽर्थलाभः सदा कीट कन्या जगोयुग्म केतुः । केतु की विंशोत्तरी दशा मंगल ग्रह की तरह सात वर्ष की होती है। गोचर में यह एक राशि में डेढ़ वर्ष रहता है। 48वें वर्ष में अपनी स्थिति तथा बलानुसार केतु विशेष प्रभाव देता है। राहु-केतु के शुभाशुभ फल के बारे में लघुपाराशरी ग्रंथ में बताया गया है। यद्यद्भावगतौ वापि यद्यद्भावेश संयुतौ। तत्वत्फलानि प्रबलौ प्रदिशेतां तमो ग्रहौ। (संज्ञाध्याय, श्लोक 13) अर्थात, राहु व केतु जिस भाव में स्थित हों, अथवा जिस भावेश के साथ बैठे हों, उन्हीं से संबंधित विशेष फल देते हैं।’’ उपरोक्त सूत्र अनुसार ‘यदयद्भावगतो’ कहकर महर्षि पाराशर ने इनका केवल साहचर्य संबंध ही माना है। छाया ग्रह होने के कारण राहु व केतु में अपना स्वतंत्र फल देने की क्षमता नहीं होती। जिस भाव में बैठंेगे उसी भाव व भावेश का फल देते हैं। यह जिस राशि में होंगे उस राशि का स्वामी यदि बलवान हो तो यह भी बलवान माने जायेंगे। यदि उक्त राशीश निर्बल हो तो यह भी निर्बल माने जायेंगे। उदाहरणस्वरूप, यदि राहु लग्न में अकेला हो तो वह लग्न भाव का लग्नेश के बलानुसार फल देगा। यदि इनके साथ कोई ग्रह हो तो वह ग्रह जिस भाव का स्वामी है, उस भाव का भी फल देगा। इसी प्रकार राहु व केतु की अधिष्ठित राशि का स्वामी यदि पाराशर मत से किसी कुंडली में योगकारक है तो राहु-केतु भी योगकारक हो जायेंगे और यदि वह योगकारक नहीं है तो यह भी योगकारक नहीं रहेंगे। राहु व केतु यदि शुभ भाव में स्थित हो तो शुभ फल देंगे और अशुभ भाव में स्थित होने पर अशुभ फल देंगे। द्वितीय, द्वादश या केंद्र (4, 7, 10) भाव में राहु-केतु सम होंगे। त्रिकोण व लग्न में शुभ होंगे। अष्टम भाव में अति अशुभ फल देंगे। अतः राहु-केतु यदि किसी अन्य ग्रह के साथ हों तो यह देखना होगा कि वह ग्रह शुभाशुभ कैसे भाव का स्वामी है। जैसा फल साथी ग्रह का होगा वैसा ही फल राहु-केतु का होगा। उस भावेश के फल को प्रदान करने की शक्ति में राहु-केतु की भी शक्ति सम्मिलित होकर प्रभाव को बढ़ा देगी। ‘लघुपाराशरी’ में आगे कहा गया है: यदि केन्द्रेत्रिकोणे वा निवसेतां तमोग्रहौ। नाथेनान्यतरेणाऽवि संबंधाद्योग कारकौ। (योगाध्याय, श्लोक 8) अर्थात् ‘केन्द्रस्थ या त्रिकोणस्थ राहु व केतु का त्रिकोणेश व केन्द्रेश ग्रह के साथ संबंध होने से राहु-केतु की दशा-अंतर्दशा के समय ‘योग फल’ की प्राप्ति होती है।’’ जैसे कर्क लग्न में पंचम या दशम भाव में मंगल के साथ राहु या केतु स्थित हों तो श्रेष्ठ फल देंगे। इसी प्रकार लग्नेश के साथ राहु बैठे तो भी योगकारक फल होता है। अपनी अधिष्ठित राशि के स्वामी का फल ही राहु व केतु का होता है। राहु व केतु अपनी अधिष्ठित राशि के स्वामी के साथ संबंध करें तथा केंद्र या त्रिकोण में स्थित हों तो ‘योगकारक’ सदृश फल देंगे। साथ ही किसी भी त्रिकोण या केंद्र में बैठकर यदि अन्य त्रिकोणेश से संबंध करेंगे तब भी योगकारक होंगे। केंद्रगत होकर त्रिकोणेश के साथ हों तो श्रेष्ठ योगकारक, और त्रिकोण में केन्द्रेश के साथ हों तो कुछ कम योगकारक होंगे। यदि राहु व केतु केंद्र या त्रिकोण के अतिरिक्त स्थानों में बैठकर भी केंद्र या त्रिकोणेश से संबंध करें तब भी योगकारक होंगे। अतः राहु-केतु कारक ग्रहों के साथ होंगे तो कारक यदि मारक ग्रहों के साथ हों तो मारक हो जाते हैं। अष्टम में अष्टमेश या किसी अन्य पापी ग्रह के साथ बैठे राहु-केतु परम अशुभ (मृत्यु) कारक होते हैं। इस प्रकार भाव साहचर्य के आधार पर इन छाया ग्रहों के फलादेश का निर्णय किया जाता है। उपरोक्त विवेचन के निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि यदि राहु व केतु अकेले हों तो:- 1. केंद्र या त्रिकोण में स्थित होने पर निसर्ग पाप केंद्रेश की राशि में सम व त्रिकोणेश की राशि में शुभफल देंगे। 2. शुभ केन्द्रेश की राशि में सम फलदायक होंगे। 3. यदि केन्द्रेश व त्रिकोणेश ग्रह साथ ही 3, 6, 8 भावों का भी अधिपति हो तो राहु व केतु के फल मंे कुछ अशुभता भी आ जायेगी। 4. अष्टम में यह सदैव अशुभ फल देंगे। 2. यदि राहु-केतु के साथ कोई अन्य ग्रह भी हो तो:- 1. पापी केन्द्रेश व त्रिकोणेश (योगकारक ग्रह) के साथ सदा शुभकारी होंगे। 2. शुभ केन्द्रेश के साथ होकर यदि त्रिकोणेश से युक्त हों तो योगकारक होंगे। 3. 3, 6, 11 भावेशों के साथ सामान्य शुभ होंगे। 4. अष्टमेश के साथ सदा पापी रहेंगे। भावेश के साथ-साथ भाव साहचर्य का फल भी इस स्थिति में इनके साथ मिश्रित रूप में रहेगा। दशा अंतर्दशा फल 1. यदि राहु व केतु त्रिकोण में हो और किसी से संबंध न करते हों तो: 1. केंद्रेश की महादशा में त्रिकोणस्थ राहु या केतु की अंतर्दशा शुभ होती है। योगकारक फल की प्राप्ति होती है। 2. त्रिकोणस्थ राहु या केतु की महादशा में जब केन्द्रेश की अंतर्दशा आती है तब भी योगकारक फल मिलता है। 3. इसी प्रकार केंद्र में बैठे हुए राहु या केतु की अपनी महादशा में तथा त्रिकोणेश की अंतर्दशा में शुभ फल मिलता है। 4. इसी प्रकार त्रिकोणेश की महादशा में केंद्र में बैठे हुए राहु व केतु की अपनी अंतर्दशा में शुभ फल मिलता है। 2. यदि राहु व केतु शुभ ग्रह के साथ बैठे हों, या केंद्र अथवा त्रिकोण में बैठे हों, और किसी पापी या अशुभ ग्रह से संबंध न करते हों, तो ऐसे राहु व केतु की महादशा में जब योगकारक ग्रह की अंतर्दशा आती है तो बहुत उत्तम फल (योगकारक ग्रह का फल) मिलता है। 3. यदि राहु व केतु दुःस्थान (अष्टम, षष्ठ, द्वादश) में स्थित हो, या अष्टमेश आदि पापी ग्रह के साथ हों, या अशुभ ग्रह के साथ हों, तो इनकी दशा-अंतर्दशा अच्छी नहीं होती। यदि महादशा राहु या केतु की हो तो साधारण अनिष्ट प्रभाव होगा। इनके अंतर्गत अन्य योगकारक, शुभ ग्रह, त्रिकोणेश आदि की अंतर्दशा का समय अच्छा रहेगा। अतः राहु-केतु अशुभ भावों में बैठकर असंबंधी होने पर अशुभ फल देंगे तथा संबंधी होने पर तो अवश्य ही अनिष्ट करेंगे।



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