आखिर क्या है श्राद्ध एवं पितृ दोष ?

आखिर क्या है श्राद्ध एवं पितृ दोष ?  

व्यूस : 11066 | सितम्बर 2013
शास्त्रों में मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण कहे गए हैं। देव ऋण, ऋषि ऋण व पितृ ऋण। इसमें से पितृ ऋण के निवारण के लिए पितृ यज्ञ का वर्णन किया गया है। पितृ यज्ञ का दूसरा नाम ही श्राद्ध कर्म है। श्रद्धायां इदम् श्राद्ध। अर्थात पितरों के उद्देश्य से जो कर्म श्रद्धापूर्वक किया जाए, वही श्राद्ध है। महर्षि बृहस्पति के अनुसार जिस कर्म विशेष में अच्छी प्रकार से पकाए हुए उत्तम व्यंजन को दुग्ध, घृत और शहद के साथ श्रद्धापूर्वक पितरों के उद्देश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाए वही श्राद्ध है। भारतीय संस्कृति में माता पिता को देवता तुल्य माना जाता है। इसलिए शास्त्र वचन है कि पितरों के प्रसन्न होने पर सारे देव प्रसन्न हो जाते हैं। ब्रह्मपुराण के अनुसार श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाला मनुष्य अपने पितरों के अलावा ब्रह्म, रुद्र, अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, वायु, विश्वेदेव एवं मनुष्यगण को भी प्रसन्न कर देता है। मृत्यु के पश्चात हमारा स्थूल शरीर तो यहीं रह जाता है परन्तु सूक्ष्म शरीर यानि आत्मा मनुष्य के शुभाशुभ कर्मों के अनुसार किसी लोक विशेष को जाती है। शुभ कर्मों से युक्त आत्मा अपने प्रकाश के कारण ब्रह्मलोक, विष्णुलोक एवं स्वर्गलोक को जाती है परन्तु पापकर्म युक्त आत्मा पितृलोक की ओर जाती है। इस यात्रा में उन्हें भी शक्ति की आवश्यकता होती है जिनकी पूर्ति हम पिंड दान द्वारा करते हैं। कैसे जानें पितृऋण एवं पितृदोष? संतान की उत्पत्ति में गुणसूत्र का अत्यधिक महत्व है। इन्हीं गुणसूत्रों के अलग-अलग संयोग से पुत्र एवं पुत्री की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में पुत्र को श्राद्ध कर्म का अधिकारी माना गया है। पिता के शुक्राणु से जीवात्मा माता के गर्भ में प्रवेश करती है। उस जीवांश में 84 अंश होते हैं जिसमें 28 अंश पुरुष अर्थात पिता के होते हैं। ये 28 अंश पिता के स्वयं के उपार्जित होते हैं एवं शेष अंश पूर्व पुरुषों के होते हैं। उसमें 21 अंश पिता, 15 अंश पितामह के, 10 अंश प्रपितामह के, 6 अंश चतुर्थ पुरुष, 3 अंश पंचम पुरुष व 1 अंश षष्ठ पुरुष का होता है। इस प्रकार सात पीढ़ियों तक के सभी पूर्वजों के रक्त का अंश हमारे शरीर में विद्यमान होने से हम अपने पूर्वजों के ऋणी हैं अर्थात हम पर पितृ ऋण रहता है। इसलिए उनको पिंडदान करना चाहिए। पितृदोष होने पर परिवारजनों को विचित्र प्रकार की घटनाओं का सामना करना पड़ता है। ऐसे परिवार में रोग का प्रकोप बना रहता है। किसी एक के स्वस्थ होने पर दूसरा बीमार हो जाता है। कई बार रोग का पता ही नहीं चल पाता। रोगी को थोड़ी राहत महसूस होती है फिर रोग का पुनः प्रकोप होता रहता है। कई बार इनके कार्य व्यवसाय में भी अवरोध की स्थिति बनकर घाटा उठाना पड़ता है। इनके परिवार में भी मतभेद की स्थिति बनती है। आपस में कलह के कारण जीवन तनावपूर्ण हो जाता है। इन सभी प्रकार की अप्रत्याशित घटनाओं के पीछे पितृदोष ही मुख्य रूप से होता है। इसकी जानकारी जन्मपत्रिका एवं प्रश्न कुण्डली के द्वारा जान सकते हैं। बृहस्पति को मुख्य रूप से इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है। यदि जन्मांग में बृहस्पति निर्बल, अशुभ, वक्री, अस्त होकर स्थित हो तो उस जातक के पितर उससे अप्रसन्न रहते हैं। ऐसे जातक को किस पितर के प्रकोप के कारण इस प्रकार की परेशानियां आ रही हैं इसके लिए प्रश्नकुण्डली के अष्टक एवं द्वादश भाव में स्थित ग्रह से पता लगाया जा सकता है। प्रत्येक ग्रह को किसी न किसी रिश्तेदार का प्रतिनिधि माना जाता है। इसमें सूर्य पिता का कारक, चंद्र को माता, मंगल को छोटा भाई, बुध को बहन, बुआ, मौसी, बृहस्पति को बड़े भाई एवं शुक्र को पत्नी का कारक माना जाता है। राहु एवं केतु को प्रेत योनि में गए पितरों का प्रतिनिधि माना जाता है। श्राद्ध पक्ष में शांति का वैज्ञानिक एवं शास्त्रीय महत्व सिद्धान्त शिरामणि के अनुसार पितृलोक चन्द्रमा के ऊपर स्थित है। जब सूर्य कन्या राशि में स्थित होता है तब चन्द्र पृथ्वी के सबसे ज्यादा समीप स्थित होता है। इसलिए इस समय हमारे पितर जो वायवीय शरीर धारण किए हुए हैं पृथ्वी लोक पर आकर तर्पण व पिंडदान की आशा करते हैं। यह समय आश्विन मास का कृष्ण पक्ष होता है। इस समय शीत ऋतु का प्रारम्भ होता है। इसलिए चन्द्रमा पर रहने वाले पितरों के लिए यह समय अनुकूल रहता है। पृथ्वी लोक का एक मास चन्द्र का एक अहोरात्र होता है व अष्टमी को इस दिन का उदय होता है। इसलिए चन्द्र के उध्र्व भाग पर निवास करने वाले पितरों के लिए आश्विन कृष्ण पक्ष उत्तम रहता है। हिन्दु धर्म शास्त्रों के अनुसार हमारा शरीर 27 प्रकार के तत्वों से बना होता है। इसमें से दस तत्व स्थूल रूप में पंच महाभूत, अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल एवं आकाश एवं पांच कर्मेन्द्रियां हैं। शेष सत्रह तत्व सूक्ष्म शरीर का निर्माण करती है। मृत्यु होने पर स्थूल शरीर का अस्तित्व तो समाप्त हो जाता है परन्तु सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व इस संसार में बना रहता है। मृत्यु के पश्चात दक्षगात्र एवं षोडशीर सपिण्डन तक मृत व्यक्ति प्रेत संज्ञा में रहता है। इसके पश्चात वह पितरों में सम्मिलित हो जाता है। यह सूक्ष्म शरीर आशक्ति के कारण अपने परिवार के निकट ही भटकता रहता है। जीवन में प्रत्येक व्यक्ति की कुछ इच्छाएं अधूरी रह जाती हैं। इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह भटकता रहता है। विशेष रूप से श्राद्ध पक्ष में पितृलोक से वायवीय रूप में पृथ्वी पर श्राद्ध स्थल पर उपस्थित होते हैं एवं ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन ग्रहण करते हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार जिस परिवार में श्राद्ध कर्म नहीं होता वहां दुःख, क्लेश एवं रोगों का प्रकोप होता है। इन्हें कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे नास्तिक पुरुषों के पितर प्यास से व्याकुल होकर देह से निकलने वाले अपवित्र जल से प्यास बुझाते हैं। इन नास्तिक लोगां के बारे में आदित्य पुराण में तो कहा गया है कि इनके अतृप्त पितर इनका ही रक्त पीने को विवश होते हैं। श्राद्ध काल के पश्चात पितर अपने-अपने लोक को चले जाते हैं। श्राद्ध में अमावस्या का महत्व अमावस्या का अपना अलग ही महत्व है। इसे सर्व पितृ अमावस्या भी कहते हैं। जिस तिथि विशेष को किसी की मृत्यु होती है उसके परिवारीजन उस तिथि विशेष को श्राद्ध करते हैं। लेकिन मृतक की तिथि का पता नहीं होने पर अमावस्या के दिन उसका श्राद्ध किया जा सकता है। इसका मुख्य कारण यह है कि सूर्य की सहस्त्र किरणों में से अभा नामक किरण मुख्य है जिसके तेज से सूर्य समस्त लोकों को प्रकाशित करता है। इसी अभा में तिथि विशेष को चन्द्र निवास कहते हैं। इसलिए अमावस्या का अपना विशेष महत्व है। आखिर कैसे पहुंचता है पितरों तक श्राद्ध का भोजन ? श्राद्ध काल में परिवारजनों द्वारा दिए जाने वाले हव्य-कव्य पदार्थ आखिर कैसे प्राप्त होते हैं यह एक विचारणीय प्रश्न है। शास्त्रों के अनुसार मनुष्य अपने कर्म के अनुसार विभिन्न प्रकार के फलों का भोग करता है। इन्हीं कर्मों के अनुसार उसे मृत्यु के पश्चात कोई योनि प्राप्त होती है। कर्मफलों के अनुसार ही उसे स्वर्ग, नरक एवं पुनर्जन्म की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में वर्णित है कि श्राद्धकर्ता के तीन पीढ़ियों तक के पितरों को शीत, तपन, भूख एवं प्यास का अनुभव होता है। पर स्वयं कर्म न कर सकने के कारण वे अपनी भूख-प्यास मिटा सकने मं असमर्थ होते हैं। इसी कारण सृष्टि के आदि से ही श्राद्ध का विधान प्रचलन में है। श्राद्ध काल में यमराज प्रेत एवं पितरों को वायु रूप में पृथ्वी लोक पर जाने की अनुमति देते हैं ताकि वे श्राद्ध भाग ग्रहण कर सकें। देवलोक व पितर लोक के पितर तो श्राद्ध काल में आमंत्रित ब्राह्मण के शरीर में स्थित होकर अपना भाग ग्रहण कर लेते हैं परन्तु जो पितर किसी अन्य योनि में जन्म ले चुके हैं वे अपना भाग दिव्य पितर से ग्रहण करते हैं। ये दिव्य पितर उन्हें अपनी योनि के अनुसार भोग प्राप्ति कराकर तृप्त करते हैं। श्राद्ध में पितर के नाम, गोत्र एवं मंत्र का उच्चारण करने से श्राद्ध भाग संबंधित पितर अपनी योनि के अनुसार प्राप्त हो जाता है। अपने शुभ कर्मों के अनुसार जो पितर देव योनि को प्राप्त करते हैं उन्हें अमृत एवं गंध रूप मंे प्राप्त होता है। श्राद्ध मंे जो अन्न पृथ्वी पर गिरता है उससे पिशाच योनि में स्थित पितर तृप्त होते हैं। इन्हें रुधिर रूप में भी भोजन प्राप्त होता है। स्नान करने से भीगने वाले वस्त्रों से जो जल धरती पर गिरता है उससे वृक्ष योनि में गए पितर तृप्त होते हैं। गन्धर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में, यक्ष योनि प्राप्त होने पर पेय रूप में एवं दानव योनि में गए पितरों को मांस के रूप में भोजन प्राप्त होता है। इन्हीं पितरों के आशीर्वाद से श्राद्ध का भाग ग्रहण कर श्राद्ध काल समाप्त होने पर पितर अपने लोक को वापस चले जाते हैं। इन्हीं पितरों के आशीर्वाद से श्राद्धकर्ता को सुख, सम्पत्ति, यश एवं राज्य की प्राप्ति भी होती है परन्तु श्राद्ध नहीं करने वाले मनुष्यों के पितर अतृप्त होकर दीर्घ श्वास छोड़ते हुए श्राद्ध काल के पश्चात शाप देकर अपने लोक को लौट जाते हैं। इसी कारण इन्हें कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। किस तिथि पर किसका श्राद्ध करें? भारतीय संस्कृति के अनुसार पितृपक्ष में तर्पण व श्राद्ध करने से पितर आशीर्वाद प्रदान करते हैं जिससे हमारे घर में सुख-शांति एवं समृद्धि बनी रहती है। हिन्दू पंचांग के अनुसार वर्ष में जिस तिथि को किसी पितर की मृत्यु हुई, पितृ पक्ष में उसी तिथि को उस पितर के निमित्त श्राद्ध सम्पन्न करते हैं। कई बार किसी पितर की मृत्यु तिथि याद नहीं रहती। उस पितर के लिए भी विशेष तिथि बताई गई है, उस विशेष तिथि में उस पितर का श्राद्ध करने से उसकी आत्मा को शांति प्राप्त होती है। ये प्रमुख तिथियां इस प्रकार हैं- अश्विन कृष्ण प्रतिपदा- यह तिथि नाना-नानी के श्राद्ध के लिए उत्तम मानी गई है। अश्विन कृष्ण पंचमी- इस तिथि में परिवार के उन पितरों का श्राद्ध करना चाहिए जिनकी अविवाहित अवस्था में ही मृत्यु हुई हो। आश्विन कृष्ण नवमी- यह तिथि माता एवं परिवार की अन्य महिलाओं के श्राद्ध के लिए उत्तम मानी गई है। एकादशी व द्वादशी- अश्विनी कृष्ण एकादशी व द्वादशी को उन पितरों का श्राद्ध किया जाता है जिन्होंने संन्यास ले लिया हो। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी- इस तिथि को उन पितरों का श्राद्ध किया जाता है जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो। आश्विन कृष्ण अमावस्या- इस तिथि को सर्व पितृ अमावस्या भी कहते हैं। इस दिन सभी पितरों का श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध में क्यों कराते हैं कौओं को भोजन ? श्राद्ध पक्ष में पितरों को प्रसन्न करने के लिए श्रद्धा से पकवान बनाकर अपने पितरों को भोग अर्पित करते हैं। इस समय कौओं को बुलाकर भी प्राचीन समय से ही श्राद्ध का भोजन कराते आ रहे हैं। भारतीय संस्कृति की मान्यता है कि हमारे पितर वायवीय रूप में उपस्थित होकर श्राद्ध भोजन से तृप्त होकर हमें आशीर्वाद प्रदान करते हैं। हमारे धर्मशास्त्रों ने कौए को देवपुत्र माना है। गया श्राद्ध को सर्वश्रेष्ठ क्यों माना जाता है ? पितृ पक्ष में गया में श्राद्ध करने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है। यहां श्राद्ध करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ऐसी मान्यता है। इस मान्यता के पीछे भी धार्मिक कारण हैं। हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार प्रचीन काल में गयासुर नाम का शक्तिशाली असुर भगवान विष्णु का परम भक्त था। उसकी तपस्या से सभी देवगण चिंतित होकर भगवान विष्णु के पास गए। भगवान विष्णु सभी देवगणों को लेकर गयासुर के पास उसकी तपस्या भंग करने के लिए गए एवं भगवान ने प्रसन्न होकर गयासुर से वरदान मांगने के लिए कहा। इस पर गयासुर ने स्वयं को देवी देवताओं से भी अधिक पवित्र होने का वरदान मांगा। भगवान ने तथास्तु कह दिया। इससे ऐसी स्थिति हो गई कि घोर पापी भी गयासुर के दर्शन व स्पर्श से स्वर्ग लोक जाने लगे। इस पर धर्मराज चिंतित हुए। उनकी इस दशा को देखते हुए देवताओं ने छलपूर्वक एक योजना बनाई जिसमें यज्ञ के नाम पर गयासुर से संपूर्ण शरीर मांग लिया। गयासुर इस प्रस्ताव को स्वीकार कर उत्तर की तरफ पांव एवं दक्षिण की ओर मुख कर लेट गया। उसका शरीर पांच कोस में फैला हुआ था इसलिए उस क्षेत्र का नाम गया पड़ गया। गयासुर के पुण्य प्रभाव के कारण वह तीर्थ क्षेत्र बन गया। वहां पर पिण्डदान करने से पितरों की आत्मा को शांति एवं स्वर्ग प्राप्ति की मान्यता के कारण ही गया श्राद्ध को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। यहां पर विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे अक्षय वट, नागकुण्ड, पाण्डुशिला, नौकुट, ब्रह्मयोनि, वैतरणी, मंगलागौरी, रामकुण्ड, सीताकुण्ड, रामशिला, प्रेतशिला आदि स्थानों पर पिंडदान करना श्रेष्ठ माना जाता है। कैसे करें श्राद्ध ? भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के सोलह दिन को श्राद्ध काल अथवा पितृ पक्ष कहा जाता है। इस समय पितरों की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध कर्म करने का विधान प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। श्राद्ध काल में पितरों को तर्पण एवं पिंडदान करने से वे प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं जिससे हमारे घर में सुख-शांति एवं समृद्धि बनी रहती है। श्राद्ध काल में बिना दक्षिणा के श्राद्ध व्यर्थ माना जाता है। फिर भी सामथ्र्य नहीं होने पर काले तिल व जल अर्पित करने से भी पितर तृप्त एवं प्रसन्न होकर आशीर्वाद प्रदान करते हैं। श्राद्ध काल में पिंडदान व नारायण बलि भी अपनी सामथ्र्य के अनुसार लोग करते हैं। श्राद्ध काल में इन मंत्रों का जाप करना पितृदोष से शांति करता है। इन्हें श्राद्ध काल में प्रतिदिन 108 बार जप करना चाहिए- मंत्र- ऊँ सर्व पितृ पंर प्रसन्नों भव ऊँ।। ऊँ ह्में क्लीं एं सर्व पितृभ्यो स्वात्म सिद्धये ऊँ फट्।। श्राद्ध में किन बातों का रखें ध्यान पितरों की आत्मा की शांति हेतु श्राद्ध कर्म का विशेष महत्व है। श्राद्ध कर्म में आपको निम्न बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए जिससे पितरजनों की आत्मा को शांति प्रदान हो एवं आपको शुभफलों की प्राप्ति हो सके। 1- श्राद्ध के दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। श्राद्धकर्ता को तन एवं मन दोनों से पवित्र रहना चाहिए। 2- श्राद्ध में मामा, भांजा, गुरु, ससुर, नाना, जमाता, दौहित्र, वधू, ऋत्विज्ञ एवं यज्ञकर्ता आदि को भोजन कराना शुभ रहता है। 3- पितरों को सोने, चांदी एवं तांबे के बर्तन अत्यंत प्रिय हैं। इसलिए जहां तक संभव हो इनके बर्तनों में भोजन कराएं अन्यथा दोना-पत्तल में भोजन कराएं लोहे एवं लोहे के अंश वाले बर्तन में भोजन न कराएं। 4- श्राद्धपिंडों को गौ, ब्राह्मण या बकरी को खिलाना चाहिए। 5- श्राद्ध कर्म में गेहूं, मंूग, जौ, धान, आंवला, चिरौंजी, बेर, मटर, तिल, आम, बेल, सरसों का तेल आदि का प्रयोग करना शुभ रहता है। 6- श्राद्धकर्ता को पान सेवन, तेल मालिश, पराये अन्न का सेवन नहीं कराना चाहिए। 7- श्राद्ध में श्रीखंड, चंदन, खस, कर्पूर का प्रयोग करना चाहिए। 8- श्राद्ध में कमल, मालती, जूही, चम्पा, तुलसी का प्रयोग उत्तम रहता है। जबकि बेलपत्र, कदम्ब, मौलसिरी आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। 9- श्राद्ध में भोजन के समय वार्तालाप नहीं करना चाहिए।



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