वसन्त पंचमी एवं सरस्वती पूजा

वसन्त पंचमी एवं सरस्वती पूजा  

व्यूस : 7157 | दिसम्बर 2013
यह पर्वोत्सव माघ मास शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि को धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व ऋतुराज वसंत की अगुवानी की सूचना देता है। इस दिन से ही होरी तथा धमार गीत प्रारंभ किए जाते हैं। गेहूं तथा जौ की स्वर्णिम बालियां भगवान को अर्पित की जाती हैं। नर-नारी-बालक बालिकायें सभी वसंती व पीत वस्त्र धारण करते हैं। इस तिथि को श्री पंचमी व श्री सरस्वती जयंती के नाम से भी जाना जाता है। भगवान् विष्णु, माता लक्ष्मी व मां सरस्वती के व्रत पूजन से अभीष्ट कामनायें सिद्ध होकर स्थिर लक्ष्मी व विद्या बुद्धि की प्राप्ति होती है। वसंत पंचमी के आगमन से शरीर में स्फूर्ति व चेतना शक्ति जागृत होती है। बौराए आम्र वृक्षों पर मधुप (भौरे) गुंजार तथा कोयल-कूक मुखरित होने लगती है। गुलाब, मालती आदि में फूल खिल जाते हैं। मंद-सुगंध-शीतल पवन बहने लगती है। इस ऋतु के प्रमुख देवता काम तथा रति हैं अतः वसंत ऋतु कामोद्दीपक होता है। चरक संहिता का कथन है कि इस ऋतु में स्त्रियों तथा वनों का सेवन करना चाहिए। काम तथा रति की विशेष पूजा करनी चाहिए। वेद में कहा गया है कि ‘वसंते ब्राह्मणमुपनयीत’ वेद अध्ययन का भी यही समय था। बालकों को इसी दिन विद्यालय में प्रवेश दिलाना चाहिए। केशर से कांसे की थाली में ‘ऊँ ऐं सरस्वत्यै नमः’ मंत्र को नौ बार लिखकर थाली में गंगाजल डालकर जब लिखित मंत्र पूर्णतया गंगाजल में घुल जाय तो उस जल को मंद बुद्धि बालक को पिला देने से उसकी बुद्धि प्रखर होती है। माघ शुक्ल पूर्वविद्धा पंचमी को उत्तम वेदी पर नवीन पीत वस्त्र बिछाकर अक्षतों का अष्टदल कमल बनायें। उसके अग्रभाग में गणेश जी और पृष्ठ भाग में ‘वसंत’ जौ, गेहूं की बाल का पुंज (जो जलपूर्ण कलश में डंठल सहित रखकर बनाया जाता है) स्थापित करके सर्वप्रथम गणेशजी का पूजन करें, पुनः उक्त पुंज में रति और कामदेव का पूजन करें। उन पर अबीर आदि के पुष्पोपम छींटे लगाकर वसंत सदृश बनाएं। तत्पश्चात् ‘शुभा रतिः प्रकर्तव्या वसन्तोज्ज्वल भूषणा। नृत्यमाना शुभा देवी समस्ताभरणैर्युता।। वीणावादनशीला च मदकर्पूरचर्चिता’ से ‘रति’ का और कामदेवस्तु कर्तव्यो रूपेणाप्रतिमों भुवि। अष्टबाहुः स कर्तव्यः शंखपद्म विभूषणः ।। चापबाणकरश्चैव मदादंचितलोचनः। रतिः प्रीतिस्तथा शक्तिर्मदशक्तिस्त - थोज्ज्वला।। चतस्त्रस्तस्य कर्तव्याः पत्न्यो रूपमनोहराः। चत्वारश्च करास्तस्य कार्या भार्यास्तनोपगाः।। केतुश्च मकरः कार्यः पंचबाण मुखो महान्।’ से कामदेव का ध्यान करके विविध प्रकार के फल, पुष्प और पत्रादि समर्पण करंे तो गृहस्थ जीवन सुखमय होकर प्रत्येक कार्य में उत्साह प्राप्त होता है। वसंत ऋतु रसों की खान है और इस ऋतु में वह दिव्य रस उत्पन्न होता है जो जड़-चेतन को उन्मत्त करता है। इसकी कथा इस प्रकार है- भगवान् विष्णु की आज्ञा से प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि रचना की। स्वयं के सृष्टि रचना कौशल को जब इस संसार में ब्रह्माजी ने नयन भरके देखा तो चहुं ओर सुनसान निर्जनता ही दिखायी दी। उदासी से संपूर्ण वातावरण मूक सा हो गया था जैसे किसी के वाणी ही न हो। इस दृश्य को देखकर ब्रह्माजी ने उदासी तथा सूनेपन को दूर करने हेतु अपने कमंडल से जल छिड़का। उन जलकणों के पड़ते ही वृक्षों से एक शक्ति उत्पन्न हुई जो दोनों हाथों से वीणा बजा रही थी तथा दो हाथों में क्रमशः पुस्तक तथा माला धारण किए थी। ब्रह्माजी ने उस देवी से वीणा बजाकर संसार की उदासी, निर्जनता, मूकता को दूर करने को कहा। तब उस देवी ने वीणा के मधुर-मधुर नाद (ध्वनि) से सब जीवों को वाणी प्रदान की, इसीलिए उस अचिन्त्य रूप लावण्य की देवी को सरस्वती कहा गया। यह देवी विद्या बुद्धि को देने वाली है। अतः इस दिन- ध्यान: या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृत्ता। या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेत पद्मासना।। या ब्रह्मच्युतशंकराप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता। सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाडय्यापहा।। तथा ‘ऊँ वीणा पुस्तक धारिण्यै श्री सरस्वत्यै नमः’ इस नाम मंत्र से गंधादि उपचारों द्वारा षोडशोपचार पूजन करें। संसार में माता सरस्वती का स्वरूप हंसवाहिनी-वीणा वादिनी के रूप में है जहां ये विद्या, कला, संगीत और साहित्य की अधिष्ठात्री महादेवी हैं। वहीं अष्टमुखी महासरस्वती के रूप में संपूर्ण सृष्टि का आधार और निराकार ब्रह्म का साकार रूप भी आप ही हैं। आद्यशक्ति माता ने भगवती दुर्गा का रूप धारण करने से पहले ज्ञान, कला, साहित्य और संगीत मां आधिष्ठात्री देवी सरस्वती का ही रूप धारण किया था। दुर्गा सप्तशती के अनुसार दूसरे मनु के राज्यकाल में एक बार सुरथ नामक राजा और समाधि नामक वैश्य महाऋषि मेधा के आश्रम में गये। राजा का राज्य छिन गया था और वैश्य को स्त्री, पुत्रों ने घर से निकाल दिया था। उनके दुखों का कारण और निवारण के लिए वे महाऋषि के पास आये थे। महाऋषि ने उर दिया कि बड़े-बड़े ज्ञानी इस मोह जाल में फंस जाते हैं। भगवान विष्णु की शक्ति योग निद्रा व्यक्तियों को मोह में जकड़ती है। भगवती भवानी जिस पर कृपा करती है वे इस मोह से बच जाते हैं और अंत में मोक्ष को प्राप्त होते हैं। भगवान विष्णु भी जब प्रलय काल के समय योग निद्रा के वशीभूत होकर निष्क्रिय हो जाते हैं तब भगवती ही उन्हें जगाकर देवताओं की रक्षा के लिए प्रेरित करती है। महर्षि मेधा ने कहा- प्राचीन समय में शुंभ और निशुंभ नामक दो राक्षस भाइयों ने देवताओं से स्वर्ग और देवराज इंद्र से उनका आसन तक छीन लिया, देवताओं से सभी अधिकार छीनने के बाद देवता श्रीहीन होकर भूमंडल पर भटकने लगे। सभी देवी-देवता जानते थे कि उन्हें इन राक्षसों से केवल योगमाया ही बचा सकती है। सभी देवी-देवता हिमालय पर्वत पर जाकर तरह-तरह से माता की स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर माता पार्वती जी ने दर्शन दिये और उन्होंने देवताओं की पुकार पर अपने शरीर कोष से भगवती अम्बा का प्रादुर्भाव किया। पार्वती मां के शरीर कोष से प्रकट होने के कारण उनका एक नाम कौशिकी है तो परमतेजोमय सारस्वत रूप होने के कारण एक और दूसरा नाम महासरस्वती भी है। भगवती अंबिका सोलह वर्षीय सरस्वती जी का रूप धारण करके एक पर्वत शिखर पर तपस्या करने बैठ गयीं। शंभ निशुंभ के दूतों ने आकर देखा और माता के रूप की प्रशंसा उन दैत्य राजाओं से की। शंभ निशंभ ने पहले दूतों को और फिर सारी सेना को देवी को पकड़ने के लिए भेजा, सेना के मारे जाने पर शंुभ निशंभ स्वयं आये और देवी द्वारा मारे गये। दुर्गा सप्तशती में इसका विस्तार पूर्वक वर्णन है। परंतु संक्षेप में केवल इतना ही समझ लें कि माता महासरस्वती ही दुर्गा भी हैं और महाकाली भी तथा निराकार रूप में भगवती योग माया भी आप ही हैं। मार्कंडेय पुराण में वर्णित दुर्गा-चरित में माता दुर्गा के एक रूप में माता सरस्वती हैं इसलिए सरस्वती के बिना दुर्गा पूजा सम्पन्न नहीं होती। शास्त्रों में ऐसा भी वर्णित मिलता है कि मातेश्वरी सरस्वती जी के जगत् पिता ब्रह्माजी से तीन संबंध है। ये तीनों संबंध न केवल पूरी तरह अलग-अलग हैं बल्कि परस्पर विरोधी भी हैं। सभी देवों की उत् होने के कारण ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तथा सभी देवताओं और चराचर जीव जगत की माता हैं। वीणा वादिनी और हंस वाहिनी रूप में ब्रह्मा जी की पुत्री हैं। इसके साथ ही शक्तिरूप में आप ब्रह्मा जी की अद्र्धांगिनी भी हैं। यही कारण है कि शास्त्रों में कहीं ब्रह्मा जी की माता, कहीं पुत्री और कहीं भार्या कहा गया है। शास्त्रों में यह भी वर्णन मिलता है कि सृष्टि के प्रारंभ में भगवान विष्णु की तीन पत्नियां महालक्ष्मी, सरस्वतीजी और गंगाजी थीं। सौतनं होने के कारण आपस में झगड़ा होता था। एक बार इसी झगड़े ने विशाल रूप लिया और एक-दूसरे को श्राप दे दिया। श्राप के कारण सरस्वती और गंगा नदी के रूप में और महालक्ष्मीजी तुलसी के रूप में इस देव भूमि भारत में अवतरित हुईं। बाद में सागर-मंथन के समय सागर से प्रकट हुई लक्ष्मीजी को भगवान विष्ण् ने भार्या के रूप में ग्रहण किया। तीर्थ राज प्रयाग से लुप्त होकर सरस्वती के बैकुण्ठ पहंचने पर श्री हरि ने जगद्पिता की पत्नी बनने हेतु ब्रह्मा जी के निकट भेज दिया। गंगा जी तो पहले ही भगवान शिव की जटाओं में हैं। ऐसी कथायें शास्त्रों में प्रचलित हैं। माता सरस्वती के अलग-अलग स्वरूप हैं। सभी मातृ शक्तियां महासरस्वती का ही विभिन्न स्वरूप हैं। यही कारण है कि बंगाल और पूर्वी भारत के अन्य राज्यों में दुर्गा के समान ही सरस्वती जी की भी सामूहिक पुजाओं के भी भव्य आयोजन होते हैं। वहां काली के साथ ही सरस्वती की भी पूजा की जाती है। माता सरस्वती के अधिकांश मंदिर हमारे देश में नहीं हैं। शायद यही कारण है कि माता सरस्वती के सारे भक्त घर में किसी पवित्र स्थान पर मातेश्वरी की मूर्ति अथवा चित्र लगाकर पूजा-आराधना करते हैं। वैसे तो दुर्गा पूजा के साथ-साथ सरस्वती पूजन तो होता ही है। लेकिन माघ महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को सरस्वती पूजन का विधान है। भगवान विष्णु तथा सरस्वती जी की मूर्ति या तस्वीर को स्थापित करके धूप, दीप, नैवेद्य व गुलाल के साथ पूजा करनी चाहिए। मीठे-चावलों का भोग लगाने की परंपरा है। सबसे पहले पंचोपचार पूजा में मातेश्वरी सरस्वती जी तथा भगवान विष्णु का चित्र लगाकर, समीप ही चंद पानी की बूंदें भूमि पर गिराते हैं या धातु की मूर्ति लगाकर जल से स्नान करवा के वस्त्र आदि अर्पण करते हैं। फिर चंदन और सिंदूर तिलक लगाते हैं और नैवेद्य आदि अर्पण करते हैं। फिर पुष्प अर्पित करने के बाद धूप, दीप जलाकर आरती की जाती है। फिर दशोपचार पूजा का विधान है। जैसे चरणों को पखारना, अघ्र्य, (जल चढ़ाना) आचमन स्नान कराना, वस्त्र पहनाना, चंदन लगाना, चावल चढ़ाना, पुष्प इत्यादि अर्पण करना, धूप दीप जलाना, आरती करना, भोग लगाना यह दशोपचार पूजा है। अगले चरण में षोड्शोपचार पूजा की जाती है। सर्वप्रथम स्वस्तिवाचन से गणेश वंदना तक करने के बाद आराध्य देवी सरस्वती और भगवान विष्णु को आसन समर्पित करते हैं। फिर मंत्र उच्चारण करते हुए वस्तुएं समर्पित की जाती हैं। स्नान हेतु श्रद्धा अनुसार दूध, दही, शहद, घृत, शक्कर, गंगा जल का प्रयोग किया जाता है। धातु की प्रतिमा, चित्र या तस्वीर है तो अलग से किसी बर्तन में अपनी भावना से दूध, दही, शहद, घृत, शक्कर, गंगाजल दिखाकर भूमि पर गिरा देना चाहिए उसके बाद वस्त्र समर्पित करने के बाद लाल चंदन के साथ-साथ केसर कुंकुम भी प्रयोग में लाये जाते हैं। संपूर्ण शृंगार करने के बाद धूप, दीप, नैवेद्य समर्पण करके प्रदक्षिणा की जाती है। फिर ताम्बूल, पुंगी फल (पान-सुपारी) के साथ दक्षिणा भी समर्पित की जाती है। पुष्प इत्यादि चढ़ाकर धूप-, दीप, आरती करके नमस्कार स्तुति करके चालीसा, मंत्रों तथा आरती द्वारा पूजा की जाती है फिर क्षमायाचना इत्यादि की जाती है। षोड्शोपचार में ध्यान, आह्नान, आसन, पाद्य, अघ्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत व आभूषण, गंध (चंदन-केसर), पुष्प समर्पण, अंग-पूजा, अर्चना, धूप, दीप, नैवेद्य एवं फल, तांबूल, दक्षिणा, आरती आदि प्रदक्षिणा, पुष्पांजलि, नमस्कार, स्तुति, जप इत्यादि करने के बाद अगले दिन सुबह मूर्ति को किसी पवित्र नदी पर ले जाते हैं और क्षमा याचना करके विशेष अघ्र्य देकर, जल आरती की जाती है। उसके बाद विसर्जन कर दिया जाता है।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.