सर्वतोभद्रचक्र से व्यापार की तेजी-मंदी का आकलन

सर्वतोभद्रचक्र से व्यापार की तेजी-मंदी का आकलन  

सुशील अग्रवाल
व्यूस : 11772 | जनवरी 2016

दुनिया के लगभग हर देश में शेयर मार्केट है और इसके बृहत रूप का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि केवल भारत में छैम् एवं ठैम् पर दैनिक औसत कारोबार (कैश एवं वायदा) लगभग 300000 करोड़ रुपये है। इसके अतिरिक्त डब्ग् का औसत दैनिक कारोबार लगभग 25000 करोड़ रुपये है। शेयर बाजार एक पैसे बनाने एवं गंवाने की मशीन की तरह है और अर्थशास्त्रियों एवं विशेषज्ञों ने इसकी तेजी-मंदी को समझने के अनेकों गणितीय फॉर्मूले बनाये पर कोई भी कारगर सिद्ध नहीं हो पाया है। अर्थशास्त्र के नियमानुसार किसी वस्तु के मूल्य में तेजी तब आती है, जब उस वस्तु की आपूर्ति की अपेक्षा मांग अधिक हो और इसके विपरीत मंदी तब आती है, जब अगर आपूर्ति की अपेक्षा मांग कम हो। आपूर्ति तो मुख्यतः उपज, वातावरण, मौसम, वर्षा आदि अनेकों भौगोलिक घटकों पर आधारित होती हैं जिसपर मानवीय बस नहीं चलता। वैदिक ज्योतिष के अंतर्गत ‘मेदिनीय ज्योतिष’ शाखा पर अनेकों ऋषियों ने बहुमूल्य कार्य करके इस क्षेत्र में भी जनहित भावना से बहुमूल्य योगदान दिया है और यह स्पष्ट किया है कि भचक्र में निहित ग्रहों के गोचर द्वारा राशियों, नक्षत्रों, स्वर, व्यंजनों वार और तिथियों आदि पर प्रभाव पड़ता है जिससे जातक, देश और वस्तुएं आदि प्रभावित होती हैं।

परस्पर प्रभावों को समझाने के लिए ऋषियों ने विभिन्न चक्रों का निर्माण किया जिनमें से एक महत्वपूर्ण एवं प्रचलित चक्र है ‘सर्वतोभद्र चक्र’। शेयर बाजार में तेजी-मंदी के लिए ‘सर्वतोभद्र चक्र’ अधिक प्रचलित है और यह इस लेख की विषय वस्तु भी है। इस चक्र का उपयोग व्यापक है इसीलिए इसमें सभी अनेकों अवयव समाहित हैं, परन्तु शेयर बाजार की तेजी-मंदी के लिए गोचर ग्रहों का नक्षत्रों पर शुभाशुभ प्रभाव ही अधिक महत्त्वपूर्ण है। सर्वतोभद्र चक्र सर्वतोभद्र का शाब्दिक अर्थ है ‘सभी प्रकार से शुभ’ या ‘सबके लिए शुभ’। इसका मूल स्रोत ‘ब्रह्मयामल’ नामक ग्रन्थ है। इस विषय का विशेष परिचायक ग्रंथ ‘बृहदर्घमार्तण्ड’ भी है जिसका लघु रूप ‘अर्घ मार्तण्ड’ है। सर्वतोभद्र चक्र पर विद्वानों की टिप्पणियां और व्याख्याएं भी आई हैं जिनमें से अधिक उल्लिखित नरपति जी की नरपतिजयचर्या है जो लगभग 1232 ईस्वी की है और उसका मुख्य उद्देश्य राजाओं को युद्धादि विषयों पर सहायता करना था।

इसके अतिरिक्त गर्ग, मानसागरी आदि में भी सर्वतोभद्र चक्र का उल्लेख है। मन्त्रेश्वर जी ने भी फलदीपिका के गोचरफल अध्याय में इस चक्र का उल्लेख एवं विधि बताई है परन्तु उन्होंने जातक के परिप्रेक्ष्य से ही इसका विचार किया है। ‘अर्घ मार्तण्ड’ में वस्तुओं में तेजी-मंदी के फलादेश पर अधिक विचार किया गया है। ‘अर्घ’ का शाब्दिक अर्थ ही ‘मूल्य’ है। सर्वतोभद्र चक्र को ‘एकाशीतिपद् चक्र’ (81 कोष्ठक वाला चक्र) और ‘त्रैलोक्यदीपक’ (तीनों लोकों का दीपक) भी कहते हैं। इस चक्र का उपयोग व्यापक है। जातक (मुहूर्त, रोग, प्रश्न आदि सभी विचार), क्षेत्र, राज्य, देश, विश्व के सभी विषयों के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता है। आधुनिक समय में सर्वतोभद्र चक्र का सबसे प्रचलित प्रयोग बाजार में वस्तुओं की तेजी-मंदी के फलित के लिए ही किया जाता है।

आइये, सर्वप्रथम इसके निर्माण और उसके उपरान्त इससे फलित की विधियों को समझे । चक्र निर्माण विधि सर्वतोभद्र चक्र के अन्य प्रचलित नाम ‘एकाशीतिपद् चक्र’ से ही स्पष्ट है कि इस चक्र का सम्बन्ध 81 संख्या से है। यह चक्र 9ग9 त्र 81 कोष्ठक का होता है और इसमें निम्न 81 अवयव होते हैंः ƒ ऽ16 स्वर ƒ ऽ20 व्यंजन ƒ ऽ28 नक्षत्र (अभिजित सहित) ƒ ऽ12 (राशियाँ) ƒ ऽ05 (तिथियाँ) सर्वतोभद्र चक्र के निर्माण हेतु निम्न चरणों को क्रमबद्ध अपना सकते हैंः ƒ सर्वप्रथम 9ग9 का 81 कोष्ठक वाला वर्ग बना लें जिसमें प्रत्येक कोष्ठक सम चतुष्कोण होंगे। ƒ चारों मुख्य दिशाओं और चारों कोणीय दिशाओं में दिशाएं नामांकित कर दें। ईशान (उत्तर-पूर्व), पूर्व, आग्नेय (दक्षिण-पूर्व), दक्षिण, नैर्ऋत्य (दक्षिण-पश्चिम), पश्चिम, वायव्य (उत्तर-पश्चिम) और उत्तर ƒ अब 16 स्वरों को चार-चार करके ईशान आदि कोणों में लिखें। लिखने का क्रम एक-एक कर के सदैव सृष्टि क्रम (घड़ी की दिशा) का ही रहेगा।

ईशान से शुरू करते हुए पहले मुख्य चार कोणों में अ, आ, इ, ई लिखंे, फिर तिरछे (कपंहवदंस) क्रम से चारों कोणों में उ, ऊ, ऋ, ऋ (दीर्घ ऋ) और फिर इसी क्रम में लृ, लृ, ए, ऐ और ओ, औ, अं, अः लिखें ƒ अब नक्षत्र स्थापना करनी होगी जो अभिजित सहित कुल 28 हैं। ईशान से अग्नि कोण वाली पंक्ति के पहले कोष्ठक में ‘अ’ और अंतिम में ‘आ’ पहले से ही हैं, शेष 7 कोष्ठकों में कृतिका से आश्लेषा तक 7 नक्षत्र स्थापित कर दें, फिर अग्नि से नैर्ऋत्य कोण वाली पंक्ति में मघा से विशाखा तक, नैर्ऋत्य से वायव्य कोण वाली पंक्ति में अनुराधा से श्रवण तक (अभिजित न भूलें), वायव्य से ईशान कोण वाली पंक्ति में शेष घनिष्ठा से भरणी तक नक्षत्र स्थापित कर दें। ƒ इसके बाद 20 व्यंजनों को स्थापित करेंगे।

भरणी और मघा के बीच पूर्व दिशा में पाँच कोष्ठकों में अ व क ह ड स्थापित करें, फिर म ट प र त को अश्लेषा और अनुराधा में बीच दक्षिण दिशा में, फिर न य भ ज ख को विशाखा से घनिष्ठा के बीच पश्चिम दिशा में और आखिरी में श्रवण और कृतिका में बीच उत्तर दिशा के पाँच कोष्ठकों में ग स ल द च स्थापित करें। ƒ 12 राशियों की स्थापना के लिए वृष, मिथुन, कर्क को पूर्व में अश्विनी और पूर्व फाल्गुनी के मध्य, सिंह कन्या तुला को दक्षिण में पुष्य और ज्येष्ठा के मध्य, वृश्चिक धनु मकर को पश्चिम में स्वाति और शतभिषा के मध्य और कुम्भ मीन मेष को उत्तर में अभिजित और रोहिणी के मध्य लिखें। ƒ अब आपके पास चक्र का मध्य कोष्ठक और उससे चारों मुख्य दिशाओं में एक-एक कोष्ठक रिक्त रहना चाहिए। पूर्व के रिक्त कोष्ठक में नंदा तिथि (प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी), दक्षिण के रिक्त कोष्ठक में भद्रा तिथि (द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी), पश्चिम के रिक्त कोष्ठक में जया तिथि (तृतीया, अष्टमी, त्रयोदशी), उत्तर के रिक्त कोष्ठक में रिक्ता तिथि (चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी) और शेष मध्य रिक्त कोष्ठक में पूर्णा तिथि (पंचमी, दशमी, पूर्णिमा/अमावस्या) स्थापित कर दें।

तिथियों के इन्हीं कोष्ठकों में वारों को भी लिख दें, मंगल सूर्य को नंदा की कोष्ठक में, चन्द्र बुध को भद्रा के कोष्ठक में, गुरु को जया के कोष्ठक में, शुक्र को रिक्ता के कोष्ठक में और शनि को पूर्णा कोष्ठक में लिख दें। ƒ अंतिम चरण में प्रत्येक नक्षत्र से बायीं ओर तिरछी, दायीं ओर तिरछी और सीधी रेखा इस प्रकार खींचें कि प्रत्येक नक्षत्र का बायें, दायें और सीधे छोर पर स्थित नक्षत्र से संबंध बन जाए। उपरोक्त चरणों का अनुसरण करने पर निम्न सर्वतोभद्र चक्र निर्मित होगाः जैसा उपरोक्त वर्णित है कि सर्वतोभद्र चक्र से सभी प्रकार का फलादेश दिया जा सकता है इसीलिए इस चक्र में नक्षत्र के अतिरिक्त राशि, स्वर, व्यंजन, तिथि, वार आदि सभी समाहित हैं। इस चक्र के और अधिक सूक्ष्म रूप में नक्षत्र के चारों चरण एवं नक्षत्र-चरण सम्बंधित नामाक्षर आदि को भी समाहित किया जाता है।

शेयर बाजार एवं वस्तुओं आदि में तेजी-मंदी के लिए गोचर ग्रहों द्वारा केवल नक्षत्रों का ही वेध महत्त्वपूर्ण है। विश्लेषण विधि प्रश्न समय पर गोचर ग्रहों के नक्षत्र अनुसार उन्हें चक्र में स्थापित करके उनका प्रभाव देख कर फलित किया जाता है। इसके लिए सर्वप्रथम ग्रहों की शुभता-अशुभता, गति, वेध और नक्षत्र सम्बंधित वस्तुओं आदि को समझना होगा। शुभ-अशुभ ग्रह नैसर्गिक आधार पर ही होते हैंः ƒ अशुभ: सूर्य, मंगल, शनि, राहु और केतु ƒ शुभ: गुरु और शुक्र ƒ पक्ष बली चन्द्र शुभ अन्यथा अशुभ। शुभयुक्त एवं युतिहीन बुध शुभ और अशुभ-युक्त बुध अशुभ ग्रहों की गति शीघ्र से मंद का क्रम हैः चन्द्र, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल, गुरु, राहु/केतु, शनि। ग्रहों की दैनिक औसत गति भेद: सूर्य और चन्द्र सदैव मार्गी रहते हैं। राहु और केतु सदैव वक्री रहते हैं। शेष ग्रह मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि मार्गी और वक्री होते रहते हैं।

मार्गी होने पर ग्रहों की दैनिक गति चार या तो मध्य होता है या शीघ्र। इनके मान निम्न होते हैंः मंगल बुध गुरु शुक्र शनि मध्यचारी 31ष्26.5ष् 59’08.2ष् 04’59. 1ष् 59’08ष् 02’01.9ष् शीघ्रचारी 39’01ष् 104’46ष् 12’22ष् 73’43ष् 05’27ष् परम शीघ्रचारी 46’11ष् 113’32ष् 14’04ष् 75’42ष् 07’45ष् इसको इस प्रकार समझें: मध्यचारी से कम गति होने पर मंद, शीघ्रचारी से कम गति होने पर मध्यचारी और परमशीघ्रचारी से कम गति होने पर शीघ्रचारी। ग्रहों की वेध-दृष्टि: ग्रहों की पाराशरी दृष्टि और राशियों की जैमिनी दृष्टि से तो आप वाकिफ ही हैं, कुछ इसी प्रकार वेध को भी मानें। वेध के शाब्दिक अर्थ ‘छेदना दृ जव चपमतबम’ की बजाय इसे दृष्टि के समकक्ष ही मानें।

यह एक प्रकार की सूक्ष्म दृष्टि है जो स्वर, अक्षर, नक्षत्र, तिथि आदि पर होती है। ग्रह अपनी चक्र-स्थिति से तीन प्रकार का वेध करते हैंः ƒ ऽवाम (बायीं) वेध ƒ ऽदक्षिण (दायीं) वेध ƒ ऽसम्मुख (सीधी) वेध गोचरवश ग्रह किस-किस अवयव का वेध कर रहा है, यह उसकी तात्कालिक चार/चाल वक्री या मार्गी (मार्गी में मध्य या शीघ्र) पर आधारित होता है। सूर्य-चन्द्र सदैव मार्गी रहते हैं और राहु-केतु सदैव वक्री इसलिए इनकी चाल में भेद नहीं किया जाता और ये सदैव तीनों प्रकार के वेध करते हैं (यहां कुछ मतान्तर है, जैसे मन्त्रेश्वर जी सूर्य-चन्द्र की केवल वाम/ बायां और राहु-केतु की केवल दक्षिण/दायां वेध ही मानते हैं)। शेष पांचों ग्रह वक्री या मार्गी होने के हिसाब से वेध करते हैं। वक्री होने पर केवल वाम/बायीं, शीघ्र होने पर केवल दक्षिण/ दायीं और मध्यचारी होने पर केवल सम्मुख/सीधी वेध करते हैं। फलदीपिका के अनुसार जब अशुभ ग्रह वक्री होते हैं तो अधिक अशुभ हो जाते हैं और शुभ फल वक्री होने पर अधिक शुभ।

संक्षेप में तीन प्रकार के वेध निम्न हैंः ƒ ऽवाम वेध से नक्षत्र, स्वर और अक्षर का वेध होता है। ƒ ऽदक्षिण वेध से नक्षत्र, स्वर और अक्षर का वेध होता है। ƒ ऽसम्मुख वेध से केवल नक्षत्र का वेध होता है। वेध का महत्व इसीलिए है क्योंकि इसी से शुभाशुभ प्रभाव का आकलन होता है, अतः इसे समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है। धातु-जीव-मूल: शनि, राहु और मंगल को धातु का स्वामी माना गया है, धातु वे सभी वस्तुएं हैं जो जमीन के नीचे से निकलती हैं, जैसे खनिज, सोना, चाँदी, मिट्टी आदि। गुरु और चन्द्र को जीवों का स्वामी माना गया है, जीव से तात्पर्य मनुष्य, कीड़े-मकोड़े आदि सभी जीव से है। सूर्य, शुक्र और केतु को मूल का स्वामी माना गया है, मूल से अभिप्राय उन सभी वस्तुओं व पदार्थों से है जो पृथ्वी से जुड़ी हैं जैसे वृक्ष, झाड़ी, बेलें, पृथ्वी से उत्पन्न होने वाली सभी वस्तुएँ। फलित विधि: उपरोक्त जानकारी के पश्चात् प्रश्नकर्ता के समयानुसार यह देखें कि कौन सा ग्रह गोचरवश किस नक्षत्र में स्थित है और उस ग्रह को उसकी नक्षत्र-स्थिति अनुसार सर्वतोभद्र चक्र में स्थित करें।

इसके उपरान्त देखें कि ग्रह किस-किस का वेध कर रहे हैं। सर्वतोभद्र चक्र में शुभ ग्रहों के वेध से मंदी और अशुभ ग्रहों के वेध से तेजी आती है। जैसा उपरोक्त वर्णित है कि चन्द्र की शुभता-अशुभता उसके पक्ष बल से और बुध की शुभता-अशुभता उसकी युति पर आधारित होती है, अतः इसका ध्यान रखे। जो स्वर-व्यंजन, राशि, नक्षत्र, तिथि, वार आदि गोचर ग्रह की दायीं व बायीं पंक्ति में आयेंगे, उन सभी का दायां व बायां वेध माना जाएगा परन्तु सम्मुख होने वाले वेध में केवल नक्षत्र का ही वेध होता है। स्वर वेध में विशेष ध्यान रखना होता है कि कुछ स्वर-समूहों में से किसी एक स्वर का भी वेध होने पर दूसरे का भी वेध माना जाता है, ये स्वर-समूह हैंः अ आ, इ ई, उ ऊ, ऋ ऋ, लृ लृ, ए ऐ, ओ औ और अं अः।

उदाहरण: सूर्य गोचरवश कृतिका नक्षत्र में है और सूर्य तीनों दिशा में वेध करते हैं तो वे नक्षत्र भरणी, स्वर अ, राशि वृष, तिथि नंदा एवं भद्रा, राशि तुला, व्यंजन त, नक्षत्र विशाखा एवं श्रवण का वेध करेंगे।

शेयर बाजार और वस्तुओं की तेजी-मंदी के आकलन के लिए ग्रहों का केवल नक्षत्र पर ही वेध देखा जाता है। उदाहरण के तौर पर मान लें कि हमें शेयर बाजार के विभिन्न शेयरों/वस्तुओं के किसी विशेष दिन के भावों का आकलन करना है तो उस दिन के गोचर ग्रहों को चक्र में स्थित करके उन नक्षत्रों को नोट कर लेंगे जो शुभ और अशुभ ग्रहों द्वारा वेधित हो रहे हैं। वेधित नक्षत्रों को नोट करते समय ग्रहों की शुभता-अशुभता, गति, वेध दिशा, धातु-मूल-जीव स्वामित्व आदि को भी नोट कर लें क्योंकि आपको इनके प्रभाव से फलों की मात्रा में कुछ संशोधन करने पड़ेंगे। अब नक्षत्रों पर शुभ-अशुभ वेध अनुसार यह निर्धारित करें कि कौन-कौन सी वस्तुओं में तेजी कौन-कौन सी वस्तुओं में तेजी-मंदी आएगी। जैसा पहले लिख चुके हैं कि सर्वतोभद्र चक्र में शुभ ग्रहों के वेध से मंदी और अशुभ ग्रहों के वेध से तेजी आती है। ग्रहों के नक्षत्र परिवर्तन करने पर तेजी-मंदी प्रभाव भी बदल जाता है। नक्षत्रों पर प्रभाव से कौन से वस्तुओं पर प्रभाव पड़ता है उनका संक्षेप में वर्णन निम्न हैंः ƒ अश्विनी: चावल आदि सभी धान्य, सभी प्रकार के वस्त्र, घी तेल आदि, पशु, सभी प्रकार के ऊनी, सूती, टेरीकोट आदि वस्त्र। ƒ भरणी: सभी तृण गेहूं चावल चना जौ आदि धान्य, जीरा काली-मिर्च सौंठ पिप्पल आदि औषधि उपयोगी पदार्थ।

ƒ कृतिका: गेहूं चना चावल जौ आदि धान्य, मणिक हीरा धातु (सोना, चाँदी आदि), तिल आदि तेलवान पदार्थ। ƒ रोहिणी: गेहूं चना चावल जौ आदि धान्य, मणिक हीरा धातु (सोना, चाँदी आदि), सभी प्रकार के रस, पुराने ऊनी वस्त्र कम्बल लोई, शाल आदि। ƒ मृगशिरा: गाय-भैंस आदि पशु, अरहरध्तुअर दाल, लाख तथा माणिक आदि। ƒ आद्र्रा: तेल नमक और सभी प्रकार के क्षार (अम्लीय) पदार्थ, रस पदार्थ, चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ। ƒ पुनर्वसु: सोना, चाँदी, रुई, श्याम वर्ण का रेशमी वस्त्र, ज्वार, बाजरा। ƒ पुष्य: सोना, चाँदी, घी, चावल, सेंधा नमक, सरसों, हींग, तेल आदि। ƒ अश्लेषा: गन्ने के रस से बने द्रव्य (गुड, चीनी, खांड आदि), कालीमिर्च, गेंहू, सौंठ, चावल, मसूर आदि। ƒ मघा: तेल, तिल, घी, मूंग, चना, अलसी, गुड़, कांगुनी (जड़ी-बूटी), मूंगा आदि। ƒ पूर्व-फाल्गुनी: कम्बल लोई ऊन आदि ऊनी वस्त्र, ज्वार, बाजरा आदि अन्न, तिल, सोने-चाँदी के आभूषण। ƒ उत्तर-फाल्गुनी: उड़द मूंग आदि दालें, चावल, सेंधा नमक, लहसुन आदि। ƒ हस्त: चन्दन, कपूर, देवदारु (क्मवकंत बमकंत), कन्द (आलू आदि)। ƒ चित्रा: सोना, रत्न, मूंग, उड़द, मूंगा, पशु, वाहन आदि। ƒ स्वाती: सुपारी, काली-मिर्च, सरसों, तेल, घी, राई, हींग, सूखे मेवे (खजूर आदि)।

ƒ विशाखा: गेहूं, चावल, जौ, मूंग, मसूर, धान्य, मोठ आदि दालें, राई आदि। ƒ अनुराधा: तुअर/अरहर आदि बिना छिलके की सभी दालें, मौठ, चावल, चना आदि। ƒ ज्येष्ठा: गुग्गलु (काँटेदार वृक्ष), गुड़, लाख, कपूर, पारा, हींग, कांस्य आदि। ƒ मूल: सभी प्रकार की सफेद वस्तुएंध्पदार्थ, सभी रसदार पदार्थ, सभी प्रकार के धान्य, सेंधा नमक, रुई, धागा आदि। ƒ पूर्व-आषाढ़: अंजन (सुरमा), छिलके वाले धान्य, घी, कन्द-मूल-फल, चावल आदि। ƒ उत्तर-आषाढ़: घी, पशु, सोना चाँदी लोहा आदि धातु, सभी वाहन आदि। ƒ अभिजित: दाख (मुनक्का, अंगूर), खजूर, इलायची, जायफल, सुपारी, जावित्री आदि। ƒ श्रवण: अखरोट, चिरौंजी, सुपारी, मीठे पदार्थ, फूल, धान्य आदि। ƒ घनिष्ठा: सोना, चाँदी, पीतल आदि धातुएं, सभी प्रकार के मुद्रा के सिक्के, माणिक, मोती, रत्न आदि। ƒ शतभिषा: तेल, मदिरा, आँवला, वृक्षों के मूल-पत्र-छाल आदि। ƒ पूर्व-भाद्रपद: सभी धातुएं, सभी औषधियां, सुगन्धित द्रव्य, सभी धान्य, देवदारु, जावित्री आदि मसाले। ƒ उत्तर-भाद्रपद: गुड खांड चीनी मिश्री, तिल सरसों आदि तिलहन, खल चावल, घी, मणिक मोती आदि। ƒ रेवती: नारियल सुपारी आदि सूखे फल, पंसारी की सभी वस्तुएं, माणिक मोती आदि। सर्वतोभद्र चक्र से फलित के उपरोक्त नियम बाजार की सामान्य स्थिति समझकर ही मानें। फलादेश करते समय देश-काल-वस्तु का विचार अवश्य करना चाहिए।

देश से तात्पर्य है कि देश की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति के अनुसार चक्रों के फलों में संशोधन हो सकता है। काल से तात्पर्य है कि हम किस प्रकार के समय में हैं, सम्बंधित वस्तु का समाज के लिए क्या उपयोग है, क्या उस वस्तु की मांग मौसम पर आधारित है आदि। इसके अतिरिक्त ग्रहों के बल (उच्च, नीच, अस्त, वक्री, राशि आदि) और धातु-जीव-मूल स्वामित्व का भी सदैव ध्यान रखना चाहिए। अतः सभी उपस्थित परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही सर्वतोभद्र चक्र से फलित किया जाना चाहिए। निष्कर्ष तंत्र प्रधान चक्रों में समाहित भाषा अवयवों को हिन्दी व्याकरण के दृष्टिकोण से नहीं परखना चाहिए क्योंकि उनमें सामान्यतः कुछ त्रुटियाँ पायी जाती हैं।

जातक सम्बंधित फलादेश पर तो बहुत काम होता आ रहा है परन्तु शेयर बाजार की वस्तुओं में तेजी-मंदी पर बहुत कम शास्त्रीय ग्रंथ उपलब्ध हैं और ज्योतिषियों द्वारा इस पर अधिक कार्य करने की आवश्यकता महसूस होती है। फ्यूचर पॉइंट का शेयर बाजार पर सेमिनार करना बहुत अच्छा कदम है जिससे अधिक से अधिक लोग इससे आकर्षित होकर, इस वैदिक धरोहर से लाभान्वित होंगे और साथी ज्योतिषी इस दिशा में कार्य करने को उत्साहित होंगे।



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