अमृता प्रीतम

अमृता प्रीतम  

यशकरन शर्मा
व्यूस : 9416 | सितम्बर 2010

अमृता प्रीतम यद्गाकरन शर्मा सितारों की कहानी सितारों की जुबानी स्तंभ में हम जन्मपत्रियों के विश्लेषण के आधार पर यह बताने का प्रयास करते हैं कि कौन से ग्रह योग किसी व्यक्ति को सफलता के शिखर तक ले जाने में सहायक होते हैं। यह स्तंभ जहां एक ओर ज्योतिर्विदों को ग्रह योगों का व्यावहारिक अनुभव कराएगा, वहीं दूसरी ओर अध्येताओं को श्रेष्ठ पाठ प्रदान करेगा तथा पाठकों को ज्योतिष की प्रासंगिकता, उसकी अर्थवत्ता तथा सत्यता का बोध कराने में मील का पत्थर साबित होगा। अमृता प्रीतम के चरित्र का मूल्यांकन उनकी जीवन कथा पर करना उचित न होगा अपितु इसके लिए हमें उनकी बेमिसाल व लोकप्रसिद्ध कविताओं का अध्ययन करना होगा जिससे हमें उनकी सृजनात्मक योग्यता और जिंदादिली का अनुमान होगा। इस आलेख में प्रस्तुत है इस महान साहित्यकार की जीवन कथा, उपलब्धियों और साहित्यिक योग्यताओं का संक्षिप्त वृत्तांत व ज्योतिषीय विश्लेषण अमृता प्रीतम कवयित्री, उपन्यासकार और निबंधकार थीं जिन्हें 20वीं सदी की पंजाबी भाषा की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री माना जाता है। इनकी लोकप्रियता सीमा पार पाकिस्तान में भी बराबर है। इन्होंने पंजाबी साहित्य जगत में छः दशकों तक राज किया और काव्य, उपन्यास, आत्म कथाएं, उपन्यास, निबंध और पंजाबी लोक गीतों पर 100 से अधिक पुस्तकें लिखीं। इन्होंने अपनी आत्म कथा भी लिखी जिसका बहुत सी भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हुआ।

इन्हें इनकी विखयात कविता ''आज अखां वारिस शाह नूं'' के लिए विशेष रूप से याद किया जाता है। एक उपन्यासकार के रूप में इनकी श्रेष्ठतम कृति 1950 में प्रकाशित ''पिंजर'' उपन्यास मानी जाती है जिस पर 2003 में अवार्ड जीतने वाली फिल्म 'पिंजर' बनी। सन् 1947 में भारत पाकिस्तान के विभाजन के समय अमृता प्रीतम लाहौर छोड़कर भारत आ गईं। परंतु इसके बावजूद भी पाकिस्तान में इनकी लोकप्रियता ज्यों की त्यों बरकरार रही। 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त करने वाली पहली महिला बनी। बाद में वर्ष 1982 में इन्हें भारतीय ज्ञानपीठ नामक श्रेष्ठ साहित्यिक पुरस्कार प्राप्त हुआ। इन्हें 1969 में पद्मश्री और वर्ष 2004 में पद्मविभूषण और साहित्य अकादमी फैलोशिप (जिसे भारतीय साहित्य जगत का सर्वश्रेष्ठ सम्मान माना) प्राप्त हुई। अमृता प्रीतम का जन्म 1919 में गुजरांवाला पंजाब (पाकिस्तान) में हुआ। इन्होंने बहुत छोटी अवस्था में ही लिखना प्रारंभ कर दिया था। सन् 1936 में मात्र 16 वर्ष की अवस्था में इनका 'अमृत लहरें' नाम से कुछ कविताओं का संग्रह प्रकाशित हुआ। 1944 में 'लोक पीड़' नाम से कुछ अन्य कविताओं का संग्रह प्रकाशित हुआ। 1947 में देश के विभाजन से पहले कुछ समय तक इन्होंने लाहौर रेडियो स्टेशन में भी कार्य किया। 1948 में उन्होंने अपनी सर्वाधिक प्रसिद्ध कविता ''अज आखाँ वारिस शाह नूं'' लिखी। इनका वैवाहिक जीवन सुखमय नहीं था। 1960 में उनकी शादी टूट गई। 1961 तक इन्होंने ऑल इंडिया रेडियो की पंजाबी सेवा में कार्य किया। 1965 में उनकी पुस्तक 'धरती सागर ते सिपइयां' पर 'कादंबर' नामक फिल्म बनी। 1976 में 'उना दी कहानी' पर 'डाकू' नामक फिल्म बनी।

1970 में उनके 'पिंजर' नामक उपन्यास पर बनी फिल्म को पुरस्कार प्राप्त हुआ। उन्होंने 'नागमनी' नामक पंजाबी पत्रिका का वर्षों तक संपादन किया। विभाजन के बाद यह हिंदी में भी लिखती रहीं। जीवन के उत्तरार्द्ध में इन्होंने ओशो का रूख किया और आध्यात्मिक साहित्य का सृजन किया। 1968 में जीवन गाथाओं के संग्रह 'काला गुलाब' तथा 1976 में 'रसीदी टिकट' और 'अक्षरों के साए' नाम से प्रकाशित हुए। 'पंजाब रत्न' पुरस्कार प्राप्त करने वालों में अमृता प्रीतम प्रथम हैं। इन्हें बहुत से विश्वविद्यालयों से डी. लिट की उपाधि प्राप्त हुई। जैसे 1973 में दिल्ली विश्वविद्यालय व जबलपुर विश्वविद्यालय से तथा 1987 में विश्व भारती से। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जैसे 1979 में बुल्गारिया रिपब्लिक से वाप्तसारोवे और 1987 में क्रांसीसी सरकार से 'डिग्री ऑफ आफसिर्ज डेन' नामक पुरस्कार प्राप्त हुआ। 1986 से 1992 तक यह राज्य सभा सदस्य रहीं। जीवन के अंतिम समय के लगभग उन्हें पाकिस्तान द्वारा पुरस्कार दिए जाने पर इन्होंने कहा था ''बड़े दिनों बाद मेरे मायके को मेरी याद आई''। उनका विवाह लाहौर के अनारकली बाजार के सफल व्यापारी के पुत्र से हुआ। जिससे 1960 में यह अलग हो गई थीं। तत्पश्चात् यह साहिर लुध्यानवी के साथ रहने लगीं। यह संबंध भी टूट गया और फिर इमरोज़ के साथ इनका प्रेम संबंध शुरू हुआ जो एक सफल कलाकार और कवि भी थे। इन्होंन ाुजीवन के अंतिम 40 वर्ष इमरोज के साथ ही बिताए। प्रस्तुत है इनकी कुंडली का ज्योतिषीय विश्लेषण- अमृता प्रीतम की जन्मकुंडली में लग्नेश मंगल भाग्य भाव में स्थित होकर उच्च के गुरु और बुध से युक्त है। गुरु और बुध की युति श्रेष्ठ विद्या और सरस्वती कृपा का योग माना जाता है। गुरु का उच्च राशिस्थ होकर बुध और लग्नेश से युक्त होना इस विद्या के योग को और अधिक बली बना रहा है। द्वितीय भाव वाणी और सरस्वती, पंचम भाव विद्या, बुद्धि तथा नवम भाव उच्च शिक्षा का भाव है।

द्वितीयेश व पंचमेश बृहस्पति उच्चराशिस्थ होकर नवमस्थ है इसी कारण इनकी साहित्य के क्षेत्र में उपलब्धियां आश्चर्यजनक रहीं। तृतीय भाव तृतीयेश व बुध को लेखन कला का कारक माना जाता है तथा गुरु उच्चस्तरीय ज्ञान, अधिकार व लेखन का देवता है। इनकी कुंडली में तृतीयेश दशमेश से संयुक्त होकर कर्म के दशम भाव में स्थित है। तृतीय भाव पर गुरु, बुध और लग्नेश तीनों की दृष्टि है। पंचम भाव पर दृष्टि डालने वाला शुक्र चंद्रलग्नेश है तथा बुध की राशि में स्थित है। पंचम भाव पर दृष्टि डालने वाला गुरु लग्नेश और बुध से संयुक्त है। बुध के शुक्र अधिष्ठित राशि का स्वामी होने व लगन, लग्नेश, तृतीय, पंचम व नवम भाव को प्रभावित करने वाले गुरु से संयुक्त होने के कारण इन्हें लेखन कला में राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेष सम्मान प्राप्त हुआ जिसमें तृतीयेश व दशमेश की दशम भाव में स्थिति ने अतिरिक्त भूमिका अदा की। लेखन कला का कारक बुध आत्माकारक होकर नवम भाव में स्थित है तथा दशमस्थ सूर्य वर्गोत्तमी है साथ ही अधिकतम ग्रह नवम, दशम व एकादश भावों में स्थित हैं। इसी कारण इन्हें अपार यश व कीर्ति की प्राप्ति हुई। सप्तमेश के नीचराशिस्थ होने तथा सप्तम भाव पर काल सर्प योग के प्रभाव से इनके विवाहित जीवन में स्थिरता न रह सकी। लेखन के तृतीय भाव, तृतीयेश और कारक बुध की श्रेष्ठतम स्थिति के कारण ही इन्होंने छोटी अवस्था में ही लिखना आरंभ कर दिया था।

यदि कुंडली में लग्नेश, भाग्य भाव, दशम तथा द्वितीय व एकादश भाव की स्थिति श्रेष्ठ न हो तो जीवन में शीघ्रता से उन्नति नहीं होती। अमृता प्रीतम की जन्मपत्री में लग्नेश शुभ ग्रहों से संयुक्त होकर शुभ भाव में स्थित है। भाग्य भाव व दशम भाव की स्थिति अत्यंत श्रेष्ठ है। धनेश गुरु उच्च का होकर, लग्नेश व लाभेश से युक्त होकर श्रेष्ठतम लक्ष्मी योग बना रहा है। ज्योतिष में नियम है कि यदि लग्नेश, धनेश व लाभेश की युति किसी शुभ भाव में हो तथा इनमें से कोई ग्रह उच्च का हो तो इसे श्रेष्ठतम लक्ष्मी योग माना जाता हे। इस योग के विद्यमान रहने तथा दशम भाव व दशमस्थ दशमेश सूर्य के वर्गोत्तमी होने के कारण ही इनकी उस समय भी तेजी से कीर्ति बढ़ी जब देश विभाजन की विकट परिस्थितियों से गुजर रहा था। दशम भाव की श्रेष्ठ स्थिति के कारण न केवल खयाति प्राप्त हुई अपितु राज्यसभा सदस्य का श्रेष्ठ पद भी प्राप्त हुआ। अमृता प्रीतम का कैरियर छः दशकों तक अनवरत चलता रहा। सन् 1936 में मात्र 16 वर्ष की अवस्था में इनकी प्रथम पुस्तक के प्रकाशन के समय इनको तृतीयेश शनि की महादशा आरंभ हुई थी। शनि कर्म भाव में दशमेश के साथ ही स्थित है इसलिए दशा के आरंभ में ही लेखन कार्य में सम्मान प्राप्त हो गया। इस समय शनि और गुरु का गोचरीय प्रभाव भी तृतीयेश व दशमेश पर हो रहा था। 1944 में 'लोकपीड़' के प्रकाशन के समय गोचर में गुरु उच्चराशिस्थ थे।

1948 में गुरु का लगन और शनि का तृतीयेश और दशमेश के ऊपर दशम भाव में गोचर होने से इन्हें इनकी कविता 'अज अरवां वारिस शाह नूं'' के लिए अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई। इन्हें 1936 से तृतीयेश शनि की महादशा आरंभ हुई और तत्पश्चात् बुध की महादशा। यह दोनों दशाएं इनके व्यक्तिगत जीवन के लिए तो इतनी शुभ नहीं रहीं। परंतु लेखन कला को परिष्कृत करने में अत्यंत शुभ सिद्ध हुई। 1956 में बुध में बुध की अंतर्दशा तथा दशम भाव में स्थित वर्गोत्तमी सूर्य व शनि के ऊपर से गुरु व शनि का गोचरीय प्रभाव होने पर इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। विद्या के पंचम भाव पर दृष्टी डालने वाले शुक्र के नीच भंग राजयोग के कारण शिक्षा के क्षेत्र में उच्चस्तरीय सम्मान (1973 में डीलिट की उपाधि दिल्ली व जबलपुर विश्वविद्यालय से) प्राप्त हुआ लेकिन 54 वर्ष की अवस्था में अर्थात् बहुत देरी से जब केतु में शुक्र की अंतर्दशा चल रही थी। केतु व शुक्र एक दूसरे पंचम नवम भाव में स्थित हैं। नीच भंग राज योग बनाने वाले शुक्र की महादशा में शुक्र की ही अंतर्दशा में, सन् 1979 में बुल्गारिया रिपब्लिक से पुरस्कार मिला। गोचर में गुरु उच्चराशिस्थ तथा शनि दशम भाव में चल रहे थे। 1987 में शुक्र में राहु की अंतर्दशा में फ्रांसीसी सरकार से पुरस्कार व विशेष सम्मान प्राप्त हुआ। इस समय भी गोचरीय शनि का प्रभाव दशम भाव पर तथा शनि व गुरु का संयुक्त गोचरीय प्रभाव जन्मकालीन राहु पर पड़ रहा था। राहु को विदेश से प्राप्त होने वाले सम्मान का कारक माना जाता है। 1986 में गुरु व शनि के दशम भाव पर गोचरीय प्रभाव के समय यह राज्यसभा सदस्य बनी।



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