गुण जैनेटिक कोड की तरह हैं
गुण जैनेटिक कोड की तरह हैं

गुण जैनेटिक कोड की तरह हैं  

यशकरन शर्मा
व्यूस : 8854 | फ़रवरी 2013

संस्कृत में गुण का अभिप्राय होता है- रस्सी। गुणनुमा रस्सी व्यक्ति को इस संसार से जोउ़कर रखती है। सतोगुण, तमो गुण एवं रजोगुण विभिन्न परिमाण में प्रत्येक व्यक्ति में समाविष्ट होते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति का आचरण एवं व्यवहार एक-दूसरे से निश्चित ही अलग होता है। जिस तरह तीन मुख्य रंग लाल, पीला और नीला मिलकर विभिन्न रंगों को उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार गुणों के विभिन्न मिश्रण इस संसार में अनंत प्रकार के व्यक्तित्वों का निर्माण करते हैं। जब तक हम इन गुणों की प्रकृति और प्रभाव से अनभिज्ञ रहते हैं, हम इन गुणों से आब( रहते हैं किंतु ज्योंहि हम इन गुणों के प्रभाव को समझ जाते हैं, हम अपने अंतर्मन में सन्निहित गुणों के सम्मिश्रण को समय एवं परिवेश के अनुसार नियंत्रित एवं परिवर्तित कर सकते हैं और अपने जीवन को अधिक सार्थक एवं लोकोपयोगी बना सकते हैं।


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भगवद्गीता संसार में उत्कृष्टता प्राप्त करने में सहायता प्रदान करती है और हमें सांसारिकता से ऊंचा उठाकर ज्ञान प्राप्ति में भी निश्चित रूप से सहायक होती है। भगवद्गीता मानव के व्यक्तित्व का विश्लेषण संपूर्णता से करती है और हमें हमारी कमजोरियों व शक्तियों से अवगत कराती है। प्रत्येक मानव जड़ और चेतन से मिलकर बना है। इसमें चेतन ही सारभूत है। गीता निस्तार को विलग करने में सहायता प्रदान करती है और केवल आत्म तत्व ही शेष रह जाता है। जड़ तीन गुणों जैसे सत्व, रज और तम से मिलकर बनता है। यही गुण व्यक्ति के विचारों, भावनाओं और कर्मों के बारे में बताते हैं। ये गुण आपके जैनेटिक कोड की तरह होते हैं। ये सब गुण मिलकर आपको इस संसार से जोड़कर रखते हैं। जिस तरह तीन मुख्य रंग लाल, पीला और नीला मिलकर विभिन्न रंगों को उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार गुणों के विभिन्न मिश्रण इस संसार में अनंत प्रकार के व्यक्तित्वों का निर्माण करते हैं।

तम का शाब्दिक अर्थ होता है अंधकार अतः तमोगुण एक प्रकार की अकर्मण्यता और उदासीनता की स्थिति उत्पन्न करते हैं जिसकी उत्पत्ति अज्ञानता से होती है। इस अवस्था में श्रेष्ठ गुण छिप जाते हैं और हमारे श्रेष्ठ गुण प्रकट नहीं हो पाते। रजो गुण निराशा और तनाव की वह स्थिति है जिसकी उत्पत्ति लालच, तृष्णा व कामेच्छा से होती है। सत्व गुण मन की वह शांत अवस्था है जहां व्यक्ति अपना श्रेष्ठतम प्रदर्शन करता है। इस अवस्था में मानव मस्तिष्क शांत व विचारशील होता है। यह अवस्था अनथक प्रयास की नैसर्गिक वृत्ति व उत्कृष्टता का प्रतीक है। सभी प्रशासक, खिलाड़ी, किसी भी क्षेत्र के पेशेवर, व्यवसायी इसी अवस्था में पहुंचकर श्रेष्ठतम प्रदर्शन करने की चाह रखते हैं।

लेकिन यह बात कोई भी नहीं जानता कि इस अवस्था को कैसे प्राप्त किया जाए। श्रीमद्भगवद्गीता का चैदहवां अध्याय तीन गुणों के बारे में बताता है। इसमें सत्व, रज और तम इन तीन गुणों के बारे में विस्तृत चर्चा की गई है तथा साथ ही स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार ये व्यक्ति को सांसारिकता से जोड़ते हैं। गुण का संस्कृत में अभिप्राय होता है- रस्सी। प्रत्येक व्यक्ति में ये तीनों गुण मौजूद होते हैं। जब तक आप इन गुणों की प्रकृति और प्रभाव से अनभिज्ञ रहते हैं तब तक आप इन गुणों से बंधे रहते हैं। जब आप इन गुणों को समझ जाते हैं तो अपने भीतर समाविष्ट गुणों के सम्मिश्रण को परिवर्तित कर सकते हैं। जब सत्व गुण की अधिकता होती है तो आपका प्रदर्शन श्रेष्ठतम होता है। जब रजो गुण की अधिकता होती है तो लालच, अशांति और तृष्णा दोष से आपका प्रदर्शन निचले स्तर तक गिर जाता है और जब तमो गुण की प्रधानता हो जाए तो भ्रम, लापरवाही व अकर्मण्यता के कारण आपकी पराजय हो जाती है।

आप चाहे कितने ही योग्य क्यों न हों लेकिन रजो गुण और तमो गुण का बाहुल्य असफलता ही देता है। इसलिए यह अत्यावश्यक हो जाता है कि आप अपने सतोगुण को बढ़ाएं और रजोगुण का मार्जन करें तथा तमोगुण का दृढ़तापूर्वक उन्मूलन कर दें। इन्हीं गुणों की मात्रा से यह बताया जा सकता है कि मृत्यु के पश्चात् आप किस प्रकार के वातावरण में प्रवेश करेंगे। एक सात्विक व्यक्ति आध्यात्मिक परिवार में जन्म लेता है जहां मानसिक शांति और पवित्रता वाले वातावरण में सत्वगुण खूब पनपता एवं खिलता है। शुद्ध सत्वगुण व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर अग्रसर कर देता है। राजसिक गुण वाले लोग ऐसे परिवार में जन्म लेते हैं जहां लोग जीवन में भौतिक प्राप्तियों व राजसुख भोगने में तत्पर रहते हैं। ऐसा व्यक्ति सांसारिकता में और अधिक लिप्त हो जाता है।

तामसिक व्यक्ति सुस्त और मूर्ख व्यक्तियों के परिवार में पैदा होता है। केवल सात्विक पुरुष प्रगति कर पाता है। राजसिक व्यक्ति एक संकीर्ण समूह के अंदर आगे बढ़ता है जबकि तामसिक व्यक्ति का निरंतर पतन होता जाता है। मानव जीवन का उद्देश्य इन तीनों गुणों से परे गुणातीत होकर जीवन, मृत्यु, क्षय, सड़न और दुःख के चक्र से मुक्त होना है। सत्वगुण को बढ़ाएं। रजो गुण व इच्छाओं को नियंत्रित रखें तथा तमोगुण का दृढ़तापूर्वक उन्मूलन करें और फिर देखें कि जीवन में क्या अंतर आता है। अध्याय के अंतिम भाग में उस व्यक्ति के गुणों के बारे में चर्चा की गई है जो इन गुणों से ऊपर उठकर गुणातीत हो गया है।

इसमें बताया गया है कि व्यक्ति किस प्रकार ब्राह्मण बनता है। जब आप अपने आस-पास इन गुणों का प्रभाव देखते हैं लेकिन स्वयं इनसे प्रभावित नहीं होते तो फिर आप सच में इन गुणों से ऊपर उठकर गुणातीत व परम ज्ञान व शांति की श्रेष्ठतम अवस्था में पहुंच चुके हैं। यह भगवान बुद्ध का बुद्धत्व है। इसी पथ पर अग्रसर हों तथा अपने एवं समाज के संवर्द्धन एवं समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करें। ज्योतिष के अनुसार बृहस्पति को सत्वगुणी ग्रह माना जाता है और ऐसा माना जाता है कि यदि एक बलवान बृहस्पति केंद्र में विराजमान हो तो वह सभी दोषों को दूर कर देता है और अन्य ग्रह कुछ भी अनिष्ट नहीं कर पाते तथा ऐसा व्यक्ति दीर्घजीवी, बुद्धिमान, कुशल वक्ता और योग्य नेता बनता है। इस प्रकार से समस्त ज्योतिष ग्रंथों में बृहस्पति ग्रह का बड़ा ही गौरवपूर्ण वर्णन मिलता है।


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कहा भी है कि गुरु बिन ज्ञान नहीं या गुरु ग्रह के केंद्रस्थ हुए बिना योग विद्या में रुचि नहीं हो सकती आदि-आदि। बली बृहस्पति ग्रह वाले लोग सांसारिक जीवन में शीघ्रता से उन्नति करने वाले होते हैं। कहते हैं अब्राहम लिंकन की तर्जनी उंगली (गुरु ग्रह की प्रतिनिधि) मध्यमा से अधिक लंबी थी इसलिए उनके जीवन का सफर भी फर्श से अर्श तक का रहा। सद्गुणसंपन्न मनुष्य ही उन्नति की राह पर अग्रसर होता है। चूंकि बृहस्पति व्यक्ति को सद्गुण संपन्न बनाता है इसलिए इस ग्रह से प्रभावित मानव की उन्नति की



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