नव रत्न - एक विहंगम दृष्टिपात

नव रत्न - एक विहंगम दृष्टिपात  

व्यूस : 10109 | मई 2012
नव रत्न - एक विहंगम दृष्टिपात फ्यूचर पाॅइंट के सौजन्य से माणिक्य सूर्य रत्न माणिक्य सूर्य के शुभ फल प्राप्ति हेतु धारण किया जाता है। विभिन्न स्थानों से प्राप्त माणिक्य के रंगों में अंतर होता है। कबूतर के रक्त के समान रंग वाला माणिक्य अधिक मूल्यवान होता है। बर्मा का माणिक्य अपना विशिष्ट स्थान रखता है। बर्मा से प्राप्त माणिक्य का रंग स्याम के माणिक्य से कम गहरा होता है। श्री लंका से प्राप्त माणिक्य के रंग में कुछ पीलापन होता है। सबसे उत्तम जाति के माणिक्य उत्तरी बर्मा के मोगोल नामक स्थान से प्राप्त होते है। स्याम में माणिक्य बैंकाॅक के निकट चांटबन नामक स्थान में पाये जाते हैं। यहां ये रेतीली मिट्टी से प्राप्त होते हैं। बर्मा के माणिक्य की खदानें सबसे पुरानी मानी जाती हैं। संसार के सबसे उत्तम और बड़े माणिक्य यहीं से प्राप्त होते हैं। बर्मा में माणिक्य और नीलम दोनों पाये जाते हैं। बर्मा के माणिक्य की कीमत अधिक होती है। पश्चिमी देशों में भी प्राचीन काल से माणिक्य बहुत उपयोगी रत्न माना जाता है। ऐसा विश्वास था कि माणिक्य विष को दूर कर देता है, प्लेग से रक्षा करता है; दुख से मुक्ति प्रदान करता है, मन में बुरे विचारों को आने से रोकता है तथा धारण करने वाले पर विपत्ति आने वाली हो, तो उसका रंग बदल जाता है जिससे व्यक्ति समय रहते सावधान हो जाता है। माणिक्य पहन कर सूर्य उपासना करने से सूर्य की पूजा का फल दुगना हो जाता है। माणिक्य धारण करने से सूर्य संबंधी रोगों (सिर पीड़ा, ज्वर, नेत्र विकार, पित्त विकार, मूच्र्छा, चक्कर आना, दाह (जलन), हृदय रोग, अतिसार) अग्नि, शस्त्र एवं विष जन्य विकार, पशु एवं शत्रुभय, दस्यु पीड़ा, राजा, धर्म, देवता, ब्राह्मण, सर्प, शिव आदि की अप्रतिष्ठा से चित्त विकार एवं इनसे भय आदि से रक्षा होती हैं। मानहानि, पिता और पुत्र की विचार विषयता से बचाव होता है। सूर्य हृदय का प्रतिनिधि है। रत्नों में वह माणिक्य का प्रतिनिधि है। इसलिए व्यक्ति को सूर्य को बल देने के लिए माणिक्य धारण करना चाहिए। हृदय के सभी प्रकार के कष्टों अथवा रोगों में सोने की अंगूठी में माणिक्य पहनना लाभदायक माना गया है। माणिक्य की पिष्टी और भस्म दोनों औषधि के रूप में उपयोग में आते हैं। माणिक्य रक्तवर्धक, वायुनाशक और उदर रोगों में लाभकारी है। माणिक्य भस्म के सेवन से आयु में वृद्धि होती है। इसमें वात, पि़त्त, कफ को शांत करने की शक्ति है। यह क्षय रोग, दर्द, उदर शूल, चक्षु रोग, कोष्ठबद्धता आदि दूर करता है। इसकी भस्म शरीर में उत्पन्न उष्णता और जलन को दूर करती है। भाव-प्रकाश एवं रस-रत्न-समुच्चय के अनुसार माणिक्य कषाय और मधुर रस प्रधान द्रव्य है। यह शीतलतादायक अग्निदीपक और नेत्र ज्योति को बढ़ाने वाला है। मोती मोती को चंद्र रत्न माना गया है। यह मुख्यतया सफेद रंग का ही होता है किंतु हल्का पीलापन लिये तथा हल्का गुलाबीपन लिये मोती भी मिलते हैं। मोती खनिज रत्न न होकर जैविक रत्न होता है। मूंगे की भांति ही मोती का निर्माण भी समुद्र के गर्भ में सीपी द्वारा किया जाता है। मोती फारस की खाड़ी, श्रीलंका बेनेजुएला, मैक्सिको, आस्ट्रेलिया तथा बंगाल की खाड़ी में पाए जाते हैं। भारत में मोती दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य के तूतीकोरन तथा बिहार के दरभंगा जिले में भी प्राप्त होते हैं। वर्तमान समय में सबसे अधिक मोती चीन तथा जापान में उत्पन्न होते हैं। चीन तथा जापान में मोती को विशेष प्रकार से उत्पन्न किया जाता है। फारस की खाड़ी में उत्पन्न होने वाले मोती को ही ‘‘बसरे का मोती’’ कहा जाता है। यह सर्वोŸाम प्रकार का मोती होता है। मोती की प्रमुख विशेषता यह है कि यह हमें सर्वथा अपने प्राकृतिक रूप में ही प्राप्त होता है। अन्य रत्नों की भांति इसकी कटिंग तथा पाॅलिश आदि नहीं की जाती और न ही इसे आकार दिया जाता है। अधिक से अधिक माला में पिरोए जाने के लिए इनमें छिद्र ही किये जाते हैं। मोती शीतवीर्य होता है। अतः इसके धारण करने से क्रोध शांत रहता है तथा मानसिक तनाव भी दूर होता है। असली मोती की पहचान निम्नलिखित हैं- मोती में विशेष प्रकार की चमक अथवा प्राच्य आभा होती है। इसकी चमक स्थाई होती है। मोती के आकार से भी उसकी परख की जा सकती है क्योंकि यह गोल, बेडौल तथा टेढ़ा-मेढ़ा भी होता है। इसकी कोई कटिंग आदि नहीं की जाती। अतः यह अपने प्राकृतिक रूप में ही उपलब्ध होता है। मोती को किसी कपड़े पर रगड़ने से उसकी चमक में वृद्धि होती है। मोती तारे के समान प्रकाशमान, स्वच्छ, श्वेत तथा चिकना होता है। मोती सोने या चांदी की अंगूठी में जड़वाकर धारण करना चाहिए। इनमें भी चांदी में धारण करना अधिक श्रेष्ठ है। सोमवार के दिन प्रातःकाल नित्य कर्म आदि से निवृŸा होकर मोती की अंगूठी को कच्चे दूध और गंगाजल से धोकर निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए दाएं हाथ की कनिष्ठा उंगली में धारण करना चाहिए- ‘‘श्रां श्रीं श्रौं सः चन्द्रमसे नमः’’ मूंगा मूंगा मंगल ग्रह का प्रतिनिधि रत्न है। इसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है अंग्रेजी में इसे कोरल कहते हैं। मूंगा मुख्यतः लाल रंग का होता है। इसके अतिरिक्त मूंगा सिंदूरी, गेरुआ, सफेद तथा काले रंग का भी होता है। मूंगा एक जैविक रत्न होता है। मूंगे के विषय में कुछ लोगों की धारणा है कि मूंगे का पेड़ होता है किंतु वास्तविकता यह है कि मूंगे का पेड़ नहीं होता और न ही यह वनस्पति है। बल्कि इसकी आकृति पौधे जैसी होती है। वास्तव में यह जैविक रत्न है। मूंगा समुद्र में जितनी गहराई पर प्राप्त होता है, इसका रंग उतना ही हल्का होता है। इसकी अपेक्षा कम गहराई पर प्राप्त मूंगे का रंग गहरा होता है। यह अल्जीरिया, सिगली के कोरल सागर, ईरान की खाड़ी, हिंद महासागर, इटली तथा जापान में प्राप्त होता है। इटली से प्राप्त मूंगे को इटैलियन मूंगा कहा जाता है। यह गहरे लाल सुर्ख रंग का होता है। सर्वोत्तम मूंगा जापान का होता है। यद्यपि मूंगा अधिक मूल्यवान रत्न नहीं होता किंतु इसके सुंदर व आकर्षक रंग के कारण इसे नवरत्नों में शामिल किया गया है। मूंगा धारण करने से मंगल ग्रह जनित समस्त दोष शांत हो जाते हैं। मूंगा धारण करने से रक्त साफ होता है और रक्त की वृद्धि होती है। मूंगा धारण करने से हृदय रोगों में भी लाभ होता है, व्यक्ति को नजर दोष (नजर लगना) तथा भूत-प्रेत बाधा आदि का भय नहीं रहता। इसीलिए प्रायः छोटे बच्चों के गले में मूंगे के दाने डाले जाते हैं। मूंगा हो या अन्य कोई रत्न, इनके धारण करने का श्रेष्ठ ढंग तो यही है कि किसी योग्य पंडित से इनकी प्राण-प्रतिष्ठा कराकर ही धारण करना चाहिए किंतु जो व्यक्ति किसी कारणवश ऐसा नहीं कर सकते उन्हें निम्नलिखित विधि के अनुसार मूंगा धारण करना चाहिए- मूंगे को सोने, चांदी अथवा चांदी और तांबा या दोनों धातुओं को मिलवाकर बनी अंगूठी में धारण किया जाता है। उपर्युक्त धातुओं में से किसी से बनी अंगूठी में मूंगा जड़वाकर अनामिका उंगली पहनना चाहिए। इसे कच्चे दूध और गंगाजल से धोकर मंगलवार के दिन प्रातः सूर्योदय से ग्यारह बजे के मध्य दाएं हाथ की अनामिका उंगली में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ धारण करना चाहिए। ‘‘क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः’’ स्त्रियों के लिए बाएं हाथ की अनामिका उंगली में धारण करने का विधान है। पन्ना पन्ना बुध ग्रह का प्रतिनिधि रत्न माना जाता है इसे अंग्रेजी में एमराल्ड कहते हैं। पन्ना हरा तथा तोते के पंख के रंग का होता है, यह अति प्राचीन, बहुप्रचलित तथा मूल्यवान रत्न होता है। मूल्यवान रत्नों की श्रेणी में इसका तीसरा स्थान है। भारत में पन्ना अजमेर, उदयपुर, भीलवाड़ा तथा छतरपुर में प्राप्त होता है। विदेशों में यह पाकिस्तान, अफ्रीका, अमेरिका, ब्राजील, कोलम्बिया, मेडागास्कर तथा साइबेरिया में प्राप्त होता है। आजकल सर्वोकृष्ट पन्नों के लिए कोलम्बिया की खानें प्रसिद्ध हैं। दूसरे दर्जे के पन्ने रूस तथा ब्राजील से प्राप्त होते हैं। पन्ना प्रायः पारदर्शी और अपारदर्शी दोनों ही रूपों में पाया जाता है। पारदर्शी पन्ने में प्रायः हल्का-सा जाला अथवा रेशा अवश्य पाया जाता है। प्रायः सर्वथा निर्दोष पन्ना कम ही उपलब्ध होता है। अगर मिलता भी है तो उसका मूल्य इतना अधिक होता है कि इसे खरीदना आम आदमी के बस का नहीं होता है। पन्ना नेत्र रोग नाशक व ज्वर नाशक होता है। साथ ही पन्ना सन्निपात, दमा, शोथ आदि व्याधियों को नष्ट करके शरीर में बल एवं वीर्य की वृद्धि करता है। पन्ने की प्रमुख विशेषता यह है कि पन्ना धारण करने से बुध जनित समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं। इसके धारण करने से धारक की चंचल चिŸा वृŸिायां शांत व संयमित रहती हैं तथा धारक को मानसिक शांति प्राप्त होती है। इसके धारण करने से मन एकाग्र होता है। यह काम, क्रोध आदि विकारों को शांत कर धारक को असीम सुख-शांति प्रदान करता है। इसीलिए ईसाई पादरी लोग प्रायः पन्ना धारण किए रहते हैं। इसमें भंगुरता होने के कारण यह गिरने से टूट सकता है। पन्ने की अंगूठी सोने, चांदी या प्लेटिनम में बनवाकर दाएं हाथ की कनिष्ठा उंगली में धारण करनी चाहिए। बुधवार के दिन प्रातः नित्य कर्म आदि से निवृŸा होकर कच्चे दूध और गंगाजल से अंगूठी को धोकर निम्नलिखित मंत्र के उच्चारण के साथ धारण करनी चाहिए- ‘‘¬ ब्रां ब्रीं ब्रौं सः बुधाय नमः’’ पुखराज पुखराज पीले लाल तथा सफेद रंग में भी पाया जाता है। असली पुखराज को यदि कांच के गिलास में गाय का दूध भर कर डाल दें, तो एक घंटे बाद पुखराज के रंग की किरणें ऊपर सतह तक जाती प्रतीत होती है। इसे गुरुवार को दिन में सोने की अंगूठी में, धनु, अथवा मीन लग्न में धारण करना चाहिए। मेष लग्न वालों को पुखराज धारण करना उचित नहीं माना गया है। परंतु गुरु ग्रह प्रथम, पंचम, नवम भाव में हो, तो इसे धारण करने से लाभ होता है। वृष लग्न वाले जातकों को पुखराज शरीर का कष्ट देता है। इसलिए उन्हें इसे नहीं धारण करना चाहिए। मिथुन कन्या, धनु व कुंभ लग्न वाले जातकों को पुखराज धारण करने से लाभ होता है। कर्क लग्न वाले जातकों के लिए पुखराज अनुकूल नहीं रहता है। सिंह, तुला तथा मकर लग्न वाले जातकों को भी पुखराज धारण नहीं करना चाहिए। वृश्चिक लग्न वाले जातकों को संतान तथा धन संबंधी कष्ट निवारण के लिए पुखराज धारण करने से लाभ होता है। मीन लग्न के लिए गुरु ग्रह लग्नेश होता है। उनके लिए पीला पुखराज लाभकारी होता है, क्योंकि गुरु शरीर तथा कर्म भाव का स्वामी होता है। अन्य विचारः अंक शास्त्र के हिसाब से जन्म 3, 12, 21 तथा 30 तारीखों में जन्में जातकों का मूलांक 3 माना जाता है। 3 अंक का स्वामी गुरु ग्रह को माना गया है। उन्हें पुखराज धारण करने से लाभ होता है। जिन जातकों के जन्मांक में ब्राह्मण वर्ण है, उन्हें सफेद पुखराज, क्षत्रिय वर्ण होने पर गुलाबी, अथवा लाल पुखराज तथा ‘वैश्य वर्ण’ वालों को पीला पुखराज धारण करना चाहिए। श्वेत पुखराज ज्ञानवर्धक, लाल पुखराज शक्तिवर्धक, तथा पीला पुखराज सुख और धनवर्धक माने गये हैं। हीरा शुक्र के शुभ प्रभाव को बढ़ाने के लिए हीरा धारण करना लाभदायक माना गया है। निम्न स्थितियों में हीरा धारण करना चाहिए।ः जब शुक्र शुभ भावेश हो और अपने भाव से 6, या 8वें घर में उपस्थित हो। जब शुक्र कुंडली में नीच राशि में हो, वक्री हो, अस्त हो या पाप ग्रहों के प्रभाव में हो। उपर्युक्त स्थिति के शुक्र की महादशा, या अंतर्दशा चल रही हो या जिन व्यक्तियों को विषैले जीव-जंतुओं के बीच में रहना पड़ता हो। व्यापारिक प्रतिनिधि, फिल्म अभिनेता एवं अभिनेत्रियां, फिल्म निर्माता तथा किसी भी कला क्षेत्र से जुड़े हुए व्यक्ति तथा प्रेमी-प्रेमिका भी इसे धारण कर लाभ ले सकते हैं। भूत-प्रेत व्याधि से पीड़ित व्यक्ति भी हीरा धारण कर लाभ ले सकते हैं। शुद्ध हीरे को गर्म पानी, गर्म दूध, या तेल में डालने पर यह उसे ठंडा कर देता है। शुद्ध हीरे पर किसी भी वस्तु की खरोंच का चिह्न नहीं बन सकता। दोषयुक्त हीरा कभी धारण न करें। जो हीरा धूम्र वर्ण, लाल, या पीला हो, उसे धारण न करें। हीरे पर किसी प्रकार की रेखा, बिंदु, या कटाव नहीं होना चाहिए। अंगूठी में जड़ने के लिए कम से कम एक रत्ती वजन का हीरा होना चाहिए। वैसे जितने अधिक वजन का हीरा धारण किया जाएगा, उतना ही अच्छा परिणाम प्राप्त होगा। हीरे के साथ माणिक्य, मोती, मूंगा और पीला पुखराज न पहनें। एक बार धारण किये हुए हीरे का प्रभाव 7 वर्ष तक रहता है। उसके बाद उसे पुनः विधिवत् दूसरी अंगूठी में धारण करना चाहिए। हीरे को चांदी, या प्लैटिनम में दाहिने हाथ की कनिष्ठिका (सबसे छोटी अंगुली) में शुक्रवार को प्रातः काल धारण किया जाना चाहिए। अंगूठी बनाते समय शुक्र वृष, तुला, या मीन राशि में हो, अथवा शुक्रवार के दिन भरणी, पूर्वाषाढ़ा या पूर्वाफाल्गुनी में से कोई भी नक्षत्र हो, तब यह अंगूठी बनवा कर धारण करनी चाहिए। अंगूठी बनवाने के बाद उस अंगूठी की पूजा, प्राण-प्रतिष्ठा, हवन आदि क्रिया करने के पश्चात, शुक्रवार को, प्रातःकाल, पूर्व दिशा की ओर मुंह कर के, धारण करनी चाहिए। यदि ऐसा करना संभव न हो, तो शुक्र के पौराणिक मंत्र ‘ऊं शुं शुक्राय नमः’ की एक माला जप कर उपर्युक्त मुहूर्त में अंगूठी धारण की जा सकती है। स्त्रियों को हीरा धारण करने का निषेध मिलता है। इस संबंध में स्वयं शुक्राचार्य ने कहा है: ‘न धारयेत् पुत्र कामानारी वज्रम् कदाचन।’ अर्थात् पुत्र की कामना रखने वाली स्त्री को हीरा नहीं पहनना चाहिए। अतः वे स्त्रियां जिनको पुत्र संतान हैं, परीक्षणोपरांत हीरा धारण कर सकती हैं। नियमानुसार धारण किया गया हीरा व्यक्ति को सुख, ऐश्वर्य, राजसम्मान, वैभव, विलासिता आदि देने में पूर्ण सक्षम होता है। लेकिन किसी योग्य दैवज्ञ से कुंडली दिखाने के बाद ही हीरा धारण करें। हीरा अपना शुभाशुभ परिणाम शीघ्र देता है। नीलम नीलम के स्वामी शनि देवता हैं। ज्योतिष शास्त्र में शनि की दशा दुर्दशा और दुख की द्योतक मानी जाती है। इसलिए शनि के कोप को शांत करने के लिए सहज उपाय नीलम धारण करना माना जाता है। नीलम श्रीलंका, बर्मा, थाईलैंड मंे उत्तम और प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं, परंतु कश्मीर प्रदेश से प्राप्त नीलम सबसे उत्तम होते हैं, जिन्हंे ‘मयूर नीलम’ कहते हैं, क्योंकि इनका रंग मोर की गर्दन के रंग की तरह का होता है। कश्मीरी नीलम बिजली के प्रकाश में अपना रंग नहीं बदलता, जबकि अन्य स्थानों से प्राप्त नीलम बिजली के प्रकाश में स्याह रंग के दिखाई देते हैं। नीलम मकर एवं कुंभ राशि का प्रतिनिधि और सितंबर माह का ग्रह रत्न है। नीलम सत्य और सनातन का प्रतीक है। विवेकशीलता, सत्य तथा कुलीनता जैसे गुण इसके साथ जुड़े हुए हैं। शुभ फलदायक सिद्ध होने पर यह, धारणकत्र्ता के रोग, दोष, दुख-दारिद्रय नष्ट कर के, धन-धान्य, सुख-संपत्ति, बुद्धि, बल, यश, आयु और कुल, संतति की वृद्धि करता है। नीलम धारण करने से स्त्रियों में अनैतिकता नहीं आती। प्रेमियों के लिए यह भाग्यवान रत्न माना जाता है। यह प्रसन्नतावर्धक है, परंतु पापी व्यक्ति को विपरीत फल देता है। नीलम दिलोदिमाग को सुकून देने वाला माना गया है, जो श्वास, खांसी और पित्त की बीमारी को कम करता है। खूनी नीलम सर्वाधिक असरकारक माना जाता है और सावधानी से धारण करने की हिदायतों के साथ दिया जाता है, क्योंकि कुछ दिन तक धारण करने पर अनिष्ट होना भी संभव है। रत्न कितने समय में फल देगा, यह कुंडली के ग्रह की स्थिति पर निर्भर करता है। अगर ग्रह किसी संवेदनशील जगह पर स्थित होगा तो तुरंत प्रभाव दिखायेगा, अन्यथा सामान्य स्थिति में स्थित ग्रह का प्रभाव देखने के लिये कुछ समय प्रतीक्षा करना आवश्यक होगा। गोमेद गोमेद को संस्कृत में गोमेदक, पिगस्फटीक, पीतरक्तमणि, तमोमणि, राहु रत्न, अंग्रेजी में ऐगेट, चीनी में पीली, बंगला में मोदित मणि, अरबी में हजार यमनी कहते हैं। यह लाली लिये हुए पीले रंग का पारदर्शक चमकीला रत्न होता है। इसका रंग शहद जैसा भूरा होता है। गाय के मूत्र के रंग का होने के कारण इसे गोमेद कहा जाता है क्योंकि गौमूत्र का अपभ्रंश रूप है गोमेद। गोमेद धारण करने से भ्रम का नाश होता है। यह निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करता है। गोमेद आत्मबल का संचार करता है और दरिद्रता मिटा कर आत्मसंतुष्टि देता है तथा शत्रु पर विजय प्राप्त होती है। सफलता सुगमता से मिलती है। पाचन संस्थान के मुख्य अंग आमाशय की गड़बड़ी को दूर करता है। विवाह संस्कार में आने वाली बाधा को दूर कर शीघ्र शादी करवाता है। संतान बाधा को दूर कर शीघ्र संतान प्रदान करता है। विदेशी मतानुसार गोमेद अगस्त में जन्मे व्यक्ति का जीवन रत्न होता है। 15 फरवरी से 15 मार्च, यानी कुंभ के सूर्य में जन्मे व्यक्ति को यह रत्न अवश्य धारण करना चाहिए। अंक विज्ञान (न्यूमरोलाॅजी) के अनुसार 4, 13, 22 एवं 31 तारीख को जन्मे व्यक्ति को गोमेद धारण करना चाहिए। गोमेद धारण करने से कन्या राशि और कन्या लग्न वालों का मन प्रसन्न रहता है, चिंता दूर रहती है। गोमेद का भौतिक गुण: यह लोहा एवं जस्ता तथा अन्य द्रव्यों का मिश्रण है। लोहे का अंश अधिक होने पर गोमेद को चुंबक खींच लेता है। प्रथम वर्ग: यह गोमेद प्रसिद्ध है। इसके दो रंग हैं- पीला और श्वेत। यह सरलता से तराशा नहीं जा सकता है। इसमें अपूर्व चमक होती है। यह सामान्य जन के लिए सुलभ नहीं है। द्वितीय वर्ग: यह भूरा रंग लिए होता है। इसमें अन्य गुण प्रथम श्रेणी के ही पाये जाते हैं। गया का गोमेद, जो संसार में प्रसिद्ध है इसी वर्ग का गोमेद है। तृतीय वर्ग: इसमें हरे रंग की झांइयां होती हैं। यह भूरे और नारंगी रंग में भी पाया जाता है। प्राप्ति स्थान: लंका, भारत, थाईदेश, कंबोडिया, मैडागास्कर। गोमेद के उपरत्न है: तुरसाब, जिरकन, तुस्सा और साफी तृणकांतमणि। गोमेद कभी भी सवा चार रत्ती से कम का नहीं धारण करना चाहिए। गोमेद 6, 11, 7, 10 रत्ती का धारण कर सकते हैं, परंतु 9 रत्ती का कभी भी धारण न करें। गोमेद के अभाव में सफेद चंदन को नीले डोरे में बांध कर गले में धारण करें। लहसुनिया लहसुनिया को केतु रत्न माना गया है। अंग्रेजी में इसे कैट्स आई कहते हैं। लहसुनिया हल्के पीले रंग का तथा बांस के समान होता है। इसकी सतह पर सफेद रंग का सूत्र अथवा धारी होती है, जो कि हिलाने-डुलाने पर चलती हुई-सी प्रतीत होती है। इस प्रकार देखने से यह बिल्ली की आंख के समान प्रतीत होता है। इसी कारण इसे विडालाक्ष अथवा कैट्स आई भी कहा जाता है। यह वायु-गोला तथा पिŸाज रोगों का नाशक, सरकारी कार्यों में सफलता दिलाने वाला तथा दुर्घटना आदि से बचाने वाला होता है। लहसुनिया श्रीलंका, ब्राजील, चीन तथा बर्मा में प्राप्त होता है। भारत में यह उड़ीसा में पाया जाता है। श्रीलंका का लहसुनिया प्रसिद्ध है। लहसुनिया धारण करने से दुःख- दरिद्रता, व्याधि, भूत बाधा एवं नेत्र रोग नष्ट होते हैं। लहसुनिया की प्रमुख विशेषता यह है कि इसे धारण करने से केतु जनित समस्त दुष्प्रभाव शांत होते हैं। असली लहसुनिया की पहचान निम्नलिखित हैं- अच्छे लहसुनिया में चमकीलापन तथा चिकनाहट होती है। वजन में यह सामान्य से कुछ वजनदार प्रतीत होता है। लहसुनिया के बीच में सफेद रंग का सूत्र अथवा धारी होती है। इसे थोड़ा इधर-उधर घुमाने पर यह धारी चलती हुई-सी प्रतीत होती है। इसे कपड़े पर रगड़ने से इसकी चमक में वृद्धि होती है। लहसुनिया धारण विधि: लहसुनिया की अंगूठी सोने या चांदी में बनवाकर सोमवार के दिन कच्चे दूध व गंगाजल से धोकर अनामिका उंगली में निम्नलिखित मंत्र के उच्चारण के साथ धारण करनी चाहिए- ‘‘¬ स्रा स्रीं स्रौं सः केतवे नमः’’



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