पूर्वापर जन्म एवं उसकी तथ्यपरकता

पूर्वापर जन्म एवं उसकी तथ्यपरकता  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 7163 | सितम्बर 2011

पूर्वा पर जन्म अर्थात् पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त एक ऐसा दार्द्गानिक सिद्धान्त है जिसकी जड़ें भारतीय संस्कृति के अत्यन्त गहन स्तर को छूती है। इस सिद्धान्त से अनेक सामाजिक व धार्मिक समस्याओं का समाधान लोग प्राचीन काल से करते आये हैं। आधुनिक परामनोवैज्ञानिक शोधों ;च्ंतंचेलबीवसवहपबंस तमेमंतबीमेद्ध ने इस सिद्धान्त की पुनर्प्रतिष्ठा में महती योगदान दिया है।

भारतीय संस्कृति की ''जैसी करनी वैसी भरनी'' उक्ति को चरितार्थ करने वाली कहावत तो सभी ने सुनी ही होगी। यदि इस कहावत में एक पंक्ति और जोड़ दी जाये-''इस जन्म नही तो अगले जन्म सही'' तो यह पूर्ण हो जायेगी। परलोक के बनने-बिगड़ने के भय से, पाप-पुण्य के डर से लोग परंपरागत नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों का पालन किया करते थे।

पुनर्जन्म कष्टदायी होने का, नरकवास का, परलोक में दुर्गति आदि का भय मनुष्य को अपने धर्माचरण में पूर्ण आस्था एवं निष्ठा बनाये रखने में परम सहायक हुआ करता है। प्रसिद्ध परामनोवैज्ञानिक डॉ0 इयान स्टीवेंसन के अनुसार आनुवंद्गिाकी (ळमदमजपबे) के साथ पर्यावरण सम्बन्धी प्रभाव मानव व्यक्तित्व के सभी वैचिभ्य एवं असामान्यताओं की व्याखया प्रस्तुत नहीं कर सकते।

भारतदेद्गा में अनेक दर्द्गानों का संगम देखने को मिलता है। दार्द्गानिकों की मान्यता है कि भारत में प्रचलित नवदर्द्गानों में तीन दर्द्गानों- जैन, बौद्ध और चार्वाक को नास्तिक माना गया है, क्योंकि वे ''वेदनिन्दको नास्तिकः'' परिभाषा के अनुसार नास्तिक कहे गये हैं जबकि पुनर्जन्म और परलोक की मान्यता के अनुसार इनमें से जैन दर्द्गान नास्तिक नहीं है। वह पुनर्जन्म और परलोक को स्वीकार करता है।

बौद्धों के अनुसार आत्मा क्षणिक है और मृत्यु के साथ ही पंचतत्व में विलीन हो जाती है। इसके अतिरिक्त चार्वाक भी आत्मा का नाद्गा मृत्यु के साथ ही मानते हैं और इसी वजह से वे इहलोक में खूब मौज-मस्ती के सिद्धान्त का पोषण करते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति में जन्म से ही कुछ विचित्र व्यवहार होते हैं और वे आमरण बने रहते हैं। इन विचित्रताओं का समाधान पुनर्जन्म के सिद्धान्त से संतोषपूर्वक हो सकता है। जब बारह वर्षीय शुकदेव ने वेद-ऋचाओं के गहन अभ्यास का परिचय दिया या आठ वर्षीय ज्ञानदेव ने शास्त्रार्थ द्वारा अपनी अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया तो उनकी इस अलौकिकता का समाधान पूर्वजन्म के संस्कारों से ही होता है।

कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि पुनर्जन्म की अवधारणा का जन्म भारत में हुआ है, लेकिन आधुनिक शोध-सर्वेक्षणों से यह सिद्ध होता है कि पद्गिचम के भी अनेक देद्गाों में यह धारणा समय-समय पर बलवती रही है। पद्गिचम में पुनर्जन्म की अवधारणा का एक प्रभावोत्पादक इतिहास है।

पाइथागोरस एवं प्लेटो से भी प्राचीन समय में हमें इस अवधारणा के संकेत मिलते हैं। उत्तर पद्गिचमी अमेरिका, लेबनान और तुर्की आदि देद्गाों में पुनर्जन्म की परम्परा रही है। हिब्रू जनजाति में भी पुनर्जन्म का सिद्धान्त प्रचलित था।

जैसा कि राधाकृष्णनन् ने लिखा है- क ु छ लोगों की ऐसी मान्यता है कि पुनर्जन्म की अवधारणा का जन्म भारत में हुआ है, लेकिन आधुनिक शोध-सर्वेक्षणों से यह सिद्ध होता है कि पद्गिचम के भी अनेक देद्गाों में यह धारणा समय-समय पर बलवती रही है। पद्गिचम में पुनर्जन्म की अवधारणा का एक प्रभावोत्पादक इतिहास है।

The doctrine of rebirth has had a long and influential history. It is a cardinal belief of the orphic religion that the wheel of birth revolves inexorably. Pythagoras, Plato and Empedocles regard rebirth as almost axiomatic. For them pre-existence and survival stand or fall together. It we turn to the Hebrews, there are traces of it in Philo and it was definitely adopted in the Kabbala. The Sufi writers accept it. About the beginning of the Christian era, it was current in Palestine.-Dr Radhakrishnan, An Idealist View of Life, Page-227

पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानना एक बात है और उसमें पूर्ण आस्था होना दूसरी। व्यक्ति में विधेयात्मक एवं वांछित आचार-व्यवहार तभी दृष्टिगत होंगे जबकि पूर्वजन्म या जन्मान्तर में उसकी आस्था होगी। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे नैतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को प्रभावित करने में पुनर्जन्म के प्रति आस्था का अपना विद्गोष महत्त्व है।

आजकल पाद्गचात्य देद्गाों में भी इस दिद्गाा में गहन शोध हो रहा है। भारत में भी योगी अरविन्द, महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज, डॉ0 राधाकृष्णन आदि का चिंतन इस दिद्गाा में हमारा अच्छा मार्ग दर्द्गान करता है। हमारा उपनिषद् साहित्य पुनर्जन्म और परलोकवाद की अवधारणाओं से ओत-प्रोत है।

पूर्वजन्म और परजन्म की सिद्धि- प्रायः सभी भारतीय दर्द्गानों में यह माना गया है कि मनुष्य को अपने भले-बुरे कर्मों का फल अवद्गय ही भोगना पड़ता है। यदि पुनर्जन्म और परजन्म को नहीं माना जाये तो आत्मा अपने समस्त शुभाद्गाुभ कर्मों का फल भोगता है तो हमें पूर्वजन्म-परजन्म को अवद्गय मानना ही होगा।

आत्मा को उसके समस्त शुभाद्गाुभ कर्मों का फल भोगते हुए यहां इसी वर्तमान जन्म में नहीं देखा जाता है, अतः अवद्गय ही पुनर्जन्म होना चाहिए। उदाहरणार्थ- यहां कोई व्यक्ति किसी एक आदमी की हत्या करता है तो उसे फांसी की सजा दी जाती है और यदि वह दस आदमियों की हत्या करे तो भी उसे फांसी ही दी जाती है और यदि पचास आदमियों की हत्या करे तो भी उसे फांसी ही दी जाती है।

एक आदमी की हत्या से दस आदमी की हत्या का और दस आदमी की हत्या से पचास आदमियों की हत्या का पाप अधिक है- अपराध बड़ा है, परन्तु यहां सभी की सजा एक जैसी फांसी ही सुनाई जा सकती है, जो वस्तुतः देखा जाए तो न्याय नहीं हुआ है, अतः इसके न्याय हेतु अवद्गय ही नरकादि गतियों में पुनर्जन्म का अस्तित्व मानना होगा।

इसी प्रकार इस जन्म में प्रयत्न किये बिना ही एक आदमी अत्यधिक अनुकूल भोग सामग्रियों के बीच जन्म लेता है और महान सुख भोगता है, किन्तु दूसरा व्यक्ति अत्यधिक प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच जन्म लेता है और घोर कष्ट सहता है, इससे सिद्ध होता है कि पूर्वजन्म में किये गये कर्म ही वहां असली कारण हैं।

डॉ0 राधाकृष्णन् ने अपने ग्रन्थ ''भारतीय दर्द्गान'' के द्वितीय अध्याय में पृष्ठ 17 पर लिखा है कि ''प्रायः सभी धर्मों या दर्द्गानों में भी पूर्वजन्म-पुनर्जन्म को किसी न किसी रूप में अवद्गय ही स्वीकार किया गया है।'' जैन पुराणों में एक ही आत्मा के असंखय जन्मों का विवरण उपलब्ध होता है। वैदिक पुराणों में भी जन्म-जन्मान्तरों की हजारों कथाएं वर्णित हैं।

बौद्ध जातक भी पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म की ही कथाओं का चित्रण करते हैं। पुनर्जन्म से सम्बन्धित ऐसी अनेक बातें सुनने और अखबारों में पढ़ने को मिलती हैं। 6 जनवरी 2008 को नई दिल्ली से प्रकाद्गिात नवभारत टाइम्स में प्रकाद्गिात एक उदाहरण देखिये- ''पलवलः यूपी के कस्बे जट्टारी की 7 साल की आरती कहती है कि मेरा पुनर्जन्म हुआ है।

उसका दावा है कि पिछले जन्म में वह नजदीक के गांव फुलवाड़ी में रहती थी और उसका नाम रिसाली था। इस बच्ची को देखने के लिए लोगों का तांता लगा हुआ है। आरती के पिता हरिकृष्ण कहते हैं कि जब से बेटी ने होद्गा संभाला है, वह खुद को रिसाली बताती है।

जब सात साल की हुई तो फुलवाड़ी खबर भेजी। पता चला कि वहां रिसाली नाम की वृद्धा की 11 साल पहले 85 की उम्र में मौत हो गई थी। सन्देद्गा पाकर उनका रंजीत घर आया और आरती ने पहचान लिया और घर-परिवार की बातें करने लगी। आरती को फुलवाड़ी गांव लाया गया। उसे घर से काफी पहले ही छोड़ दिया गया, लेकिन उसने पुराना घर पहचान लिया।''

पूर्वजन्म और परजन्म का उद्देद्गय- पूर्वजन्म और परलोक ऐसे रहस्यमय बिन्दु हैं, जिनको जानने की जिज्ञासा मानव मन में सदैव से रही है, आज भी है और आगे भी रहेगी। पर विचारणीय यह है कि पूर्वलोक एवं पुनर्जन्म की बातों को जानने का उद्देद्गय क्या है? जहां तक उद्देद्गय का प्रद्गन है, यह कहा जा सकता है कि पूर्वजन्म और परजन्म को मानने से व्यक्ति का लौकिक जीवन भी क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद आदि की अनेक संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठकर अत्यन्त उदार एवं विद्गााल हो जाने से पवित्र बन जाता है।

मनुष्य ही नहीं, पद्गाु-पक्षी के प्रति भी उसके हृदय में सच्चा स्नेह उत्पन्न हो जाता है। इसके अतिरिक्त पूर्वजन्म और परलोक की घटनाओं और बातों में परिवर्तन और फेरफार की गुंजाइद्गा तो है ही नहीं, तब फिर हम उसे जानकर क्या कर सकेंगे? हां, यह अवद्गय कहा जा सकता है कि पूर्वजन्म को तो हम सुधार नहीं सकते, परन्तु परलोक को तो बिगड़ने से सुधारा जा सकता है।

परलोक को कैसे सुधारें- जैनदर्द्गान के ग्रन्थ तत्वार्थसूत्र के 6 अध्याय में लिखा है- ''बह्वारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः'' अर्थात् बहुत आरम्भ-परिग्रह परलोक में नरक गति का कारण बनता है। इसी प्रकार ''अल्पारंभपरिग्रहत्वं मानुष्यायुषः'' अर्थात् कम आरम्भ-परिग्रह मनुष्य योनि में पुनः जन्म लेने का कारण बनता है। मनुष्य जन्म को पुनः प्राप्त करने के लिए एक सूत्र और है- ''स्वभाव मार्दवं च'' अर्थात् मृदु स्वभाव-मानरहितत्व भी मनुष्य जन्म का कारण है।

जो व्यक्ति अधिक मायाचार, छल-कपट आदि करता है, उसे तिर्यंच गति यानि पद्गाु-पक्षी का जन्म लेना पड़ता है। जैसा कि लिखा है- ''मायातैर्यग्योनस्यः''। आपने दुनिया से ऐसे लोग देखे होंगे जो अपनी प्रद्गांसा कदम-कदम पर करते हैं और दूसरों की सदैव निन्दा करते रहते हैं। प्रायः ये दूसरों के सद्गुणों को छिपाते हैं और अपने सद्गुणों को उजागर करते हैं।

ऐसे लोगों को नीच कुल, गोत्र आदि में जन्म लेना होगा। इसी अर्थ का सूत्र देखिये-''परात्मनिन्दाप्रद्गांसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य'' अतः पुनर्जन्म और परलोक को सुधारने के लिए अत्यन्त सावधान रहना चाहिए। सदैव मृदुता धारण करनी चाहिए, और दूसरों की निन्दा से बचना चाहिए। राज अगले जन्म का- चाहे पूर्वजन्म हो या अगला जन्म, कर्मवाद के सिद्धान्त पर आधारित होता है, इसे ही सिद्ध करते हुए डाक्टर केनन किसी भी व्यक्ति को हिप्नोटिज्म द्वारा ट्रांस की अवस्था में डालकर उसकी स्मृति पिछले जन्मों तक ले जाकर उस व्यक्ति से उसके पूर्वजन्म के सम्बन्ध में पूछते थे।

अपनी पुस्तक ज्ीम च्वूमत ॅपजीपद के पृष्ठ 180 पर लिखते हैं- ''ट्रांस की अवस्था में एक महिला से पूछा गया कि ''दूसरा जन्म कहां लेना है, क्या इसकी पसन्द की जा सकती है? महिला ने उत्तर दिया, ''इस सम्बन्ध में अपनी पसन्द कोई काम नहीं करती। यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि हमने अपना यह जीवन और इससे पूर्व के जीवन किस प्रकार व्यतीत किये हैं और इसी तथ्य द्वारा हमारा अगला जन्म निद्गिचत होता है।''

इसी पुस्तक में वे लिखते हैं कि ''मेरे प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि किस प्रकार एक व्यक्ति अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण इस जन्म में दुख पाता है। यह कारण और कार्य के नियम द्वारा ही होता है, जिसको पूर्व के देद्गाों में कर्मों का फल कहते हैं। बहुत से व्यक्ति यह जानते हैं कि उनके ऊपर एक के बाद एक विपत्ति क्यों आ रही है?

परन्तु पुनर्जन्म का सिद्धान्त यह बतलाता है कि ये दुख पूर्वजन्मों के बुरे कार्यों के ही फल हैं। इसके साथ-साथ कुछ व्यक्ति ऐसे भी हैं कि वे चाहे कुछ भी करें, परन्तु वे सदैव सफल ही क्यों होते हैं। क्या यह पूर्वजन्मों में किये हुए अच्छे कर्मों का पुरस्कार नहीं है?

इसी संदर्भ में डवतमल ठमतदेजमपद ने अपनी पुस्तक द्र। ैमंतबी वित ठतपकमल डनतचीलश्श्च्च्में पृष्ठ 93 पर लिखा है- ''एडगर केसी ने विभिन्न व्यक्तियों के पूर्वजन्मों के आधार पर उनके वर्तमान के जन्म में उनकी शक्तियों, विद्गोषताओं, रुचियों, व्यवसायों आदि की जो भविष्यवाणियां की थीं, वे आद्गचर्यजनक रूप से सत्य सिद्ध हुई हैं।''

इसी सन्दर्भ में दिल्ली से प्रकाद्गिात होने वाले दैनिक ''नवभारत टाइम्स'' के 14 दिसम्बर 1984 के अंक में छपा निम्नलिखित समाचार भी तथ्यपूर्ण है-''कोजीकोड (दक्षिण भारत) के एक ज्योतिषी मुहम्मद अद्गारफ ने अपनी 28 वर्ष की खोज व अध्ययन के पद्गचात् बतलाया है कि स्त्रियों व पुरूषों के विवाह सम्बन्ध उनके जन्म से पूर्व ही निर्धारित हो जाते हैं। अनेकों विवाहित जोड़ों की ( जिनमें हिन्दू, मुस्लिम व ईसाई आदि सभी धर्मों को मानने वाले सम्मिलित हैं ) जन्म पत्रियों को देखकर ही उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है।

इनमें से अनेकों ने विवाह-सूत्र में बंधने से पहले किसी ज्योतिषी से पूछा भी न था। इसी विषय पर अंग्रेजी में एक कहावत है-द्रडंततपंहमे ंतम ेमजजसमक पद ीमंअमद इनज जीमल ंतम बमसमइतंजमक वद मंतजीण्च्च् इसका अर्थ है कि विवाह-सम्बन्ध स्वर्ग में ही निद्गिचत हो जाते हैं, परन्तु वे पृथ्वी पर सम्पन्न होते हैं। उपर्युक्त सम्पूर्ण विवरण से यह सिद्ध होता है कि पूर्वापर जन्म का राज कर्म सिद्धान्त ही है, अतः सदैव सत्कर्म ही करने चाहिए।

पुनर्जन्म और परलोक को बनाने और सुधारने में कर्म विपाक के सिद्धान्त का बहुत योगदान है। कर्म विपाक का सिद्धान्त परलोक सुधारने के भारतीय दर्द्गानों में वर्णित कर्म-फिलॉसफी को समझना होगा। जैनदर्द्गान के ग्रन्थ तत्वार्थसूत्र में इस सम्बन्ध में बहुत मार्मिक वर्णन किया गया है।

मनुष्य के अच्छे-बुरे कर्मों का फल उसे भोगना पड़ता है, इसी जन्म में अथवा जन्मान्तर में। यही कर्म-विपाक के सिद्धांत का आद्गाय है। वाल्मीकी रामायण में कहा गया है कि 'कर्म ही समस्त कारणों का, सुख-दुख के साधनों का मूल प्रयोजन है। स्वकर्म से मनुष्य बच नहीं सकता।

कहा भी गया है- ''स्वयं किये जो कर्म शुभाद्गाुभ, फल निद्गचय ही वे देते''। जिस प्रकार बछड़ा हजारों गायों के बीच अपनी जननी को पहचान लेता है, उसी प्रकार मनुष्य के अच्छे-बुरे कर्म उसे नहीं छोड़ते। पुनर्जन्म की मान्यता को मानने से ही यह गुत्थी सुलझ सकती है कि अनेक बार पुण्यवान व्यक्ति दुख का एवं दुराचारी सुख का जीवन क्यों बिताते हैं?

पुनर्जन्मवाद एवं परलोकवाद के सिद्धांतों से पुष्ट कर्मविपाक का यह सिद्धान्त दावा करता है कि भले ही एक पुण्य का काम इस जन्म में सुख उत्पन्न न करे, किन्तु वह किसी न किसी अगले जन्म में ऐसा करेगा अवद्गय और यह कि यदि कोई पापी व्यक्ति आज सुख का जीवन बिता रहा है तो उसने अवद्गय किसी पिछले जन्म में पुण्य का काम किया होगा।

जबकि उसे आज के पापों का फल यदि इस जन्म में नहीं तो किसी अगले जन्म में उसे मिलेगा अवद्गय। प्रस्तुत विषय से सम्बन्धित पठनीय पुस्तकें- पुनर्जन्म और परलोक सम्बन्धी तथ्यों के जानने के लिए निम्न पुस्तकें पठनीय हैं-

1. तत्वार्थसूत्र, आचार्य उमास्वामी, वीर सेवा मन्दिर टस्ट, जयपुर

2. सच्चे सुख का मार्ग, प्रकाद्गाक- श्रीमती कमला जैन, चैरिटेबल ट्रस्ट वी. 38, ग्रीन पार्क मेन, नई दिल्ली

3. चण्डीगढ़ से प्रकाद्गिात होने वाली कल्याण पत्रिका का 1969 का अंक, जिसमें पुनर्जन्म से सम्बन्धित कई महत्वपूर्ण और रोचक बातें हैं।

4. डॉ0 इयान स्टीवेंसन द्वारा प्रकाद्गिात ''ट्वेंटी केसेज सजेस्टिव ऑफ रिइनकार्नेद्गान'' नामक ग्रन्थ।

5. भारतीय ज्ञानपीठ,नईदिल्ली से प्रकाद्गिात डॉ0 वीरसागर जैन की लिखी ''भारतीय दर्द्गानों में आत्मा और परमात्मा''।

6. डॉ0 आर एस व्यास द्वारा लिखित ''पुनर्जन्म का सिद्धान्त'', प्रकाद्गाक- प्राकृत भारती अकादमी, 13-ए, मुखय मालवीय नगर, जयपुर-17 7- Morey Bernstein द्वारा लिखित द्र। Search for Bridey Murphy”. प्रायः सभी भारतीय दर्द्गानों में यह माना गया है कि मनुष्य को अपने भले-बुरे कर्मों का फल अवद्गय ही भोगना पड़ता है।

यदि पूर्वजन्म और परजन्म को नहीं माना जाये तो आत्मा अपने समस्त शुभाद्गाुभ कर्मों का फल भोगता है तो हमें पूर्वजन्म-परजन्म को अवद्गय मानना ही होगा।

मनुष्य के अच्छे-बुरे कर्मों का फल उसे भोगना पड़ता है, इसी जन्म में अथवा जन्मान्तर में यही कर्म-विपाक के सिद्धांत का आद्गाय है। वाल्मीकीय रामायण में कहा गया है कि 'कर्म ही समस्त कारणों का, सुख-दुख के साधनों का मूल प्रयोजन है। स्वकर्म से मनुष्य बच नहीं सकता।

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