लोक विख्यात मुहूर्त
लोक विख्यात मुहूर्त

लोक विख्यात मुहूर्त  

बसंत कुमार सोनी
व्यूस : 11078 | जून 2011

लोक विखयात मुहूर्त बसंत कुमार सोनी मुहूर्त शोधन कार्य की पेचीदगी को देखते हुए पंचांगकर्ता लोक कल्याण की भावना से द्रवित होकर विभिन्न उपयोगी मुहूर्तों की तालिका पंचांगों एवं कलैंडरों में देते हैं जिनका लाभ उठाया जा सकता है। लेकिन अभिजित मुहूर्त जैसे कुछ मुहूर्त ऐसे हैं जिनमें सब प्रकार के शुभ कार्य किये जा सकते हैं। और वे शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण भी हो जाते हैं। इस मुहूर्त की गणना अत्यंत सहज है। इस लेख को पढ़कर उसकी जानकारी प्राप्त करके उसका लाभ उठाया जा सकता है। मुहूर्त का अर्थ, महत्वादि : फलित ज्योतिष के अनुसार जब किसी विशिष्ट निर्दिष्ट समय में कोई शुभ कार्य करना उचित हो ऐसे बहुउपयोगी लोकप्रिय क्षणों को मुहूर्त कहते हैं। दूसरे अर्थों में दिन-रात का तीसवां भाग मुहूर्त कहलाता है। इस प्रकार 2 घटी या 48 मिनट का कालखंड = एक मुहूर्त (समय) हुआ।

कार्य की सफलता के दृष्टिकोण से देखा जाय तो मुहूर्त के 2 भेद हो जाते हैं- शुभ मुहूर्त (ग्राह्य समय)। अशुभ मुहूर्त (अग्राह्य समय या त्याज्य समय)। जनमानस में या लोक व्यवहार की शैली में शुभ मुहूर्त के लिए ही मुहूर्त शब्द का प्रयोग सदा से होता चला आ रहा है जैसे गणेशादि देवताओं की प्रतिष्ठा के शुभ मुहूर्तों को ''देव प्रतिष्ठा मुहूर्त'' के नाम से जाना जाता है इसी प्रकार विवाह-मुहूर्त, गृहारंभ, गृह प्रवेश मुहूर्त, यात्रा मुहूर्त इत्यादि। भारतीय ज्योतिष के मुहूर्त खंड में कार्यारंभ करने में ग्रह, तिथि, वार आदि के प्रमाण से शुभाशुभ फल का विचार करते हैं। किसी भी कार्य की सिद्धि हेतु शास्त्रज्ञों ने शुभ बेला निर्धारित की हैं जो ग्रहों के आपसी मेल, नक्षत्रादि की अनुकूलता पर निर्भर होती हैं, इन्हें ही मुहूर्त की संज्ञा प्राप्त है।

मुहूर्त समय और परिस्थिति के आधार पर भी निर्धारित होते हैं। व्यक्तियों को अपने द्वारा किये जाने वाले शुभ कार्यों की सफलता या सिद्धि के लिए पूरे मनोयोग सहित ग्रह, नक्षत्र, तिथि, वार, योग करणादि की अनुकूलता का लाभ पाने के लिए मुहूर्त का उपयोग करते रहना चाहिए। मुहूर्त शोधन का कार्य बहुत अधिक कठिन तो नहीं है परंतु पेचीदा अवश्य है। पंचांग-कर्ता लोक-कल्याण की भावना से द्रवित होकर बड़ी सावधानी के साथ परिश्रम कर मुहूर्त शोधन करके विभिन्न उपयोगी मुहूर्तों की तालिका पंचांगों व कैलेंडरों में देते हैं जिनका क्षण मात्र में अवलोकन करके लाभ उठाया जा सकता है। कुछेक कार्यों को अमृत सिद्धि योग, गुरु-पुष्य योग, सर्वार्थसिद्धि योग में कर लेना उत्तम माना गया है। प्राचीन ग्रहांतो में मुहूर्तों की उद्भावना : प्राचीन समय से ही मांगलिक कार्यों के सफलतापूर्वक निष्पादन के लिए शुभ लग्न या घड़ी अर्थात् मंगलमय बेला का विचार किया जाता रहा है अर्थात् मुहूर्तों का आश्रय लेना आवश्यक समझा जाता रहा है।

राम के राज्याभिषेक की तैयारी के समय, एक दिन पूर्व अयोध्या वासी नर-नारी सब जगह यही विचार कर रहे होते हैं कि अगले दिन (कल) वह शेुभ घड़ी कब आयेगी जब वे स्वर्ण सिंहासन पर सीता सहित बैठे हुए राम के दर्शन राजा के रूप में करके कृतार्थ हो जायेंगे। रामायण आदि धर्मग्रंथों के प्रसंग/ दृष्टांत या उदाहरण विषय वस्तु की प्रासंगिकता, आवश्यकता एवं उपादेयता की पुष्टि करने वाले एवं विषय वस्तु की समसामयिकता, पुरातनता आदि को प्रकट करने वाले होते हैं। प्राचीन धर्मग्रंथों और उनमें उद्धरित प्रसंग इसी बात को प्रकट करते हैं कि राम और कृष्ण के जमाने में भी मुहूर्त की उद्भावना थी अर्थात् अस्तित्व में थे। लोकाभिराम भगवान रामचंद्र का जन्म अभिजित मुहूर्त में होने से इस लोकप्रिय मुहूर्त का नाम लोगों की जिव्हा पर सदा से रहता आया है। भगवान राम सूर्यवंशी थे। उनका जन्म सूर्य के विद्यमान रहने पर दिन में पड़ने वाले अभिजित मुहूर्त में हुआ था।

चन्द्रवंशी भगवान श्रीकृष्ण का जन्म चंद्र की विद्यमानता में ''रात्रि मध्य'' में पड़ने वाले अभिजित मुहूर्त में हुआ था, इसलिए श्रीराम और श्रीकृष्ण इन दो महान अवतारों के प्राकट्य काल वाले ''अभिजित् मुहूर्त'' की महत्ता सर्वोच्च शिखर पर रहने वाली मानी गई है। दिन में दो-दो घटी वाले 15 मुहूर्त पड़ते हैं और वैसे ही 15 मुहूर्त रात्रि में पड़ते हैं। ये चौघड़िये की तरह दिन और रात्रि में एक समान होते हैं। पंद्रह मुहूर्तों में से आदि के सात मुहूर्तों के बाद पड़ने वाला आठवां मुहूर्त ''अभिजित मुहूर्त'' कहलाता है। हर प्रकार से अभिजित् मुहूर्त मध्य-रात्रि में ही निर्मित होता है। एक खासियत और इस मुहूर्त की यह है कि सप्ताह के सात दिनों में से मध्य में पड़ने वाले दिन बुधवार को यह मुहूर्त वर्जित माना जाता है। आठवां मुहूर्त अभिजित, जन्मकुंडली का अष्टम भाव काल या मृत्यु का होता है।

अभिजित मुहूर्त में जन्मे राम और श्याम, लोक कंटक बने राक्षसराज रावण और कंस के भी काल बन गये और उनका वध करके विजयी हुए। इसलिए इसे विजय-मुहूर्त भी कहते हैं। अभिजित मुहूर्त में अनेकानेक दोषों के निवारण की अद्भुत शक्ति होती है। जब कोई शुभ लग्न या शुभ मुहूर्त न बनता हो तो सब प्रकार के शुभ कार्य इस मुहूर्त में किये जा सकते हैं। सिर्फ बुधवार के दिन इसका निषेध रहता है। भगवान हरि को अत्यंत प्रिय यही परम पावन, पवित्र काल सब लोगों को शांति देने वाला रहता है। इसमें स्वयं काल भी कुछेक पलों के लिए लोकोपकारार्थ विश्राम करता है, उसे भी चैन/शांति मिलती है। इस मुहूर्त में किये गये समस्त कार्य सदैव सफल होते हैं, शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण हो जाते हैं। चौघड़ियों, लग्नों इत्यादि के समस्त दोषों का नाश कर शुभ फल प्रदान करने वाला यह मुहूर्त सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

मध्याह्न 11:45 बजे से लगभग 12:30 बजे तक यह मुहूर्त रहता है। जब सूर्य ठीक शिर के ऊपर रहते हैं तब अभिजित् मुहूर्त की बेला होती है। मतांतर से 11:36 बजे से 12:24 बजे की अवधि को अभिजित काल कहते हैं। यह अवधि सत्य के काफी समीप प्रतीत होती है क्योंकि मध्याह्न काल से 24 मिनट पूर्व से 24 मिनट बाद तक की 48 मिनट या 2 घटी की अवधि अभिजित मुहूर्तावधि मानी जाती है। जब 12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात होगी तब अभिजित 11:36 से 12:24 तक रहेगा। यह स्थूल मान हुआ। स्पष्ट मान ज्ञात करने के लिए अभीष्ट दिन के दिनमान को पंद्रह से विभाजित करने पर एक मुहूर्त का मान घटी पल में निकल आता है जिसे ढाई से भाग करने पर घंटा मिनट में एक मुहूर्त का मान निकल आता है। इस मान को स्थानीय सूर्योदय में जोड़कर प्रत्येक मुहूर्त की अवधि ज्ञात की जा सकती है। अभिजित मुहूर्त का समय जानने के लिए एक मुहूर्त के मान को सात गुना कर सूर्योदय में जोड़ने से अभिजित मुहूर्त के आरंभ होने का समय ज्ञात हो जाएगा जो आठवें मुहूर्त के समापन अवसर तक चलेगा। अभिजित सर्वकामाय सर्वकामार्थ साधनः।

अर्थसंचयं मानानामध्वानं गन्तुमिच्छताम्॥ सिद्धि, सर्व कार्य सर्वकामना पूर्ति, धन संग्रहेच्छापूर्ति और किसी भी प्रयोजन से की जाने वाली यात्रा में सफलता ये सब अभिजित मुहूर्त प्रदान करता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्तियों की हर प्रकार की कामनापूर्ति करने वाला मुहूर्त अभिजित ही है। चारों वर्णों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रादि वर्णों के लोगों के मेल मिलाप के लिए मध्याह्म में पड़ने वाला यह अभिजित नामक मुहूर्त श्रेष्ठ होता है। ऐसा शास्त्रों का मत है। इस मुहूर्त को सदा अपनाते रहना चाहिए। ब्रह्म क्षत्रिय वैश्यानां शूद्रानां नित्यशः। सर्वेषामेव वर्णानां योगो मध्यं दिने अभिजित्॥ जिस प्रकार से दिन के मुहूर्तों की गणना करने के लिए अभीष्ट दिन के दिनमान को आधार बनाया जाता है, उसी तरह से रात्रिकालिक मुहूर्तों की गणना करने के लिए रात्रिमान के आधार पर प्रत्येक मुहूर्त का समय ज्ञात किया जाता है।

ब्रह्म लोक में सुखपूर्वक विराजमान श्री ब्रह्मा जी से एक बार कश्यप ऋषि ने प्रश्न किया हे पितामह, एक अहोरात्र में चंद्रादित्य से संबंधित मुहूर्त, कौन-कौन मुहूर्त होते हैं उन्हें बतलाने की कृपा कीजिए? इस प्रकार महात्मा कश्पय के अनुनय विनय के साथ प्रश्न करने पर सारे संसार के गुरु स्वयंभु ब्रह्मा जी ने रात्रि और दिन के प्रमाण से चंद्र और सूर्य से संबंधित सभी प्रकार के उत्तम से भी उत्तम अर्थात् श्रेष्ठ मुहूर्तों का वर्णन किया। पंद्रह मुहूर्तों के नाम : रौद्र श्वेत मैत्र सारभट सावित्र वैराज विश्वावसु अभिजित् रोहिण बल विजय र्नैत वारुण सौम्य भग। दिन और रात्रि में पड़ने वाले 15-15 मुहूर्तों को क्रम से इन्हीं नामों से पुकारा जाता है।

परंतु इन मुहूर्तों के स्वामी दिन और रात्रि में अलग-अलग होते हैं। रविवार के दिन 14वां, सोमवार के दिन 12वां, मंगलवार के दिन 10वां, बुधवार के दिन 8वां, गुरु के दिन 6वां, शुक्रवार के दिन 4था एवं शनिवार के दिन दूसरा मुहूर्त कुलिक शुभ-कार्यों में वर्जित हैं। इन पंद्रह मुहूर्तों में से आज भी सिर्फ अभिजित मुहूर्त का ही लोगों के लिए महत्व रह गया है। साढ़े तीन स्वयम् सिद्ध मुहूर्त : वासन्ती नवरात्र का प्रथम दिन या नव संवत् आरंभ दिवस यानी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा बैशाख शुक्ल तृतीया यानी अक्षय तृतीया आश्विन शुक्ल दशमी यानी विजया दशमी (दशहरा) और कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, ये चार मुहूर्त स्वयम् सिद्ध मुहूर्त माने जाते हैं। इनमें से प्रथम तीन मूहूर्त पूर्ण एवं चतुर्थ अर्द्धबली होने से इन्हें साढ़े तीन मुहूर्त कहते हैं।

इनमें लोगों को किसी कार्य को करने के लिए पंचांग का विचार करने की यानी पंचांग शुद्धि देखने की आवश्यकता नहीं रहती है। चारों वर्णों के लोग तथा हमारे पूर्वज बड़ी ही श्रद्धा व उमंग के साथ इन मुहूर्तों को सदा से अपनाते आये हैं और सफल होते देखे गये हैं। सर्वमान्य लोकप्रिय मुहूर्त : आषाढ़ शुक्ल नवमी (भड्डली नवमी) कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवउठनी ग्यारस, बड़ी ग्यारस, गन्ना ग्यारस या प्रबोधिनी ग्यारस) माघ शुक्ल पंचमी (बसंत पंचमी) एवं फाल्गुन शुक्ल द्वितीया (फलेरा दोज) ये भी स्वयं सिद्ध मुहूर्त हैं। इनमें कोई भी शुभ तथा मांगलिक कार्य आदि लोग पंचांग एवं ज्योतिषीय परामर्श के बिना ही कर लेते हैं बिना किसी हिचक के। बिना अशुभ का चिंतन किये अनुभव से भी इन मुहूर्तों का फल सदा से शुभ होता आया है। ये मुहूर्त हार्दिक प्रसन्नता के हेतु भी बन चुके हैं।



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