दिशा का ग्रहों से संबंध एवं दोष निवारण के उपाय - Part 2

दिशा का ग्रहों से संबंध एवं दोष निवारण के उपाय - Part 2  

विनय गर्ग
व्यूस : 7617 | जून 2014

प्रश्न- किसी भी भवन में ईषान दिषा का क्या महत्व है? इस दिषा में दोष होने पर क्या प्रभाव पड़ता है?

उत्तर- वास्तु शास्त्र का मुख्य आधार ज्योतिष शास्त्र है। जिस प्रकार ग्रहों के अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव मानव जीवन पर पड़ते हंै उसी प्रकार ग्रह अपने शुभ और अशुभ प्रभाव से वास्तु की दिशाओं को प्रभावित कर उस मकान में रहने वालों के तत्संबंधी प्रभाव में कमी या वृद्धि करते हैं।

ईषान दिशा दोष

ईशान दिशा का स्वामी रुद्र, आयुध त्रिशूल एवं प्रतिनिधि ग्रह बृहस्पति है। बृहस्पति को सर्वाधिक शुभ ग्रह कहा गया है। खासकर आध्यात्मिक विकास के लिए प्रयत्नशील जिज्ञासुओं के लिए बृहस्पति अति शुभ होता है। इसका प्रभाव सर्वदा सात्विक होता है। यह प्रत्येक उस वस्तु को, जिससे इसका संबंध हो, बड़ा बनाता है। यही कारण है कि गुरु वृद्धिकारक है और परिवार की वृद्धि के प्रतीक पुत्र का कुंडली में प्रतिनिधित्व करता है। बड़ा होने से ही बृहस्पति बड़े भाई का प्रतिनिधि है। साथ ही बड़ा होने से बृहस्पति स्त्री की कुंडली मंे उसका पति है।

जन्म कुंडली का द्वितीय एवं तृतीय भाव ईशान में आते हंै। अत्यधिक पवित्र दिशा होने के कारण इसकी सुरक्षा अनिवार्य है। यदि ईशान दिशा में दोष हो तो पूजा पाठ के प्रति रुचि की कमी, ब्राह्मणों एवं बुजुर्गों के सम्मान में कमी, धन एवं कोष की कमी एवं संतान सुख में कमी बनी रहती है। साथ ही वसा जन्य रोग और लीवर, मधुमेह, तिल्ली आदि से संबंधित बीमारियां आदि होने की संभावना रहती है। यदि उत्तर-पूर्व में रसोई घर हो तो खांसी, अम्लता, मंदाग्नि, बदहजमी, पेट में गड़बड़ी और आंतांे के रोग आदि होते हैं।

उपाय

  1. यदि ईशान्य दिशा का उत्तरी या पूर्वी भाग कटा हो तो उस कटे हुए भाग पर दर्पण लगाएं। साथ ही कटे ईशान्य क्षेत्र के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए बुजुर्ग ब्राह्मण को बेसन के लड्डू खिलाएं।
  2. इस दिशा में पानी का फव्वारा, तालाब या बोरिंग कराएं।
  3. ईशान दिशा को पवित्र रखें तथा ईशान दिशा में नियाॅन बल्ब लगाएं।
  4. ईशान्य क्षेत्र में भगवान शंकर की ऐसी तस्वीर जिसमें सिर पर चंद्रमा हों तथा जटाओं से गंगा जी निकल रही हों, लगाएं।
  5. भगवान विष्णु के समक्ष विष्णु सहस्त्रनाम् स्तोत्र का पाठ करें।
  6. धातु के श्रीयंत्र के समक्ष श्रीसूक्त का पाठ करें।
  7. गुरु यंत्र के समक्ष बृहस्पति के बीज मंत्र का जप करें।

प्रश्न- किसी भी भवन में वायव्य दिषा का क्या महत्व है? इस दिषा में दोष होने पर क्या प्रभाव पड़ता है?

उत्तर- वास्तु शास्त्र का मुख्य आधार ज्योतिष शास्त्र है। जिस प्रकार ग्रहों के अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव मानव जीवन पर पड़ते हंै उसी प्रकार ग्रह अपने शुभ और अशुभ प्रभाव से वास्तु की दिशाओं को प्रभावित कर उस मकान में रहने वालों के तत्संबंधी प्रभाव में कमी या वृद्धि करते हैं।

वायव्य दिषा दोष

वायव्य दिषा का स्वामी वायु एवं आयुध अंकुष है। इस दिषा का प्रतिनिधि ग्रह चंद्र है। चंद्र मंे शुभ और अशुभ तथा सक्रिय एवं निष्क्रिय दोनों प्रकार की क्षमता होती है। जब चंद्र शुभ होता है तब जातक को सुकीर्ति और यश मिलता है। उसका समुचित मानसिक विकास होता है, पारिवारिक जीवन सुखमय होता है और मातृ सुख का अनुभव होता है।

वह देश विदेश का भ्रमण करना है। वह विद्वान, कीर्तिवान, वैभवशाली एवं सम्मानित होता है और उसे राज-सम्मान की प्राप्ति होती है। परंतु चंद्र के अशुभ होने से जातक निर्धन, मूर्ख, उन्मादग्रस्त तथा कदम-कदम पर ठोकरें खाने वाला होता है। यह काल पुरुष के घुटनांे एवं कोहनियों को प्रभावित करता है। जन्म कुंडली का पांचवां एवं छठा भाव वायव्य के प्रभाव में आते हंै। वायव्य कोण मित्रता एवं षत्रुता का जन्मदाता है। यदि इस कोण मंे दोष रहंेगे तो जातक को पेट मंे गैस, चर्म रोग, छाती में जलन, दिमाग के रोग और स्वभाव में क्रोध रहता है साथ ही जातक को षत्रु अधिक होंगे। लेकिन इसके दोष रहित होने पर उसके अनेक मित्र होंगे जो उसके लिए लाभदायक सिद्ध होंगे।

अग्निकांड का षिकार हुए घरों को देखें तो स्पष्ट होगा कि इसके पीछे मुख्य कारण नैर्ऋत्य और ईषान की अपेक्षा आग्नेय तथा वायव्य का बढ़ाव अधिक होना है। घर के अहाते या बरामदों में भी वायव्य ईषान की अपेक्षा नीचा हो तो षत्रुओं की संख्या में वृद्धि होती है, स्त्रियां रोग ग्रस्त और घर भय ग्रस्त रहता है। वायव्य के दोषपूर्ण होने पर फेफड़े, हृदय, छाती, थूक, सर्दी-जुकाम, निमोनिया, मानसिक परेशानियां, अपेन्डिसाइटिस, डायरिया, स्त्रियों में मासिक धर्म की अनियमितता एवं अन्य स्त्री जन्य रोग होने की संभावना रहती है।

उपाय

  1. वायव्य दिशा का क्षेत्र यदि बढ़ा हुआ हो तो उसे आयताकार या वर्गाकार बनाएं। यदि यह भाग कटा हुआ हो तो पूर्णिमा की चंद्रमा के तस्वीर लगाएं साथ ही दोष निवारण हेतु घर में चंद्र यंत्र लगाएं।
  2. द्वार पर आगेे-पीछे ष्वेत गणपति रजतयुक्त श्रीयंत्र के साथ लगाएं।
  3. दीवारों पर क्रीम रंग करें।
  4. माता का यथासंभव आदरसत्कार करें एवं आशीर्वाद लें।
  5. सोमवार का व्रत रखें।
  6. स्फटिक शिवलिंग पर नित्य दूध चढ़ाएं।

प्रश्न- किसी भी भवन में आग्नेय दिषा का क्या महत्व है? इस दिषा में दोष होने पर क्या प्रभाव पड़ता है?

उत्तर- वास्तु शास्त्र का मुख्य आधार ज्योतिष शास्त्र है। जिस प्रकार ग्रहों के अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव मानव जीवन पर पड़ते हंै उसी प्रकार ग्रह अपने शुभ और अशुभ प्रभाव से वास्तु की दिशाओं को प्रभावित कर उस मकान में रहने वालों के तत्संबंधी प्रभाव में कमी या वृद्धि करते हैं।

आग्नेय दिशा दोष

आग्नेय का स्वामी गणेश, आयुध शक्ति एवं प्रतिनिधि ग्रह शुक्र है। शुक्र समरसता तथा परस्पर मैत्री संबंधांे का ग्रह माना जाता है। शुक्र से प्रभावित जातक आकर्षक, कृपालु, मिलनसार तथा स्नेही होते हैं। शुक्र का संबंध संगीत, कला, सुगंध, भोग-विलास, ऐश्वर्य एवं सुंदरता से है। शुक्र का प्रधान लक्ष्य परमात्मा की सृष्टि को आगे बढ़ाना है।

इसका जीव मात्र की प्रजनन क्रिया और काम जीवन पर अधिकार बताया गया है, जिसके फलस्वरूप यह क्रियात्मक क्षमता के द्वारा विकास क्रम में योगदान देता है। इसकी स्थिति से पत्नी, कामशक्ति, वैवाहिक सुख, सांसारिक एवं पारिवारिक सुख का विचार किया जाता है। यह कालपुरुष की बायीं भुजा, घुटने एवं बाएं नेत्र को प्रभावित करता है। जन्म कुंडली के एकादश एवं द्वादश भावों पर इसका असर रहता है। इस दिशा में दोष रहने पर दाम्पत्य सुख में, मौजमस्ती एवं शयन सुख में कमी बनी रहती है। साथ ही नपुंसकता, मधुुमेह, जननेंद्रिय, रति, मूत्राशय, तिल्ली, बहरापन, गूंगापन और छाती आदि से संबंधित बीमारियांे की संभावना रहती है।

उपाय

  1. घर के द्वार पर आगे-पीछे वास्तु दोष नाशक हरे रंग के गणपति को स्थान दें।
  2. स्फटिक श्रीयंत्र के समक्ष श्री सूक्त का पाठ करें।
  3. शुक्र यंत्र के समक्ष शुक्र के बीज मंत्र का जप करें।

प्रश्न- किसी भी भवन में नैर्ऋत्य दिषा का क्या महत्व है? इस दिषा में दोष होने पर क्या प्रभाव पड़ता है?

उत्तर- वास्तु शास्त्र का मुख्य आधार ज्योतिष शास्त्र है। जिस प्रकार ग्रहों के अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव मानव जीवन पर पड़ते हंै उसी प्रकार ग्रह अपने शुभ और अशुभ प्रभाव से वास्तु की दिशाओं को प्रभावित कर उस मकान में रहने वालों के तत्संबंधी प्रभाव में कमी या वृद्धि करते हैं।

नैर्ऋत्य दिषा दोष

नैर्ऋत्य दिषा का स्वामी राहु है। राहु एक शक्तिशाली छाया ग्रह है। इसके प्रभावों का कोई निवारण नहीं है। इस ग्रह की शांति करके इसके प्रत्यक्ष रूप में अनिष्टकारी फल दूर नहीं किए जा सकते हैं। केवल ज्ञान तथा बुद्धिपूर्वक इससे सहयोग करके ही इसके दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है। यह काल पुरुष के दोनों पाँवांे की एड़ियां एवं बैठक है।

जन्म कुंडली का आठवां एवं नौवां स्थान नैर्ऋत्य के प्रभाव मंे रहते हैं। यदि घर के नैर्ऋत्य में खाली जगह, गड्ढा, भूतल, जल की व्यवस्था या कांटेदार वृक्ष हों तो गृहस्वामी बीमार होता है, उसकी आयु क्षीण होती है, षत्रु उसे पीड़ा पहंुचाते हैं तथा संपन्नता दूर रहती है। नैर्ऋत्य दिषा से पानी दक्षिण के परनालांे से बाहर निकलता हो तो स्त्रियों पर तथा पष्चिम के परनालों द्वारा पानी निकलता हो तो पुरुषों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। नैर्ऋत्य के होने पर अकस्मात दुर्घटनाएं, अग्निकांड एवं आत्महत्या जैसी घटनाएं होती रहती हैं। इसके अतिरिक्त परिवार के लोगों को त्वचा रोग, कुष्ठ रोग, छूत के रोग, पैरांे की बीमारियां, हाइड्रोसील एवं स्नायु से संबंधित बीमारियांे की संभावना रहती हैे।

उपाय

  1. नैर्ऋत्य दिशा बढ़ा हुआ हो तो इसे काटकर आयताकार या वर्गाकार बनाएं।
  2. दिषा दोष निवारणार्थ पूजास्थल में राहु यंत्र स्थापित कर उसका पूजन करंे।
  3. मुख्य द्वार पर भूरे या मिश्रित रंग वाले गणपति लगाएं।
  4. राहु के बीजमंत्र का जप एवं राहुस्तोत्र का पाठ करें।
  5. यदि नैर्ऋत्य दिशा में अधिक खुला क्षेत्र हो तो यहां ऊँचे-ऊँचे पेड़-पौधे लगाएं।
  6. साथ ही भवन के भीतर नैर्ऋत्य क्षेत्र में गमलों में भारी पेड़-पौधे लगाएं।

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