ज्योतिषीय योग एवं उपाय

ज्योतिषीय योग एवं उपाय  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 2476 | मार्च 2016

ज्योतिष में योग दो तरह के शुभ व अशुभ होते हैं। ज्योतिष में 6, 8 व 12 भाव को त्रिक भाव कहते हैं। फलदीपिका के अनुसार जिस भाव का स्वामी त्रिक भाव (6, 8, 12) में स्थित हो या जो भावेश पाप प्रभाव में हो तो क्रमशः लग्न में ‘अवयोग’, द्वितीय भाव में ‘निस्व’, तृतीय में ‘मृति’, चतुर्थ में ‘कुहु’, पंचम में ‘पामर’, षष्ठ में ‘हर्ष’, सप्तम में ‘दुष्कृति’, अष्टम में ‘सरल’, नवम में ‘निर्भाग्य’, दशम में ‘दुर्योग’, एकादश में दरिद्र’, द्वादश में ‘‘विमल’’ योग बनाता है। इनमें से जब त्रिक भाव के स्वामी स्वगृही हों क्रमशः हर्ष, सरल, विमल योग बनाते हैं, तो कुछ हद तक शुभ प्रभाव देते हैं।

लेकिन इन त्रिक भावों के स्वामी, लग्नेश से शत्रुता रखते हैं तो ये भी मारकेश का कार्य कर जातक को अशुभ परिणाम देते हैं। जब लग्नेश त्रिक भाव में स्थित हो तथा पाप प्रभाव (युति/दृष्टि द्वारा) में हो तो ‘‘अवयोग’’ में जातक अप्रसिद्ध, निर्बल, अल्पायु, दीन-हीन, दुष्टांे द्वारा अपमानित, कुपित, चंचल आदि स्थिति वाला होता है। यदि लग्नेश त्रिक भाव में बली हो अर्थात् उच्च, स्वगृही, मित्रराशिगत हो तो कुछ हद तक शुभ प्रभाव जातक को देता है। यदि लग्नेश नीच, शत्रु राशि, अस्त, वक्री व पाप प्रभाव में हो जैसे: चंद्र, अमावस्या का हो, नीच के साथ, राहु, केतु शनि से पीड़ित हो तो यह स्थिति अत्यंत अशुभ होती है।

इसी तरह इसके साथ ही त्रिक भाव में नीचस्थ ग्रह भी अशुभ स्थिति के योग बनाते हैं। द्वितीयेश से बनने वाला ‘निस्व’ योग जातक को शिक्षा से हीन, शत्रुओं द्वारा धन का नाश, दुरूपयोग करने वाला, कुटुंब सुख से विहीन, वाणी विकार (हकलाहट आदि) तथा दांत व आंख खराबी वाला आदि दुष्प्रभाव से युक्त बनाता है। तृतीयेश से बनने वाला ‘मृति’ योग जातक को भाई-बहनों से रहित, बल व पराक्रम से रहित, खराब गुणांे वाला, गलत कार्यों से परेशान आदि दुष्प्रभाव से युक्त बनाता है।


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चतुर्थेश से बनने वाला ‘कुहु’ योग जातक को, माता, भूमि, निवास, धन, वाहन, मित्र व उत्तम वस्त्रों से हीन बनाता है तथा गलत स्त्री से प्रेम करने वाला आदि होता है। पंचमेश से बनने वाला ‘पामर’ योग शेयर से हानि उठाने वाला, संतान विहीन, कुबुद्धि व विवेकहीन, शिक्षाविहीन, दुःख व कष्ट से जीवन बिताने वाला, झूठा, धोखेबाज व दुष्ट व्यक्तियों से मेलजोल रखने वाला आदि दुष्प्रभाव से युक्त बनाता है। षष्ठेश से बनने वाला हर्ष योग शत्रुहंता होता है लेकिन मारकेश हो तो जातक अस्वस्थ व कर्जदार भी होता है।

सप्तमेश से बनने वाला ‘दुष्कृति’ योग जातक को पर पुरूष या पर स्त्रीगामी, जीवन साथी से विरक्त, प्रमेह व मधुमेह आदि रोगों से पीड़ित, साझेदारी में नुकसान उठाने वाला, सरकार से कष्ट पाने वाला, बंधु-बांधवों से तिरस्कार पाने वाला आदि दुष्प्रभाव भोगने वाला बनाता है। अष्टमेश से बनने वाला सरल योग मृत्य तुल्य कष्ट भोगने वाला, अस्वस्थ, ससुराल से कष्ट पाने वाला, यात्रा में कठिनाई पाने वाला, बुरे कर्मों से युक्त होता है।

लेकिन जातक महत्वाकांक्षी भी होता है। नवमेश से बनने वाला निर्भाग्य योग, फटे कपड़े धारण करने वाला, पिता द्वारा धन संपत्ति से विहीन या इनकी संपत्ति को नष्ट करने वाला, गुरुओं व संतों की निंदा करने वाला, गंदा रहने वाला, बहुत दुख व कष्ट भोगने वाला, नास्तिक आदि अवगुण से युक्त बनाता है। दशमेश से बनने वाला दुर्योग जातक को अथक प्रयास के बाद भी असफलता देने वाला, पिता के सुख से विहीन, सरकार से नुकसान उठाने वाला, आलसी, बुरे कर्मों में लिप्त, दिन में अधिक सोने वाला, अपमानित व अपना पेट भरने हेतु प्रवास भी करता है।

एकादशेश से दरिद्र योग जातक को आय व लाभ से वंचित, गरीब, कर्जदार, उग्र स्वभाव वाला, अच्छे मित्रों से रहित, पराधीन, कटुभाषी, गलत मार्ग पर चलने वाला, गुप्त रोगी व गुप्त शत्रुओं से पीड़ित बनाता है। द्वादशेश से बनने वाला विमल योग के कारण जातक कंजूस लेकिन हानि करवाने वाला मुकदमेबाजी, व्यय, भ्रमण करने वाला होता है।

1. गजकेसरी योग: चंद्र से गुरु के केंद्र में होने पर शुभ योग बनता है। परंतु चंद्र से दशम में गुरु हो तो सम्मान तो देता है परंतु जातक पत्नी व बच्चों का त्याग कर संन्यासी हो जाता है। चंद्र व गुरु की युति निर्बल होने पर निर्बल गजकेसरी योग जातक को मोटापा बढ़वाता है।

2. हठहंता योग: यदि सूर्य व चंद्र की राशियों में भाव परिवर्तन हो तो जातक हठ से नष्ट होता है। साथ ही यदि लग्न में पाप ग्रह हो तो जातक बहुत ही हठी होता है।

3. सर्पदंश योग: लग्न से सप्तम भाव में शनि व राहु के साथ शत्रु सूर्य हो तो जातक को साधारणतया तो क्या स्वप्न में भी सर्पदंश का भय होता है। 

4. वृक्षात् पतन योग: यदि लग्न पर राहु का पाप प्रभाव हो तो इंद्र के समान होने पर भी वृक्षादि से पतन होता है।

5. महापातक योग: राहु से युक्त चंद्र यदि गुरु से भी दृष्ट हो तो इंद्र समान होने पर भी महापातक करने वाला होता है।

6. जन्म लग्न को यदि मंगल और सूर्य देखते हों और गुरु-शुक्र न देखते हांे तो उसे बैल से आघात मिलता है।

7. खंज योग: शुक्र से युक्त शनि और गुरु से युक्त सूर्य हो और उनपर जन्म शुभ ग्रहों की दृष्टि न हो तो जातक लंगड़ा हो सकता है।

8. खड़गघात योग: यदि शुक्र की राशि में चंद्र व कर्क राशि में शनि हो तो तलवार या शस्त्र से चोट लग सकती है।

9. लालटिक योग: लग्न से अष्टम भाव में चंद्रमा हो और कर्क राशि में सूर्य, शनि, शुक्र तीनों हो तथा पूर्ण केमद्रुम योग हो तो जातक गरीब होता है तथा अगले जन्म में भी गरीबी उसका पीछा नहीं छोड़ती है।

10. व्याघ्रघात योग: यदि कुंडली में मंगल कुंभ या मकर राशि में हो तथा बुध धनु या मीन राशि में हो तो बाघ से आघात योग हो सकता है।

11. शरघात योग: नवम भाव में मंगल हो, शनि-सूर्य दोनों राहु से युक्त हो तथा इन पर शुभ ग्रहों की दृष्टि न हो तो वह शर से आहत होता है।

12. वंश नाशक: लग्न से नवम् या दशम भाव में चंद्र, सप्तम भाव में शुक्र और चतुर्थ भाव में कोई भी पाप ग्रह हो तो जातक वंश नाशक होता है।

13. म्लेच्छ योग: लग्न से दशम भाव में राहु हो और चतुर्थ व नवम भाव में पाप ग्रह हो तो जातक म्लेच्छ होता है।

14. मातृ हन्ता योग: यदि शनि व मंगल के बीच में चंद्रमा स्थित हो तो जातक मातृहंता होता है। यदि सूर्य, मंगल, शनि में से कोई नीच का ग्रह हो तथा राहु व केतु से युति कर स्थित हो तो जातक मातृ हंता होता है।

15. यदि लग्न में पाप ग्रह स्वगृही हो तथा 4 व 10 भाव में भी पाप ग्रह हो तो जातक दुखी होकर जीवन यापन करता है तथा माता को दुख, कष्ट देने वाला होता है। Û 2-12 भाव में पाप ग्रह हों तो जातक माता को डराने-धमकाने वाला होता है।

16. पितृ हन्ता योग: यदि शनि-मंगल के बीच में सूर्य हो तो जातक पितृहंता होता है।

17. चैथे-दसवें भाव में कोई भी पाप ग्रह स्थित हो तो जातक, पिता को डराने-धमकाने वाला होता है।

18. यदि लग्न में गुरु, द्वितीय भाव में बुध के साथ पाप ग्रह सूर्य, मंगल, शनि हो तो जातक के विवाह के समय पिता का मरण होता है।

19. दशम भाव में मंगल शत्रु राशि का या कोई ग्रह नीच का हो या सूर्य दशमेश होकर 6, 8, 12 त्रिक भाव में स्थित हो तो जातक के पिता की शीघ्र मृत्यु हो सकती है।

20. यदि पंचम भाव में चंद्र तथा सातवें या बारहवें भाव में कोई पाप ग्रह हो तो जातक स्त्री व संतान सुख से विहीन होता है।

21. यदि लग्न में चंद्र, दूसरे में शुक्र, 5 में राहु और 12वें बुध व सूर्य स्थित हो तो जातक अपने भाई को बंधन दिलाने वाला होता है।


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22. यदि गुरु वक्री होकर मकर या कुंभ राशि में हो और बुध व सूर्य सप्तम भाव में हो तो जातक वांछित मृत्यु पाता है और यदि शनि 11वें भाव में हो तो जातक शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त करता है।

23. लग्न से अष्टम त्रिक भाव में यदि चर राशि हो तो विदेश में, स्थिर राशि हो तो अपने देश में तथा द्विस्वभाव राशि हो तो मार्ग में मृत्यु होती है।

24. यदि लग्न में पाप ग्रह और लग्नेश पाप ग्रह की राशि में हो तो जातक कष्ट से परेशान होकर आत्महत्या कर सकता है। साथ ही चंद्र नीच अमावस्या का हो तथा इस पर पाप प्रभाव हो तो स्थिति और भी अधिक खराब होती है।

25. यदि जातक का जन्म अमावस्या का हो अर्थात् सूर्य युक्त चंद्र त्रिक भाव 6 या 8 में स्थित हो तो जातक की मृत्यु हाथी या शेर से होती है।

26. शुभ ग्रह के लग्न में गुरु हो, अष्टम भाव में शनि हो और उसी त्रिक में अन्य पाप ग्रह भी स्थित हो तो जातक की मृत्यु शीघ्र होती है।

27. लग्न या लग्नेश पाप कर्तरी प्रभाव में हो या पाप ग्रहों की युति में हो तो जातक आत्मघाती होता है।

28. देहकष्ट योग: लग्नेश पाप ग्रहों के साथ त्रिक भाव में हो तथा लग्न व चंद्र पर पाप प्रभाव हो।

29. लग्न से 12वें भाव में कोई भी ग्रह हो तो जातक दुष्ट स्वभाव वाला, दुखी, पापी, दुष्ट व बहुत सारा धन खर्च करने वाला होता है।

30. यदि लग्न 1, 8, 3, 6 हो तथा मंगल-बुध का लग्न पर प्रभाव (दृष्टिगत) हो तो जातक को मुख का रोग होता है।

31. यदि कर्क राशि में बुध हो तो जातक कुष्ठ या क्षय रोग से पीड़ित होता है।

32. यदि षष्ठेश लग्न में स्वराशिगत हो (यह केवल 2, 8 लग्न में ही संभव होता है) या 8वें भाव में हो तो ग्रहानुसार निम्न अंगों में रोग होते हैं- षष्ठेश सूर्य हो तो मस्तक में रोग, चंद्र हो तो मुख में, मंगल हो तो गले में, बुध हो तो नाभि में, गुरु हो तो नाक में, शुक्र हो तो आंख में, शनि हो तो पैर में, राहु हो तो पेट में, केतु हो तो भी पेट में ही रोग की संभावना रहती है।

33. यदि मंगल कर्क राशि में स्थित हा तो जातक रक्तपित्त के विकार से हीन और कई प्रकार की बीमारियों से युक्त होता है।

34. यदि जातक का जन्मलग्न सिंह हो उसमें शनि स्थित हो तो जातक नेत्रहीन या आंखों के रोग से पीड़ित होता है। यदि शुक्र हो तो जन्मांध या छोटी आंखों वाला होता है।

35. यदि लग्न से बारहवें भाव में चंद्र और दूसरे भाव में सूर्य हो तो जातक क्रमशः बाईं आंख से काना और अंधा होता है। यदि बारहवें एवं दूसरे भाव में क्रमशः शनि और मंगल निर्बल हो तो आंखों में कोई न कोई रोग अवश्य होता है।

36. यदि लग्न से बारहवें भाव में सूर्य हो तो जातक दायीं आंख से काना होता है और दूसरे भाव में चंद्र हो तो जातक अंधा हो सकता है।

37. यदि जन्मपत्री में लग्न में मंगल, अष्टम में सूर्य और चतुर्थ में सूर्य हो तो वह कुष्ठ रोग से पीड़ित होता है।

38. यदि लग्न या सातवें भाव में शनि हो और त्रिक भाव अष्टम में चंद्र हो तो कोई भी संतान जीवित नहीं होती।

39. यदि लग्न में एक भी पाप ग्रह हो तो वह स्थान से हीन होकर दुष्कर जीविका जीने वाला होता है।

40. यदि लग्न में राहु और छठे घर में चंद्र हो तो जातक को मिर्गी का रोग होता है।

41. यदि लग्न में चंद्र और अष्टम भाव में शनि हो तो जातक उदर रोग से पीड़ित होता है तथा किसी अंग से विहीन होता है।

42. यदि सूर्य, मंगल, राहु और बृहस्पति पाप ग्रहों की राशि में हो तथा लग्न से सप्तम भाव में शुक्र हों तो जातक के शरीर में सदा कष्ट रहता है।

43. यदि लग्न या षष्ठ भाव में बुध या मंगल हो तो वह जातक चोरी का कार्य करने वाला होता है तथा इसीलिए उसके हाथ, पांव भी नष्ट होते हैं।

44. यदि चैथे भाव में राहु, शनि व सूर्य तथा षष्ठ भाव में चंद्र, बुध व शुक्र के साथ मंगल हो तो जातक अपने घर का नाश करता है।

45. यदि द्वादश भाव में चंद्र या सूर्य या दोनों ही साथ मौजूद हों और मंगल की दृष्टि भी हो तो उसका धन सरकार ले जाती है।

46. यदि षष्ठ भाव में राहु, शनि के साथ मंगल की युति हो तो उसे सरकार से पीड़ा मिलती है तथा वह अपने स्थान पर नहीं बैठ पाता है।

47. कालसर्प योग: जब राहु व केतु के बीच सभी सातों ग्रह आ जाते हैं तो अशुभ कालसर्प योग बनता है। यदि एक ग्रह बाहर चला जाये तो आंशिक कालसर्प योग बनता है। ये मुख्यतः 12 प्रकार के होते हैं। इसमें जातक प्रत्येक भाव से संबंधित अशुभ घटना या दुष्प्रभाव भोगता है। जब राहु व केतु के बीच सारे ग्रह आ जाते हैं तो उदित कालसर्प योग बनता है तथा केतु व राहु के बीच सारे ग्रह आ जाने से अनुदित कालसर्प योग बनता है। उदित से अनुदित नामक कालसर्प योग अति अशुभ व कष्टदायी होता है। इससे जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति रूक जाती है।


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48. पितृदोष: जब सातांे ग्रह राहु, केतु के साथ आ जाते हैं तब पितृ दोष बनता है। सूर्य, चंद्र से ग्रहण योग, मंगल से अंगारक योग, बुध से जड़ योग, गुरु से चांडाल योग, शुक्र से अभोत्वक या लंपट योग, शनि से शश योग नामक अशुभ योग बनते हैं इससे जीवन के हर क्षेत्र में बाधा आती है।

49. केमद्रुम योग: जब चंद्र के साथ या दोनों ओर कोई ग्रह स्थित नहीं हो तो केमद्रुम योग बनता है। इससे जातक माता को कष्ट देता है। साथ ही मन की अस्थिरता रहती है तथा मानसिक रोग भी होता है।

50. संघर्ष योग: जब लग्नेश त्रिक भाव में पाप ग्रह से पीड़ित हो या लग्न या चंद्र पाप कर्तरी प्रभाव में हो तो संघर्ष योग कहलाता है। इससे व्यक्ति को जीवन के हर क्षेत्र में संघर्ष कर जीवन बिताना पड़ता है।

51. शूल योग: जब सातों ग्रह किन्हीं तीन राशि में स्थित हों तो शूल योग बनता है। इसमें उत्पन्न जातक धन से वंचित व कठोर होता है।

52. युग योग: जब सातों ग्रह किन्हीं दो राशि में स्थित हो तो युग योग बनता है। इसमें जन्म लेने वाला जातक समाज द्वारा बहिष्कृत, शराबी, निकम्मा और गरीब होता है।

53. गोल योग: जब सातों ग्रह किसी एक ही राशि में स्थित हों तो यह योग बनता है जिससे जातक अज्ञानी, अकर्मण्य, अनामी, गंदा व गरीब होता है।

54. सर्प योग: जब सभी अशुभ ग्रह केंद्र भावों में स्थित हों तो सर्प योग बनता है जिससे जातक निर्दयी, दुष्ट होता है।

55. मूक योग: जब द्वितीयेश अष्टम त्रिक भाव में बृहस्पति के साथ स्थित हो तो जातक गंूगा होता है।

56. नेत्रनाश योग: यदि दसवें और छठे भाव के अधिपति, द्वितीयेश के साथ लग्न में स्थित हों या वे नीचांश में हों तो इस अशुभ योग के कारण जातक शासकों की अप्रसन्नता के कारण नेत्र दृष्टि खोता है।

57. अंध योग: यदि बुध और चंद्रमा द्वितीय भाव में हो तथा साथ ही लग्नेश व द्वितीयेश सूर्य के साथ द्वितीय भाव में स्थित हो तो जातक जन्म से अंधा होता है या उसकी दृष्टि कमजोर होती है।

58. विष योग: जब चंद्र के साथ शनि की युति हो तो इस अशुभ योग के कारण जातक मानसिक परेशानी से ग्रस्त, अल्पायु, कष्ट भोगने वाला, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बाधा पाने वाला होता है। इस योग को निष्ठुर भावी योग भी कहते हैं क्योंकि इसमें जन्मा जातक निष्ठुर होता है।

59. कामुक/भोगी योग: जब शुक्र के साथ मंगल की युति हो तो यह योग बनता है। इसके जातक भोग-विलासी प्रवृत्ति के होते हंै। यदि यह युति चंद्र के साथ 1, 5, 7, 10, 12, 3, 6 भाव में हो तो उपरोक्त प्रवृत्ति और भी बढ़ जाती है।

60. जार योग: यदि द्वितीयेश और सप्तमेश दशम भाव में दशमेश के साथ स्थित हो तो यह योग बनता है जिससे जातक अनेक स्त्रियों के साथ संबंध बनाता है। यदि शुक्र व शनि सप्तम भाव में स्वगृही हो तो उपरोक्त योग बनता है।

61. बुद्धि जड़ योग: यदि लग्नेश पाप प्रभाव में हो तथा शनि पंचम भाव में हो तथा लग्नेश शनि से दृष्ट हो तो उपरोक्त योग बनने के कारण जातक मंद बुद्धि होता है।

62. कपट योग: यदि चतुर्थ भाव अशुभ ग्रह से युक्त हो तथा चतुर्थेश भी अशुभ ग्रहों से युक्त/दृष्ट हो तो उपरोक्त योग के कारण जातक मिथ्याकारी होता है।

63. पित्तरोग योग: यदि छठे भाव में सूर्य किसी पाप या अशुभ ग्रह से प्रभावित हो तो यह रोग होता है।

64. वात रोग योग: यदि लग्न व सप्तम भाव में क्रमशः गुरु व शनि ग्रह स्थित हो तो जातक इस रोग से पीड़ित रहता है।

65. कफ रोग योग: यदि अष्टम भाव या त्रिक भाव में चंद्र व शुक्र पाप प्रभाव में हो तो यह रोग होता है। उपरोक्त वर्णित अशुभ योग तब ही अधिक दुष्प्रभावी होते हैं, जब संबंधित ग्रह निर्बल हों (नीच, शत्रुराशिगत, अस्त, वक्री आदि) तथा इन पर पाप प्रभाव भी हो तथा इनकी दशाओं का समय भी चल रहा हो।

उपाय:

1. शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य हेतु लग्नेश, पंचमेश व नवमेश के रत्न धारण करना शुभ रहता है। लग्नेश रत्न से अवयोग, पंचमेश रत्न से पामर योग, नवमेश रत्न से निर्भाग्य, जो अशुभ योग है, इनके दुष्प्रभाव दूर होते हैं तथा जातक जीवन में उन्नति करता है।

2. बाकी अन्य भावों (1, 5, 9 को छोड़कर) के स्वामी यदि लग्नेश से मित्रता रखते हों तो इनके भावेशों के रत्न धारण कर इनसे संबंधित अशुभ प्रभाव दूर कर सकते हैं।

3. बाकी अन्य भावों (1, 5, 9 को छोड़कर) के स्वामी यदि लग्नेश से शत्रुता रखते हांे तो इनके मंत्र के साथ मंत्र जप व दान से अशुभ योग के दुष्प्रभाव को कम कर सकते हैं।


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4. कभी-कभी कुंडली से 1-2 ग्रहों को छोड़कर बाकी सभी ग्रह बली हांे और इन्हीं 1-2 ग्रहों की महादशा चल रही हो और ये अशुभ योग का भी निर्माण कर रहे हों तो तालिका के अनुसार उपाय कर सकते हैं। जिस ग्रह की महादशा चल रही हो उसके यंत्र को बीच में रखकर उसके उपर उससे संबंधित रत्न व इनके दोनों ओर इनके मित्र रत्नों का त्रिशक्ति मेडल धारण कर अशुभ योगों के समय के दुष्प्रभाव को कम कर सकते हैं।

5. यदि किसी के पास जन्मपत्री न भी हो (हो तो और भी अच्छा है) तो इसके लिए अशुभ योग के दुष्प्रभाव को कम करने हेतु नवरत्न पैंडल गले में धारण करवाया जाता है। इसके लिए 9 ग्रह के रत्नों का आदर्श वजन 1 ग्राम लेकर रत्नों को संबंधित धातु/अष्टधातु ने तैयार निम्न प्रकार से करते हैं।

6. नवग्रह यंत्र को गले में धारण कर सकते हैं। इसे पूजा स्थल में भी स्थापित कर नित्य घी, तेल, दीपक डालकर मंत्र जाप कर सकते हैं। दोनों उपाय रामबाण हैं क्योंकि महादशा में भी अंतर, प्रत्यंतर, सूक्ष्म, प्राण दशा आदि कई छोटी दशाएं गोचर आदि चलते हैं और नवग्रह यंत्र व लाॅकेट इनसे संबंधित दुष्प्रभावों को दूर कर शुभ प्रभाव देता है।

7. नवग्रह शांति हेतु गायत्री जी, दुर्गा मां, शिवजी, विष्णु जी की पूजा शुभ रहती हैं। इससे अशुभ योगों के दुष्प्रभाव तो कम होते ही हैं साथ ही कालसर्प योग, पितृदोष, विषयोग आदि के दुष्प्रभाव भी कम होते हैं। गायत्री जी मंत्र, नवदुर्गा मंत्र, दसमहाविद्या मंत्र, द्वादशज्योतिर्लिंग, महामृत्युंजय यंत्र, श्री हरि के नवग्रह रूप की पूजा व इनके समक्ष इनके मंत्र जप शुभ रहते हैं। दुर्गासप्तशती का नित्य पाठ अति शुभ रहता है।

कालसर्प योग हेतु महाकालरूप शिवजी, पारद शिवलिंग की पूजा शुभ रहती है। कालसर्पयोग निवारण शांति कवच पहनना शुभ रहता है। कालसर्प यंत्र स्थापित कर पूजा (मंत्र जप) शुभ रहता है। मोती, रुद्राक्ष माला में 11 मुखी रुद्राक्ष कवच धारण करना भी शुभ रहता है। इससे व्यक्ति अकाल मृत्यु से निकलकर आयु वृद्धि प्राप्त करता है तथा स्वस्थ रहता है। इसके अलावा पारद के पंचमुखी हनुमानजी की पूजा भी उपरोक्त अशुभ योगों में शुभ फल देने वाली है।

8. केमद्रुम योग के अशुभ प्रभाव दूर करने हेतु चंद्र यंत्र के नीचे मोती व बायीं ओर पन्ना व बायीं ओर पुखराज (पीला) से कवच तैयार करवाकर धारण करने से केमद्रुम योग के अशुभ प्रभाव को दूर कर सकते हैं। इससे गजकेसरी योग का दुष्प्रभाव भी कम होता है। प्रतिदिन प्रातः पीपल वृक्ष में परिक्रमा लगाने हेतु जल देना व दीपक, अगरबत्ती प्रज्ज्वलित करना शुभ रहता है। इससे प्रत्येक ग्रह से संबंधित उपरोक्त अशुभ फल में कमी आती है।

9. बुद्धि जड़ योग हेतु गणेशजी के साथ सरस्वती जी की पूजा भी शुभ रहती है। इससे शिक्षा में शुभ फल की प्राप्ति होती है तथा जातक प्रतियोगी परीक्षा में भी सफल रहता है।

10. रुद्राक्ष चुनाव/धारण द्वारा भी उपरोक्त अशुभ योगों के दुष्प्रभाव में कमी ला सकते हैं।



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