रत्नों का चिकित्सा में प्रयोग

रत्नों का चिकित्सा में प्रयोग  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 6171 | मई 2006

रत्नों का चिकित्सा में प्रयोग डाॅ. एन. पी. मित्तल मनुष्य को प्रकृति की अनुपम भेंट रत्न न केवल आभूषण के रूप में उपयोग किए जाते हैं बल्कि इनमें अनेक औषधीय गुण भी होते हैं। किंतु, बिना सोचे-समझे इनका उपयोग हा.निकारक भी हो सकता है। प्रस्तुत आलेख में विभिन्न रत्नों के गुणों और विभिन्न रोगों के उपचार में उनके महत्व पर प्रकाश डाला गया है, आइए देखें ...

रत्नों का उपयोग आयुर्वेद में औषधि के रूप में किया जाता है और ज्योतिष शास्त्र में इन्हें धारण करने की विधि पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। किंतु बिना सोचे-समझे इनका व्यवहार करना हानिकारक हो सकता है। ज्योतिष शास्त्र ने रत्न धारण करने के नियम बनाए हैं ।

इन नियमा े ंका े समझ कर रत्न धारण करने से नुकसान नहीं होता। बिना समझे रत्न धारण करने पर हानि पहुंच जाती है; जैसे कि यदि जन्म पत्रिका में सूर्य उच्च का बैठा हो और जातक माणिक्य धारण करे तो परिणाम हानिकारक होगा। रत्न चिकित्सकों के अनुसार रत्नों के गुण धर्म संक्षेप में निम्नानुसार हैं। जीवनीय व शक्तिप्रद उष्ण शीतल हीरा माणिक्य मोती श्वेत पुखराज प्रवाल पन्ना नीलम कुछ विद्वानों ने रत्नों का चिकित्सा में प्रयोग होमियोपैथी विधि से किया है।

इन परीक्षकों में डाॅ. विनयतोष भट्टाचार्य ओरियेंटल इंस्टिट्यूट (बरोड़ा) के भूतपूर्व अध्यक्ष, विशेष अनुभवी थे। उनके मतानुसार अन्य औषधियों की अपेक्षा रत्नों के सत्वार्क का प्रयोग विशेष सफलताप्रद होता है। यहां उनके अनुभव अनुसार रत्नों के गुण का विश्लेषण प्रस्तुत है। ज्योतिष शास्त्र में विभिन्न ग्रहों के स्वाद पृथक पृथक दर्शाए गए हैं। ग्रहों का स्वाद ही ग्रह रत्नों का स्वाद माना जाता है। ज्योतिष शास्त्र में माण् िाक्य कटु, मोती कषाय, प्रवाल तिक्त, श्वेत पुखराज मधुर, हीरा अम्ल, नीलम लवण, पन्ना सर्वस्वाद युक्त रत्न माने गए हैं।

आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार: मधुर, अम्ल और लवण रस वायुशामक हैं। मधुर, तिक्त और कषाय रस पित्तशामक हंै। कटु ,तिक्त औ रकषाय रस कफशामक है ं।

आयुर्वेद शास्त्रानुसार गुण: माणिक्य कटु होने से कफशामक होता है, मोती कषाय रसात्मक होने से पित्त और कफ दोनों को शांत करता है। प्रवाल तिक्त होने से पित्त और कफ दोनों का शमन करता है। पन्ना छहों स्वाद युक्त होने से वात, पित्त, कफ तीनों का शामक है। श्वेत पुखराज मधुर होता है, इसलिए वात और पित्त को शांत करता है। हीरा अम्लीय होने से वात शामक है। नीलम लवण रसात्मक होने से वात शामक है।

रत्नों की किरणों के गुण धर्म: ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वातनाड़ी संस्थान का अधिपति शनैश्चर है। वही नाड़ियों की क्रिया को अधिकार में रखता है। मज्जा धातु का अधिपति मंगल है। वह पित्त और ऋणात्मक शक्तियुक्त है। ज्योतिष शास्त्र में रस और रक्त संस्थान में विभेद नहीं माना गया है। उन दोनों के ऊपर चंद्र का अधिकार है जो धनात्मक शक्ति युक्त और शीतल गुण धर्म युक्त है। विविध रंग प्रधान रत्न किरणों का रक्त, मांस आदि संस्थानों पर भिन्न भिन्न प्रभाव पड़ता है। जैसे रस-रक्त संस्थान नारंगी रंग के अधिकार में है।

मांस संस्थान पर हरे रंग की किरण् ाों का अधिकार है। मेद संस्थान और सब ग्रंथियों पर आसमानी रंग प्रधान किरणों का अधिकार है। अस्थि संस्थान पर रक्त वर्ण की किरणों का आधिपत्य है। मज्जा पीत वर्ण की किरणों से तथा वात संस्थान बैंगनी किरणों से पुष्ट होते हैं। शुक्र संस्थान नील वर्ण की किरणों से पुष्ट होता है। इस विवेचन से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलता है। बैंगनी वर्ण का ह्रास होने पर वात नाड़ियां पीड़ित होती हैं। नील वर्ण की न्यूनता होने से शुक्र विकृत होता है। आसमानी वर्ण की कमी होने से ग्रंथियां शिथिल हो जाती हैं। हरे रंग की न्यूनता होने से मांस संस्थान प्रभावित होता है।

पीत वर्ण की न्यूनता होने पर मज्जा धातु दूषित होती है। नारंगी रंग के कम होने पर रक्त में विकृति आती है। रक्त वर्ण के ह्रास होने से अस्थि संस्थान में विकार उत्पन्न होता है। सूर्य के ताप, विविध भोजन, पेय, विशुद्ध वायु आदि से जीवों को नियमित वर्ण प्राप्त होते हैं, किंतु जब नौसर्गिक रोग निरोधक शक्ति निर्बल हो जाए या कीटाणु या विष का देह में प्रवेश हो जाए, तब जीवों की उन वर्णों की किरणों की ग्रहण शक्ति शिथिल हो जाती है।

ऐसी परिस्थिति में रत्न अथवा अन्य औषधि, रोग शामक अथवा आहार विहार द्वारा रोग निवारण और स्वास्थ्य संरक्षण कर लेना चाहिए। आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा पद्ध ति में रत्नों का उपयोग पिष्टी और भस्म के रूप में होता है। लेकिन इससे रत्नों का नाश होता है जबकि ज्योतिष शास्त्र में रत्नों के धारण करने से रोग निवारण और स्वास्थ्य रक्षा की बात कही गई है जिससे रत्न नष्ट नहीं होते। रत्नों से रोग निवारण और स्वास्थ्य रक्षा की एक और विधि है जो होमियोपैथी में काम आती है। यह विधि डाॅ. भट्टाचार्य द्वारा अपनाई गई विधि है।

यह इस प्रकार है। एक ड्राम विशुद्ध सुरासार या विशुद्ध मद्यसार को भली प्रकार साफ की हुई एक बोतल में भरें। उसमें आध् ो से एक रत्ती अर्थात 1/96 तोला हीरा, माणिक्य, पन्ना, पुखराज, नीलम, मुक्ता, प्रवाल या स्फटिक डालें। यदि मोती डालें तो एक डालें। इसी प्रकार प्रवाल शाखा का एक टुकड़ा डालें। फिर नया डाट लगाकर शीशी को बंद कर पेटी के भीतर 2 सप्ताह रख दें। फिर शीशी को बाहर निकाल कर कुछ समय तक हिलाएं।

उसके पश्चात रत्न को बाहर निकाल लें। फिर उसमें होमियोपैथी विधि से बनी हुई नं. 20 की दुग्ध शर्करा की गोलियां डालकर ऊपर नीचे घुमाकर गोलियों को भिगो दें। कुछ घंटों पश्चात इन गोलियों को स्वच्छ श्वेत कागज पर सुखा दें, और फिर शीशी में भर कर लेबल लगा लें। इस प्रकार गोलियां वर्ण प्रधान रत्न के अनुरूप गुण धर्म वाली बन जाती हैं तथा रत्न जैसा था वैसा ही रह जाता है। एकाधिक वर्ण का ह्रास होने पर रत्न मिश्रण का प्रयोग किया जाता है।

इसलिए हीरा, नीलम, श्वेत पुखराज और पन्ना चारों को मिलाकर सुरासार तै यार किया जाता है ।इसी तरह उक्त सातों रत्न मिलाकर भी सुरासार बना लिया जाता है। नीलम, हीरा, श्वेत पुखराज और पन्ना प्रधान वर्ण द्रव्य में उन सबका गुण आता है जो जीर्ण मियादी बुखार और विविध प्रकार के नूतन तीव्र ज्वर में अपना चमत्कार दर्शाता है।

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