वट सावित्री व्रत

वट सावित्री व्रत  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 6204 | मई 2006

वट सावित्री व्रत पं. ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’ भारतीय संस्कृति में वट सावित्री एक व्रत है, जिसे संपन्न कर एक भारतीय नारी ने यमराज को भी अपने नियम बदलने को विवश कर दिया। भारत देश में यह व्रत प्रायः अमावस्या को ही होता है।

इस वर्ष 24.05.2006 को यह व्रत संपन्न किया जाएगा। बअसार की सभी स्त्रियों में ऐसी शायद ही कोई हुई होगी, जो सावित्री के समान अपने अखंड पतिव्रता धर्म और दृढ़ प्रतिज्ञा के प्रभाव से यम द्वारा सयमनी पुरी में ले जाए गए पति को सदेह लौटा लाई हो। अतः सधवा, विधवा, वृद्धा, बालक, सपुत्रा, अपुत्रा सभी स्त्रियों को सावित्री का व्रत अवश्य करना चाहिए। नारी वा विधवा वापि पुत्री पुत्रविवर्जिता। सभर्तृका सपुत्रा वा कुर्याद् व्रतमिदं शुभम्।। जयसिंह कल्पद्रुम में लिखित विधि के अनुसार ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी को प्रातः स्नानादि के पश्चात् ‘‘मम वैधव्यादि-सकलदोषपरिहारार्थं सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्री व्रतमहं करिष्ये।’’ कर नाम, गोत्र, वंश आदि के साथ उच्चारण करते हुए। सहित संकल्प कर तीन दिन उपवास करें।

अमावस्या को उपवास कर के शुक्ल प्रतिपदा को व्रत समाप्त करें। अमावस्या को वट वृक्ष के समीप बैठ कर बांस के एक पात्र में सप्त धान्य भर कर उसे दो वस्त्रों से ढक दें और दूसरे पात्र में सुवर्ण की ब्रह्म सावित्री तथा सत्य सावित्री की प्रतिमा स्थापित कर के गंधाक्षतादि से पूजन करें। तत्पश्चात् वट वृक्ष को कच्चे सूत से लपेट कर उस वट का यथाविधि पूजन कर के परिक्रमा करें। पुनः ‘‘अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते। पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणाघ्र्यं नमोऽस्तु ते।।’’

इस श्लोक को पढ़ कर सावित्री को अघ्र्य दें और ’वटसि×चामि ते मूलं सलिलैरमृतोपमैः। यथा शाखा- प्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले। तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मां सदा।।’ इस श्लोक को पढ़ कर वट वृक्ष से प्रार्थना करें। देश-देशांतर में मत-मतांतर से पूजा पद्धति में विभिन्नता हो सकती है। परंतु भाव सबका एक ही रहता है, जो यमराज द्वारा सावित्री को प्रदत्त वरदान या आशीर्वाद है।

इसमें भैंसे पर सवार यमराज की मूर्ति बना कर भी पूजा का विधान है। सावित्री कथा का भी श्रवण करें। यह कथा इस प्रकार है: मद्र देश के नरेश अश्वपति धर्म के प्राण थे। धर्मानुकूल पवित्र आचरण एवं इंद्रिय संयमपूर्वक भगव˜जन ही उनके जीवन के आधार थे। 18 वर्षों तक सावित्री देवी की आराधना कर के इन्होंने संतति प्राप्ति का आशीर्वाद पाया था। सावित्री ने इन्हीं की सौभाग्यवती पत्नी (जो मालव नरेश की कन्या थी) के गर्भ से जन्म लिया था।

सावित्री अपूर्व गुणी और शीलवती थी। वह क्रमशः बढ़ती हुई विवाह के योग्य हुई। सावित्री को पूर्णवयस्का देख कर चिंतित अश्वपति ने उसे स्वयं वर ढूंढने का आदेश दिया। अत्यंत लज्जा और संकोच से माता-पिता के चरणों का स्पर्श कर वह वृद्ध मंत्रियों के साथ रथारूढ़ हो कर रमणीय तपोवन की ओर चली। कुछ दिनों के बाद जब वह लौटी, तब देवर्षि नारद उसके पिता के समीप बैठे हुए मिले।

चरण स्पर्श करने पर अश्वपति के साथ श्री नारद जी ने भी उसे प्रेमपूर्वक आशीष दी। अश्वपति ने सावित्री को वरान्वेषण के लिए भेजा था, यह संवाद श्री नारद जी को पहले ही बतला दिया गया था। उन्होंने सावित्री से धीरे से कहा: ‘बेटी, तुमने किसे पति चुना है, देवर्षि को बता दा।े ’ सावित्री ने कहा कि वह शाल्व नरेश द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान से विवाह करना चाहती है। सत्यवान की आयु अल्प होने के कारण अश्वपति ने उससे अपना निर्णय बदल लेने को कहा।

किंतु उसने कहा कि वह जैसे भी हैं, उसने उन्हें अपना पति स्वीकार कर लिया है और अब वह किसी और का वरण नहीं कर सकती। इस तरह सत्यवान से सावित्री का विवाह हो गया। सावित्री को श्रीनारद जी की बात याद थी। उसका हृदय प्रतिक्षण अशांत रहता था। पति की मृत्यु की कल्पना मात्र से उसका कलेजा कांप जाता था।

धीरे-धीरे वह समय भी आ गया, जब सत्यवान की मृत्यु के चार दिन शेष रह गए थे। पतिप्राणा सावित्री अधीर हो गई थी। उसने तीन रात्रि का निराहार व्रत धारण किया। चैथे दिन उसने प्रातः काल ही सूर्य देव को अघ्र्य दान कर सास-ससुर तथा ब्राह्मणों का शुभ आशीर्वाद प्राप्त किया। सत्यवान् समिधा लेने चले, तो सास-ससुर की आज्ञा ले कर सावित्री भी उस दिन उनके साथ हो गई। वन में थोड़ी लकड़ी भी वह नहीं ले पाए थे कि उनका सिर चकराने लगा। सिर की असह्य पीड़ा के कारण सत्यवान सावित्री की गोद में लेट गए।

फूल-सी कोमल सावित्री का हृदय हाहाकार कर उठा। उसने देखा, सामने लाल वस्त्र पहने श्यामवर्ण एक देव पुरुष खड़े हैं। चकित हो कर उसने प्रणाम किया, तो उत्तर मिला: ‘सावित्री, मैं यम हूं। तुमने अपने कर्तव्य का पालन किया है। अब मैं सत्यवान को ले जाऊंगा। इनकी आयु पूरी हो गई है। यम सत्यवान के सूक्ष्म शरीर को ले कर आकाश मार्ग से चल पडे़।

अधीरा सावित्री भी उनके पीछे लग गई। यमराज ने उसे लौटने के लिए कहा, तो वह बोली: ‘भगवन् , पतिदेव का साथ मुझे अत्यंत प्रिय है। मेरी गति कहीं नहीं रुकेगी। मैं इनके साथ ही चलूंगी।’ सावित्री की धर्मयुक्त वाणी सुन कर यम ने उससे सत्यवान को छोड़ कर अन्य वर मांगने के लिए कहा सावित्री ने पहले वरदान में अपने ससुर की नेत्र ज्योति, दूसरे में ससूर का खोया राज्य, तीसरे में अपने निःसंतान पिता के लिए सौ पुत्र मांग लिए।

चैथी बार यमराज शर्त लगाना भूल गए, तब उसने अपने लिए भी सत्यवान के वीर्य से सौ पुत्रों का वरदान प्राप्त कर लिया। इतने पर भी उसने यम का साथ नहीं छोड़ा। सतीत्व के कारण उसकी गति अबाध थी। उसने यम की स्तुति करते हुए कहा: ‘भगवन्, अब तो आप सत्यवान के जीवन का ही वरदान दीजिए। इससे आपके ही सत्य और धर्म की रक्षा होगी। पति के बिना सौ पुत्रों का आपका वरदान सत्य नहीं हो सकेगा। मैं पति के बिना सुख, स्वर्ग, लक्ष्मी और जीवन की भी इच्छा नहीं रखती।’ 

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