बहुविवाह एवं द्विविवाह

बहुविवाह एवं द्विविवाह  

एस. लव पांडेय
व्यूस : 7242 | जनवरी 2007

अधिकतर हम ज्योतिषी लोग जन्म कुंडली मेलापक करते समय समग्र विषय पर विचार न करके विवाह के लिए सलाह दे देते हैं। गुण मिलाकर सलाह दे देने से वैवाहिक जीवन अच्छा नहीं रहता, गुण के साथ-साथ ग्रहों का मिलान करना भी आवश्यक है। ग्रह मिलान करते समय अच्छा स्वास्थ्य, शालीन प्रभाव, अच्छा भाग्य, समुचित शिक्षा, पतिव्रता योग, संतान सुख, आयु, रोग, दारिद्र, विषकन्या योग, व्यभचारिणी योग एवं विधवा योग इत्यादि विषय पर विचार करना अति आवश्यक है।


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साथ-साथ भोग उपभोग, रति सुख, क्रय शक्ति इत्यादि विषय भी विचारणीय है क्योंकि दाम्पत्य जीवन के लिए ये विषय महत्वपूर्ण हैं। कई स्थान पर ये देखने में आया है, कि उपरोक्त विषयों की कमी के कारण दाम्पत्य जीवन में दरार उत्पन्न होती है जिसके कारण तलाक हो जाते हैं। बहुविवाह योग कई कारणों से होते हें।

शास्त्रानुसार बहुविवाह के वारे में महर्षि यज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है- नष्ट मृते प्रव्रज्यिते क्लीवे च पतिते पतौ। पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते।। अर्थात् विवाह के वाद पति यदि विदेश चला जाए और बारह वर्ष तक लौटकर न आए, अल्प समय में मृत्यु के वाद, सन्यासी हो जाने पर, पति के नपंुसक होने या पति के दुराचारी होने पर, कन्या का विवाह किसी अन्य पुरुष के साथ किया जा सकता है।

परंतु आजकल जिस प्रकार बहुविवाह हो रहा है वह एक खेल की तरह बन गया है, कारण यह युग गंधर्व विवाह (प्रेम विवाह) की ओर चला गया है। कई लोग ज्योतिषाचार्य के पास जाकर आज के लोग विवाह का मुहूर्त पूछते हैं कि फेरे कब लिए जाएं? परंतु, युग का प्रभाव इतना है कि फेरे लेने का सही समय बैंड बाजा और नाच गानों में व्यतीत हो जाता है। लोग सोचते हैं कि जब कुंडली अच्छी तरह से मिली हो, तो मुहूर्त की क्या उपादेयता है।

लेकिन जीवन के जोड़ने का समय अगर विषाक्त हो जाएगा तब क्या मधुर दाम्पत्य जीवन व्यतीत होगा? अनेक संबंध क्यों होते हैं?: विदेश में अनेक संबंध और अनेक विवाह होते हैं इसका प्रभाव उन देश में स्वीकार नहीं किया गया है इसका क्या कारण और कौन से ग्रहों का प्रभाव है? देखने में आया है कि शुक्र प्रेमाकर्षण एवं काम वासना का कारक, चंद्र मन एवं स्त्री का कारक है।

इसलिए विदेशी व्यक्ति अधिकतम गौरवर्ण होते हैं और उन देशों में चंद्र शुक्र के कारण अनेक संबंध और अनेक विवाह होते हैं। हमारा ज्योतिष शास्त्र यह कहता है कि चंद्र और शुक्र का संबंध सप्तमेश के साथ हो एवं पाप ग्रहों की दृष्टि या युति हो, तो अनेक संबंध होते हैं। चंद्र, शुक्र का विचार अति आवश्यक है, प्रेम विवाह का कारण शुक्र होता है।

कारण कि शुक्र विलास, वासना, रतिसुख, प्रणय, आवेग, ऐन्द्रिकआनन्द, वैभव और संपूर्ण दाम्पत्य सुख का प्रतिनिधि ग्रह है। शुक्र यदि मंगल से संबंध करता हो या मंगल की राशि में होकर पापाक्रांत हो, तो इसका परिणामस्वरूप व्यक्ति की वासना में प्रखर उत्तेजना का समावेश होता है।

शुक्र मंगल के संबंध को अतिकामातुर योग कहा गया है। कारण शुक्र रति-क्रीड़ा एवं मंगल उत्तेजना का कारक है। इन दोनों का संबंध विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण उत्पन्न करके यौन संबंध की ओर ले जाता है। अगर शुक्र एवं चंद्र पर राहु की दृष्टि हो एवं कर्क राशिगत मंगल का संबंध हो जाए तो व्यक्ति विवाहित स्त्री से संबंध रखता है। एक महिला ज्योतिषी लेखिका के अनुसार यदि लग्नेश सप्तम में हो और सप्तमेश लग्न में हो, तो व्यक्ति का चारित्रिक पतन प्रदर्शित होता है।

मंगल, शुक्र एवं राहु ये तीन ग्रह प्रचुर यौन संबंध एवं मिथ्या विवाह का योग होता है। वह अपनी प्रेमिकाओं के उन्मुक्त भोग का निमंत्रण देता है। यदि किसी कन्या की कुंडली में सप्तम स्थान पर राहु, शुक्र एवं मंगल हो, तो अल्प उम्र में यौन आनंद को उपभोग करके जीवन को नष्ट करती है।

मेरे विवचार से सप्तमाधिपति या शुक्र अथवा ये दोनों द्विस्वभाव राशिगत हों या द्विस्वभाव नवमांश में हो तो भी एक से अधिक विवाह या संबंध होते हैं। अगर सप्तम भाव और सप्तमेश पर राहु का प्रभाव हो तो ये योग बन जाता है। मेरे अनुभव से विचार करते समय लग्न कुंडली, चंद्र कुंडली, सूर्य कुंडली एवं शुक्र कुंडली में विचार करने से उचित फलित होता है।

इन सब कुंडली में यदि सप्तमेश के साथ मंगल का संबंध हो तो अनेक संबंधों का योग होता है। अगर ऐसे योग के साथ-साथ यदि शुक्र 6, 8, 12वें भाव पर चला जाए और उस पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो जाये तो इसका वर्णन वहीं कर सकता है, जो जिसकी कुंडली में ये योग हो यहां प्रमाण होगा। फिर भी एक प्रत्यक्ष उदाहरण एक जातक की कंुडली में मिलता है।

इसमें विचार करना है कि लग्न कुंडली: सप्तमेश सूर्य मंगल के साथ है। और सूर्य मंगल पर केतु की दृष्टि है। चंद्र कुंडली: सप्तमेश बुध मंगल के साथ है और उस पर भी केतु की दृष्टि है। सूर्य कुंडली: सप्तमेश बुध के साथ मंगल का होना। शुक्र कुंडली: सप्तमेश चंद्र पर मंगल की दृष्टि का होना एवं लग्नेश शनि पर भी मंगल की दृष्टि होना एवं शुक्र स्वयं लग्न कुंडली से द्वादश भाव पर है और उस पर शनि की भी दृष्टि है।

अब लग्न कुंडली के आधार पर पंचमेश, बुध और सप्तमेश सूर्य का एक साथ होना एवं मंगल की युति के कारण व्यक्ति चरित्रहीन एवं अनेक यौनसंबंध बनाता है, यह एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। यह व्यक्ति कई बार यौन संबंध के कारण समाज से कलंकित हुआ और विवाहित स्त्री को भी अपने पास रखता है।

भीषण त्वचा रोग के कारण इसका शुक्राणु नष्ट हो गया तथा डाॅ. तथा फिजीशियन के माध्यम से जीवनदान मिला है। डाक्टर का कहना है कि इसको कभी भी संतान की प्राप्ति नहीं होगी और ज्योतिष का भी यह सूत्र है कि पंचमेश और सप्तमेश की युति, संतानहीनता का योग है। तात्पर्य यह है कि शुक्र, चंद्र का विचार आवश्यक है। बहु-विवाह क्यों होते हैं: हस्तरेखा द्वारा भी इस येाग का आकलन किया जा सकता है।

हस्तरेखा मंे बुध पर्वत और कनिष्ठका उंगली के नीचे विवाह रेखा होती है। यदि विवाह रेखा शाखाओं में विभाजित हो, इसमें अंकुश या द्वीप हो, तो एकाधिक विवाह की संभावना होती है। यदि हृदय रेखा कटी-फटी हो, शुक्र पर्वत दवा हुआ हो, अंगूठा पतला और झुकता न हो, एवं उंगलियां पतली और गांठ जैसी हो, विवाह रेखा पर अंकुश या शाखाऐं हों, तो पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी होती है। अंकुश जितने होंगे उतनी ही पत्नी होती है।

जन्म कुंडली में भी विचारणीय यह है कि:

- यदि सप्तमेश अशुभ ग्रह के साथ छठे, आठवे एवं बारहवें भाव में बैठा हो, एवं सप्तम स्थान पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो, तो दो विवाह का योग होता है। साथ में कन्या की कुंडली से भी यही विचार करना उचित होगा।

- मंगल छठे, आठवे एवं बारहवें भाव में हो सप्तमेश द्वितीय स्थान पर हो और सप्तम स्थान पर राहु व सूर्य की दृष्टि हो, तो तलाक के बाद दूसरा विवाह होता है।

- यदि कन्या की कुंडली में छठे भाव में मंगल, सप्तम भाव में राहु, और अष्टम में शनि हो, सप्तमेश निर्बल हो तो विधवा योग होता है। दो या तीन विवाह के बाद दाम्पत्य जीवन सुखी रहता है।


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- पत्नी स्थान और पत्नी से आठवां स्थान, आयु स्थान (द्वितीय स्थान) से विचार करना आवश्यक है। अतः सप्तमेश और द्वितीयेश यदि शुक्र के साथ हो या पाप ग्रहों से इनका संबंध हो, एवं छठे, आठवे एवं बारहवें भाव का स्वामी यदि सप्तम स्थान पर हो, तो वैवाहिक जीवन अंधकारमय होता है।

- सप्तम भाव का कारक एवं गुरू का, शुक्र यदि चंद्र से छठे या आठवें भाव में हो और शुक्र नीच का हो, तो भी बहु विवाह का योग होता हैं।

- सप्तमांश एवं त्रिशांश कुंडली में यदि शुक्र, मंगल का संबंध हो एवं वर कन्या की राशि शत्रु एवं षड़ाष्टक हो, साथ-साथ जन्म लग्न का स्वामी भी षड़ाष्टक हो, तो किसी एक की मृत्यु के बाद पुनः विवाह होता है। लग्न और अष्टम स्थान के स्वामी जिसका बलवान होंगे वही जीवित रहेगा।

- चंद्र कुंडली में लग्नेश, सप्तमेश का किसी भी प्रकार का संबंध हों, और चंद्र या शुक्र से मंगल का युति संबंध हो, तो अनेक स्त्रियों से संबंध रहता है।

- यदि सप्तमेश शुक्र द्विस्वभावगत राशि का हो और द्विस्वभावराशिस्थ राहु की दृष्टि सप्तम, सप्तमेश, शुक्र या चंद्र पर हो, तो अनेक बार तलाक होता है।

- नवमांश कुंडली में यदि बृहस्पति स्वनवमांश (धनु और मीन) का हो तो और पाप कर्तरी योग में हो तथा सूर्य की दृष्टि सप्तम स्थान पर हो, तो पति के तलाक के बाद पुनः विवाह होता है।



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