जिओपैथिक स्ट्रेस और वास्तुशास्त्र

जिओपैथिक स्ट्रेस और वास्तुशास्त्र  

अविनाश कुलकर्णी
व्यूस : 3909 | नवेम्बर 2016

वास्तु शास्त्र और जिओपैथिक स्ट्रेस का एक अटूट रिश्ता है। जिओपैथिक स्ट्रेस समझे बिना हम वास्तु शास्त्र को पूर्ण रूप से समझ ही नहीं सकते बल्कि वास्तु दोषों का पूर्ण रूप से निदान भी नहीं कर सकते। भारत एवं एशिया में स्थित सैकड़ों नई-पुरानी तथा प्राचीन वस्तुओं का अध्ययन करने के बाद यह कहा जा सकता है कि दोषयुक्त वास्तु को निर्दोष बनाने में जिओपैथिक स्ट्रेस के उपचारों का योगदान बहुत ही अहम एवं अनिवार्य है। ‘जिओपैथिक’ एक ग्रीक शब्द है। ‘जिओ’ माने जमीन, ‘पैथिक’ का मतलब पैथोलाॅजी (बीमारी) जिओपैथिक स्ट्रेस मतलब जमीन के अंदर से ऊपर आने वाली एक ऐसी नकारात्मक ऊर्जा जो मनुष्य के मन तथा शरीर को बुरी तरह से प्रभावित करती है।

यह एक ऐसी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक या इलेक्ट्रोस्टैटिक ऊर्जा है, जो जमीन के अंदर बहने वाले पानी के घर्षण से, जिन्हें हम वाॅटर वेव्ज कहते हैं, निर्माण होती है। संशोधन में ऐसा पाया गया है कि यह ऊर्जा मनुष्य जाति को होने वाली कई बीमारियों का कारण बन सकती है। लेकिन यही नकारात्मक ऊर्जा अन्य कई जीव जंतुओं के लिए बहुत ही लाभदायक सिद्ध होती है। जैसे कुत्ता, घोड़ा, गाय के लिए जिओपैथिक स्ट्रेस नुकसानदायी है, तो बिल्ली, सांप, मधुमक्खी, चीटियां, दीमक आदि जीवों के लिए, उनकी जनन प्रक्रिया के लिए शुभकारक साबित हुई है।

इसलिए इस ऊर्जा को नकारात्मक ऊर्जा कहना पूर्ण रूप से सही नहीं होगा। हमारे ऋषि मुनियों ने भी इस ऊर्जा की अहमियत पहचान कर अपने ग्रंथों में इसका जिक्र किया है। कुछ महत्वपूर्ण भारतीय प्राचीन ग्रंथों में जमीन से निकलने वाली एवं जमीन पर प्रभाव डालने वाली इस ऊर्जा का चिंतन हम पढ़ सकते हैं। ‘विश्वकर्मा प्रकाश’ नामक प्रसिद्ध वास्तुग्रंथ में भूमिचयन नाम का स्वतंत्र पाठ है, जिसके कई श्लोकों में हम जिओपैथिक स्ट्रेस से संबंधित जानकारी को समझ सकते हैं जैसे कि - पाशवो (पांसु) रेणुतां नीत्वा निरीक्षेदन्तरिक्षगाः। अधोयध्योक्ष्वर्गा न्हतां गति तुल्य फल प्रदा।। 70 ।।

विश्वकर्मा जी कहते हैं, भूमिचयन करते समय आप उस जगह की थोड़ी मिट्टी हवा में उड़ाएं और उसका निरीक्षण करें। मिट्टी अगर अच्छी तरह से हवा में उड़कर दूर जाती है तो वह भूमि वास्तु अनुकुल है, थोड़ी दूर जाकर नीचे गिरती है तो भूमि मध्यम है, तथा पैरों के पास गिरती है तो इसका मतलब भूमि नीच है। नमी होने के कारण मिट्टी हवा में उड़ नहीं पाती। यह जिओपैथिक स्ट्रेस के संकेत है। विश्वकर्माजी निम्न श्लोक में कहते हैं - गृहस्थामि भयंचैत्ये वल्मिके विपदः स्मृताः।। 59 ।।

जिस भूमि में, दीमक आदि होते हैं, वह भूमि विपदा देती है। मृगाधिवासते रात्रो गोमार्जाराभिन दिते। वारणाश्वदिविरुते स्त्रणां युद्धभिरुरिू ते।। 22।।

कपोतकगृहावासे मधुनामनीलये तथा।। जिस घर में हिरण, गाय, बिल्ली रात में चिल्लाते हैं, जिस घर में हाथी घोड़े चिल्लाते हैं, और जिस घर में मधुमक्खी का छत्ता होता है, वह जिओपैथिक स्ट्रेस से प्रभावित है, उसे त्याग देना चाहिए। ऐसे कई संदर्भ हमारे प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं। जरूरी है कि हम उन्हें ढूंढंे, पढं़े एवं प्रयोग करें।

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