ज्योतिष के छः महादोष एवं रत्न चयन

ज्योतिष के छः महादोष एवं रत्न चयन  

गोपाल राजू
व्यूस : 8519 | फ़रवरी 2006

विनाशकारी मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन सृष्टि त्रिआयामी तथा त्रिगुणात्मक है। इसमें 27 नक्षत्र हैं। यदि इनको तीन समान भागों में बांटा जाए तो 1 से 9, 10 से 18 तथा 19 से 27 वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की संधि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं। ये नक्षत्र हैं- पहला अश्विनी, नवां आश्लेषा, दसवां मघा, अट्ठारहवां ज्येष्ठा, उन्नीसवां मूल तथा सत्ताइसवां रेवती। ये तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं जैसे दो संलग्न नक्षत्र अलग-अलग राशियों में हैं, किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं आता। इसीलिए इन्हें नक्षत्र चक्र का ‘मूल’ अर्थात प्रधान नक्षत्र माना जाता है।


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ऐसे नक्षत्रों को अशुभ मानने की परंपरा जाने कब, कहां और कैसे चल पड़ी। यदि आप भी मूल नक्षत्र से भयभीत हैं तो रत्नों उपरत्न अथवा वनस्पतियों, रंगों आदि से उपाय करके देखें। सर्वप्रथम आप शुद्ध जन्मपत्री से अपना जन्म नक्षत्र, उसका चरण तथा लग्न जान लें। मान लें कि आपका जन्म रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। यह निम्न सारिणी में दर्शाती है कि मान-सम्मान मिलना है। यह इंगित करता है कि आपको अपनी जन्म कुंडली के दशम भाव के अनुसार शुभ फल मिलना है। इस प्रकार यदि आप अपनी जन्मकुंडली में दसवें भाव की राशि के अनुरूप रत्न धारण कर लेते हैं तो आपको शुभ फल अवश्य मिलेगा। मान लें कि आपका लग्न मकर है।

इसके अनुसार आपके दसवें भाव का स्वामी हुआ शुक्र। शुक्र ग्रह के अनुसार यदि आप हीरा अथवा उसका उपरत्न धारण कर लेते हैं तो आपको लाभ अवश्य मिलेगा। आपका जन्म यदि मघा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में हुआ है तो यह दर्शाता है कि आप धन संबंधी विषयों में भाग्यशाली रहेंगे। जन्मपत्री में दूसरे भाव से धन संबंधी पहलुओं पर विचार किया जाता है। यदि आपका जन्म सिंह लग्न में हुआ है तो दूसरे भाव में कन्या राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह बुध है। इस स्थिति में बुध का रत्न पन्ना आपको विशेष रूप से लाभ देगा। एक अन्य उदाहरण देखें। आपका जन्म आश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। इसका अर्थ हुआ कि आप सुखी हैं। यदि आपका जन्म मेष लग्न में हुआ है तो सुख के कारक भाव अर्थात चतुर्थ में कर्क राशि होगी। इस राशि का रत्न है मोती। आप यदि इस स्थिति विनाशकारी मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन सृष्टि त्रिआयामी तथा त्रिगुणात्मक है। इसमें 27 नक्षत्र हैं। यदि इनको तीन समान भागों में बांटा जाए तो 1 से 9, 10 से 18 तथा 19 से 27 वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की संधि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं। ये नक्षत्र हैं- पहला अश्विनी, नवां आश्लेषा, दसवां मघा, अट्ठारहवां ज्येष्ठा, उन्नीसवां मूल तथा सत्ताइसवां रेवती। ये तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं जैसे दो संलग्न नक्षत्र अलग-अलग राशियों में हैं, किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं आता।

इसीलिए इन्हें नक्षत्र चक्र का ‘मूल’ अर्थात प्रधान नक्षत्र माना जाता है। ऐसे नक्षत्रों को अशुभ मानने की परंपरा जाने कब, कहां और कैसे चल पड़ी। यदि आप भी मूल नक्षत्र से भयभीत हैं तो रत्नों उपरत्न अथवा वनस्पतियों, रंगों आदि से उपाय करके देखें। सर्वप्रथम आप शुद्ध जन्मपत्री से अपना जन्म नक्षत्र, उसका चरण तथा लग्न जान लें। मान लें कि आपका जन्म रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। यह निम्न सारिणी में दर्शाती है कि मान-सम्मान मिलना है। यह इंगित करता है कि आपको अपनी जन्म कुंडली के दशम भाव के अनुसार शुभ फल मिलना है। इस प्रकार यदि आप अपनी जन्मकुंडली में दसवें भाव की राशि के अनुरूप रत्न धारण कर लेते हैं तो आपको शुभ फल अवश्य मिलेगा। मान लें कि आपका लग्न मकर है।

इसके अनुसार आपके दसवें भाव का स्वामी हुआ शुक्र। शुक्र ग्रह के अनुसार यदि आप हीरा अथवा उसका उपरत्न धारण कर लेते हैं तो आपको लाभ अवश्य मिलेगा। आपका जन्म यदि मघा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में हुआ है तो यह दर्शाता है कि आप धन संबंधी विषयों में भाग्यशाली रहेंगे। जन्मपत्री में दूसरे भाव से धन संबंधी पहलुओं पर विचार किया जाता है। यदि आपका जन्म सिंह लग्न में हुआ है तो दूसरे भाव में कन्या राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह बुध है। इस स्थिति में बुध का रत्न पन्ना आपको विशेष रूप से लाभ देगा। एक अन्य उदाहरण देखें। आपका जन्म आश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। इसका अर्थ हुआ कि आप सुखी हैं।

यदि आपका जन्म मेष लग्न में हुआ है तो सुख के कारक भाव अर्थात चतुर्थ में कर्क राशि होगी। इस राशि का रत्न है मोती। आप यदि इस स्थिति ें मोती धारण करते हैं तो वह आपको सुख तथा शांति देने वाला सिद्ध होगा। मूल संज्ञक नक्षत्र यदि शुभ फल देने वाले हों तो रत्न का चयन करना सरल होता है। कठिनाई उस स्थिति में आती है जब वे अरिष्टकारी बन जाएं। आप यदि थोड़ा-सा अभ्यास कर लेते हैं तो यह भी पूर्व की भांति सरल प्रतीत होने लगेगी। इसे और स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं। मान लें कि आपका जन्म ज्येष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण में हुआ है। यह इंगित करता है कि आप अपनी माता पर भारी हैं। आपके जन्म लेने से वह कष्टों में रहती होंगी। जन्मपत्री में माता का विचार चतुर्थ भाव से किया जाता है।

ध्यान रखें, इस स्थिति में चतुर्थ भाव में स्थित राशि का रत्न धारण नहीं करना चहिए। अरिष्टकारी परिस्थिति में आप देखें कि जिस भाव से यह दोष संबंधित है उसमें स्थित राशि की मित्र राशियां कौन-कौन सी हैं। वह राशि कारक राशियों से यदि षडाष्टक दोष बनाती है तथा त्रिक भावों अर्थात् छठे, आठवें अथवा 12 वें भाव में स्थित है तो उन्हें छोड़ दें। अन्य मित्र राशियों के स्वामी ग्रहों से संबंधित रत्न-उपरत्न आपको मूल नक्षत्र जनित दोष से मुक्ति दिलाने में लाभदायक सिद्ध होंगे। साधारण परिस्थिति में शुभ राशि विचार नैसर्गिक मित्र चक्र से कर सकते हैं परंतु यदि रत्न चयन के लिए आप गंभीरता से विचार कर रहे हैं तो मैत्री के लिए पंचधा मैत्री चक्र से अवश्य विचार करें। मान ले कि इस उदाहरण में जन्म मेष राशि में हुआ है। चतुर्थ भाव में यहां कर्क राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह है चंद्र और रत्न है मोती। इस स्थिति में मोती धारण नहीं करना है। चंद्र के नैसर्गिक मित्र ग्रह हैं सूर्य, मंगल तथा गुरु। इन ग्रहों की राशियां क्रमशः इस प्रकार हैं - सिंह, मेष, वृश्चिक, धनु तथा मीन। धनु राशि कर्क से छठे भाव में स्थित है अर्थात षडाष्टक दोष बना रही है। इसलिए यहां इसके स्वामी ग्रह गुरु का रत्न पुखराज धारण नहीं करना है।

इस उदाहरण में माणिक्य अथवा मूंगा रत्न लाभदायक सिद्ध होगा। कालसर्प दोष से बाधित उन्नति एवं रत्न चयन यह दोष जन्म कुंडली में तब बनता है जब राहु तथा केतु के मध्य सातों ग्रह आ जाते हैं। यह दोष जिसकी पत्री में होता है उसकी उन्नति सदैव बाधित रहती है। लाख प्रयास करने के बाद भी सफलता उसे जल्दी नहीं मिल पाती। जीवन की दौड़ में कालसर्प दोष से पीड़ित व्यक्ति सर्वथा पीछे रह जाता है, ऐसा ज्योतिष मनीषियों का मानना है। ज्योतिष के प्रसिद्ध अनेक मूल ग्रंथों में इसका कहीं भी विवरण नहीं मिलता है। मूलतः बारह प्रकार से कालसर्प दोष व्यक्ति की जन्मपत्रिकाओं में बनते हैं। लग्न में राहु तथा सप्तम में केतु (स्वाभाविक) हो तथा अन्य सभी ग्रह बाएं स्थित हों अथवा दाएं तो यह कालसर्प दोष का एक विकल्प है।

इसी प्रकार राहु क्रमशः दूसरे, तीसरे अथवा सातवें भाव में हो और केतु क्रमशः आठवें, नवें अथवा लग्न में हो और अन्य सातों ग्रह राहु, केतु के इस अर्धगोलाकार भचक्र से बाएं अथवा दाएं स्थित हों तो यह भी उदाहरण है कालसर्प दोष का। इन स्थितियों में व्यक्ति पर पड़ने वाला सुप्रभाव अथवा दुष्प्रभाव क्या हो सकता है, यह अलग विषय है। हां इनसे जनित दुष्प्रभाव के निदान स्वरूप रत्नों की सहायता से हम शुभ की अनुभूति अवश्य कर सकते हैं। जन्मपत्री में देखें कि राहु किस राशि में स्थित है। पंचधा मैत्री चक्र से उस राशि के स्वामी ग्रह के मित्र, अधिमित्र ग्रह चुन लें। यदि वह ग्रह अथवा उसकी राशि राहु की राशि से, अर्थात जिस राशि में राहु है, छठे अथवा आठवें भाव में स्थित न हो तो आप उस ग्रह के रत्न कालसर्प दोष के निदान हेतु चयन कर सकते हैं। पाठक देखें कि राहु कन्या अर्थात बुध की राशि में बैठकर कालसर्प दोष बना रहा है या नहीं।

राहु का रत्न गोमेद भी इस दोष के निदान हेतु धारण कराया जा सकता था परंतु उक्त दो रत्न क्यों चुने गए, पाठक इसका विवेचनात्मक पहलू देखें। पंचधा मैत्री के आधार पर कन्या राशि के स्वामी ग्रह बुध के सूर्य, शुक्र, मंगल, शनि तथा राहु मित्र हैं। शनि और मंगल को इसलिए छोड़ दिया गया था कि वे कन्या राशि से षडाष्टक दोष बना रहे थे। शुक्र मंगल के नक्षत्र में था इसलिए पहले वह मंगल का प्रभाव देता। मंगल त्याज्य था ही इसलिए शुक्र का रत्न भी यहां कार्य नहीं करता। बुध ग्रह अपने ही नक्षत्र में स्थित था। कृष्णमूर्ति पद्धति के अनुसार वह ग्रह अधिक प्रबल हो जाता है जो अपने ही नक्षत्र में होता है। राहु भी बुध अधिष्ठित राशि स्वामी है।

इस दृष्टिकोण से भी बुध शुभ रहा। साथ में सूर्य के रत्न माणिक्य को इसलिए भी चुना गया कि वह लग्नेश था। मंगल दोष एवं रत्न चयन लड़के अथवा लड़की की जन्मकुंडली में मंगल ग्रह यदि पहले, चैथे, सातवें, आठवें अथवा 12 वें भाव में स्थित होता है तो वह मंगल दोष कहलाता है। ऐसे में एक-दूसरे के जीवन में अनिष्टकारी परिणाम होते हैं। लग्न के अतिरिक्त चंद्र तथा सूर्य लग्न से भी मंगल की इन भावों में स्थिति मंगल दोष का कारण बनती है। दक्षिण भारत में मंगल की द्वितीय भाव गत स्थिति को भी मंगल दोष का कारण मानते हैं तथा शुक्र लग्न से भी इन भावों में मंगल की स्थिति पर गंभीरता से विचार किया जाता है। इतने सारे संयोगों का यदि सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाए तो इस गणित से 70 प्रतिशत से अधिक लड़के-लड़कियां मंगली होते हैं परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि मंगल दोष होने से दाम्पत्य जीवन अनिष्टकारी होगा ही। यह मात्र एक हौवा बना दिया गया है।

मंगल दोष होता अवश्य है परंतु इस विषय की गणना विद्वान ज्योतिषी द्वारा ही की जा सकती है क्योंकि जितनी संख्या में मंगल दोष होते हैं उतनी ही उस दोष के परिहार की संभावनाएं बनती हैं। यदि वास्तव में मंगल दोष जन्मपत्री में बनता है तो अपने अनुरूप रत्न चयन करें। यह उपक्रम भी मंगल दोष के निवारण में उपयोगी सिद्ध होगा। अकसर मंगल दोष के निदान स्वरूप पुखराज अथवा मूंगा धारण करवाया जाता है। यह प्रत्येक दशा में उपयुक्त नहीं है, यह ध्यान रखें। यदि जन्मपत्री में मंगल दोष बनता है तथा गुरु से मंगल युति बनाता है अथवा उससे दृष्ट है तब तो पुखराज इस दोष के निवारण में उपयोगी होगा। गुरु यदि मंगल से षडाष्टक दोष बनाता है अथवा ऐसी राशि में स्थित है जो पंचधा मैत्री से मंगल की शत्रु है तब पुखराज पहनाना उचित नहीं है। इसी प्रकार मात्र मंगल दोष देखकर मूंगा धारण करवा देना भी सर्वथा अनुचित है। गुरु की तरह मंगल का यदि राहु से युति अथवा दृष्टि संबंध बनता है और राहु मंगल की किसी मित्र राशि में स्थित है


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तो गोमेद अथवा उस ग्रह का रत्न धारण करवाया जा सकता है जिस ग्रह के नक्षत्र में राहु हो। दूसरे, राहु जिस ग्रह की राशि में हो उस राशि के स्वामी ग्रह से संबंधित रत्न भी धारण करवाया जा सकता है। तीसरे, राहु के साथ जितने ग्रह स्थित हों उनमें से जो मंगल का मित्र ग्रह हो उस ग्रह का रत्न भी मंगल दोष के निवारण हेतु धारण करवाया जा सकता है। हर पल प्रयास यह रखना है कि मित्र राशि पीड़ित ग्रह से षडाष्टक दोष न बनाती हो। यदि राशि से संबंधित ग्रह का भी इस दोष में ध्यान रखा जाता है तो यह सर्वाधिक प्रभावशाली चयन सिद्ध होगा। मंगल का राहु अथवा गुरु से संबंध न हो और उसकी स्थिति मंगल दोष बना रही हो तो मंगल की राशि की मित्र राशियां देखें। ये कुंडली में मंगल की स्थिति से छठे या आठवें नहीं होनी चाहिए। इन राशियों के स्वामी ग्रहों से संबंधित रत्न मंगल दोष का निवारण करेंगे।

पूर्व की भांति यदि यह भी ध्यान रखा जाए कि संबंधित ग्रह भी मंगल से षडाष्टक दोष न बना रहे हों तो आपका चयन सर्वथा उचित होगा। नाड़ी दोष और रत्न चयन वर-कन्या की जन्मपत्रियों को विवाह हेतु मिलाना केवल एक तथाकथित जन्मपत्रिका मेलापक परंपरा का निर्वाह करना नहीं है। इसका मूल उद्देश्य है भावी दम्पति के गुण, स्वभाव, आचार-व्यवहार, प्रजनन शक्ति, विद्या तथा आर्थिक दशा का मिलान करना जिससे कि दोनों का भावी जीवन सुखमय हो। इस गुण मिलान पद्धति में निम्न बातें होती हैं- वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण मैत्री, भकूट तथा तथाकथित महादोष नाड़ी दोष। क्रम में एक-एक अधिक गुण माने जाते हैं

अर्थात वर्ण का 1, वश्य का 2, तारा का 3, योनि का 4. ग्रह मैत्री का 5. गण मैत्री का 6. भकूट का 7 तथा नाड़ी का 8। इस प्रकार कुल 36 गुण होते हैं। इसमें कम से कम 18 गुण मिलने पर विवाह किया जा सकता है परंतु नाड़ी और भकूट गुण अवश्य होने चाहिए। इन गुणों के बिना 18 गुणों में विवाह मंगलकारी नहीं माना जाता है। यदि वर और वधू की नाड़ी एक होती है तो यह स्थिति दोनों के लिए शुभ नहीं होती है ऐसी ज्योतिष की मान्यता है। कहा तो यहां तक जाता है कि आदि, अन्त्य तथा मध्य तीन प्रकार की नाड़ियों में अंतिम नाड़ी का एक होना दोनों की मृत्यु तक का कारण बनता है। इसीलिए नाड़ी का विवाह मेलापक सारिणी में न मिलना लोगों को भयभीत किए हुए है। यदि विवाह हो गया है और दोनों की नाड़ी एक है और आप इससे भयभीत हैं तो रत्नों का प्रयोग करके अपने भय को दूर कर सकते हैं।

लड़का और लड़की यदि अश्विनी, आद्र्रा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रों में से किसी एक में जन्म लेते हैं तो यह आदि नाड़ी कहलाती है। भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा और उत्तराभाद्रपद में से किसी एक में दोनों जन्म लेते हैं तो यह मध्य नाड़ी है। कृतिका, रोहिणी, आश्लेषा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण अथवा रेवती में दोनों के जन्म लेने पर अन्त्य नाड़ी होती है। लड़के-लड़की दोनों का जन्म यदि एक नक्षत्र में होता है, परंतु उनके चरण भिन्न हैं अर्थात मान लें कि लड़का रोहिणी नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न हुआ है और लड़की तीसरे चरण में, तब यहां नाड़ी दोष नहीं होगा तथा इस प्रयोजन हेतु रत्न धारण कराने की भी आवश्यकता नहीं है। परंतु यदि लड़का-लड़की एक नक्षत्र के एक ही चरण में जन्मे हैं

तो यह नाड़ी दोष का कारण है। यहां आप निम्न प्रकार से रत्न प्रयोग कर सकते हैं, यह उपक्रम नाड़ी दोष निदान में महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। दोनों के नक्षत्र स्वामी ग्रहों की बलाबल स्थिति क्या है? यहां तीन विकल्प हो सकते हैं। Û दोनों ग्रह बलवान हों।

Û दोनो ग्रह बलहीन हों।

Û एक बलवान हो तथा दूसरा बलहीन। यदि दोनों ग्रह बलवान हैं तो आप उन से संबंधित रत्न, उपरत्न अथवा दोनों का प्रयोग कर सकते हैं। मान लें कि दोनों का जन्म ज्येष्ठा नक्षत्र के द्वितीय चरण में हुआ है। ज्येष्ठा का स्वामी ग्रह है बुध। इसलिए यहां लड़का-लड़की दोनों को आप पन्ना अथवा उसका कोई उपरत्न धारण करवा सकते हैं। यदि नक्षत्र स्वामी ग्रह लड़के-लड़की दोनों की जन्मपत्रियों में क्षीण हैं तो दोनों की जन्मपत्रिकाओं में पंचधा मैत्री से उन ग्रहों के मित्र तथा अधिमित्र ग्रह देख लें।

दोनों में से जिसके भी नक्षत्र स्वामी ग्रह से वे ग्रह छठे अथवा आठवें भाव में स्थित हों तो वे ग्रह छोड़ दें। शेष ग्रह के रत्न लड़के तथा लड़की को धारण करना दीर्घायु प्रदान करने वाला तथा सुख-समृद्धि दाता सिद्ध होगा। तीसरी स्थिति में लड़के तथा लड़की के नक्षत्र के स्वामी ग्रह जन्मपत्री में बलवान तथा बलहीन हो सकते हैं। जिसकी पत्री में जो ग्रह बलवान हों उनसे संबंधित रत्न उसे धारण करवा सकते हैं। दोनों में से जिसके ग्रह बलहीन हों उनके पंचधा मैत्री से मित्र ग्रह देखकर यह पता कर लें कि उनमें से उसके नक्षत्र स्वामी ग्रह से वे षडाष्टक दोष तो नहीं बना रहे हैं। यदि नहीं तो उन ग्रह के रत्न आप उसे धारण करवा सकते हैं। मारकेश, मृत्युभय एवं रत्न चयन राजा हो अथवा रंक - मृत्युभय से कोई भी अछूता नहीं है। मृत्यु आनी है तो फिर त्रिदेव भी उसे टाल नहीं सकते। यदि इस पर विजय प्राप्त हो गई होती तो कुबेरपति अथवा धनपति कभी मरते ही नहीं। क्या है यह भयभीत करने वाला मारकेश? ज्योतिष में वे कौन-कौन से अरिष्टकारी योग बनते हैं

जो मारण करते हैं अथवा मरण तुल्य कष्ट देते हैं? ये पूर्णतया ज्योतिष शास्त्र के विषय हैं। संक्षिप्त में यह जान लें कि मृत्यु का निर्णय करने के लिए मारक का ज्ञान करना आवश्यक है। तदनुसार ही रत्नादि चयन करना उचित है। ज्योतिष में लग्नेश, षष्ठेश, अष्टमेश, गुरु तथा शनि से मारकेश का विचार होता है। अष्टमेश बलवान होकर यदि पहले, चैथे, छठे, दसवें अथवा 12वें भाव में हो तो मारक बन जाता है। पूर्व की भांति ऐसे में अष्टमेश के मित्र ग्रहों को पंचधा मैत्री सूची से ज्ञात कर लें। यह देख लें कि जहां अष्टमेश स्थित है वे ग्रह उससे षष्ठम-अष्टम भावगत न हों, न ही उनकी राशि इन भावों में पड़ती हो। उन ग्रहों के रत्न आप मारकेश के प्रभाव को कम करने के लिए धारण कर सकते हैं। यहां विशेष रूप से यह ध्यान रखें कि अन्य किसी विधि से यदि बलवान अष्टमेश का रत्न निकल रहा हो तो वह कदापि धारण न करें अन्यथा वह प्रबल मारकेश बन जाएगा। मारक ग्रह का प्रभाव अष्टमेश ग्रह की अंतर्दशा में प्रभावी होता है, इसलिए उस दशा में यत्न करके वह रत्न अवश्य जुटा लें। शनि षष्ठेश तथा अष्टमेश होकर यदि लग्नेश को देखता है तो लग्नेश ही मारक हो जाता है।

ऐसी स्थिति में लग्नेश को, यदि वह बली है, उसके रत्न से बलवान करना होगा। परंतु यदि लग्नेश ऐसे में बली नहीं है तो पूर्व की भांति उसके मित्र ग्रहों में जो बलवान ग्रह हो तथा लग्नेश से छठे या आठवें भी न हो तो संबंधित रत्न धारण करवाना बुद्धिमानी होगी। पराशर के मत से जन्मकुंडली में द्वितीय और सप्तम भाव मारकेश हैं तथा इन दोनों के स्वामी - द्वितीयेश, सप्तमेश, द्वितीय और सप्तम में रहने वाले पाप ग्रह एवं द्वितीयेश और सप्तमेश के साथ रहने वाले पाप ग्रह-मारकेश हो जाते हैं जैसा कि पूर्व में लिखा है।

पाप ग्रह मारकेश यदि बली है तब उसके रत्न-उपरत्न अथवा रोगादि से सर्वथा बचें। अन्यथा यह प्रबल मारकेश बन जाते हैं। यहां उनके मित्र ग्रहों के रत्न पूर्व की भांति ही प्रयोग करने चाहिए। शनि मारकेश से भी दो हाथ आगे है, इसीलिए सब इससे भयभीत रहते हैं। प्रबल मारक शनि का रत्न, छल्ला, कड़ा आदि ऐसे में कदापि प्रयोग न करें। सुरक्षा की दृष्टि से शनि के मित्र ग्रहों में से पूर्व की भांति छांटकर उनके रत्न, रंग आदि चयन करें। द्वादशेश पापग्रह हो तो मारक बन जाता है।

पापग्रह षष्ठेश हो अथवा पाप राशि में षष्ठेश स्थित हो या पापग्रह से दृष्ट हो तो षष्ठेश की दशा मारक हो जाती है। मारकेश की दशा में षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश की अंतर्दशा भी मारक होती है। मारकेश यदि अधिक बलवान है तो उसकी ही दशा अथवा अंतर्दशा में मरण अथवा मरण तुल्य कष्ट होता है। राहु-केतु पहले, सातवें, आठवें अथवा 12वें भाव में हांे अथवा मारकेश से सातवें भाव में हों अथवा मारकेश के साथ हों तो मारक बन जाते हैं। मकर और वृश्चिक लग्न वालों के लिए राहु मारक बन जाता है। शनि का भूत और रत्न चयन जातक ग्रंथों में शनि की साढ़े साती और ढइया का अलग-अलग तरीके से वर्णन है।

इसकी गणना चलित नाम से, लग्न से, चंद्र से तथा सूर्य से की जाती है। एक व्यक्ति के जीवन में अधिक से अधिक साढ़े 22 वर्ष साढ़े साती में निकल जाते हैं। कहते हैं साढ़े साती में जातक उन्नति नहीं कर पाता और उसे दुख, कलह तथा बीमारी आदि निरंतर घेरे रहते हैं। यदि शनि उच्च का हो और उसकी साढ़े साती प्रारंभ हो जाए तो व्यक्ति चहुदिश हानि प्रारंभ हो जाती है। सामान्यतः शनि की साढ़े साती का विचार जन्मपत्री में चंद्रमा की स्थिति से किया जाता है। गोचरवश भ्रमण करता हुआ शनि जब चंद्रमा से द्वादश भाव में प्रवेश करता है तो यह शनि की साढ़े साती का प्रारंभ कहलाता है। चंद्रमा से तीसरी राशि को जब शनि पार करता है तो साढ़े साती का अंत माना जाता है। इस प्रकार हर राशि पर ढाई-ढाई वर्ष भ्रमण करता हुआ चंद्र की राशि सहित उसके आगे और पीछे स्थित रहता है।

चंद्रमा से चैथी तथा आठवीं राशियों में जब शनि गोचरवश ढाई-ढाई वर्ष स्थित रहता है तो यह शनि की ढइया कहलाती है। शनि के इन गोचरवश स्थित स्थानों को लोगों ने शनि का भूत, शनि का प्रकोप, दारिद्र्य और आरोग्य से जोड़कर एक अज्ञात भय बैठा दिया है। यह उचित नहीं है। शनि के तथाकथित इन दिनों में सामान्यतः शनि का रत्न नीलम, उपरत्न, लोहे का छल्ला अथवा कड़ा पहनने का चलन है। यह चयन ठीक है परंतु प्रत्येक व्यक्ति के लिए नहीं। सदैव ध्यान रखें कि यम-नियम प्रत्येक व्यक्ति पर सटीक बैठें, यह आवश्यक नहीं है। किसी भी रूप में निदान के समय सामान्य नियमों के स्थान पर व्यक्ति विशेष के अनुरूप नियम खोज करके ही आगे बढ़ना चाहिए। साढ़े साती में रत्न धारण करवाते समय ध्यान रखें कि धारण किए गए रत्न का कैसा भी संबंध उसके गोचर भाव से छठे अथवा आठवें से न हो। भाग्य प्रदायक दिशा एवं रत्न चयन यदि आपको अपना जन्म लग्न ज्ञात है तब तो ठीक है अन्यथा अपने नाम के प्रथम अक्षर की राशि को लग्न मानकर लग्न कुंडली तैयार करें। मान लें आपका नाम राम है और आपकी नाम राशि तुला बनती है

 कुंडली में आप देखिए कि दूसरे, नौवें तथा ग्यारहवें भावों में कौन-कौन सी राशियां हैं और वे राशियां किन-किन दिशाओं अथवा विदिशाओं की सूचक हैं। उदाहरण के लिए इन भावों में क्रमशः वृश्चिक, मिथुन तथा सिंह राशियां हैं और वह उत्तर, पश्चिम तथा पूर्व दिशाओं की कारक हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अपने वर्तमान स्थान से यदि आप इन दिशा-विदिशाओं में पड़ने वाले गांव, शहर आदि में प्रवास करते हैं तो आपके भाग्य में उत्तरोत्तर उन्नति की संभावना बढ़ सकती है। यह बात अवश्य ध्यान में रखें कि यह चयन बहुत ही साधारण सा सूत्र है, शुभ फल की प्राप्ति के लिए अन्य ज्योतिषीय घटकों का आपके लिए अनुकूल होना भी परमावश्यक है। लाभ देने वाले घटकों में एक विकल्प उचित रत्न चयन भी हो सकता है।


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इन राशियों के रत्न, उपरत्नादि यदि परस्पर मित्र हैं तो आपके लिए भाग्यशाली सिद्ध हो सकते हैं। यदि तीन रत्नों का संयोग न मिल पाए तो यह देखें कि कौन से दो रत्न परस्पर मित्र हैं। यदि यह संयोग भी नहीं मिल रहा है तो आप राशियों के अन्य मित्र राशियों के रत्न चयन करें। अन्य मित्र राशियों का चयन करते समय षडाष्टक दोष का ध्यान अवश्य रखें अर्थात वे राशियां छठे, आठवें भाव में परस्पर न हों। यदि मित्र राशियों से भी रत्न चयन न हो पा रहा हो तो आप नवम भावगत राशि के अनुरूप एक अकेला रत्न भी धारण कर सकते हैं।



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