रोग भगाएं रत्न

रोग भगाएं रत्न  

विजय कुमार सूद
व्यूस : 6707 | फ़रवरी 2006

रत्न केवल भाग्योदय कारक ही नहीं होते अपितु स्वास्थ्य रक्षा तथा रोगोपचार में भी इनका महत्व है क्योंकि रत्न भी उन्हीं तत्वों और यौगिकों के सम्मिश्रण से बने हैं जिनसे मानव देह और ब्रह्मांड। अपने यौगिकों के अनुसार ही इन रत्नों का रंग होता है। अपनी आकर्षण एवं विकर्षण शक्तियों के द्वारा शरीर में विभिन्न तत्वों का संतुलन बनाए रखने में ये सक्षम होते हैं तथा जिस तत्व (दोष या मल) की वृद्धि से शरीर में विकृति (रोग) उत्पन्न हुई हो उसे नियंत्रित करते हैं। रत्न धारण से स्वास्थ्य लाभ और रोगोपचार तो होता ही है, आयुर्वेद में भी विभिन्न रत्नों की भस्म आदि के द्वारा रोगी का उपचार होता है। रत्न धारण में रत्नों के द्वारा विभिन्न रंगों की बह्मांडीय ग्रह रश्मियों, किरणों को शरीर में प्रविष्ट कराकर विसर्जित किया जाता है, क्योंकि रत्न इसके सशक्त माध्यम हैं।


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विद्वानों ने विभिन्न रत्नों का स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है और किस रत्न से किस रोग की शांति होती है इस पर व्यापक अनुसंधान किया है। माणिक्य, पद्मराग या याकूत: यह सूर्य का रत्न है। वैसे तो सूर्य में सातों रंग हैं, लेकिन लाल रंग मुख्य है। इसीलिए नंगे वदन सूर्य स्नान (प्रातः काल) स्वास्थ्यवर्द्धक माना गया है। माणिक्य शरीर में सभी धातुओं को पुष्ट कर उसे स्वस्थ रखता है, जीवनी शक्ति बढ़ा कर दीर्घायु प्रदान करता है। रक्त को बढ़ाने वाला और आत्मशक्ति तथा आत्मविश्वासदायक है।

हृदय रोग, विशेषकर उच्च रक्तचाप, में माणिक्य धारण करना अत्यंत लाभकारी है। नेत्र दोष में भी, यदि गर्मी से बढ़ता हो, तो लाभकारी है। यह साहस बढ़ाता है। आयुर्वेद के अनुसार नपुंसकता, धातुक्षीणता, हृदयरोग, मन्दाग्नि, क्षय, जननेन्द्रिय की शिथिलता, रक्ताल्पता, तथा पांडुरोग (पीलिया) में विशेष लाभदायक है तथा बल-वीर्यवर्धक है। रक्ताल्पता की महौषधि है। नाड़ी की गति बढ़ाता है और शरीर को रोग से लड़ने की शक्ति देता है।

मोती, मुक्ता या मोतिया: इसका मुख्य कार्य मन तथा मस्तिष्क को नियंत्रित करना है, अतः यह मन और मस्तिष्क के रोगियों के लिए अत्यंत उपयोगी है। नेत्र दोष में भी (यदि शीत से रोग बढ़ता हो) यह विशेष लाभकारी है। मूच्र्छा, मिरगी, दंतरोग, पायरिया, हृदय रोग, कम्पवायु, श्वास रोग, कफज रोग, क्षय, खांसी इत्यादि में विशेष लाभदायक है। यह वीर्यवर्द्धक है तथा मूत्रदोष में भी लाभकारक है। यह कैल्शियम को बढ़ाता है।

चंद्रमा के समान ही शीतलता और शांतिदायक है। मूंगा, प्रवाल या मिरजान: इस का मुख्य कार्य रक्त दोष निवारण है। दूषित रक्त को शुद्ध करना, विष को दूर करना, घाव, चोट, फोड़ा-फुंसी आदि के क्षत चिह्नों को शीघ्र पूरा करना, रक्त स्राव को नियंत्रित करना, गर्भ स्राव को रोकना, मासिक धर्म को नियमित करना, आदि इसके मुख्य कार्य हैं। कैंसर तथा रक्त कैंसर में यह विशेष प्रभावकारी है। शरीर की कांति को बढ़ाता है और भूख जगाता है।

आयुर्वेद के अनुसार विषम ज्वर (मलेरिया) में यह ताप को शांत करता है। कफ विकार, पित्त विकार, दाह, उन्माद, भूतबाधा, रक्तचाप, हृदय रोग, नेत्र विकार, क्षय, कुक्कुरखांसी, चेचक, खसरा आदि से बचाव में विशेष लाभकारी है। वर्ण चिकित्सा पद्धति के अनुसार सिंदूरी रंग अर्थात देशी मूंगा गुर्दे तथा कर्मेंद्रिय को उत्तेजित करता है जबकि नारंगी रंग रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। ऐंठन, जकड़न में लाभदायक है। कैल्शियम चयापचय में अभिवृद्धि तथा फेफड़े, अग्न्याशय (पैंक्रियाज) एवं प्लीहा को सशक्त बनाता है। नाड़ी की गति बढ़ाता है किंतु रक्त चाप को नियंत्रित रखता है।

पन्ना, मरकत, ताक्ष्र्य, मारूत्मत या जमूरन: पन्ने के तत्व शरीर में बढ़ जाने से पिट्युइटरी ग्रंथि और मांसपेशियों पर कुप्रभाव पड़ता है। पन्ना हृदय में उत्तम और शुद्ध भावनाओं को जन्म देता है। मानसिक तनाव से मुक्ति दिलाना और रक्त धमनियों का विस्तार इसका मुख्य कार्य है। त्वचा, मांस, बालों, नसों, हड्डियों पर इस का विशेष रूप से प्रभाव पड़ता है और इन्हें पुष्ट कर के शरीर को शक्तिशाली बनाने में सहायक होता है।

इसके साथ ही त्वचा रोग (चर्मरोग), नसों के दोष, हड्डी के रोग, मांस के विकार (कुष्ठ), बालों के गिरने, टूटने, सफेद होने आदि से बचाव में लाभकारी है। फिरोजी रंग का पन्ना अथवा फिरोजा त्वचा में होने वाले किसी भी रोग से बचाव में लाभकारी है। साइनुसाइटिस के उपचार में उपयोगी है। पन्ना पित्त रोग से बचाव में भी लाभकारी है।

आयुर्वेद के अनुसार यह सन्निपात ज्वर, विषविकार, वमन, प्यास, अम्लपित्त, पांडु, मलावरोध, शोथ, मंदाग्नि, हृदय रोग, स्मरणशक्ति की कमी आदि से मुक्ति में लाभकारी है। गरुड़ महापुराण के अनुसार जो विष किसी औषधि या मंत्र से दूर न हो, वह इससे दूर होता है। पुखराज या पुष्पराग: यह भी मानसिक रोगों में विशेष रूप से लाभदायक है। बुद्धि तथा विद्या एवं विवेक शक्ति बढ़ाने में यह परम उपयोगी है।

मन मस्तिष्क में अकारण एवं निरर्थक उपजने वाले भय, भ्रम, संशय, मोह और -भूत-प्रेत बाधा, जादू-टोना आदि के संशय एवं चिंता से मुक्ति में यह अत्यंत लाभकारी है। यह रत्न यदि हल्के रंग में हो तो मस्तिष्क के सेरिब्रल भाग को अनुप्राणित करने वाला तथा अम्ल, पित्त शामक होता है। गहरे रंग का पुखराज मोटर तंत्रिकाओं की क्रियाशीलता बढ़ाने, मांसपेशियों को मजबूत बनाने और पाचन संस्थान को नियंत्रित करने में भी लाभकारी होता है। यह मांस बढ़ाने वाला और मांस दोष से मुक्ति में लाभकारक है।


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पुखराज की ग्रह रश्मियों (पीली) की वृद्धि होने पर पित्त दोष के बढ़ने, आंतों और पाचन क्रिया की प्रणाली में गड़बड़ी उत्पन्न होने, सन्निपात तथा हृदय रोग (उच्च रक्तचाप) बढ़ने की संभावना होती है। आयुर्वेद के अनुसार पुखराज विषविकार, वमन, कफ, वात, मंदाग्नि, दाह, कुष्ठ, बवासीर में लाभदायक है। कीटाणुनाशक, पित्तवर्धक, जठराग्नि उद्दीपक एवं बुद्धि-वीर्यवर्द्धक है।

हीरा, वज्र या अलिमास: हीरे का सर्वाधिक प्रभाव वीर्य, प्रजनन अंगों एवं संबंधित रोगों, स्त्री रोगों (स्वप्नदोष, प्रमेह, प्रसूति, नपुंसकता, मूत्र दोष आदि) पर पड़ता है। रक्त, लार, मज्जा और शुक्र को पुष्ट करने तथा इनसे संबंधित रोगों के निवारण में यह विशेष सहायक है। नेत्र और मस्तिष्क रोगों से मुक्ति में भी लाभदायक है। हीरे के पुरुष, स्त्री, नपुंसक नाम से भी तीन भेद हैं। बड़े आकार का गोल हीरा पुरुष संज्ञक और उत्तम होता है।

षट्कोण का हीरा स्त्री संज्ञक होता है। तिकोना तथा बड़े आकार का हीरा नपुंसक कहलाता है। आयुर्वेद के अनुसार हीरा शरीर को पुष्ट करता है। यह बलवर्धक, कामोत्तेजक और वात, पित्त, कुष्ठ, क्षय, भ्रम, कफ, शोथ, प्रमेह, भगंदर तथा पांडुरोग (पीलिया) से बचाव में लाभदायक है। सुप्रसिद्ध ज्योतिर्विद आचार्य वराहमिहिर ने पुत्र की कामना करने वाली महिलाओं को हीरा धारण न करने की सलाह दी है।

कुछ विद्वानों के मत से स्त्रियों को पुत्र की कामना से त्रिकोण या सिंघाड़े के आकार का हीरा पहनना चाहिए। कुछ विद्वानों के अनुसार हीरा धारण करने से युद्ध में विजय, शत्रु वशीकरण, तेज में वृद्धि, सुख, विद्या लाभ और संपत्ति आदि लाभ होते हंै।

बिजली का भय नहीं होता, अकाल मृत्यु नहीं होती, जादू टोने का प्रभाव नहीं होता, मिरगी में लाभ होता है। विषैले जीवों का भय कम होता है। नीलम, नीलमणि, दाक्षायण, नीलाविल याकूत: नीलम का मुख्य प्रभाव शरीर के संचालन पर पड़ता है। नीलम के तत्व शरीर में ऐसे कारण है

- जिस के कारण ही मानव शरीर के अवयवों को हिलाडुला सकता है एवं शरीर में ऐसी सामथ्र्य रहती है जिस के तत्व की कमी से शरीर अपंग एवं अशक्त हो जाएगा। मिरगी, पक्षाघात, पोलियो, वात, रक्तचाप (अल्प) से बचाव में यह परम लाभकारी है। यह नेत्र ज्योति भी बढ़ाता है।

यह शरीर में चयापचय को बढ़ाता है। मस्तिष्क की उच्चतम स्थिति अर्थात अंतप्र्रज्ञा को जगाता है। त्वचा के जलने में आराम देता है। जामुनी और बैंगनी रंग का नीलम (व इसका उपरत्न लाजवर्त) रक्त कोशिकाओं के शोधन में और पोटैशियम की मात्रा को संतुलित रखने में सहायक होता है। तीव्र भूख लगने के रोग से बचाव में लाभदायक है।

ट्यूमर को रोकने में भी यह सहायक है। आयुर्वेद के अनुसार खांसी (कफ ज्यादा) दमा, मलेरिया सन्निपात, शुक्राणु दोष बवासीर आदि से मुक्ति में भी लाभकारी है।

गोमेद, सीलोबी, मेदक या गोमेदकः यह निरर्थक भय, मानसिक तनाव, अशांति और घबराहट से मुक्ति में फायदेमंद है। अकारण भयभीत एवं उद्विग्न रहने वाले लोगों के लिए यह लाभकारी है। पोटैशियम का संतुलन बनाए रखने और ट्यूमर के विकास को रोकने में भी सहायक है।


Book Navratri Maha Hawan & Kanya Pujan from Future Point


यह पेट के कीड़े, भगंदर, वायुगोला, सूखी खांसी, क्षय, रक्ताल्पता, पीलिया तथा मंदाग्नि में लाभ करता है। गुर्दा रोग, पथरी, मिरगी और पेट के अल्सर में परम उपयोगी है।

लहसुनिया, सूत्रमणि, वैदूर्य: यह शत्रुनाशक, अस्त्र-शस्त्र से रक्षा करने वाला और आत्मशक्तिदायक है। इसके धारण से भूत-प्रेत बाधा और जादू-टोने का प्रभाव नहीं होता है। मन और मस्तिष्क के रोगों में भी यह लाभदायक है।



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